बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-1 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 दर्शनशास्त्र
प्रश्न- प्रमा की परिभाषा दीजिए तथा उसके सामान्य लक्षणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर -
प्रमा
यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं। प्रमा तत्वानुभव है। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु जैसी है, उसका उसी रूप में ज्ञान होना तत्वानुभव है। दूसरे शब्दों में तत्वानुभव किसी वस्तु का अपने स्वरूप में ज्ञान प्रमा है। यदि बालू के रेतीले मैदान को हम बालू का मय समझते हैं तो यह अनुभव प्रमा है।
जो वस्तु जैसी हो उसे उसी प्रकार ही जानना, जो वस्तु जहाँ हो उसको वहीं का जानना अर्थात् पदार्थ की उसके वास्तविक रूप में प्रतीति करना ही प्रमा है।
वाचस्पति मिश्र के अनुसार 'स्मृति' से भिन्न तथा पदार्थों का अव्यभिचरित बोध को ही प्रमा कहा जाता है, पर ऐसा मानने पर धारावाहिक ज्ञान प्रमा की कोटि में नहीं आ पायेगा। कहा जा सकता है कि धारावाहिक ज्ञान में घटत्व के साथ 'इदंत्व' अर्थात् पदार्थ के साथ वर्तमान काल का भी ज्ञान होता है, अतः ज्ञान कालांश में नवीन है, पर इस तरह तो क्रिया विभाग, पूर्व संयोगनाश, अन्तर संयोग आदि का योग .दर्शनशास्त्र / 91 पद्य मानने में कठिनाई होगी। अतः यह कथन अनुचित है। मीमांसकों ने भी धारावाहिक ज्ञान को भी प्रमाण माना है। प्रमा के कारण तो प्रमाता, प्रमेय आदि भी हैं, परन्तु उनमें से क्रिया की सिद्धि में असाधारण रूप से उपकारक कारण को ही कारण कहते हैं। एक अन्य परिभाषा के अनुसार व्यापार से युक्त असाधारण कारण ही करण कहलाता है। जैसे प्रत्यक्ष की प्रक्रिया में इन्द्रिय संयोग प्रतिशयित प्रकृष्ट कारण है। क्योंकि इन्द्रिय-संयोग न हो तो प्रमाता और प्रमेय के रहते हुए भी प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता।
प्रमा की विशेषताएँ अथवा लक्षण
प्रमा की विशेषताएँ या लक्षण निम्नलिखित निर्धारित किये गये हैं-
1. निश्चितता - मीमांसक दार्शनिक सामान्य रूप से प्रमा के लिए तीन लक्षण-निर्धारित करते हैं, उनमें से निश्चितता या दृढ़ता एक प्रमुख लक्षण है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि किसी भी ज्ञान को प्रमा रूप होने के लिए उसमें निश्चितता या दृढ़ता होनी चाहिए। यदि किसी ज्ञान के विषय में कुछ भी सन्देह होता है तो उसे हम प्रमा रूप नहीं कह सकते। मान लीजिए किसी ज्ञान के विषय में संशय होता है तो उसे दूर करने के पश्चात् ही वह ज्ञान प्रमा की श्रेणी में आता है।
2. नवीनता मीमांसक ही प्रमा का दूसरा लक्षण नवीनता को बतलाते हैं। नवीनता को प्रमा का लक्षण बताकर 'प्रमा' से स्मृति का अन्तर बतलाते हैं। नवीनता के सम्बन्ध में विभिन्न भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों के क्या मत हैं संक्षेप में इस पर दृष्टिपात किया जा सकता है। जैसाकि मीमांसा के विषय में बताया गया कि मीमांसक नवीनता को प्रमा का लक्षण स्वीकार करके स्मृति से उसका अन्तर प्रकट करते हैं। स्मृति को प्रमा न मानने का आधार यह देते हैं कि चूँकि स्मृति में पिछले ज्ञान की पुनरावृत्ति होती है, इसलिए स्मृति को प्रमा नहीं माना जा सकता। प्रमा तो वही ज्ञान है जो नवीन या अनधिगत हो और हमारे ज्ञान में कुछ जोड़े।
अद्वैत वेदान्त में प्रमा को दो तरह से परिभाषित किया जाता है
(i) जिसमें स्मृति का प्रमा के अन्तर्गत समावेश हो जाय।
(ii) जिसमें स्मृति को प्रमा न माना जाकर अप्रमा ही माना जाय। उपरोक्त कथन से स्पष्ट होता है कि प्रथम अवस्था में नवीनता का लक्षण हटा लिया जाना चाहिए और दूसरी अवस्था में नवीनता को प्रमा के लक्षणों में से एक लक्षण माना जाना चाहिए।
बौद्ध मत तो स्पष्ट रूप से इस विषय पर आग्रह करता है कि यह प्रमा का आवश्यक लक्षण है। उसके अनुसार अधिगत ज्ञान प्रमा की श्रेणी में नहीं आता।
