बी एड - एम एड >> वाणिज्य शिक्षण वाणिज्य शिक्षणरामपाल सिंहपृथ्वी सिंह
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बी.एड.-1 वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक
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वाणिज्य शिक्षा का पाठ्यक्रम
(SYLLABUS OF COMMERCE EDUCATION)
पाठ्यक्रम का अर्थ
वाणिज्य एक सामाजिक शास्त्र है। सभी सामाजिक शास्त्र उद्देश्यपूर्ण होते हैं।
इसकारण वाणिज्य के भी कुछ उद्देश्य हैं। वाणिज्य-शिक्षण का ध्येय इन
उद्देश्यों या लक्ष्योंको ही प्राप्त करना है। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के
लिए सुनियोजित व्यवस्था कीआवश्यकता पड़ती है। यह सुनियोजित व्यवस्था ही
पाठ्यक्रम कहलाती है। निश्चित पाठ्यक्रम के अभाव में लक्ष्यों की प्राप्ति
असम्भव है। एक प्रकार से पाठ्यक्रम लक्ष्यों कोप्राप्त करने का एक साधन
(Means) है।
पाठ्यक्रम आंग्ल-भाषा के करीकूलम (Curriculum) शब्द का अनुवाद है।'करीकूलम'
शब्द लैटिन भाषा से आंग्ल-भाषा में आया। लैटिन भाषा में करीफूलम काअर्थ है,
'दौड़ का मैदान (Race Course)। इस अर्थ से शिक्षा में पाठ्यक्रम का अर्थ
हुआ'शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति करने का साधन, एक मार्ग। हॉर्न (Home)
महोदय ने शिक्षाप्रक्रिया के चार अंगों-शिक्षार्थी, पाठ्यक्रम, शैक्षिक
वातावरण तथा शिक्षक का उल्लेखकिया है। यदि पाठ्यक्रम को शैक्षिक दौड़
(Educational Race) के मैदान के रूप में लेंतो कह सकते हैं कि शिक्षार्थी
दौड़ने वाला व्यक्ति है। पाठ्यक्रम वह मार्ग जिसकेअनुसार उसे दौड़ना है।
शैक्षिक पथ-प्रदर्शक है। वास्तव में पाठ्यक्रम कलाकार'(शिक्षक) के हाथ में एक
साधन है जिससे वह अपने पदार्थ (शिक्षार्थी) को अपने आदर्श(उद्देश्य) के
अनुसार अपने कलागृह (शिक्षालय) में चित्रित करता है।
क्रो तथा क्रो (Crow and Crow) ने पाठ्यक्रम की परिभाषा देते समय
लिखाहै-“पाठ्यक्रम शिक्षार्थी के समस्त अनुभवों को जो उसे विद्यालय में या
विद्यालय सेबाहर प्राप्त होते हैं और जो एक ऐसे प्रोग्राम में होते हैं जिसका
निर्माण उसके मानसिक,शारीरिक{संवेगात्मक, सामाजिक, आध्यात्मिक तथा नैतिक
विकास में सहायता देने हेतुहोता है. कहते हैं।
मुदालियर कमीशन सन् 1952 ने अपनी रिपोर्ट में पाठ्यक्रम की परिभाषा
अत्यन्तस्पष्ट तथा व्यापक रूप से की है। लिखा है- पाठ्यक्रम से तात्पर्य
परम्परागत ढंग सेविभिन्न विषयों का व्यवस्थित ज्ञान कराना ही नहीं है वरन यह
तो अनुभवों की योग्यता(Totality) है। इस योग्यता को छात्र विद्यालय, कक्षा,
पुस्तकालय, प्रयोगशाला, क्रियालय क्रीडांगन इत्यादि में चलने वाली अनेक
क्रियाओं तथा शिक्षक के साथ स्थापितअनेक अनौपचारिक सम्पर्को से प्राप्त करता
है। इस प्रकार सम्पूर्ण विद्यालय कावातावरण ही पाठ्यक्रम बन जाता है और वह
पाठ्यक्रम छात्रों के जीवन के प्रत्येकपहलू को स्पर्श करता है एवं उनके
