बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. नैतिक निर्णय के विषय की व्याख्या कीजिए।
2. नैतिक निर्णय का परिचय दीजिए।
3. नैतिक निर्णय के विषय की समीक्षा कीजिए।
उत्तर -
परिचय
हम जानते हैं कि व्यक्ति के केवल ऐच्छिक कर्मों का ही नैतिक निर्णय होता है। ऐच्छिक कर्म स्वतन्त्र तथा स्वेच्छा के साथ संकल्पजन्य होते हैं। ऐच्छिक कर्मों के अतिरिक्त अभ्यासजन्य या आदतन होने वाले कर्मों को भी नैतिक निर्णय के लिये स्वीकार किया जाता है। इस विषय में नीतिशास्त्रियों का स्पष्टीकरण यह है कि समस्त अभ्यासजन्य कर्म शुरू में ऐच्छिक कर्म ही होते हैं तथा इस प्रकार के ऐच्छिक कर्मों को पुनः स्वेच्छा से दोहराने पर ही वे अभ्यासजन्य कर्मों का रूप ले लेते हैं। इसके विपरीत जो कर्म शुद्ध रूप से अनैच्छिक होते हैं, उन्हें नैतिक निर्णय के लिए किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है।
यह स्वीकार कर लेने पर कि ऐच्छिक कर्म ही नैतिक निर्णय के विषय हैं, प्रश्न यह उठता है कि ऐच्छिक कर्म के बाहरी पक्ष को नैतिक निर्णय के लिए स्वीकार किया जाये या आन्तरिक पक्ष को ऐच्छिक कर्म के आन्तरिक पक्ष के अन्तर्गत व्यक्ति की इच्छाएँ, इच्छाओं का संघर्ष, लक्ष्य का विचार, साधन का विचार, चुनाव तथा संकल्प आदि मानसिक क्रियाओं को सम्मलित किया जाता है। इसके अतिरिक्त ऐच्छिक कर्म के बाहरी पक्ष में व्यक्ति की शारीरिक चेष्टाओं तथा प्राप्त होने वाले परिणामों को भी सम्मलित किया जाता है। इस प्रकार से प्राप्त होने वाले परिणाम प्रत्याशित भी हो सकते हैं तथा अप्रत्याशित भी ऐच्छिक कर्म के विश्लेषण के उपरान्त यह स्पष्ट करना जरूरी है कि नैतिक निर्णय में हेतु (Motive) को महत्व दिया जाये या अभिप्राय (Intention) को इस विषय में विस्तृत विवरण अग्रवर्णित है -
नैतिक निर्णय का विषय
नैतिक निर्णय के विषय में अलग-अलग विचार अग्रवर्णित हैं-
(1) नैतिक निर्णय का विषय 'परिणाम' है - नीतिशास्त्र में सुखवाद के समर्थक विद्वानों ने ऐच्छिक कर्म के 'परिणाम' को ही नैतिक निर्णय का विषय स्वीकार किया है। इस मत के समर्थकों का कहना हे कि किसी कर्म की अच्छाई या बुराई शुभ या अशुभ होना उसके परिणाम पर ही आश्रित है। हम कर्म के परिणाम को देखकर ही कर्म के सही या गलत होने का विचार कर सकते हैं। यदि कर्म का परिणाम या फल अच्छा होता है तो कर्म सही माना जायेगा। इसके विपरीत फल के गलत होने पर कर्म को अनुचित ठहराया जायेगा। मिल के शब्दों में, "हेतु को कार्य की नैतिकता से कोई सरोकार नहीं। इसी प्रकार बैन्थम ने भी हेतु की अच्छाई-बुराई को परिणाम पर आश्रित माना है। उनके शब्दों में, "हेतु का अच्छा या बुरा होना परिणाम पर निर्भर करता है।'
सुखवादियों के अनुसारं प्रयोजन उस लक्ष्य का विचार नहीं है जिसके कारण कोई क्रिया सम्पन्न होती है बल्कि मनोभाव है। भाव का क्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं होता अतः कर्म के फल के आधार पर ही नैतिक निर्णय किया जाना चाहिए। फल या परिणाम को कर्म की प्रक्रिया में महत्व देने के कारण सुखवादियों ने घोषणा की है कि 'अन्त भला तो सब भला (All is well that ends well )।
आलोचना - फल या परिणाम को नैतिक निर्णय का विषय मानने के मत को सही नहीं माना गया। इस मत की आलोचना निम्नलिखित रूप में की गयी है -
