बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 हिन्दी काव्य बीए सेमेस्टर-1 हिन्दी काव्यसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 हिन्दी काव्य
प्रश्न- भक्तिकाल की सांस्कृतिक चेतना पर प्रकाश डालिए।
अथवा
हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल की समृद्धता का वर्णन कीजिए।
अथवा
"भक्तिकाल रीतिकाल की अपेक्षा अधिक समृद्ध है।' इस कथन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर -
हिन्दी साहित्य का इतिहास लगभग एक हजार वर्षों का है। इस लम्बे इतिहास में समय-समय पर अनेक प्रकार की भाव धाराएँ और प्रवृत्तियाँ सही हैं। समय अपनी गति से चलता है और व्यक्ति उसके अनुसार न केवल बदलता रहता है अपितु अपनी मनोवृत्तियों और विचारधाराओं में परिवर्तन लाता रहता है। यह प्रक्रिया सदैव चलती रहती है यही कारण है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रारम्भ जिन वीरगाथाओं, नाथों, सिद्धों और जैनियों की रचनाओं से हुआ वह आज तक अनेक करवटें ले चुका है। इन करवटों के कारण ही समूचे इतिहास को चार कालों और अनेक उपकालों में विभाजित करके निरन्तर बदल रही है, और विकसित हो रही हैं और अपने भीतर घटित परिवर्तनों को अभिव्यक्ति कर रही है। ऐसी स्थिति में जबकि हमारे सामने हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक लम्बी परम्परा हो यह कहना कठिनाई को आमंत्रित करना है कि कौन-सी कालावधि श्रेष्ठ और ज्यादा उपयुक्त है।
कथन का स्पष्टीकरण प्रश्न के अन्तर्गत जो उक्ति दी गयी है, हिन्दी साहित्य के लम्बे इतिहास में से दो कालों को चुना गया है भक्तिकाल और रीतिकाल। ये दोनों ही काल मध्यकाल के अन्तर्गत आ जाते हैं। इन दोनों का ही अपना-अपना महत्व रहा है, अपनी-अपनी देन रही है, फिर यह निर्धारित करना कि इनमें कौन-सा अधिक महत्वपूर्ण है, कठिन कार्य है। यह कठिनाई भले ही ऊपर से हो, किन्तु है तो सही।
वास्तविकता यह है कि भक्तिकाल और रीतिकाल दोनों का एक विशिष्ट सन्दर्भ है। भक्तिकाल भक्ति चेतना के कारण और रीतिकाल, रीति ग्रन्थों के निर्माण अभिव्यंजना के नये और समृद्ध प्रयोगों एवं शृंगारिक मनोवृत्ति के कारण सभी के आकर्षण का केन्द्र रहा है।
जब यह कहा जाता है कि हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल रीतिकाल की अपेक्षा अधिक समृद्ध है, तो यह सोचने के लिए विवश हो जाना पड़ता है कि भक्तिकाल में ऐसी क्या विशिष्टता है, ऐसी क्या सम्पूर्णता है और ऐसी क्या नवीनता है, जो रीतिकाल में नहीं है। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि रीतिकाल एक सीमित परिधि में घूमता हुआ नायक-नायिकाओं की प्रेम लीलाओं और उनके श्रृंगार प्रसाधन की सामग्री से ओत-प्रोत है। प्रेम और श्रृंगार जीवन की अनिवार्यताएँ हैं। ये प्रवृत्तियाँ भक्तिकाल में भी मिलती है। कला का वैभव रीतिकाल से अधिक है तो सन्तुलित कला वैभव भक्तिकाल की विशेषता है। भक्तिकाल की परिधि व्यापक और विस्तृत है, तभी तो उसमें सभी रसों का समावेश हुआ है और मानव जीवन का एक वृहत भाग अभिव्यक्त हो सका है। जब यह बात है तब यह कथन उचित लगता है कि भक्तिकाल, रीतिकाल की अपेक्षा अधिक समृद्ध है। प्रश्न की मांग यही है। अतः इस माँग की पूर्ति के लिए किंचित विस्तार भी अपेक्षित है और उन कारणों की खोज भी आवश्यक है, जिनके माध्यम से भक्तिकाल रीतिकाल की अपेक्षा समृद्ध कहा जा सकता है।
भक्तिकाल, रीतिकाल की अपेक्षा अधिक समृद्ध
हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल रीतिकाल की तुलना में अधिक समृद्ध माना गया है। इस विषय में कोई भी समीक्षक यह नहीं कह सकता कि यह कथन अनौचित्य पूर्ण है। जब हम भक्ति काल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग मानते हैं तो भी यही स्पष्ट करते हैं कि भक्तिकाल सभी चारों कालों में अधिक श्रेष्ठ, अधिक व्यापक, अधिक विशिष्ट और अधिक प्रभावशाली है। हिन्दी के अनेक विद्वानों ने हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल पर विचार करते हुए ऐसा ही मत प्रकट किया है। सभी विद्वानों की एक ही धारणा रही है कि भक्तिकाल साहित्य के इतिहास में सर्वोत्तम है। इसकी प्रतिद्वन्द्विता में कोई अन्य काल नहीं ठहर पाता है। व्यापकता और विविधता आधुनिक काल में तो है, किन्तु वह सांस्कृतिक सन्दर्भों को छोड़कर, ऐतिहासिक प्रस्तुतियों को भुलाकर लायी गयी है। साथ ही आधुनिककाल से व्यापक भले ही हों, किन्तु अनुभूति की गहराई और भावुकता का जो स्वरूप भक्तिकाल में मिलता है, वह आधुनिक काल में उपलब्ध नहीं है। रीतिकाल तो स्पष्ट रूप से कला का वैभवकाल है। रीतिकाल में जितने भी कवि हुए, वे सभी आचार्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति से प्रेरित रहे, शब्द विधान के खिलवाड़ दिखाते रहे और अपने आश्रयदाताओं को सन्तुष्ट और प्रसन्न करने के लिए नायक-नायिकाओं की ऐसी अदाकारी दिखाते रहे ताकि उन्हें बदले में अशर्फियाँ मिलती रहे। स्पष्ट है कि रीतिकाल भक्तिकाल की तुलना में हल्का पड़ता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार, "समूचे भारतीय इतिहास में अपने ढंग का अकेला साहित्य है, इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है। यह साहित्य एक महती साधना और प्रेमोल्लास का देश है जहाँ जीवन के सभी विषाद, नैराश्य और कुंठाएँ घुल जाती हैं। भारतीय जनता भक्ति साहित्य के श्रवण से उस युग में आशान्वित होकर सान्त्वना प्राप्त करती रही है, आज भी उसे तृप्ति मिल रही है। भविष्य में भी यही साहित्य उसके जीवन का सम्बल बना रहेगा। भक्ति काव्य जहाँ उच्चतम धर्म की व्याख्या करता है वहाँ उसमें उच्चकोटि के काव्य के भी दर्शन होते हैं। इसकी आत्मा भक्ति है, उसका जीवन-स्रोत रस हैं, उसका शरीर मानवी है। रस की दृष्टि से भी यह काव्य श्रेष्ठ है। यह साहित्य एक साथ हृदय, मन और आत्मा की भूख से तृप्त करता है। यह काव्य एक साथ लोक तथा परलोक का स्पर्श करता है। यह साहित्य परम् भक्ति का साहित्य है, इसमें आडम्बरविहीन एक शुचितापूर्ण सरल जीवन की सरल झाँकी है।
डॉ. श्यामसुन्दर दास के शब्दों में, "जिस युग में कबीर, जायसी, सूर, तुलसी जैसे रास-कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तःकरणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं। निश्चित ही वह हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग था।' आगे चलकर वे लिखते हैं- हिन्दी काव्य में से यदि वैष्णव कवियों के काव्य को निकाल दिया जाये, तो जो बचेगा वह इतना हल्का होगा कि हम उस पर किसी प्रकार का गर्व न कर सकेंगे। लगभग 300 वर्ष की इस हृदय और मन की साधना के बल पर ही हिन्दी अपना सिर अन्य प्रान्तीय साहित्यों के ऊपर उठाये हुए है। तुलसीदास, सूरदास, नन्ददास, मीरा, रसखान, हित, हरिवंश, कबीर इनमें से किसी पर भी संसार का कोई साहित्य गर्व कर सकता है। हमारे पास ये सब हैं। ये वैष्णव कवि हिन्दी भारती के कण्ठमाल है।' यह साहित्य एकदम अनुपम और विलक्षण है। यह साहित्य कविता सम्बन्धी दृष्टिकोण, काव्य-सौष्ठव, भावपक्ष और कलापक्ष, संगीत भारतीय संस्कृति और सभ्यता, भिन्न-भिन्न काव्य रूपों, लोक, मंगल, लोकरंजन और भाषा सभी दृष्टियों से सर्वोत्तम बन पड़ा है।