व्यक्तित्व को सन्तुलित करता है।
पाठ्यक्रम के उद्देश्य (Aims of Curriculum)-वाणिज्य के पाठ्यक्रम का
उद्देश्यवाणिज्य में छात्रों को प्रशिक्षण प्रदान करना है। इसके लिए विद्यालय
की विभिन्न कक्षाओंके लिए एक ही स्तर का पाठ्यक्रम निर्धारित करना अनुचित एवं
अमनोवैज्ञानिक है।विद्यालय में विभिन्न स्तरों के लिए पृथक्-पृथक् पाठ्यक्रम
होना अत्यन्त आवश्यक है। इनविभिन्न स्तरों के लिए भी पृथक-पृथक पाठ्यक्रम
निर्धारित करते समय हमें उन विभिन्नउद्देश्यों को सदैव ध्यान में रखना चाहिए
जो हमें प्राप्त करने हैं। एक अच्छा पाठ्यक्रमसदैव इन उद्देश्यों को ध्यान
में लिये रहता है। एक अच्छे पाठ्यक्रम में निम्नांकित उद्देश्यनिहित रहते
हैं।
(1) पाठ्यक्रम का उद्देश्य छात्रों का चतुर्मुखी विकास करना होता है।
(2) पाठ्यक्रम का उद्देश्य छात्रों की रुचि, योग्यता तथा क्षमताओं का
विकासकरना होता है।
(3) पाठ्यक्रम का उद्देश्य धर्म-निरपेक्षता एवं प्रजातन्त्र की भावना का
विकासकरना होता है।
(4) पाठ्यक्रम का उद्देश्य कतिपय सामाजिक गुणों तथा ईमानदारी, सत्यता,सद्भाव
आदि का विकास करना होता है।
(5) पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिसके द्वारा छात्र अपने जीवन के मूल्यों
कानिर्माण करना स्वयं सीख जाये
(6) पाठ्यक्रम को छात्रों की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास करना चाहिए।
(7) पाठ्यक्रम का उद्देश्य सुनागरिकों का निर्माण करना होना चाहिए।
वाणिज्य का पाठ्यक्रम निर्माण करने के मूलभूत सिद्धान्त
वाणिज्य के पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय निम्नांकित सिद्धान्तों को ध्यान
मेंरखना चाहिए-
(1) प्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of Motivation) पाठ्यक्रम प्रेरणात्मक
होनाचाहिए। यदि पाठ्यक्रम स्वयं ही छात्रों को कुछ सीखने के लिए प्रेरित नहीं
करता है तोवह कभी भी अपने वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकता है।
पाठ्यक्रम उस समयतक छात्रों को प्रेरणा प्रदान नहीं कर सकता है, जब तक वह
छात्रों की रुचि, योग्यताएवं क्षमताओं पर आधारित न हो। इसके अतिरिक्त
पाठ्यक्रम को मनोवैज्ञानिक भी होनाआवश्यक है। ऐसे पाठ्यक्रम की रचना केवल
बाल-मनोवैज्ञानिक (Child Psychologist)ही कर सकता है। यदि पाठ्यक्रम इन
सिद्धान्तों की अवहेलना करता है तो छात्र पाठमें कोई रुचि नहीं लेंगे। कक्षा
में छात्र शिक्षक के भय से शान्त बैठा रहेगा, परन्तु वहकभी भी कक्षा शिक्षण
में सक्रिय भाग नहीं लेगा। वह एक श्रोतामात्र ही रह जाएगा। वहकक्षा कार्य से
ऊब अनुभव करेगा और इस प्रकार छात्र तथा विद्यालय के मध्य एकगहरी दरार पड़
जाएगी जो कभी भी पूरी नहीं हो सकती है।
(2) व्यापकता का सिद्धान्त (Principle of Broadness)---पाठ्यक्रम व्यापक
होनाचाहिए। पाठ्यक्रम पुस्तकों, कक्षा तथा पुस्तकालयों तक ही सीमित नहीं रहना