(i) कर्म के उद्देश्य तथा परिणाम में अन्तर - ऐच्छिक कर्म के विश्लेषण द्वारा स्पष्ट होता है कि यह जरूरी नहीं है कि किसी कर्म का परिणाम कर्ता के उद्देश्य के अनुरूप ही हो। व्यक्ति कुछ सोचकर की कर्म करता है लेकिन कर्म का परिणाम नितांत अलग हो जाता है। व्यक्ति अच्छाई के लिये कर्म करता है लेकिन फल बुरा ही मिलता है। इसके विपरीत उद्देश्य बुरा होने पर भी अनेक बार अच्छा परिणाम प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार कर्म के उद्देश्य तथा परिणाम में अन्तर होने के कारण केवल परिणाम को देखकर कर्म के विषय में सही निर्णय नहीं दिया जा सकता अर्थात् कर्म के परिणाम को नैतिक निर्णय के विषय के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
(ii) कर्म का परिणाम व्यक्ति के वश में नहीं - यह देखा जा सकता है कि कर्म का परिणाम व्यक्ति के वश में नहीं होता अर्थात् परिणाम का निर्धारण एवं प्राप्ति व्यक्ति की इच्छा से नहीं होती। जब इच्छा के अनुसार परिणाम प्राप्त नहीं होता तो उस स्थिति में सम्बन्धित कर्म को ऐच्छिक कर्म की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है? नैतिक निर्णय तो केवल ऐच्छिक कर्मों के ही विषय में दिये जा सकते हैं। इस स्थिति में तो नैतिक कर्म तथा नीति शून्य कर्म में कोई अन्तर नहीं रह जाता। अतः कर्म का मूल्यांकन उसके परिणामों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए।
(2) नैतिक निर्णय का विषय 'हेतु' है - कुछ नीतिशास्त्रियों विशेष रूप से अन्तः अनुभूतिवादियों ( Intuitionists) ने कर्म के हेतु ( Motive) को नैतिक निर्णय का विषय माना है। इस मत के अनुसार नैतिक निर्णय में कर्म की आन्तरिक प्रेरणाओं का विशेष महत्व होता है। कर्म के आन्तरिक स्वरूप के आधार पर ही उसके औचित्य अनौचित्य का निर्धारण किया जाना चाहिए। कभी-कभी ऐसा भी देखने में आता है कि कर्म का परिणाम उसके हेतु के ही अनुसार होता है। ऐसी स्थिति में परिणाम के आधार पर भी नैतिक निर्णय दिया जा सकता है लेकिन यदि हेतु तथा परिणाम में साम्यता न हो तो उस स्थिति में परिणाम को नहीं बल्कि हेतु को नैतिक निर्णय का विषय माना जाना चाहिए। बटलर (Butler) ने स्पष्ट कहा है, "किसी कार्य की अच्छाई या बुराई बहुत कुछ उस हेतु पर आश्रित है जिससे कि वह किया जाना है। इसी प्रकार डा. मार्टिन्यू (Martineau) ने भी स्पष्ट किया है कि कर्म के पीछे निहित भाव के हीन होने की स्थिति में कर्म निम्न माना जाता है तथा इस प्रकार का भाव यदि उच्च एवं महान होता है तो सम्बन्धित कर्म को भी महान ही माना जाना चाहिए।
उपरोक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि अलग-अलग दृष्टिकोण से 'परिणाम' अथवा 'हेतु' को नैतिक निर्णय का विषय माना है। समस्या उस समय उठती है जब किसी कर्म के हेतु' तथा 'परिणाम' में अन्तर होता है। ऐसे में 'हेतु' को प्राथमिकता दी जाती है। इस विषय में डॉ. जानसन का यह कथन उल्लेखनीय है, "किसी कार्य की नैतिकता उस हेतु पर आश्रित रहती है जिससे कि हम कार्य करते हैं। यदि मैं किसी भिखारी की ओर उसके सिर का तोड़ने के इरादे से एक अर्द्धक्राउन फेंकता हूँ और वह उसको उठा लेता है तथा उससे खाने की सामग्री खरीद लेता है तब भौतिक परिणाम तो शुभ हैं लेकिन मेरे सम्बन्ध में यह कार्य बहुत गलत है।'
