बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
उत्तर -
जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि में निम्नलिखित तत्व महत्वपूर्ण हैं -
(क) कर्म का सिद्धान्त,
(ख) आत्मा की विभिन्न अवस्थायें,
(ग) आस्रव तत्व,
(घ) बन्ध तत्वं।
उपरोक्त तत्वों को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है।
(क) कर्म का सिद्धान्त - जैन दर्शन में नीतिशास्त्र को समझने से पहले 'कर्म' का स्वरूप जान लेना लाभदायक होगा क्योंकि साधारणतया कर्मों से छुटकारा पाना ही परम लक्ष्य माना गया है। जैनों के अनुसार कर्म पौदगलिक अर्थात् धूल के कण के समान जड़ पदार्थ है। कर्म के इन पौद्गलिक अणुओं को 'कर्मवर्गण' भी कहते हैं। ये इच्छा, द्वेष और भ्रम से प्रेरित मन, शरीर और वाग की क्रियाओं तथा वासनाओं से उत्पन्न होते हैं।
कर्म के भेद - मुख्य रूप से कर्म के निम्नलिखित दो भेद हैं-
1. घातीय अथवा नाशवान्,
2. अघातीय जोकि नाशवान् नहीं है।
घातीय कर्म के निम्नलिखित चार भेद हैं-
(i) ज्ञानावरणीय अर्थात् ज्ञान को ढँकने वाले,
(ii) दर्शनावरणीय अर्थात् प्रत्यक्ष में बाधक,
(iii) अन्तराय अर्थात् प्रगति में बाधक,
(iv) मोहनीय अर्थात् भ्रम उत्पन्न करने वाले।
अघातीय कर्म के भी निम्नलिखित चार भेद हैं
(i) आयुष कर्म,
(ii) नाम कर्म,
(iii) गोत्र कर्म, तथा
(iv) वेदना निश्चय करने वाले ( वेदनीय कर्म)।
उपरोक्त आठ तरह के कर्म ही बन्धन का कारण हैं।
(ख) आत्मा की विभिन्न अवस्थायें - जैन दर्शन में आत्मा की भिन्न-भिन्न अवस्थायें मानी गई हैं। ये अवस्थायें निम्नलिखित हैं-
1. परिमाणिक - जबकि उसके विचार और क्रियायें शुद्ध और कर्म से स्वतन्त्र हैं।
2. औदायिक - जबकि कर्मों का उदय और फल हो।
3. औपशमिक - जबकि नाशवान् कर्मों का फल रोक दिया गया हो।
4. क्षयिक - जबकि नाशवान् कर्मों का उन्मूलन हो गया हो।
5. क्षयोपशमिक - जबकि कुछ कर्मों का नाश हो गया हो, कुछ के फलों को रोक दिया गया हो और कुछ क्रियाशील हो।
(ग) आस्रव तत्व - जैन दार्शनिकों के अनुसार कर्म पुद्गलों के जीव के शरीर में प्रवेश करने को आस्रव कहते हैं। आस्रव जीव के बन्धन का कारण है। जीव और पुद्गल अनन्त काल से लोकाकाश में रहते हैं। इनके साथ जीवों के कर्म भी हैं। अनादि अविद्या के सम्पर्क से क्रोध, लोभ, मान तथा माया के चार कषाय भी जीव के साथ लगे हुए हैं। जीव के कर्मों का फल भी संस्कार के रूप में पुद्गलों के साथ मौजूद रहता है। जड़ होने के कारण कर्म पुद्गल स्वयं जीव में प्रवेश नहीं कर सकते। इस कारण काय, वचन तथा मन की क्रिया की जरूरत होती है। कर्म पुद्गलों के जीव में प्रवेश करने से पहले इन क्रियाओं के द्वारा जीवन में एक तरह का स्पन्दन होता है। क्रियाओं के भेद से इन स्पन्दनों को क्रमशः काययोग, वागयोग और मनोयोग कहते हैं।
आस्रव के भेद - आस्रव के बयालीस भेद हैं जिनमें काययोग, वाग्योग, मनोयोग, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, चार कषाय और अहिंसा, अस्तेय, सत्यभाषण आदि पाँच व्रतों का पालन न करना, ये सत्रह आस्रव विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। इनके अलावा भी पंच्चीस छोटे आस्रव होते हैं। इन सभी बन्धनों के कारण आस्रव के और भी दो भेद किये गये हैं के जीव में प्रवेश करने से पहले जीव में जो परिवर्तन होता है उसे भावास्रव और उससे जीव के बन्धन को द्रव्यास्रव कहते हैं। जैसे तेल लगे शरीर पर धूल चिपककर जमा हो जाती है उसी तरह कर्म पुद्गल भी जीव पर चिपक जाते हैं। इस उदाहरण में तेल से लिप्त होना 'भावास्रव' और उस पर धूल राशि का चिपक जाना 'द्रव्यास्रव' का उदाहरण है।
(घ) बन्ध तत्व - जैन दर्शन में कषायों के कारण जीव के पुद्गल में आक्रान्त हो जाने को बन्ध तत्व कहा गया है। जीव का बन्धन मानसिक प्रवृत्तियों के कारण होता है। बन्ध का मूल कारण दूषित मनोभाव है। जीव में पुद्गलों के प्रवेश करने से पहले भावास्रव उत्पन्न होता है। इसके बाद जीव में जो बन्धन होता है, उसे भावबन्ध कहते हैं। कर्म पुद्गलों में प्रवेश करने के बाद जीव में 'द्रव्यास्रव' उत्पन्न होता है। इससे जीव में जो बन्धन हो जाता है उसे 'द्रव्यबन्ध' कहते हैं। आस्रव जीव का वास्तविक स्वरूप नष्ट कर देता है और जीव बन्धन में फंस जाता है। इन दोनों तत्वों के अलावा कर्म, मिथ्यात्व अविरति और तपस्या के नियमों का पालन न करना इत्यादि सभी जीव के बन्धन के कारण हैं। बन्धन की अवस्था में जीव और पुद्गल एक-दूसरे में प्रविष्ट हो जाते हैं।
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