चाहिए।वाणिज्य विषय के ज्ञान का अर्जन करना केवल पुस्तकों तथा कक्षा-शिक्षण
तक हीसीमित नहीं रहना चाहिए, जैसा परिभाषा में पहले ही व्यक्त कर दिया गया है
किवाणिज्य विषय का ज्ञान सम्पूर्ण शैक्षणिक वातावरण से अर्जित कराने की
व्यवस्था होनीचाहिए। व्यापकता को हम यहाँ दूसरे दृष्टिकोण से भी विवेचित कर
सकते हैं। पाठ्यक्रमसंकुचित विचारधाराओं पर कभी भी आधारित नहीं होना चाहिए।
पाठ्यक्रम इस प्रकारनिर्मित करना चाहिए कि उससे किसी की भावनाओं तथा धर्म पर
आघात न लगे एवंउसके द्वारा किसी पर कटाक्ष न हो। इस प्रकार के पाठ्यक्रम
द्वारा छात्रों का दृष्टिकोणभी व्यापक बनेगा।
(3) क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Activity)-पाठ्यक्रम क्रियाप्रधान
(ActivityCentred) होना चाहिए। बच्चे करके सीखते हैं। करके सीखना' (Learning
by Doing)आज अपनी श्रेष्ठता प्राप्त कर चुका है। जिस ज्ञान को छात्र हाथ
द्वारा क्रिया सम्पादितकरके सीखता है, वह ज्ञान अधिक स्थायी तथा प्रभावशाली
होता है। इसके अलावामनोविज्ञान हमें बतलाता है कि बच्चे स्वभावतः ही
क्रियाशील होते हैं। यदि बालकों कीइस क्रियाशीलता को सामाजिक दृष्टिकोण से
उपयोगी कार्यों में प्रयोग न किया गया तोहो सकता है, अपनी क्रियाशीलता के
कारण अबोध बालक असामाजिक कार्य कर बैठे।यदिपाठ्यक्रम बालकों की सक्रियता को
उचित कार्यों में व्यय कराने में सफल हो जाताहै तो पाठ्यक्रम सार्थक समझा
जाएगा। इस दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं किपाठ्यक्रम में क्रियाशीलता को
पूरा-पूरा स्थान मिलना चाहिए।
(4) जीवन से सम्बन्धित होने का सिद्धान्त (Principle of Linking with
Life)-छात्रों में किसी विषय के प्रति रुचिं उत्पन्न करने के लिए तथा किसी
विषय को अधिकआकर्षक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि पाठ्यक्रम द्वारा
विषय-वस्तु को जीवन सेसम्बन्धित कर दिया जाए। छात्र पाठ्यक्रम में उसी समय
अधिक रुचि लेंगे जब वहउनके जीवन से सम्बन्धित कर दी जाये, क्योंकि यह एक
प्रामाणिक सत्य है कि जोवस्तु हमारे जीवन से सम्बन्धित होती है, उसके बारे
में हम अधिक से अधिक जानने कीचेष्टा करते हैं तथा उसमें हमारी अधिक रुचि हो
जाती है। इस दृष्टिकोण से यदि हमपाठ्यक्रम में ऐसे तथ्य सम्मिलित करते हैं जो
छात्रों के जीवन से सम्बन्धित है, तो अच्छारहेगा। वाणिज्य के पाठ्यक्रम का
निर्माण करते समय इस सिद्धान्त को सदैव ध्यान मेंरखना चाहिए।
(5) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle ofUtility) ऐसा ज्ञान जो हमारे जीवनके
लिए उपयोगी नहीं है व्यर्थ होता है। ठीक इसी तरह वह अध्ययन सामग्री जिससे
हमकोई लाभ न उठा सके, व्यर्थ होती है। व्यर्थ चीज के लिए परिश्रम करना भी
बेकार होताहै। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम
ऐसा बनाया जाएजो छात्रों को जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करे। छात्रों को ऐसा
ज्ञान प्राप्त होना चाहिएजिसको वे अपने व्यावहारिक जीवन में लाभकारी रूप से
प्रयोग कर सके। इसकेअतिरिक्त जब छात्र किसी विषय की उपयोगिता जान लेते हैं तो
उसके प्रति उनकी रुचि एवं प्रेरणा स्वतः ही जागृत हो जाती है। अतः पाठ्यक्रम
बनाते समय सदैव ध्यान रखनाचाहिए कि पाठ्यक्रम उपयोगी हो।
(6) जनतान्त्रिक सम्बन्धों का सिद्धान्त (Principle of Democratic
Concepts)-पाठ्यक्रम प्रजातन्त्र के सिद्धान्त पर आधारित होना चाहिए, क्योंकि
वर्तमान युग जनतन्त्रका युग है। जनतन्त्र की सफलता देश के सुनागरिकों पर ही
निर्भर है। छात्र ही भावीनागरिक है। अतः पाठ्यक्रम ऐसा बनाना चाहिए जो
छात्रों को एक जनतन्त्र देश केसुनागरिकों के लिए आवश्यक गुणों से अवगत कराये
और उनमें कुछ आवश्यकसद्गुणों जैसे सहयोग, सहानुभूति, सहिष्णुता, ईमानदारी,
समानता और भातृत्व कीभावना का विकास करे।
((7) संरक्षणता व हस्तान्तरण का सिद्धान्त (Principle of Preservation
andTransmission) प्रत्येक समाज की अपनी स्वयं की एक संस्कृति होती है।
प्रत्येकसमाज की अपनी-अपनी परम्परायें, रीति-रिवाज तथा चाल-चलन एवं
मान्यतायें होती हैं।इन्हीं के कारण समाज का अपना पृथक् अस्तित्व होता है।
यदि समाज से समाज कीपरम्परायें आदि विलीन हो जायें तो समाज भी समाप्त हो
जायेगा। इसलिए समाज कोअपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए यह आवश्यक हो जाता है
कि वह अपनी संस्कृति,परम्पराओं तथा मान्यताओं को बनाये रखे। इसके लिए समाज
शिक्षा की व्यवस्था करउसे यह कार्य सौंप देता है। समाज शिक्षा से यह आशा करता
है कि वह समाज कीसंस्कृति व सभ्यता को बनाये रखेगी। यदि शिक्षा ऐसा नहीं कर
पाती है तो समाज इसशिक्षा को सहन न करे सकेगा। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि
शिक्षा स्वयं अपनेअस्तित्व के लिए छात्रों को समाज की प्राचीन सभ्यता,
संस्कृति व गौरव का पाठ पढ़ाये।पाठ्यक्रम निर्माण करते समय हमें ध्यान रखना
चाहिए कि पाठ्यक्रम में सभ्यता वसंस्कृति के पाठ की पूरी-पूरी व्यवस्था हो।
(8) समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Correlation) हम अपने इस छोटे सेजीवन
में अनेक प्रकार के ज्ञान प्राप्त करते हैं और ये ज्ञान एक-दूसरे से घनिष्ठ
रूप सेसम्बन्धित होते हैं। यह सब शारीरिक एवं मानसिक रचना के कारण होता है।
पाठ्यक्रमका निर्माण भी इसी शारीरिक व मानसिक रचना के आधार पर होना चाहिए।
पाठ्यक्रमइस प्रकार बनाना चाहिए कि वह विभिन्न ज्ञानों को सम्बन्धित कराने
में सहायक हो।इससे ज्ञान सरल, सुगम तथा स्पष्ट हो जायेगा। एक विषय का सीधा
सम्पर्क दूसरेविषय से स्थापित करने की चेष्टा पाठ्यक्रम में होनी चाहिए।