आलोचना - नैतिक निर्णय का विषय 'हेतु' को स्वीकार करने वाले मत की भी आलोचना की गई है। इस विषय में सर्वप्रथम यह कहा गया है कि वास्तव में कर्म के पीछे उस उद्देश्य का अधिक महत्व होता है, जिससे कार्य किया जाता है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि हमारे मनोभाव सरल न होकर पर्याप्त जटिल तथा मिश्रित अवस्था में होते हैं। इस अवस्था में कर्म हेतु निश्चित रूप में प्रस्तुत करना प्रायः सम्भव नहीं होता। एक अन्य आक्षेप यह है कि यदि हम मनोभावों को कर्म के प्रेरक के रूप में स्वीकार कर लें तो भी कर्म की समुचित व्याख्या नहीं हो सकती क्योंकि समस्त मनोभावों को केवल सुख प्राप्त और दुःख निवृत्ति की इच्छा के रूप में देखा जा सकता है। इस स्थिति में सज्जन तथा दुर्जन दोनों ही व्यक्ति के कार्यों के पीछे एक ही मनोभाव होगा अर्थात् सुख प्राप्ति का मनोभाव। इस स्थिति में मनोभावों के आधार पर कर्मों का वर्गीकरण सम्भव न होगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि केवल 'हेतु' के आधार पर नैतिक निर्णय सम्भव नहीं है।
(3) नैतिक निर्णय का विषय अभिप्राय है - केवल हेतु नैतिक निर्णय का विषय नहीं माना जा सकता। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये कुछ नीतिशास्त्रियों ने अभिप्राय (Intention) को नैतिक निर्णय का विषय स्वीकार किया है। अब प्रश्न उठता है कि अभिप्राय से क्या अर्थ है? अभिप्राय में कर्म के साध्य के साथ ही साथ साधन भी सम्मिलित होता है। इस स्थिति में कर्म के विषय में नैतिक निर्णय देने के लिये कर्म के साध्य तथा साधन दोनों पर ही विचार करना जरूरी है। कर्म के शुभ एवं सही माने जाने के लिये कर्म के साध्य एवं साधन दोनों का अच्छा होना जरूरी है। इस प्रकार के अभिप्राय में हेतु भी निहित होता है। इसी तथ्य को मैकेन्जी ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, "शब्द के सबसे व्यापक अर्थों में एक अभिप्राय का अर्थ किसी भी लक्ष्य से है जिसको कि निश्चित रूप में संकल्प का विषय चुना गया है।'
मैकेन्जी ने अभिप्राय को नैतिक निर्णय का विषय स्वीकार करने के साथ ही साथ अभिप्राय के विभिन्न प्रकारों का भी उल्लेख किया है तथा यह भी स्पष्ट किया है कि अभिप्राय के ये विभिन्न प्रकार किस-किस रूप में नैतिक निर्णय के विषय हैं-
(i) तात्कालिक अभिप्राय तथा प्रच्छन्न अभिप्राय - उस अभिप्राय को तात्कालिक अभिप्राय (Immediate intention) कहा जाता है जो किसी समय विशेष में प्रकट होता है। इससे भिन्न जो अभिप्राय किसी समय विशेष में प्रकट न हो, उसे प्रच्छन्न अभिप्राय (Remote intention ) कहा जाता है। मैकेन्जी ने तात्कालिक तथा प्रच्छन्न दोनों ही अभिप्रायों को नैतिक निर्णय का विषय माना है। किसी एक ही कर्म का तात्कालिक अभिप्राय तथा प्रच्छन्न अभिप्राय अलग हो सकता है। उदाहरण के लिये आत्महत्या करने के लिये नदी में कूदने वाली युवती को बचाने को दो व्यक्ति बड़ी तत्परता से प्रयत्न करते हैं। स्पष्ट है कि दोनों का तात्कालिक अभिप्राय समान है अर्थात् युवती की जान बचाना। लेकिन इन दोनों का अभिप्राय अलग-अलग भी हो सकता है। हो सकता है कि एक व्यक्ति डूबती हुई युवती को बचाकर उसके माता-पिता को सौंपना चाहता हो तथा दूसरा व्यक्ति उस सुन्दर युवती को कहीं बेचना चाहता हो।
(ii) बाहरी अभिप्राय तथा आन्तरिक अभिप्राय - बाहरी अभिप्राय वह होता है जो सबके सामने स्पष्ट रूप में प्रकट होता है तथा आन्तरिक अभिप्राय वह होता है जो व्यक्ति (कर्ता) के मन में होता है। जहाँ तक नैतिक निर्णय का प्रश्न है, बाहरी तथा आन्तरिक दोनों प्रकार के अभिप्राय ही नैतिक निर्णय के विषय होते हैं।
