बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर -
बुद्धिवाद वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार बुद्धि मानव जीवन का प्रमुख तत्व है। इसके अनुसार मनुष्य का वास्तविक स्वरूप भावनात्मक न होकर बौद्धिक है। काण्ट के बौद्धिक नीतिशास्त्र के अनुसार नैतिक नियम और कर्म के औचित्य को बुद्धि के द्वारा ही समझ सकते हैं। बुद्धि आचरण के लिए नियम प्रदान करती है। इस प्रकार आचरण के नियम बौद्धिक नियम होते हैं। वही कर्म नैतिक और उचित कहा जा सकता है जो बौद्धिक नियमों से संचालित किया जाता है। बुद्धि द्वारा ही नैतिक कर्मों के लिए सर्वोच्च मानदण्ड के रूप में नियम या आदेश दिया जाता है। वही कर्म उचित कहा जा सकता है बौद्धिक नियम के अनुकूल है।
काण्ट ने बौद्धिक नीतिशास्त्र में सार्वभौमिक और निरपेक्ष नियमों का समर्थन किया है। काण्ट का निरपेक्ष नियमों का समर्थन किया है। काण्ट का निरपेक्ष सिद्धान्त सुखवाद के निरपेक्ष के सिद्धान्त से भिन्न है। यह सुखवाद की कुछ कमियों को दूर करता है। काण्ट का बौद्धिक नीतिशास्त्र बुद्धि की श्रेष्ठता की स्थापना करता है। काण्ट के अनुसार, "बुद्धि ही एकमात्र ऐसा तत्व है जो किसी मनुष्य को व्यक्ति की संज्ञा प्रदान करता है। बौद्धिक जीवन ही शुभ माना गया है। अतः कहा जा सकता है कि काण्ट ने बुद्धि की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। काण्ट ने अपने बौद्धिक नीतिशास्त्र में अन्तरात्मा के अस्तित्व में आस्था प्रकट की। इनके अनुसार, व्यक्ति की अन्तरात्मा सदैव उसे गलत कार्यों को करने से रोकती है। यदि व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा के विरुद्ध कार्य करता है तो वह नैतिकता के नियमों की अवहेलना करता है। बुद्धिवाद मानता है कि भावनाएँ बुद्धि के प्रतिकूल है और भावनाओं को नैतिक जीवन व्यतीत करन के लिए नष्ट कर देना चाहिए, क्योंकि इनसे आत्मविकास नहीं होता। भावनाएँ आत्मा को शरीर के बन्धन में आबद्ध कर लेती है।
काण्ट ने बौद्धिक नीतिशास्त्र के सामान्य सिद्धान्तों का ऐसा विवेचन किया है जैसा आज तक किसी ने भी नहीं किया है। जैसे तर्कशास्त्र के नियमों को तर्क नियमों को, सर्वप्रथम अरस्तू ने खोजा था, भौतिकी के नियमों को सर्वप्रथम न्यूटन ने सुसम्बद्ध किया था, वैसे काण्ट ने अहैतुक आदेश के पाँच सूत्रों द्वारा सर्वप्रथम नीतिशास्त्र के प्रमुख नियमों या नीति-नियमों को सुसम्बद्ध किया है। इंसीलिए उसको नीतिशास्त्र का न्यूटन कहा जाता है। काण्ट के बाद नीतिशास्त्र सुव्यवस्थित हो गया। नीति-नियमों या अहैतुक आदेश के पाँच सूत्रों का नीतिशास्त्र में वही महत्व है जो तर्क- नियमों का तर्कशास्त्र में है। तर्क नियम किसी भी तर्क की प्रामाणिकता की कसौटी है। वे स्वयं किसी वस्तु को सिद्ध करने के लिए कोई विशेष कर्म का निर्देश नहीं करते हैं। किन्तु जो भी कर्म हों उनके शुभत्व और अशुभत्व का या अच्छाई और बुराई का निकष प्रस्तुत करते हैं। तर्क - नियमों की भाँति नीति-नियमों का भी यदि विधिमूलक महत्व नहीं है तो निषेधमूलक महत्व निर्विवाद है। हम इनके आधार पर जान सकते हैं कि कौन से कर्म अनुचित हैं।
कुछ आलोचकों का कहना है कि काण्ट का नीतिशास्त्र मात्र आकारिक है। इन लोगों के अनुसार काण्ट हमें भावना रहित या प्रवृत्ति शून्य होकर कर्त्तव्य करने को कहता है, किन्तु जैसा कि हमने ऊपर के विवेचन में देखा है यह आरोप काण्ट पर नहीं लगाया जा सकता है। काण्ट ने भावना रहित होकर कर्त्तव्य करने को नहीं कहा है। उसके मत से कर्त्तव्य पालन भावना रहित होने के स्थान पर श्रद्धा और सन्तोष से युक्त होता है। अतः काण्ट के नीतिशास्त्र को आकारिक नहीं कहा जा सकता है। उसने कर्त्तव्यता का केवल आकार-प्रकार ही नहीं बताया है अपितु अनेक कर्त्तव्यों को भी गिनाया है जिनके करने में नैतिकता चरितार्थ होती है। वस्तुतः काण्ट के कर्त्तव्य- पालन के दो तत्वों में विवेक किया है, बुद्धि-तत्व और भावना तत्व। वह मानता है कि बुद्धि-तत्व भावना-तत्व में निहित रहता किन्तु वह यह भी कहता है कि उनका पालन उनके ही साध्य को रखकर करना चाहिए। कर्त्तव्यतया कर्त्तव्य करना चाहिए, तब वह उन आकारिक तत्वों को व्यापक और भावना को व्याप्त मानकर चलता है और कहता है कि कर्त्तव्य पालन में दोनों तत्व विद्यमान रहते हैं। इस दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि काण्ट का मत मात्र आकारिक नहीं है।
याकोबी ने काण्ट के सदिच्छा सिद्धान्त के बारे में कहा है कि सदिच्छां वह चाह है जो कुछ नहीं चाहती। किन्तु याकोबी की यह आलोचना निराधार है। काण्ट सदिच्छा को एकमात्र निरपेक्ष श्रेय कहता है, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सदिच्छा ही एकमात्र श्रेय है। सदिच्छा के अतिरिक्त सापेक्ष श्रेय है जिसको काण्ट मानता है। हां, निरपेक्ष श्रेय के रूप में वह केवल सदिच्छा को काण्ट महत्तम श्रेय या परम श्रेय मानता है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सदिच्छा सम्पूर्ण श्रेय हैं। सम्पूर्ण श्रेय में महत्तम श्रेय से एक अतिशय है जो आनन्दतत्व है। स्वधर्म का पालन करना ही सच्चा नैतिक जीवन है। आधुनिक युग में अद्वैतवेदान्त का नीतिशास्त्र इन्हीं आदर्शों को मानता है। यही काण्ट का बुद्धिवादी नीतिशास्त्र है।
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