न्याय तो स्मृति को प्रमा के रूप में मानने के लिए तैयार ही नहीं है। न्याय स्पष्टतः स्मृति को अप्रमारूप मानता है। प्रमा को स्मृति से भिन्न माना जाता है। "लगभग सभी भारतीय दार्शनिक यह स्वीकार करते हैं कि प्रमा, भ्रम, संशय तथा स्मृति से भिन्न ज्ञान है।'
3. यथार्थता न्याय प्रमा का तीसरा लक्षण न्याय ने यथार्थता को माना है। वात्यायन ने प्रमा के लक्षण को यथार्थता के रूप में समझाते हुए कहा है कि "यदि किसी वस्तु का ज्ञान उसी रूप में हो तो वह प्रमा है। यथा अर्थ तथा ज्ञान ही प्रमा का लक्षण है।"
4. कारण दोष रहितता प्रमा के लक्षण में यथार्थता की बात तब तक सही सिद्ध नहीं हो सकती जब तक कि भ्रम की संभावना बनी रहेगी। इस भ्रम की स्थिति को दूर करने के लिए तथा प्रमा के वास्तविक रूप को स्पष्ट करने के लिए भाट्ट मीमांसक प्रमा के लक्षणों में एक लक्षण और जोड़ते हैं। वह है कारणदोष रहितता कारण दोष रहितता का अर्थ इस प्रकार बताया गया है। भाट्टों ने कहा कि विषय का ज्ञान हमें अपरोक्ष रूप से अवश्य होता है, फिर भी इस ज्ञान के कुछ कारण भी हैं।
5. उपयोगिता - न्याय तथा बौद्ध दार्शनिकों ने प्रमा का लक्षण प्रयोजन पूरकता, उपयोगिता अथवा अर्थ क्रियाकारिता को स्वीकार किया है। इसका तात्पर्य यह है कि इस लक्षण के अनुसार ज्ञान की सत्यता का आधार उसकी व्यावहारिक सफलता है। जो अर्थ क्रियाकारित्व से जुड़ा हो अर्थात् जो ज्ञान उपयोगी या हमारे व्यवहार में उपयोगी सिद्ध हो वह सत्य ज्ञान है, वह यथार्थ ज्ञान है। ऐसे सत्य ज्ञान से हमारे प्रयोजन में सफलता मिलती है। "नैयायिकों की मान्यता है कि अनुभव के द्वारा हम जानते हैं कि वस्तु विशेष में विशेष प्रकार के गुण होते हैं तथा उन गुणों के द्वारा वह वस्तु हमारे सप्रयोजन विशेष की पूर्ति में सक्षम है। साथ ही वे यह भी मानते हैं कि हमारा प्रत्येक ज्ञान प्रयोजन होता है। जब हमें प्यास लगती है तब हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि पानी कहाँ है अथवा उस समय हमारा ध्यान सामने रखे हुए घड़े की ओर आकर्षित होता है जिसमें पानी भरा हुआ है। उस जल का ज्ञान होने पर हम क्रिया में प्रवृत्त होते हैं। उस घट के जल को पीते हैं। यदि वह जल हमारी प्यास को शान्त कर देता है, तो प्रयोजन की पूर्ति हो जाने से हमारा वह ज्ञान प्रमा रूप माना जायेगा।
6. अबाधितता मीमांसकों द्वारा प्रमा के लक्षण को बाधक ज्ञान रहितता माना गया है। द्वैत इसी को अबाध की संज्ञा देता है। यहाँ अबाध का अर्थ यह है कि दो ज्ञानों में परस्पर विरोध न हो। ज्ञान अबाधित हो। प्रमा अबाधित विषय का ज्ञान है। "ज्ञान विषय को जैसा है वैसा ही प्रकाशित करता है, किन्तु कभी-कभी भ्रम में वह अन्यथा भी प्रकाशित होता है। जब ज्ञान विषय को जैसा है, वैसा ही प्रकाशित करे तब वह प्रमा तथा जब उसे अन्यथा प्रकाशित करे तब वह अप्रमा कहलाता है। यथार्थता का निश्चय करने के लिए अबाधितता की आवश्यकता है। अबाधितता का अर्थ है कि कोई भी वस्तु दो विरोधी स्वभाव वाली नहीं हो सकती। एक ही वस्तु एक साथ सर्प तथा रज्जु नहीं हो सकती।
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- प्रश्न- शंकर के ईश्वर विचार की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- माया क्या है? माया सिद्धान्त की रामानुज द्वारा दी गई आलोचना का विवरण दीजिए।
- प्रश्न- रामानुज के विशिष्टाद्वैत वेदान्त से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- रामानुज के अनुसार ब्रह्म क्या है? ईश्वर व ब्रह्म में भेद बताइए।
- प्रश्न- रामानुज के अनुसार मोक्ष व उनके साधनों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- जीवात्मा के भेदों को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- रामानुज के अनुसार ज्ञान के साधन क्या हैं?
- प्रश्न- रामानुज के 'जीव सम्बन्धी विचार की व्याख्या कीजिये।
- प्रश्न- रामानुज के जगत की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- विशिष्ट द्वैत दर्शन की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- चित् व अचित् तत्व क्या हैं?
- प्रश्न- बन्धन और मोक्ष क्या है?
- प्रश्न- चित्त क्या है?