(iii) प्रत्यक्ष अभिप्राय तथा अप्रत्यक्ष अभिप्राय - प्रत्यक्ष अभिप्राय उसे कहा जाता है जिस पर कर्ता की क्रिया मुख्य रूप से केन्द्रित होती है। इस क्रिया के साथ सम्बद्ध अन्य सम्भावनाओं को अप्रत्यक्ष अभिप्राय (Indirect intention) कहा जाता है। उदाहरण के लिये बैंक को लूटते समय कोषाध्यक्ष को मारना डाकू का प्रत्यक्ष अभिप्राय है जबकि बैंक में खड़े अन्य व्यक्तियों का मारा जाना अप्रत्यक्ष अभिप्राय है। यहाँ स्पष्ट कर देना जरूरी है कि प्रत्यक्ष अभिप्राय तथा अप्रत्यक्ष अभिप्राय दोनों ही नैतिक निर्णय के विषय हैं।
(iv) चेतन अभिप्राय तथा अचेतन अभिप्राय - एक दृष्टिकोण से व्यक्ति के अभिप्राय को क्रमशः चेतन (Conscious) तथा अचेतन (Unconscious) अभिप्राय में भी वर्गीकृत किया गया है। चेतन अभिप्राय उसे कहा जाता है जो व्यक्ति जान-बूझकर प्रकट करता है। इससे अलग अचेतन अभिप्राय उस अभिप्राय को कहते हैं जिस अभिप्राय का व्यक्ति को स्पष्ट या निश्चित ज्ञान नहीं होता। चेतन अभिप्राय तो सदैव ही नैतिक निर्णय का विषय माना जाता है जब व्यक्ति को उसकी जानकारी हो, भले ही वह यह स्वीकार न करता हो कि उसके कर्म के पीछे वह कारक प्रबल है। उदाहरण के लिये किसी अनाथाश्रम को दान देने के पीछे चेतन अभिप्राय बच्चों के प्रति सेवाभाव हो सकता है लेकिन इसके साथ ही सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का अचेतन अभिप्राय भी हो सकता है।
(v) सैद्धान्तिक अभिप्राय तथा यथार्थ अभिप्राय - मैकेन्जी ने एक वर्गीकरण के अन्तर्गत अभिप्राय के दो रूपों अर्थात् सैद्धान्तिक अभिप्राय तथा यथार्थ अभिप्राय का भी उल्लेख किया है तथा इन दोनों प्रकार के अभिप्रायों को नैतिक निर्णय का विषय माना है।
(4) नैतिक निर्णय का विषय चरित्र है - जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि नैतिक निर्णय का विषय सम्पूर्ण अभिप्राय होता है। अब प्रश्न उठता है कि किसी कर्ता के द्वारा किये जाने वाले किसी धर्म के अभिप्राय को कैसे जाना जाये? अभिप्राय अपने आप में एक मानसिक प्रक्रिया है तथा इस रूप में वह एक आन्तरिक तथ्य है जिसे बाहरी रूप में देखा नहीं जा सकता। अभिप्राय का सही ज्ञान तो केवल कर्ता को स्वयं ही होता है, अन्य व्यक्ति कर्ता के अभिप्राय का केवल अनुमान ही लगा पाते हैं। यह अनुमान बाहरी दशाओं के आधार पर ही होता है। इस प्रकार कहा जाता है कि व्यक्ति का अभिप्राय उसके विचार, चुनाव तथा इच्छाओं आदि का परिणाम होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कहा गया है कि व्यक्ति का अभिप्राय उसके संगठित चरित्र पर आश्रित होता है। सामान्य रूप से व्यक्ति के चरित्र तथा उससे कर्मों के अभिप्राय में सभ्यता पाई जाती है। व्यक्ति का जैसा चरित्र होता है, वैसा ही उसके कर्मों के पीछे अभिप्राय निहित होता है। इस स्थिति में व्यक्ति के कर्मों के विषय में नैतिक निर्णय के लिये व्यक्ति के चरित्र को भी आधार बताया जा सकता है। इसलिये अनेक नीतिशास्त्रियों ने व्यक्ति के चरित्र को नैतिक निर्णय का विषय माना है। मैकेन्जी ने इस विषय में अपना स्पष्टीकरण इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, "केवल कुछ संकुचित अर्थों में ही कहा जा सकता है कि नैतिक निर्णय अभिप्राय अथवा केवल हेतु पर ही दिया जाता है। सत्य तो यह प्रतीत होता है कि पूर्णतः विकसित नैतिक निर्णय प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में सदैव कर्ता के चरित्र पर दिया जाता है। केवल एक की हुई वस्तु पर ही नहीं बल्कि हमेशा एक करने वाले व्यक्ति पर ही हम नैतिक निर्णय देते हैं।"