भक्तिकाल की समृद्धि के कारण - डॉ. वेद प्रकाश अमिताभ ने लिखा है कि "अत्यन्त विषम परिस्थितियाँ उस समय विद्यमान थीं। मुसलमानी तलवार का पानी धीरे-धीरे हिन्दू नरेशों का सिंहासन डुबाता जा रहा था। साधारण जनता भी आतंक ग्रस्त थी। कवि की वाणी की दीपशिखा भी अन्तिम साँसें ले रही थी। आखिर उत्साह का नवनीत उसे कब तक जिलाए रहता। न आश्रयदाताओं का शौर्य रहा और न उत्साह। सारा समाज एक महान अंधकार में खोता जा रहा था। ऐसी परिस्थितियों में कुछ समान विचारधारा वाले सन्त और भक्त अपने हाथों में ज्ञान और भक्ति का प्रकाश लेकर आये, उन्होंने अपनी सहज वाणी के माध्यम से कोटि-कोटि जनों के हृदय को ज्योर्तिवान कर दिये। इन लोगों का नेतृत्व कर रहे थे कबीर, जायसी, सूर और तुलसी। ये चारों क्रमशः ज्ञानश्रयी, प्रेमाश्रयी, कृष्णभक्ति एवं सम भक्ति शाखाओं से सम्बद्ध हैं तथापि इनके काव्य में अनेक स्थलों पर समय दिखाई पड़ता है। भक्तिकाल के साहित्य जिन कारणों से रीतिकालीन युग की तुलना में अधिक समृद्ध सिद्ध होता है, जिनके कारण निम्नलिखित हैं-
(1) महत प्रेरणा और महत् उद्देश्य - हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल जिस उद्देश्य और प्रेरणा से परिचालित रहा है, वह न केवल विशिष्ट है, अपितु अनुकरणीय भी है। यह वह साहित्य है, जिसके मूल में महान प्रेरणाएँ काम कर रही हैं और जिसके सृजन का उद्देश्य छोटा और संकुचित उद्देश्य न होकर महान् है। इस उद्देश्य को हम भक्ति अध्यात्म और मानव जीवन में व्याप्त विषमताओं के मध्य समीकरण का उद्देश्य कह सकते हैं। पूरे भक्तिकाल में यही उद्देश्य दिखलाई देता है। रीतिकाल का उद्देश्य ऐसा कभी नहीं रहा, वहाँ उद्देश्य के नाम पर निरुद्देश्यता, आश्रयदाताओं की प्रशंसा और धन-लिप्सा का काम लिप्सा ही अधिक दिखलाई देती है। ऐसी स्थिति में महत् प्रेरणा और महत् उद्देश्य के आधार पर भक्तिकाल रीतिकाल से अधिक समृद्ध दिखलाई देता है।
(2) महान आदर्श और उत्कृष्ट विचारधारा - भक्तिकाल के अन्तर्गत सन्तों- सूफियों और भक्तों के जो आदर्श मिलते हैं वे उत्कृष्ट है और उनमें निरूपित तथ्य महान हैं। पूरे भक्तिकाल में ऐसे-ऐसे आदर्शों की सृष्टि हुई है, जिन्हें हम अविस्मरणीय और अनुकरणीय कह सकते हैं। इस विषय में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- "रामानन्द और बल्लाभाचार्य के पहले का हिन्दी साहित्य किसी बड़े आदर्श से चालित नहीं था। आश्रयदाता राजाओं के गुणकीर्तन और काव्यगत रूढ़ियों पर आधारित साहित्य सूक्तियों को जन्म दे सकता है, पर वह समाज को किसी नये रास्ते पर चलने की स्फूर्ति नहीं दे सकता। चौदहवीं शताब्दी से पूर्व के साहित्य ने कोई नयी प्रेरणा नहीं दी, किन्तु नया साहित्य मनुष्य जीवन के एक निश्चित लक्ष्य और आदर्श को लेकर चला। यह लक्ष्य है भगवत भक्ति, आदर्श, शुद्ध सात्विक जीवन और साधन एवं भगवान के निर्मल चरित्र और सरस लीलाओं का गान। इस साहित्य को प्रेरणा देने वाला तत्व भक्ति है. इसीलिए यह साहित्य अपने पूर्ववर्ती साहित्य से सब प्रकार से भिन्न है। उसका लक्ष्य था राजसंरक्षण कवियश और वाकसिढ़ि प्रेरक तत्व के बदलने के कारण 15वीं शताब्दी के बाद का साहित्य बिल्कुलन नवीन -सा जान पड़ता है। इस काल का हिन्दी साहित्य ऊर्ध्वबहु होकर घोषणा करता है कि लक्ष्य बड़ा होने से ही साहित्य बड़ा होता है। जिस दिन साहित्य इस तथ्य को भूल गया और सूक्तियों को लेकर खिलवाड़ करने के चक्कर में पड़ गया, उसी दिन से साहित्य का अधःपतन शुरू हुआ। भक्तिकाल में जो उत्कृष्ट विचारधारा और अविस्मरणीय आदर्श होते हैं वे रीतिकाल में उपलब्ध नहीं होते।