इन सिद्धान्तों के अतिरिक्त भी अनेक विद्वानों ने पाठ्यक्रम निर्माण के विभिन्नसिद्धान्तों की विवेचना करते हुए अपने अलग कुछ सिद्धान्तों का उल्लेख किया है, केवलसिद्धान्तों के नाम की संख्या ही बढ़ायी गयी है। इन सिद्धान्तों में चयन का सिद्धान्त,आधुनिकता का सिद्धान्त, विवेचन शक्ति का सिद्धान्त, अवकाश के समय का सदुपयोगका सिद्धान्त आदि प्रमुख हैं।
वाणिज्य के वर्तमान पाठ्यक्रम के दोष
भारत में प्रचलित वाणिज्य के वर्तमान पाठ्यक्रम का विश्लेषण यदि हम
उपरोक्तवर्णित के अनुसार करें तो पाठ्यक्रम निर्माण के विभिन्न सिद्धान्तों
की पूर्णरूपेण अवहेलना की गयी है। इस कारण वाणिज्य के वर्तमान पाठ्यक्रम में
अनेक दोधों का समावेश होगया है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से यदि हम दोषों का अध्ययन करें तो पायेंगे कि ये दोषकेवल
आधुनिक पाठ्यक्रम में ही व्याप्त हैं, ऐसी बात नहीं है। ये दोष तो वास्तव में
तभीसे चले आ रहे हैं जब से वर्तमान शिक्षा का प्रारम्भ हुआ। भारत में
शिक्षासुधार केदृष्टिकोण से गठित प्रायः सभी कमीशनों तथा कमेटियों ने
पाठ्यक्रम की तीव्रआलोचनायें की हैं और पाठ्यक्रम के सुधार हेतु सुझाव
प्रस्तुत किये हैं, किन्तु बड़े खेदके साथ लिखना पड़ता है कि इस ओर कोई ठोस
कदम अभी तक नहीं उठाये गये हैं।सन् 1952 में मुदालियर कमीशन ने भी पाठ्यक्रम
के अनेक दोषों का उल्लेख किया।इन दोषों में से केवल वह दोष नीचे दिये जाते
हैं जो वाणिज्य के पाठ्यक्रम पर लागूहोते हैं-
(1) वर्तमान-पाठ्यक्रम संकुचित विचारधारा पर आधारित है-पाठ्यक्रम में
केवलकक्षा तथा पुस्तक से प्राप्त ज्ञान का ही समावेश किया गया है।
समस्तविद्यालय-वातावरण को वाणिज्य में शामिल नहीं किया गया है। दूसरे,
वाणिज्य कावर्तमान पाठ्यक्रम हमारे दृष्टिकोण को भी व्यापक बनाने में असफल
रहता है। वाणिज्यका अध्ययन करने के बावजूद भी छात्रों का दृष्टिकोण संकुचित
ही रहता है। इस प्रकारहम कह सकते हैं कि वाणिज्य का वर्तमान पाठ्यक्रम
संकुचित विचारधाराओं परआधारित है।
(2) वर्तमान पाठ्यक्रम अत्यन्त सैद्धान्तिक तथा पुस्तकीय है-मुदालियर कमीशनने
अपनी रिपोर्ट में कहा कि वर्तमान पाठ्यक्रम अत्यन्त ही सैद्धान्तिक है।
इसमेंवास्तविकता तथा व्यावहारिकता का पूर्ण अभाव है। वर्तमान पाठ्यक्रम हमें
वाणिज्य केकतिपय सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान करना ही अपना उद्देश्य समझता
है। दूसरे, इससे जोज्ञान प्राप्त होता है, उसमें व्यावहारिकता भी नहीं होती
है। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रमकेवल पुस्तकीय ही है। पुस्तकों को काफी महत्व
दिया जाता है एवं पुस्तकों को हीज्ञानार्जन का एकमात्र साधन समझा जाता है। इस
प्रकार के ज्ञान को छात्र अपनेवास्तविक जीवन में प्रयोग करने में असफल रहता
है।
(3) इसमें विषय वस्तु का बाहुल्य (Over-Crowdedness) वर्तमान पाठ्यक्रम
मेंछात्रों के सम्मुख विभिन्न विधियों से बहुत सी विषय-वस्तु करने की
व्यवस्था है। छात्रों केसम्मुख पर्याप्त मात्रा में विषय-वस्तु प्रस्तुत कर
