बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
अथवा
धर्म एवं दर्शन के किन्हीं दो अन्तरों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर -
धर्म और दर्शन में अन्तर
यह सत्य है कि धर्म और दर्शन में कुछ बातों को लेकर समानता है और दोनों एक-दूसरे के सहयोगी है इतना होने पर भी धर्म और दर्शन की प्रकृति में जो अन्तर है, उसे भुलाया नहीं. जा सकता है।
1. धर्म की उत्पत्ति आध्यात्मिक असंतोष से होती है। मानव स्वभावतः अपूर्ण, सीमित और असहाय विज्ञान भी उसे पूर्ण और समर्थ बनाने में असमर्थ सिद्ध हुआ है। पूर्ण और सर्वशक्तिमान बनने के लिए वह सहज ही व्यग्र हो उठता है। अपनी इस व्यग्रता को शान्त करने हेतु वह सर्वशक्तिमान आध्यात्मिक सत्ता में विश्वास करने के लिए विवश हो जाता है, जिसकी पूजा अर्चना करके वह अपनी समस्त आवश्यकताओं को संतुष्ट करना चाहता है फलतः धर्म की उत्पत्ति होती है।
बौद्धिक जिज्ञासा से दर्शन की उत्पत्ति होती है। आश्चर्यजनक घटनाओं एवं अतीन्द्रिय आध्यात्मिक तत्वों का रहस्योद्घाटन करने हेतु दर्शन की उत्पत्ति हुई है। दर्शन विश्व की समष्टि को समझने का सुनियोजित प्रयास है।
2. धर्म व्यवहार प्रधान है। धर्म आध्यात्मिक मूल्यों को जीवन में उतारने का प्रयास है। धार्मिक मान्याताओं के अनुकूल आचरण करके सम्पूर्णत्व की प्राप्ति करना धर्म का प्रयोजन है।
दर्शन विचार प्रधान है। वह मात्र सैद्धान्तिक है दर्शन सत्य की खोज का बौद्धिक प्रयास है। ज्ञान में संगति और अध्यात्मिक मूल्यों का बौद्धिक विवेचन ही उसका लक्ष्य है।
3. धर्म की प्रवृत्ति भावना प्रधान है। वह तर्क ही अपेक्षा श्रद्धा और भक्ति को विशेष महत्व देता है। धर्म विश्वास एवं अन्तः अनुभूति का विषय है, प्रमाण का विषय नहीं। धार्मिक अनुभूति का सत्यापन - मिथ्यापन सम्भव नहीं है। उसे मूल्याँकन की दृष्टि से स्वस्थ अस्वस्थ कहा जा सकता है।
दर्शन की प्रवृत्ति ज्ञान प्रधान है। तर्क उसका प्राण है। बुद्धि की कसौटी पर कसने के बाद ही वह किसी विषय को स्वीकार करता है जो बुद्धि ग्राह्य नहीं है उसे वह त्याग देता है। दार्शनिक परम इष्ट को अनुमान से जानता है। तर्कतः बात पुष्ट हो यही दर्शन का प्रयोजन है।
4. धर्मनिष्ठ व्यक्ति प्रार्थना और पूजा-अर्चना द्वारा अपने ईष्ट की अभ्यर्थना करता है। वह परमतत्व का प्रत्यक्ष दर्शन करता है उससे सम्भाषण करता है।
दार्शनिक का कोई ईष्ट नहीं होता है। जिसके प्रति वह प्रतिबद्ध है। वह निष्पक्ष भाव से धार्मिक विषयों की आलोचना प्रत्यालोचना करता है।
5. धर्म उपासक और उपास्य के बीच अपृथक सिद्ध सम्बन्ध मानता है। उपासक अपने को क्षण भर के लिए भी उपास्य से अलग नहीं कर सकता है यही पूर्ण आत्मनिवेदन की अवस्था है।
दर्शन- जगत में आरधक और अराध्य के बीच तादात्म्य सम्बन्ध का प्रश्न ही नहीं उठता है। अतः यहाँ पूजा-पाठ का महत्व नहीं है।
6. धर्म मनुष्य की ज्ञानात्मक, रागात्मक और क्रियात्मक सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयास करता है। अतः धर्म, दर्शन की अपेक्षा अधिक उपयोगी है।
दर्शन मनुष्य की केवल ज्ञानात्मक प्रवृत्ति को ही संतुष्ट करता है। अतः धर्म की अपेक्षा दर्शन का क्षेत्र संकुचित है।
7. धार्मिक अनुभूति ही धर्म का एकमात्र विषय है। दर्शन धार्मिक अधार्मिक सभी प्रकार की अनुभूतियों का विवेचन करता है।
8. धर्म मान्यता युक्त है। धर्माचारी धार्मिक मान्यताओं को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं समझता है उसकी दृष्टि में धार्मिक मान्यताएँ स्वतः सिद्ध हैं।
9. धार्मिक व्यक्ति अपने परम ईष्ट के प्रति अन्तर्वद्ध होता है यथा हिन्दू राम नाम की चर्चा से हर्षातिरेक में विह्वल हो जाता है और राम नाम की निन्दा से तिलमिला जाता है।
दार्शनिक पूर्वाग्रह से मुक्त होता है। वह किसी भी विषय के प्रति अन्तर्ग्रस्त नहीं होता है। निष्पक्षता और तटस्थता उसके चिन्तन की कसौटी है।
10. धर्म में परम्परागत विचारों को युग के अनुरूप न होने पर भी आदर मिलता है यही कारण है कि धर्म अपने को रूढ़ियों से पृथक नहीं कर पाता।
दर्शन परम्परागत विचारों का पुजारी नहीं है वह युग सापेक्ष मूल्यों का अन्वेषक है।
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- प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
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- प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
- प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
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- प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
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- प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
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- प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
- प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
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- प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
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- प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
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- प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
- प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
- प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
- प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
- प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
- प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
- प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
- प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
- प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
- प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
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- प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
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- प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
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- प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
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- प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
- प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?