(3) भावों का माधुर्य - भक्तिकाल का साहित्य रीतिकालं की तुलना में इसलिए भी विशिष्ट है कि उसमें भावों का माधुर्य अपेक्षाकृत अधिक मिलता है। सामान्यतः भावों की मधुरता रीतिकाल में भी आद्यन्त व्याप्त है, किन्तु उस मधुरता का एक बड़ा दोष यह है कि वहाँ यह माधुर्य अलंकारों के घेरे में घिर गया है। शब्दों के खिलवाड़ में पड़ गया है। भक्तिकाल के कवियों ने विशेषकर सूर, तुलसी, मीरा, जायसी आदि ने भावो की मधुरिमा को पूरी सहृदयता और संवेद्यता प्रदान की है। यही कारण है कि भक्तिकाल भावों के माधुर्य के कारण रीतिकाल की तुलना में अधिक समृद्ध कहा जा सकता है। भक्तिकाल में आयी भाव- मधुरिमा रस का सागर है और रीतिकाल की मधुरिमा मात्रस तालाब का सौन्दर्य प्रस्तुत करती है, जिसका पानी गंदला भी हो सकता है।
(4) लोक दृष्टि की व्यापकता - भक्तिकाल रीतिकाल की तुलना में इसलिए भी विशिष्ट है अथवा कहें की समृद्ध है कि उसमें वर्णित लोक दृष्टि व्यापक है। यह लोक दृष्टि की व्यापकता रीतिकाल में उपलब्ध नहीं। भक्तिकाल के कवि समाज के साथ रहे हैं. सुधार करते रहे हैं। समाज से भागे नहीं, बल्कि उसी में रहकर समाज को सही दिशा देन का काम कर रहे। भक्तिकाल का साहित्य वह साहित्य है, जिसने हमें लोक दृष्टि के लिए सामाजिकता प्रदान की हमारे जीवन से हमें अवगत कराया और व्यक्तिगत अहंकार के गढ़ को तोड़कर व्यापकता की भूमिका पर ला खड़ा किया। इससे धार्मिक एकता भी बढ़ी, समाज में शक्ति आयी और वह सन्तुलित कदमों से आगे बढ़ा। यह लोक दृष्टि सूफियों, सन्तों, कृष्णभक्त कवियों और रामभक्त तुलसी, सभी के पास हैं। सूरदास ने लोकवृत्ति को तो ग्रहण कर लिया था, पर वे लोक प्रवाह को ग्रहण नहीं कर पाये। भक्तिकाल में लोक दृष्टि की सर्वाधिक पहचान तुलसीदास को रही है। उनके विषय में कहा गया है कि "तुलसी सोंटा चिमटा अथवा तुमड़ी कण्ठा लेकर समाज से अलग हो धुनी रमाने वाला वैरागी बाबा नहीं था, बल्कि "सियाराम सब जग" जानकर "निश्चित करो मही" का मंत्र फूंकने वाला था। उसने "भलि भारत भूमि" में जन्म लेकर इसकी भलाई की बात सोचने की ठान ली थी। वह तो कह रहा था, "भलि भारत भूमि भल कुल जन्म समाज शरीर भलो लहि कै। यदि यह कहा जाये कि वह हिन्दी का ही नहीं, समस्त भारत का प्रथम राष्ट्रकवि था संस्कृति और राष्ट्र के उत्थान के लिए सर्वप्रथम उसने ही बीजवपन किया, तो लोग अत्युक्ति मान लेंगे। पर है यह सच बात गाँव-गाँव में मारुति पूजा और धनुर्धारी राम की उपासना का प्रचार करने वाला, रामलीला के द्वारा राम के "दुर्गाकांटि अमिट अरिमर्दन" विधि हरि शंभु नचावन हारे" राम की भक्ति का प्रचार करने वाला यदि देश ने ऐहिक संगठन में योग दे रहा था तो आश्चर्य कैसा। रीतिकाल के अन्तर्गत ऐसी व्यापकता किसी भी कवि के पास उपलब्ध नहीं है। अतः निश्चित ही भक्तिकाल रीतिकाल की अपेक्षा इस बिन्दु से भी अधिक समृद्ध प्रमाणित होता है।
(5) समन्वय की विराट चेष्टा - हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल समन्वय की विराट चेष्टा है। यह वह काल है, जिसमें भावात्मक समन्वय स्थापित करने में सन्तों और भक्तों ने समान योगदान दिया। भक्तिकाल में सामान्य भक्तिमार्ग की प्रतिष्ठा की गयी, सन्तों और भक्ति काव्य का प्रवर्तन हुआ, सन्तों और भक्तों में भावात्मक एकता बढ़ी समन्वय के सिद्धान्त को काव्य, दर्शन और चिन्तन आदि सभी क्षेत्रों में स्वीकार किया गया, अभेधात्मक दृष्टि का निरूपण हुआ, जन-जागरण को प्रोत्साहित किया गया, राष्ट्रीय चेतना को बढ़ावा मिला, प्रगतिशील मानववाद का प्रतिपादन हुआ और भारतीय संस्कृति का समर्थन किया गया। ऐसी स्थिति में कह सकते हैं कि भक्तिकाल में सन्त एवं भक्त कवियों की रचनाओं ने समस्त भारत को एकता के सूत्र में बाँध दिया। कृष्ण भक्त कवियों के साहित्य ने प्रत्येक भारतवासी के मन में ब्रज और ब्रजराज के प्रति आकर्षण उत्पन्न किया है। ब्रजमण्डल में स्थित राधा स्वामी सम्प्रदाय के सदस्य कबीर आदि सन्तं कवियों की रचनाओं का पाठ उसी आदर के साथ करते हैं, जिस