बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 आहार, पोषण एवं स्वच्छता बीए सेमेस्टर-1 आहार, पोषण एवं स्वच्छतासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 आहार, पोषण एवं स्वच्छता
जल में घुलनशील विटामिन्स
विटामिन 'बी' कॉम्प्लैक्स - विटामिन 'बी' कॉम्पलैक्स कई विटामिन्स का एक समूह होता है। इस समूह के विटामिन्स का विवरण निम्नवत् है-
1. विटामिन 'बी' अथवा थायमीन- जहाज द्वारा जलमार्ग से यात्रा करने वाले यात्रियों को बेरी-बेरी नामक रोग बहुत होता था; क्योंकि उनके आहार में शाक-सब्जियों का अभाव होता था। सन् 1882 में सर्वप्रथम टकाकी नामक डॉक्टर ने पहचाना और उसने जहाज से यात्रा करने वाले लोगों के आहार में परिवर्तन करके सुधार किया। सन् 1926 में डोनथ और जैनसन ने चावल की ऊपरी परत से बेरी-बेरी रोग का उपचार किया। सन् 1931 में विण्डॉस ने विटामिन 'बी' को खमीर से अलग करके उसकी रचना तथा रासायनिक गुणों के विषय में बताया। इसमें गन्धक की उपस्थिति के कारण इसे थायमीन (Thiamine) नाम दिया गया। सन् 1936 में विलियम्स ने विटामिन 'बी' को प्रयोगशाला में संश्लेषित किया।
2. विटामिन 'बी 2' अथवा राइबोफ्लेविन – विटामिन 'बी 2 अथवा राइबोफ्लेविन (Riboflovin) की खोज के समय वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि बेरी-बेरी रोग को दूर करने वाला एक ही विटामिन होगा। बाद में खोज करने पर निष्कर्ष निकाला गया कि बेरी-बेरी के उपचार के लिए दो विटामिन्स की आवश्यकता होती है— एक ताप के प्रति अस्थिर (विटामिन 'बी') तथा दूसरा ताप के प्रति स्थिर (विटामिन 'बी 2')। यह भी ज्ञात हुआ कि विटामिन 'बी' कई विटामिन्स का मिश्रण है। सन् 1932 में वारबर्ग एवं क्रिश्चियन (Varburg & Christian) ने यीस्ट (Yeast) में से एक नारंगी पीले रंग के चमकने वाले पदार्थ को अलग कर उसे राइबोफ्लेविन नाम दिया।
3. नियासिन अथवा निकोटिनिक अम्ल - नियासिन को निकोटिनामाइड, नियासिनामाइड आदि नामों से भी पुकारा जाता है। इस विटामिन की खोज पैलाग्रा रोग का कारण खोजते समय हुई। सबसे पहले अमेरिकी वैज्ञानिक गोल्ड बर्गर ने सिद्ध किया कि कुत्तों में काली जीभ के लक्षण मनुष्य में उत्पन्न पैलाग्रा के समान ही हैं। इस रोग से पीड़ित होने पर व्यक्ति की त्वचा भद्दे रंग की हो जाती है तथा मस्तिष्क में विकार आने के कारण उसकी मृत्यु भी हो सकती है।
4. विटामिन 'बी' अथवा पायरीडॉक्सिन – सन् 1934 ई० में गॉर्गी ने चूहों के डर्मेंटिटी रोग को इस विटामिन की सहायता से ठीक किया। स्टीलर ने सन् 1939 ई० में इसे संश्लेषित किया। इसे पायरीडॉक्सिन कहते हैं। प्रकृति में भी इसके दो अन्य रूप होते हैं, जिन्हें क्रमश: पायरीडॉक्सिन कहते हैं। प्रकृति में भी इसके दो अन्य रूप होते हैं, जिन्हें क्रमशः पायरीडॉक्सिन एवं पायरीडॉक्सल फॉस्फेट कहा जाता है। इन तीनों रूपों को विटामिन 'बी' कहते हैं। इस विटामिन का सक्रिय रूप पायरीडॉक्सल फॉस्फेट होता है।
गुण - यह सफेद, स्वाद में कसैला, गन्धहीन, रवेदार विटामिन है। यह पानी में घुलनशील है तथा ताप व सूर्य की पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से नष्ट हो जाता है।
कार्य — अन्य विटामिन्स की तरह यह भी शरीर में को एन्जाइम की तरह कार्य करता है। यह तत्त्व बच्चों में वृद्धि तथा नाड़ी संस्थान व लाल रक्त कणिकाओं को स्वस्थ रखने में जरूरी होता है। ट्रिप्टोफैन, ऐमीनो अम्ल को नायसिन में परिवर्तित करने में योग देते हैं।
प्राप्ति के स्रोत - सूखे खमीर, गेहूँ के बीजांकुर, मांस, यकृत, दालें, सोयाबीन, मूँगफली, अण्डा, दूध, दही, सलाद के पत्ते, पालक आदि इस विटामिन के प्रमुख स्रोत हैं।