आलोचना - केवल चरित्र को नैतिक निर्णय का विषय मान लेना भी ठीक प्रतीत नहीं होता। इस विचार के अन्तर्गत माना गया है कि व्यक्ति के चरित्र एवं अभिप्राय में गहरा सम्बन्ध है अतः चरित्र के आधार पर कर्मों के विषय में नैतिक निर्णय दिया जाना चाहिये। वास्तविकता यह है कि व्यक्ति के चरित्र का अनुमान एवं मूल्यांकन उसके व्यवहार के आधार पर होता है। अतः हम व्यक्ति के आधार पर ही व्यक्ति के चरित्र को अच्छा या बुरा ठहरा सकते हैं लेकिन व्यक्ति का व्यवहार भी पूरी तरह से तथा हमेशा ही उसके चरित्र को नहीं दर्शाता। ऐसा भी देखने में आता है कि सामान्य रूप से अच्छा एवं सराहनीय व्यवहार करने वाला व्यक्ति भी कभी-कभी बुरा एवं निन्दनीय कार्य कर बैठता है। इसके विपरीत सामान्य रूप से बुरे एवं निन्दनीय कार्य करने वाला व्यक्ति भी कभी-कभी अच्छा एवं सराहनीय कार्य किया करता है। इस प्रकार व्यवहार के आधार पर चरित्र का निश्चित मूल्यांकन नहीं किया जा सकता तो चरित्र को नैतिक निर्णय का विषय कैसे माना जा सकता है? सत्य तो यह है कि प्रत्येक कर्म का अलग से मूल्यांकन होना चाहिये तथा यह मूल्यांकन कर्म के अभिप्राय के आधार पर ही किया जाना चाहिये।
उपर्युक्त विस्तृत विवेचन के आधार पर हम 'नैतिक निर्णय के विषय को स्पष्ट रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि व्यक्ति के समस्त ऐच्छिक एवं आदतन होने वाले कर्म नैतिक निर्णय के दायरे में आते हैं। इन कर्मों के केवल परिणाम को देखकर कोई नैतिक निर्णय नहीं दिया जा सकता। कर्म के हेतु के आधार पर ही नैतिक निर्णय दिया जा सकता है क्योंकि कर्म के परिणाम के विषय में कुछ भी निश्चितता नहीं होती। लेकिन केवल कर्म के हेतु को भी नैतिक निर्णय का विषय नहीं माना जा सकता। नैतिक निर्णय में कर्म के हेतु के साथ ही साथ कर्म के साधन का भी विचार किया जाना चाहिये अर्थात् कर्म का अभिप्राय ही सही अर्थों में नैतिक निर्णय का विषय है।
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- प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
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- प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
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- प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
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- प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
- प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
- प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
- प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
- प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
- प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
- प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
- प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
- प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
- प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
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- प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
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- प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
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- प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
- प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
- प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?