बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 गृह विज्ञान बीए सेमेस्टर-1 गृह विज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 गृहविज्ञान
प्रश्न- शैशवावस्था तथा स्कूल पूर्व बालकों के शारीरिक एवं क्रियात्मक विकास से आपक्या समझते हैं?
अथवा
शैशवावस्था और बचपनावस्था में शारीरिक एवं क्रियात्मक विकास के विषय में व्याख्या कीजिए।
उत्तर -
प्राणी के विकास क्रम में यह देखा गया है कि शून्य से प्रारम्भ होने वाला जीव धीरे-धीरे विकास क्रम की विभिन्न अवस्थाओं को पार करता हुआ अन्त में प्रौढावस्था और वृद्धावस्था को प्राप्त करता है जो कि प्राणी के जीवन की अन्तिम अवस्था होती है।
यदि किसी शिशु के विकास क्रम का अध्ययन प्रारम्भ से ही किया जाए तो ज्ञात होता है कि जैसे-जैसे प्राणी विकसित होता जाता है वैसे-वैसे वह नित नयी क्रियाओं को करता है जो किसी प्राणी के जीवन में व्यवहारों का प्रदर्शन करती हैं।
प्रत्येक प्राणी के जीवन में विकांसात्मक क्रियाओं का बड़ा महत्व है क्योंकि वर्तमान अवस्था के विकासात्मक कार्य ही आगामी अवस्था में सम्पन्न होने वाली क्रियाओं का आधार होते हैं।
शैशवावस्था में शारीरिक विकास - (जन्म से दो सप्ताह तक) शैशवावस्था विकास क्रम की महत्वपूर्ण अवस्था है। यह अवस्था शिशु जन्म के बाद प्रारम्भ होती है। शैशवावस्था शिशु के समायोजन की अवस्था कहलाती है क्योंकि शिशु गर्भाशय के आन्तरिक वातावरण से निकलकर बाह्य वातावरण के साथ समायोजन का प्रयास करता है।
शैशवावस्था को दो भागों में बाँटा गया है.
(1) पार्ट्यूनेट अवस्था - जन्म से 30 मिनट
(2) न्यूनेट अवस्था - जन्म से 30 दिन
पार्टयूनेट अवस्था वह है जिसमें बच्चे की नाल को काटकर माँ से अलग कर दिया जाता है। अब शिशु स्वतन्त्र जीव होता है फिर न्यूनेट अवस्था जन्म के बाद 15 से 30 तक होती है।
शारीरिक विकास के अन्तर्गत शरीर के समान आँतरिक और बाह्य अंगों का विकास आता है जैसे शरीर की लम्बाई, भार, शारीरिक अनुपात, अस्थियों का विकास, मांसपेशियों का विकास तथा शारीरिक स्वास्थ्य का अध्ययन आता है।
नवजात शिशु का शारीरिक विकास
इसका वर्णन निम्नलिखित है-
(1) लम्बाई तथा भार जन्म के समय एक सामान्य शिशु की औसत लम्बाई 19.5 तथा भार लगभग 7.5 पौण्ड होता है। वंशानुक्रम और वातावरणीय कारकों के प्रभाव के कारण इसमें परितर्वन भी हो सकते हैं।
(2) शारीरिक अनुपात - शारीरिक अनुपात में नवजात शिशु वयस्कों से भिन्न होता है। वयस्कों में सिर और शरीर का अनुपात 1: 7 होता है जबकि शिशुओं का यह अनुपात 1:4 होता है।
(3) शारीरिक आकृति शारीरिक आकृति में भी शिशु वयस्कों से भिन्न होता है। दृष्टि का केन्द्रीयकरण 6 से 8 सप्ताह बाद होता है। नवाजात शिशु की मांसपेशियाँ छोटी, कोमल तथा अनियन्त्रित होती हैं।
शिशुओं की अस्थियाँ कोमल व लचीली होती हैं क्योंकि यह कार्टिलेज की बनी होती हैं। जन्म के समय शिशुओं के दाँत नहीं होते हैं यद्यपि इनके विकास की नीव गर्भावस्था के 5 वें माह में ही पड़ चुकी होती है।
श्वसन क्रिया - जन्म के बाद शिशु का रोना एक महत्वपूर्ण क्रिया है। रोने से शिशु की श्वसन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। शिशु जन्म के साथ में श्वसन दर 40 से 45 प्रति मिनट रहती है। नवजात शिशुओं के हृदय की धडकन भी वयस्कों से अधिक होती है। नवजात की हृदय गति 120 से 140 प्रति मि. होती है।
नवजात शिशुओं के शरीर का तापमान भी वयस्कों की तुलना में अधिक होता है। नवजात शिशुओं में यह तापमान 98.2° से 99° फारनेहाइट तक रहता है।