आदर के साथ पंजाब के सिक्ख अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में गुरुग्रन्थ साहब के शब्दों का पाठ करते हैं। समस्त भारतवासी कबीर और तुलसी के नामों को जानता है। इसका अर्थ ही यह है कि वह उनके द्वारा दिये गये सन्देश को मानता है। हमारे इन सन्त और भक्त कवियों के न जाने कितने पद और भजन आज भी देश के कोने-कोने में संगीत प्रेमियों का रंजन करते रहते हैं। भारत की भावनात्मक एकता को बद्धमूल करने के लिए यह आवश्यक है कि इन सन्त और भक्त कवियों की रचनाओं का अधिकाधिक पठन-पाठन, प्रसार-प्रचार किया जाये। हम यह बात निःसंकोच कह सकते हैं कि भक्तिकाल का काव्य समन्वय की चेष्टा है।' समन्वय की यह विराट चेष्टा रीतिकाल में उपलब्ध नहीं होती है। अतः भक्तिकाल को रीतिकाल से अधिक समृद्ध काल कहने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
(6) संस्कृति, धर्म और नीति की त्रिवेणी - हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल संस्कृति, धर्म और नीति की त्रिवेणी प्रस्तुत करता है। भक्तिकाल के साहित्य का एक सांस्कृतिक परिपार्श्व है। यह सांस्कृतिक परिपार्श्व रीतिकाल में उपलब्ध नहीं होता है। भक्तिकाल में भारतीय संस्कृति की सभी विशेषताएँ इसमें मिलती हैं। धर्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता, आचार और विचार सभी का उचित वर्णन एवं सामंजस्य भक्तिकाल में दिखाई देता है। यह हम भारतीय संस्कृति के विविध पहलुओं और विचारों को जानना चाहते हैं, तो हमें भक्तिकालीन सूर, कबीर, जायसी, तुलसी और मीरा के काव्य का अध्ययन करना चाहिए। इस काल में सगुण, निर्गुण भक्ति योग, दार्शनिकता, आध्यात्मिकता और आदर्श जीवन के आकर्षण चित्र मिलते हैं।
कबीर की साखियाँ, सूर का भ्रमरगीत, तुलसी का रामचरितमानस और मीरा की वाणी आदि सभी में जीवन का सन्देश निहित है। तुलसी का मानस नाना पुराण निगमागम का सार लिये हुए हैं। उसमें भक्ति, ज्ञान और कर्म की त्रिवेणी लहराती हुई दिखाई देती है। भक्तिकाव्य में ऐसी धार्मिक भावनाओं का समावेश है जो भारतीय संस्कृति के मूल तत्व हैं। ऐसी स्थिति में यह कहना उचित प्रतीत होता है कि भक्तिकाल का साहित्य समन्वय की विराट चेष्टा है। तुलसी के राम और सीता अलौकिक और आदर्श व्यक्ति हैं। सूर, नन्ददास आदि कवियों के कृष्ण और राधा भी रीतिकालीन श्रृंगारिकता में लिपटे हुए नहीं है। ये सब पतित पावन है, समाज के प्रेरक और उद्धारकर्ता हैं।
(7) भक्ति, धर्म और दर्शन का संगम - हिन्दी साहित्य के भक्तिकाव्य में भक्ति, धर्म और दर्शन तीनों को समान महत्व प्राप्त है। यहाँ काव्य के साथ धर्म का धर्म एवं काव्य के साथ दर्शन का सहज सम्बन्ध देखा जा सकता है। यह सम्बन्ध कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा जैसे कवियों में उपलब्ध है। यह स्थिति रीतिकाव्य के कवियों में नहीं है अतः रीतिकाव्य इस भूमिका पर भक्तिकाल से हल्का नजर आता है।
निष्कर्ष - संक्षेप में, हम यह कह सकते हैं कि भक्तिकाल क्षेत्र अधिक व्यापक अधिक लोक ग्राह्य, अधिक मार्मिक और अधिक प्रभावशाली है। रीतिकाल में ऐसी व्यापकता, ऐसी मधुरता, मार्मिकता और धर्म- दर्शन और काव्य की त्रिवेणी नहीं मिलती है। अतः कह सकते हैं कि हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल, रीतिकाल की अपेक्षा अधिक समृद्ध है।
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- प्रश्न- भारतीय ज्ञान परम्परा और हिन्दी साहित्य पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में शुक्लोत्तर इतिहासकारों का योगदान बताइए।
- प्रश्न- प्राचीन आर्य भाषा का परिचय देते हुए, इनकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए?