दी जाती है, चाहे छात्र उस योग्य है यानहीं। इतनी विषय-वस्तु को छात्र में
ग्रहण करने की क्षमता है या नहीं, इस बात कोवर्तमान पाठ्यक्रम ध्यान में नहीं
रखता है।
(4) इसका निर्माण व्यक्तिगत विभिन्नताओं के नियम पर आधारित नहींहै-वाणिज्य के
वर्तमान पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इसके निर्माताओं ने
व्यक्तिगतविभिन्नताओं को सिद्धान्त तथा उसके महत्व को ध्यान में नहीं रखा है।
पाठ्यक्रम विभिन्नव्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करता और न
व्यक्तिगत विभिन्नताओं को हीध्यान में रखता है। वास्तव में आवश्यकता इस बात
की है कि पाठ्यक्रम को बहुमुखीबनाकर विद्यार्थियों की विविध आवश्यकताओं की
पूर्ति की जाये।
(5) पाठ्यक्रम में जीवन के साथ सम्बन्धों का अभाव है-वर्तमान पाठ्यक्रम
नेविद्यालय जीवन को छात्रों के वास्तविक तथा सामाजिक जीवन से पृथक कर दिया
है,क्योंकि विद्यालय जीवन एवं पाठ्यक्रम स्वयं भी सामाजिक परिवर्तनों के
साथ-साथ स्वयंको परिवर्तित करने में असफल रहे हैं। पाठ्यक्रम में इस गति से
परिवर्तन नहीं हो रहेहैं जिस गति से व्यक्तियों के वास्तविक एवं सामाजिक जीवन
में परिवर्तन हो रहे हैं।पाठ्यक्रम परिवर्तनों की इस दौड़ में पिछड़ गया है।
पाठ्यक्रम नवीन सामाजिक मूल्योंएवं आदर्शों को अपनाने में असफल रहा है। इससे
विद्यालय जीवन एवं सामाजिकजीवन के मध्य एक बड़ी दरार पड़ गयी है। शिक्षा समाज
की वास्तविक समस्याओं कोसमझने तथा उन्हें हल करने में अपने को असफल पा रही
है।
(6) इसमें परीक्षाओं को अत्यधिक महत्व दिया गया है-वर्तमान पाठ्यक्रम का
एकमात्र उद्देश्य छात्रों को विभिन्न परीक्षाओं हेतु तैयार करना है।
परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना ही वर्तमान पाठ्यक्रम को पूरा करने का एकमात्र
माप है। वास्तविक रूप से हम यहपाते हैं कि वर्तमान पाठ्यक्रम ने परीक्षाओं की
शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति का एकसाधन न रहने देकर, परीक्षाओं को ही
साध्य (end) बना दिया है। विद्यालय की समस्तशैक्षणिक प्रक्रियायें परीक्षाओं
पर ही केन्द्रित कर दी जाती हैं। इससे शिक्षा के उद्देश्यतथा आदर्श प्राप्त
नहीं हो पाते हैं, क्योंकि ये परीक्षायें शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की
दृष्टि में से लागू की गयी सभी योजनाओं को बेकार कर देती हैं।
(7) वर्तमान पाठ्यक्रम में कोई पूर्व-निर्धारित उद्देश्य नहीं है-वाणिज्य
कापाठ्यक्रम ही क्या सम्पूर्ण शिक्षा-व्यवस्था ही उद्देश्यहीन है। वर्तमान
शिक्षा का कोई भीउद्देश्य नहीं है। यदि हम किसी शिक्षाशास्त्री से वर्तमान
शिक्षा के उद्देश्य का नाम बतानेको कहें तो शायद वह निश्चित रूप से कोई भी
उद्देश्य न बता पायेगा। पाठ्यक्रम किन्हीं विशिष्ट उद्देश्यों को ध्यान में