5. पैरा- ऐमीनो बेन्जोइक अम्ल - विटामिन 'बी' कॉम्प्लैक्स समूह का एक विटामिन पैरा- ऐमीनो बेन्जोइक अम्ल भी है। इस विटामिन का महत्त्व जानवरों पर प्रयोग करके ही देखा गया।
यह विटामिन खमीर, यकृत, चावल व गेहूँ के बीजांकुर में होता है।
6. विटामिन 'बी 12' या साइनोकोबालएमिन - विटामिन 'बी 12 का पता परनीशियस एनीमिया रोग का निदान ढूँढ़ते समय लगा। इसे साइनोकोबालएमिन भी कहते हैं। रोगी व्यक्ति को यकृत खिलाने से स्थिति में सुधार होता है। बाद में यह ज्ञात हुआ कि यकृत में उपस्थित 'बी 12' इस रोग के उपचार में सहायक है।
विटामिन 'बी'12 को कोबामाइड, एण्टीपरनीशियस एनीमिया फैक्टर, एक्सट्रिन्सिक फैक्टर ऑफ कैसल के नाम से भी जाना जाता है।
मिनोट तथा मर्फी को सन् 1934 ई० में इस विटामिन की खोज के लिए नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। सन् 1948 में स्मिथ ( Smith) और उसके साथियों ने इसे क्रिस्टल के रूप में प्राप्त किया।
विटामिन 'बी12 ' प्राणियों की प्रायः सभी कोशिकाओं में मिलता है। मनुष्य इसकी पूर्ति भोजन द्वारा करता है, किन्तु कुछ प्राणी आँतों में भी इसका निर्माण कर सकते हैं। ये वनस्पति में उपस्थित नहीं हैं।
संरचना - यह एक जटिल संरचना वाला विटामिन है। इसके बीच में कोबाल्ट परमाणु चार पायरोल रिंग्स से जुड़ा होता है। यह रचना कोरीन रिंग्स सिस्टम कहलाती है। इसका अणुसूत्र C63 H88 O14 N 14 PCO होता है।
प्राप्ति के स्त्रोत- इसके प्रमुख स्रोत जन्तु ऊतक ही हैं। यह यकृत, अण्डा, मांस, मछली, दूध आदि भोज्य पदार्थ में प्रचुर मात्रा में होता है।
कार्य - 1. अस्थि मज्जा में रक्त कोशिकाओं के निर्माण में सहायक है।
2. नाड़ी ऊतकों की चयापचयी क्रियाओं में सहायक है।
3. विटामिन 'बी12' विभिन्न प्रोटीन के चयापचय में सहायक होता है।
विटामिन 'सी' अथवा एस्कॉर्बिक अम्ल
विटामिन 'सी' की खोज स्कर्वी रोग का उपचार व कारण ढूँढ़ते समय हुई। सन् 1928 ई० में एस० जैट ज्योर्जी (S. Zeut Gyorgy) ने सन्तरे व अन्य फलों में से एक अम्ल को अलग किया। सन् 1932 में वॉग व किंग (Waugh & King) आदि वैज्ञानिकों ने सन्तरा, नीबू व अन्य इसी प्रकार के फलों से विटामिन 'सी' के क्रिस्टलों को अलग किया। स्कर्वी को दूर करने वाले गुणों के कारण इसे एस्कॉर्बिक अम्ल नाम दिया गया।
संरचना — इस विटामिन की संरचना मोनोसैकेराइड के समान होती है। प्रकृति में यह L रूप ( लीवो फॉर्म) में मिलता है तथा सक्रिय होता है। इसका ऑक्सीकरण होने पर हाइड्रोस्कॉर्बिक अम्ल प्राप्त होता है, क्रिया उत्क्रमणीय है। ये दोनों रूप सक्रिय होते हैं।
मानव शरीर में कार्य - 1. घाव को भरने में सहायता करता है।
2. यह अन्त: कोशिकीय पदार्थ का निर्माण करता है।
3. यह दाँत, अस्थियों व रक्त वाहिनियों की दीवारों को स्वस्थ रखता है।
4. एड्रीनल ग्रन्थि के हॉर्मोन के संश्लेषण में बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करता है।
5. यह लोहे के फैरिक को फैरस आयन में बदल देता है, ताकि यह आँत में शीघ्रता से शोषित हो सके।
प्राप्ति के स्रोत
1. वानस्पतिक स्त्रोत- यह आँवला तथा अमरूद में मुख्य रूप से पाया जाता है। इसके अतिरिक्त ताजे, रसीले और खट्टे फलों; जैसे नीबू, नारंगी व सन्तरा में यह प्रचुर मात्रा में मिलता है। अंकुरित दालों व अनाजों में भी इसकी उपस्थिति रहती है।
2. जान्तव स्त्रोत — इसकी अल्प मात्रा दूध व मांस में भी पायी जाती है। विटामिन 'सी' की कमी से होने वाले रोग
1. वयस्कों में स्कर्वी रोग
2. बच्चों में स्कर्वी रोग।
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