- प्रश्न- मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए, इनकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए?
- प्रश्न- आधुनिक आर्य भाषा का परिचय देते हुए उनकी विशेषताएँ बताइए।
- प्रश्न- हिन्दी पूर्व की भाषाओं में संरक्षित साहित्य परम्परा का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- वैदिक भाषा की ध्वन्यात्मक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य का इतिहास काल विभाजन, सीमा निर्धारण और नामकरण की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- आचार्य शुक्ल जी के हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन का आधार कहाँ तक युक्तिसंगत है? तर्क सहित बताइये।
- प्रश्न- काल विभाजन की उपयोगिता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- आदिकाल के साहित्यिक सामग्री का सर्वेक्षण करते हुए इस काल की सीमा निर्धारण एवं नामकरण सम्बन्धी समस्याओं का समाधान कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य में सिद्ध एवं नाथ प्रवृत्तियों पूर्वापरिक्रम से तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- नाथ सम्प्रदाय के विकास एवं उसकी साहित्यिक देन पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- जैन साहित्य के विकास एवं हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उसकी देन पर एक समीक्षात्मक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- सिद्ध साहित्य पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- आदिकालीन साहित्य का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य में भक्ति के उद्भव एवं विकास के कारणों एवं परिस्थितियों का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- भक्तिकाल की सांस्कृतिक चेतना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- कृष्ण काव्य परम्परा के प्रमुख हस्ताक्षरों का अवदान पर एक लेख लिखिए।
- प्रश्न- रामभक्ति शाखा तथा कृष्णभक्ति शाखा का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- प्रमुख निर्गुण संत कवि और उनके अवदान विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- सगुण भक्ति धारा से आप क्या समझते हैं? उसकी दो प्रमुख शाखाओं की पारस्परिक समानताओं-असमानताओं की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- भक्तिकाल स्वर्णयुग है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
- प्रश्न- उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल ) की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, काल सीमा और नामकरण, दरबारी संस्कृति और लक्षण ग्रन्थों की परम्परा, रीति-कालीन साहित्य की विभिन्न धारायें, ( रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त) प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ, रचनाकार और रचनाएँ रीति-कालीन गद्य साहित्य की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियों का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी के रीतिमुक्त कवियों की विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- बिहारी रीतिसिद्ध क्यों कहे जाते हैं? तर्कसंगत उत्तर दीजिए।
- प्रश्न- रीतिकाल को श्रृंगार काल क्यों कहा जाता है?
- प्रश्न- आधुनिक काल की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, सन् 1857 ई. की राजक्रान्ति और पुनर्जागरण की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी नवजागरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल का प्रारम्भ कहाँ से माना जाये और क्यों?