नाड़ी की गति भी शिशुओं की वयस्कों से अधिक होती है। वयस्कों की नाड़ी की गति 70 प्रति मि. होती है जबकि शिशुओं की नाड़ी की मति 120 से 150 प्रति मि. होती है।
जन्म के बाद शिशु में चूसने सम्बन्धी क्रिया का विकास स्वतः ही हो जाता है।
जन्म के बाद शिशु को भूख का अनुभव नहीं होता है किन्तु 2-3 दिन बाद भूख का अनुभव स्वतः होने लगता है।
नवजात शिशु जन्म के बाद अधिकांशता सोता ही रहता है केवल भूख लगने पर या मलमूत्र त्याग करने पर ही जागता है।
जन्म के कुछ घण्टों के बाद मल त्याग की क्रिया प्रांरभ हो जाती है। दूध पीने के आधा घण्टे बाद और दिन में लगभग 5-6 बार मल त्याग करता है।
बचपनावस्था या स्कूल पूर्व बालकों का शारीरिक विकास- इस समय बच्चों का शारीरिक विकास बहुत ही तीव्र गति से होता है। इस कारण बच्चों की लम्बाई में तीव्र गति से वृद्धि होती है।
बाह्य अंगों का विकास- इसका वर्णन इस प्रकार है-
(1) लम्बाई - जन्म के दो वर्षों में शारीरिक विकास की गति अति तीव्र होती हैं। 4 माह का बालक 23"- 24" तथा 21 वर्ष में 28"- 30" तक हो जाता है। अतः औसतन उसकी लम्बाई में 2.5" - 3" की बढोत्तरी होती है।
(2) भार-जन्म के तुरन्त बाद नये वातावरण से समायोजन न कर पाने के कारण बालक के भार में कमी आ जाती है किन्तु जन्म के चौथे माह से पुनः उसके भार में वृद्धि होने लगती है।
(3) शारीरिक अनुपात - 2 वर्ष के बालक के सिर का विकास बहुत तीव्र गति से होता है। पर दो वर्ष पूरा होने पर यह विकास रुक जाता है।
जन्म के समय शिशु का चेहरा सिर की अपेक्षा छोटा होता है क्योंकि इस समय बालक के दाँत नहीं होते हैं। 5-6 माह बाद जब दूध के दाँत निकलने लगते हैं तो चेहरे का निचला हिस्सा भरा हुआ दिखाई देता है।
4. शरीर के आकार की भाँति अस्थियों का विकास भी प्रारम्भिक दो वर्षों में तेजी से होता है और बाद में धीमा हो जाता है। जन्म के समय शिशु में लगभग 270 अस्थियाँ होती हैं।
5. जन्म के समय शिशु की छाती गोलाकार, गर्दन छोटी तथा कन्धे ऊँचे होते हैं परन्तु बचपनावस्था के विकास क्रम में सिर व धड के बीच गर्दन और अधिक स्पष्ट होने लगती है और छाती चौड़ी हो जाती है।
6. प्रत्येक बालक के जीवन में दांतों का विकास दो बार होता है। पहली बार दाँत जन्म के 6-7 माह बाद निकलना प्रारम्भ होते हैं। 2- से 2.5 वर्ष की अवस्था तक 20 दाँत निकल आते हैं ये दाँ दूध के दाँत या अस्थायी दाँत कहलाते हैं। अस्थायी दांतों को निकलते समय बच्चों को अधिक कष्ट होता है।
7. बचपनावस्था में स्नायुमण्डल का विकास तीव्र गति से होता है। इस अवस्था में सेरीबिलम जो कि शरीर के सन्तुलन को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसका भार जन्म के प्रथम वर्ष में 300 गुना बढ़ जाता है।
8. ज्ञानेन्द्रियों का भी विकास इस समय तीव्र गति से होता है।
9. तीसरे माह में आँखों की मांसपेशियों में पूर्ण परिपक्वता आ जाती है। तेज प्रकाश तथा गहरे रंग की वस्तु को देखने पर दृष्टि वस्तु की गति का अनुसरण करती है।
10. बचपनावस्था में सुनने की शक्ति का भी पर्याप्त मात्रा में विकास हो जाता है।
11. जन्म के समय सिर की परिधि छाती की परिधि से बड़ी होती है किन्तु दो वर्ष की अवधि में सिर और छाती की परिधि बराबर हो जाती है।
क्रियात्मक विकास
जन्म के समय शिशु एक जैविकीय प्राणी के रूप में होता है। वह इतना असहाय व बलहीन होता है कि अपनी क्रिया और आवश्यकता की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। उसे जहाँ और जिस स्थिति में लिटा दिया जाता है उस स्थिति को वह स्वयं बदल नहीं पाता है। जन्म के समय उसके समस्त अंगों का संचालन निरर्थक व उद्देश्यहीन होता है।