रखकर नहीं बनाया गया है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि वाणिज्य का
वर्तमान पाठ्यक्रम बिना किसी उद्देश्य के है।
(8) पाठ्यक्रम में समन्वय की सम्भावनाओं का अभाव है-वाणिज्य का
वर्तमानपाठ्यक्रम पूर्ण एकांकी है। पाठ्यक्रम में ऐसी सम्भावनायें नहीं रखी
गयी हैं जिनकेमाध्यम से वाणिज्य के अध्ययन के फलस्वरूप प्राप्त ज्ञान का
समन्वय अन्य विषयों सेप्राप्त ज्ञान से स्थापित किया जा सके। ऐसा प्रायः सभी
विषयों के सम्बन्ध में दृष्टिगोचरहोता है। समन्वय स्थापित करने के लिए
अध्यापक को बहुत ही कम अवसर उपलब्धहोते हैं। फिर पाठ्यक्रम को जो बोझिल
स्वरूप है उसमें समन्वय स्थापित करने की दशामें कभी भी पूरा नहीं किया जा
सकता है। मुदालियर कमीशन रिपोर्ट में वर्णित इन दोषों के अतिरिक्त भी कुछ
अन्यउल्लेखनीय दोष वाणिज्य के वर्तमान पाठ्यक्रम में देखे जाते हैं।
(9) वर्तमान पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय रुचि, विविधता तथा प्रेरणा आदि
सिद्धान्तों को ध्यान में नहीं रखा गया है।'
(10) पाठ्यक्रम क्रियाप्रधान नहीं है-पाठ्यक्रम छात्रों को कोई भी शारीरिक
क्रियायेंकरने के अवसर प्रदान नहीं करता है। इस प्रकार पाठ्यक्रम करके
सीखना'(Leaming by Doing) के महान् सिद्धान्त की अवहेलना करता है।
(11) पाठ्यक्रम जनतन्त्र के सिद्धान्तों के अनुरूप नहीं है-वर्तमान पाठ्यक्रम
केगदि वे कुछ भी हैं जनतन्त्रीय ढंग से ति नहीं किये जाते हैं। साथ ही साथ,
पाठ्यक्रम बालकों की आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रखता है। बालक को
अपनीप्राकृतिक शक्तियों के विकास का पूरा-पूरा अवसर प्रदान नहीं करता है।
इसके शिक्षणहेतु प्रजातन्त्रीय शिक्षण-विधियाँ नहीं अपनायी जा सकती हैं तथा
पाठ्यक्रम समाज कीआवश्यकताओं को पूरा नहीं करता है और न छात्रों को सामाजिक
समस्याओं केसमाधान योग्य ही बनाता है।
शिक्षा-नीति (1986) में वाणिज्य शिक्षा(COMMERCE-EDUCATION IN EDUCATION
POLICY 1986)
भारतीय संविधान में मूलतः शिक्षा को राजस्व सूची में रखा गया था तब शिक्षा
कीव्यवस्था, प्रबन्ध तथा नियंत्रण पर राज्य सरकारों का अधिकार था। राज्य
सरकारें अपनी-अपनी नीतियों के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करती थीं। इस
व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष था कि प्रत्येक राज्य में शिक्षा प्रणाली
पृथक-पृथक थी। कहीं 10+2+3, कहीं10+2+2. कहीं 10+1+3 आदि आदि के रूप में
शिक्षा प्रणालियाँ प्रचलित थीं। राजस्थानराज्य में एक प्रकार से 10+1+3
प्रणाली प्रचलित थी। इस प्रणाली में राजस्थान राज्य में कक्षा VIII से भी
वाणिज्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था थी। कक्षा VIII में पढ़ने के बाद
छात्र कक्षा IX तथा X में भी वाणिज्य विषय का अध्ययन कर सकता था। केन्द्र
सरकारके हस्तक्षेप से तथा शिक्षा-नीति (1986) के लागू होने पर देश के समस्त