- प्रश्न- आधुनिक काल के नामकरण पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भारतेन्दु युग के प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- भारतेन्दु युग के गद्य की विशेषताएँ निरूपित कीजिए।
- प्रश्न- द्विवेदी युग प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- द्विवेदी युगीन कविता के चार प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिये। उत्तर- द्विवेदी युगीन कविता की चार प्रमुख प्रवृत्तियां निम्नलिखित हैं-
- प्रश्न- छायावादी काव्य के प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- छायावाद के दो कवियों का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- छायावादी कविता की पृष्ठभूमि का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- उत्तर छायावादी काव्य की विविध प्रवृत्तियाँ बताइये। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, नवगीत, समकालीन कविता, प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- प्रयोगवादी काव्य प्रवृत्तियों का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- प्रगतिवादी काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी की नई कविता के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उसकी प्रमुख प्रवृत्तिगत विशेषताओं का प्रकाशन कीजिए।
- प्रश्न- समकालीन हिन्दी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- गीत साहित्य विधा का परिचय देते हुए हिन्दी में गीतों की साहित्यिक परम्परा का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- गीत विधा की विशेषताएँ बताते हुए साहित्य में प्रचलित गीतों वर्गीकरण कीजिए।
- प्रश्न- भक्तिकाल में गीत विधा के स्वरूप पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
- अध्याय - 13 विद्यापति (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- विद्यापति पदावली में चित्रित संयोग एवं वियोग चित्रण की विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- विद्यापति की पदावली के काव्य सौष्ठव का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- विद्यापति की सामाजिक चेतना पर संक्षिप्त विचार प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- विद्यापति भोग के कवि हैं? क्यों?
- प्रश्न- विद्यापति की भाषा योजना पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- विद्यापति के बिम्ब-विधान की विलक्षणता का विवेचना कीजिए।
- अध्याय - 14 गोरखनाथ (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- गोरखनाथ का संक्षिप्त जीवन परिचय दीजिए।
- प्रश्न- गोरखनाथ की रचनाओं के आधार पर उनके हठयोग का विवेचन कीजिए।
- अध्याय - 15 अमीर खुसरो (व्याख्या भाग )
- प्रश्न- अमीर खुसरो के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- अमीर खुसरो की कविताओं में व्यक्त राष्ट्र-प्रेम की भावना लोक तत्व और काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- अमीर खुसरो का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके काव्य की विशेषताओं एवं पहेलियों का उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- अमीर खुसरो सूफी संत थे। इस आधार पर उनके व्यक्तित्व के विषय में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- अमीर खुसरो के काल में भाषा का क्या स्वरूप था?
- अध्याय - 16 सूरदास (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- सूरदास के काव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- "सूर का भ्रमरगीत काव्य शृंगार की प्रेरणा से लिखा गया है या भक्ति की प्रेरणा से" तर्कसंगत उत्तर दीजिए।
- प्रश्न- सूरदास के श्रृंगार रस पर प्रकाश डालिए?
- प्रश्न- सूरसागर का वात्सल्य रस हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है। सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- पुष्टिमार्ग के स्वरूप को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए?
- प्रश्न- हिन्दी की भ्रमरगीत परम्परा में सूर का स्थान निर्धारित कीजिए।
- अध्याय - 17 गोस्वामी तुलसीदास (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- तुलसीदास का जीवन परिचय दीजिए एवं उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- तुलसी की भाव एवं कलापक्षीय विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- अयोध्याकांड के आधार पर तुलसी की सामाजिक भावना के सम्बन्ध में अपने समीक्षात्मक विचार प्रकट कीजिए।
- प्रश्न- "अयोध्याकाण्ड में कवि ने व्यावहारिक रूप से दार्शनिक सिद्धान्तों का निरूपण किया है, इस कथन पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
- प्रश्न- अयोध्याकाण्ड के आधार पर तुलसी के भावपक्ष और कलापक्ष पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'तुलसी समन्वयवादी कवि थे। इस कथन पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- तुलसीदास की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- राम का चरित्र ही तुलसी को लोकनायक बनाता है, क्यों?
- प्रश्न- 'अयोध्याकाण्ड' के वस्तु-विधान पर प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 18 कबीरदास (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- कबीर का जीवन-परिचय दीजिए एवं उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिये।
- प्रश्न- कबीर के काव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- कबीर के काव्य में सामाजिक समरसता की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- कबीर के समाज सुधारक रूप की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- कबीर की कविता में व्यक्त मानवीय संवेदनाओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- कबीर के व्यक्तित्व पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 19 मलिक मोहम्मद जायसी (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन-परिचय दीजिए एवं उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- जायसी के काव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- जायसी के सौन्दर्य चित्रण पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- अध्याय - 20 केशवदास (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- केशव को हृदयहीन कवि क्यों कहा जाता है? सप्रभाव समझाइए।
- प्रश्न- 'केशव के संवाद-सौष्ठव हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि हैं। सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- आचार्य केशवदास का संक्षेप में जीवन-परिचय दीजिए।
- प्रश्न- केशवदास के कृतित्व पर टिप्पणी कीजिए।
- अध्याय - 21 बिहारीलाल (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- बिहारी की नायिकाओं के रूप-सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी के काव्य की भाव एवं कला पक्षीय विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- बिहारी ने किस आधार पर अपनी कृति का नाम 'सतसई' रखा है?