क्रियात्मक विकास में मॉसपेशियों के एकीकरण, नियन्त्रण, तथा नाड़ियों के साथ संमायोजन में मस्तिष्क का पूरा-पूरा योगदान रहता है। लघु मस्तिष्क (Cerebell) के द्वारा ही मांसपेशियों की गति में ऐच्छिक नियन्त्रण लाया जा सकता है।
शारीरिक विकास के समान ही क्रियात्मक विकास भी बालक के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है क्योंकि क्रियात्मक विकास के द्वारा ही बालक अपने भौतिक और सामाजिक वातावरण पर नियन्त्रण करना सीखता है और प्रत्येक नवीन वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करता है और आत्मनिर्भर बनता है।
शैशवावस्था में क्रियात्मक विकास- गर्भकालीन अवस्था से ही शिशु का क्रियात्मक विकास प्रारम्भ हो जाता है। जन्म के बाद इनमें और अधिक विकास दिखाई देता है। नवजात शिशु की क्रियायें उद्देश्यपूर्ण व समन्वित नहीं होती हैं क्योंकि अभी उसका स्नायु संस्थान परिपक्व नहीं होता है। शैशवास्था में शिशु द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को दो भागों में बाटा जा सकता है
सामान्य क्रियायें - सामान्य क्रियाओं को समूहीकृत क्रियायें भी कहते हैं क्योंकि इन क्रियाओं में शिशु का कोई एक अंग ही क्रियाशील नहीं होता है बल्कि क्रिया की प्रतिक्रियास्वरूप कई अंग क्रियाशील हो जाते हैं।
नवजात शिशुओं की सामान्य क्रियाओं में विभिन्नता पायी जाती है यहाँ तक कि एक ही शिशु में सामान्य क्रियाओं का स्वरूप अलग-अलग समय पर अलग-अलग होता है।
विशिष्ट क्रियायें विशिष्ट क्रियायें वे क्रियायें हैं जिन्हें शिशु विशेष उद्दीपकों के प्रति एक निश्चित ढंग से करता है।
विशिष्ट क्रियायें दो प्रकार की होती हैं
(अ) सहज क्रियायें सहज क्रियाओं से तात्पर्य उन जन्मजात क्रियाओं से है जो सहज रूप से ही उद्दीपक के प्रतिक्रियास्वरूप होने लगती हैं। ये क्रियायें निम्न हैं
1. आँख की पुतली की सहज क्रिया कम प्रकश में पुतली बढ जाती है और अधिक प्रकाश में घट जाती है।
2. पाँव के तलवे की सहज क्रिया जब शिशु के पाँव के तलवे को सहलाया जाता है तो वह पैर की उँगलियों को पंखे के समान फैला देता है।
3. मांसपेशियों की सहज क्रिया स्नायुओं को उदीप्त किया जाता है। यह वह सहज क्रिया है जिसमें शिशु की मांसपेशियों
4. चूसने की सहज क्रिया जब शिशु के गालों या ओठों से उद्दीपक का स्पर्श कराया जाता है जो व चूसने की क्रिया प्रदर्शित करता है।
इन सहज क्रियाओं के अतिरिक्त शिशु में अन्य सहज क्रियायें जैसे छीकना, रोना, श्वास लेना आदि पायी जाती हैं।
(B) सामान्यीकृत अनुक्रियायें शैशवास्था में शिशुओं की ये सामान्य सामान्यीकृत क्रियाओं के अन्तर्गत प्रकाश की ओर देखना, आँसू निकलना, अँगूठा चूसना, पैर फेंकना, सिर घूमाना आदि आते हैं।
जन्म के 2-3 दिन बाद शिशु कभी आँखे खोलता है कभी बन्द करता है। वह प्रकाश की ओर थोडी देर देख सकता है। कमी मुँह खोलता है, कभी बन्द कर लेता है।
इन क्रियाओं की उत्पति से ही शिशु के कौशलों का विकास होता है।
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- प्रश्न- आर. एच. तत्व को समझाइये।
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- प्रश्न- नवजात शिशु की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो।
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- प्रश्न- शैशवावस्था एवं स्कूल पूर्व बालकों के सामाजिक विकास से आप क्यसमझते हैं?
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