राज्यों में शिक्षाकी 10+2+3 प्रणाली अपनाई गई। राजस्थान में भी अब शिक्षा की
10+2+3 प्रणालीप्रचलित है।
शिक्षा की 10+2+3 प्रणाली जैसे कि राजस्थान राज्य में लागू की गई है,
वाणिज्यविषय की विधिवत् शिक्षा कक्षा XI से प्रारम्भ होती है। इस प्रकार
कक्षा XI तथा XII मेंवाणिज्य एक पृथक् एवं स्वतन्त्र रूप से पढ़ाया जाता है।
कक्षा XI से नीचे वाणिज्यविषय की सामान्य जानकारी या तो समाजोपयोगी उत्पादन
कार्य (S.U.P.W.) में की जाती है या फिर सामाजिक अध्ययन (Social Studies) के
अन्तर्गत कुछ वाणिज्य विषयक सामग्री की जानकारी देने हेतु सामाजिक अध्ययन की
पुस्तकों में वाणिज्य से सम्बन्धित कुछ अध्याय जोड़े गये हैं। माध्यामिक स्तर
(कक्षा IX तथा x) में सामाजिक अध्ययन के दो समूह रखे हैं-(i) इतिहास तथा
नागरिकशास्त्र, तथा (ii) अर्थशास्त्र तथा भूगोल।
इसी द्वितीय समूह में कुछ सामग्री वाणिज्य से सम्बन्धित हैं। कक्षा VII तथा
VIII कीसामाजिक अध्ययन विषयों की पुस्तक में बचत, डाकघर, बैंक, बीमा, संचार
साधन.यातायात साधन जैसे वाणिज्यिक विषयों की जानकारी दी जाती है।
।कक्षा XI तथा XII से ही वाणिज्य शिक्षा की विधिवत् तथा व्यवस्थित शिक्षा
प्रारम्भ होती है। यहाँ के छात्र पुस्तपालन तथा व्यापार पद्धति का विस्तृत
तथा व्यवस्थितअध्ययन करता है तथा आध्यात्मिक शिक्षा कोई दो प्रश्न-पत्रों के
माध्यम से पुस्तपालनतथा व्यापार पद्धति की पृथक-पृथक् परीक्षा लेता है। इस
स्तर पर टंकण (Typewriting) विकल्प भी उपलब्ध है।
अभ्यास-प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न
1. पाठ्यक्रम का अर्थ स्पष्ट कीजिये तथा पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्तों की
चर्चा कीजिये।
2.।भारत में वाणिज्य-विषय का पाठ्यक्रम दूषित है इस कथन की सोदाहरण व्याख्या
कीजिये
3. शिक्षा-नीति (1986) में वाणिज्य शिक्षा की स्थिति पर अपने विचार प्रकट
कीजिये।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
1. पाठ्यक्रम का अर्थ संक्षेप में लिखिये।
2. पाठ्यक्रम निर्माण के किन्हीं दो सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिये।
3. वाणिज्य शिक्षण में क्रिया के सिद्धान्त के महत्व को स्पष्ट कीजिये।
4. राजस्थान राज्य में कक्षा XIसे नीचे वाणिज्य शिक्षा की व्यवस्था का परिचय
दीजिये।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न1. मुदालियर कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में पाठ्यक्रम की
परिभाषा अत्यन्त स्पष्ट तथा व्यापक रूप से कब दी थी?
(अ) सन् 1857
(ब) सन् 1975
(स) सन् 1925
(द) सन् 1952
2.संकुचित विचारधाराओं पर ...............कभी भी आधारित नहीं होना चाहिए।
3. वर्तमान पाठ्यक्रम हमारे दृष्टिकोण को .............. बनाने में असफल रहता
है।
उत्तर-1.(द) सन् (1952). 2.पाठ्यक्रम, 3. व्यापक।
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