- प्रश्न- बिहारी रीतिकाल की किस काव्य प्रवृत्ति के कवि हैं? उस प्रवृत्ति का परिचय दीजिए।
- अध्याय - 22 घनानंद (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- घनानन्द का विरह वर्णन अनुभूतिपूर्ण हृदय की अभिव्यक्ति है।' सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द के वियोग वर्णन की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- घनानन्द का जीवन परिचय संक्षेप में दीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द के शृंगार वर्णन की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
- अध्याय - 23 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की शैलीगत विशेषताओं को निरूपित कीजिए।
- प्रश्न- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काव्य की भाव-पक्षीय विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाषागत विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- भारतेन्दु जी के काव्य की कला पक्षीय विशेषताओं का निरूपण कीजिए। उत्तर - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काव्य की कलापक्षीय कला विशेषताएँ निम्न हैं-
- अध्याय - 24 जयशंकर प्रसाद (व्याख्या भाग )
- प्रश्न- सिद्ध कीजिए "प्रसाद का प्रकृति-चित्रण बड़ा सजीव एवं अनूठा है।"
- प्रश्न- जयशंकर प्रसाद सांस्कृतिक बोध के अद्वितीय कवि हैं। कामायनी के संदर्भ में उक्त कथन पर प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 25 सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (व्याख्या भाग )
- प्रश्न- 'निराला' छायावाद के प्रमुख कवि हैं। स्थापित कीजिए।
- प्रश्न- निराला ने छन्दों के क्षेत्र में नवीन प्रयोग करके भविष्य की कविता की प्रस्तावना लिख दी थी। सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
- अध्याय - 26 सुमित्रानन्दन पन्त (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- पंत प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- 'पन्त' और 'प्रसाद' के प्रकृति वर्णन की विशेषताओं की तुलनात्मक समीक्षा कीजिए?
- प्रश्न- प्रगतिवाद और पन्त का काव्य पर अपने गम्भीर विचार 200 शब्दों में लिखिए।
- प्रश्न- पंत के गीतों में रागात्मकता अधिक है। अपनी सहमति स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- पन्त के प्रकृति-वर्णन के कल्पना का अधिक्य हो इस उक्ति पर अपने विचार लिखिए।
- अध्याय - 27 महादेवी वर्मा (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का उल्लेख करते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
- प्रश्न- "महादेवी जी आधुनिक युग की कवियत्री हैं।' इस कथन की सार्थकता प्रमाणित कीजिए।
- प्रश्न- महादेवी वर्मा का जीवन-परिचय संक्षेप में दीजिए।
- प्रश्न- महादेवी जी को आधुनिक मीरा क्यों कहा जाता है?
- प्रश्न- महादेवी वर्मा की रहस्य साधना पर विचार कीजिए।
- अध्याय - 28 सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- 'अज्ञेय' की कविता में भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों समृद्ध हैं। समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- 'अज्ञेय नयी कविता के प्रमुख कवि हैं' स्थापित कीजिए।
- प्रश्न- साठोत्तरी कविता में अज्ञेय का स्थान निर्धारित कीजिए।
- अध्याय - 29 गजानन माधव मुक्तिबोध (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- मुक्तिबोध की कविता की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
- प्रश्न- मुक्तिबोध मनुष्य के विक्षोभ और विद्रोह के कवि हैं। इस कथन की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
- अध्याय - 30 नागार्जुन (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- नागार्जुन की काव्य प्रवृत्तियों का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- नागार्जुन के काव्य के सामाजिक यथार्थ के चित्रण पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
- प्रश्न- अकाल और उसके बाद कविता का प्रतिपाद्य लिखिए।
- अध्याय - 31 सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' (व्याख्या भाग )
- प्रश्न- सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'धूमिल की किन्हीं दो कविताओं के संदर्भ में टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' के संघर्षपूर्ण साहित्यिक व्यक्तित्व की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' का संक्षिप्त जीवन परिचय लिखिए।
- प्रश्न- धूमिल की रचनाओं के नाम बताइये।
- अध्याय - 32 भवानी प्रसाद मिश्र (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- भवानी प्रसाद मिश्र के काव्य की विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- भवानी प्रसाद मिश्र की कविता 'गीत फरोश' में निहित व्यंग्य पर प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 33 गोपालदास नीरज (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- कवि गोपालदास 'नीरज' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'तिमिर का छोर' का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'मैं तूफानों में चलने का आदी हूँ' कविता की मूल संवेदना स्पष्ट कीजिए।