बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
उत्तर -
मिल का मत परिष्कृत परसुखवाद है, अतः उसके अनुसार कोई कर्म उसी अनुपात में उचित है जिस अनुपात में उससे आनन्द की ओर उतना ही अनुचित जितनी उससे दुःख की उत्पत्ति होती है। आनन्द का अर्थ है सुख और दुःख का अभाव और दुःख का अर्थ है सुख का अभाव। सुख प्राप्ति और दुःख निवारण ही वांछनीय लक्ष्य है। आनन्द या सुख मानव कर्मों का एकमात्र उद्देश्य है। यही एकमात्र वांछनीय आदर्श है, जिसे जीवन का चरम लक्ष्य बनाया जा सकता है। दुनिया की अन्य वस्तुएं इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए साधन के रूप में वांछनीय : हैं। स्वास्थ्य, आदर, रुपया आदि सभी इसर चरम आदर्श (आनन्द पर सुख) के साधन हैं उनका स्वतः कोई मूल्य नहीं है। इसलिए कोई कर्म तभी अनुचित है जब सुख से अधिक दुःख का अनुभव होता है। उचित सुख का और अनुचित दुःख का कारण है।
मिल के परिष्कृत पर सुखवाद का आधार मनोवैज्ञानिक सुखवाद है। उनके अनुसार किसी वस्तु की इच्छा करना और उसे सुखकर पाना ही एक लक्ष्य है। मनुष्य स्वभावतः सुखानुभूति की इच्छा करता है। इसी के आधार पर उसने अपने नैतिक सुखवाद की परिकल्पना का निष्कर्ष रूप में अनुमान किया है। हम सदैव सुख कर इच्छा करते हैं। अतः सुख कर इच्छनीय (इच्छा करने योग्य) है। इसका प्रमाण यूँ है; कोई वस्तु दृश्य है इसका एकमात्र कारण है कि वह स्पष्ट देखी जा सकती है, कोई शब्द सुनाई पड़ता है, इसका कारण है कि लोग उसकी इच्छा करते हैं। सब लोग सुख की ही इच्छा करते हैं, अतः सुख ही वांछनीय है। सारांश यह हुआ कि मनुष्य स्वभावतः सुख की कामना करता है। अतः सुख ही मनुष्य के जीवन का परम आदर्श होना चाहिए। यही कर्मों का चरम नैतिक आदर्श है या मापदण्ड है। कोई कर्म तभी उचित है जब उससे सुख और अनुचित है जब दुःख का अनुभव होता है। यहाँ तक तो मिल का मत सुखवादी मत हुआ। बेन्थम और अन्ध सुखवादी भी ऐसा ही मानते हैं।
मिल का सुखवाद परिष्कृत पर सुखवाद है। बेन्थम की भाँति उसने भी सामान्यतया सार्वजनिक सुख को जीवन का परम आदर्श माना है, स्वार्थ सुख को नहीं। कर्त्ता का अधिकतम सुख नहीं, अपितु सब मिलाकर सुख कर अधिकतम मात्रा को ही मापदण्ड मानना चाहिए। उसने बतलाया है कि तुम्हें वही करना चाहिए, जो तुम चाहो कि अन्य लोग तुम्हारे साथ करें और अपने पड़ोसी को अपने समान सफर करना ही नैतिक आदर्श होना चाहिए। अपने और अन्य के सुख में चुनाव करना हो तो निष्पक्ष रूप से विचार करना चाहिए। सारांश यह हुआ कि मनुष्य को ऐसा कर्म करना चाहिए जिससे अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख मिले। इसलिए इस मत को परिष्कृत परसुखवाद या परार्थवाद पर उपयोगितावाद भी कहा जाता है। यहाँ पर मिल का मत बेन्थम के मत के समकक्ष है। बेन्थम ने परार्थवान के लिए कोई तार्किक प्रमाण नहीं दिया था, परन्तु मिल ने उसके लिए तार्किक युक्ति दी है। उसने बतलाया है कि सामान्य सुख क्यों वांछनीय है, इसका कोई कारण नहीं बताया जा सकता सिवाय इसके कि प्रत्येक व्यक्ति अपना निजी सुख चाहता है। अतः सामान्य सुख वांछनीय है। मिल के अनुसार पदार्थ का जन्म और विकास स्वार्थ से ही होता है। मनुष्य आरम्भ में स्वार्थी होता है पर दूसरों के दुःखों को वह इसलिए दूर करता है कि इससे उसका अपना दुःख दूर होता है। इस प्रकार अन्य की सहायता या उन्हें सुख देना साधन है अपने सुख का। पर ऐसा करते करते हमारी रुचि साधन में ही प्रवृत्त हो जाती है और साधन अर्थात् दूसरों का उपकार ही लक्ष्य हो जाता है। यह मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त रुचि का स्थानान्तर से सिद्ध होता है। इस प्रकार स्वार्थ भावना का उदय होता है। पर हम ऐसे कर्म के लिए बाध्य क्यों होते हैं? सुख की कामना मनुष्य में स्वाभाविक है, अतः सुख ही उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए-सुख निजी नहीं, अपितु अधिकतम व्यक्तियों का। इसके लिए मिल ने प्रमाण भी दिया है। मनुष्य स्वभावतः स्वार्थी है, पर उसी से पदार्थ की भावना भी होती है और चार बाह्य अनुशास्त्रियों तथा एक आन्तरिक अनुशासित के कारण परोपकार के लिए हम बाध्य होते हैं। पर सुख किस प्रकार का होना चाहिए? क्या सुख में गुणात्मक भेद भी होता है? मिल ने सुखों के गुणात्मक भेद को माना है। उच्च गुण और उत्कृष्ट सुख को ही उच्चतम शुभ मानना चाहिए। मिल का यह विचार उत्कृष्ट सुखवाद कहलाता है। यह सुखवाद को इन्द्रिय परकता के दोष से बचाता है। यही मिल का परिष्कृत पर सुखवाद है। अतः सुख व्यक्ति का सुख नहीं, सामान्य सुख जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। मिल के अनुसार सुख ही जीवन का परम-आदर्श है।
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