बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरणसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण
सूक्ति व्याख्या
प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तियों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर -
1. बलवदपि शिक्षितानामत्मन्यप्रत्ययं चेतः।
प्रस्तुत सूक्ति कविकुलगुरु महाकवि कालिदास रचित 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नामक नाटक के प्रथम अङ्क के प्रस्तावना से ग्रहण की गई है।
व्याख्या - जब सूत्रधार नटी को बुलाकर यह कहता है कि आज हमें कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम् नामक नवीन नाटक का अभिनय प्रस्तुत करना है और यह सभा विशिष्ट विद्वानों की बहुसंख्या वाली है, अतः प्रत्येक पात्र को अपने अभिनय कौशल तथा वेशभूषा आदि पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इस पर नटी अपने मत को व्यक्त करते हुए कहती है कि भली-भांति सुव्यवस्थित एवं कुशल नाटकाभिनय के कारण आपकी कोई न्यूनता न रहेगी। तब सूत्रधार इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को प्रकट करते हुए कहता है -
बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चे तः॥
जब तक विद्वानों को पूर्ण सन्तोष न हो जाये, तब तक मैं अपनी नाटकाभिनय की विशेषज्ञता को पूर्ण सफल नहीं मानता। भली-भाँति अभिज्ञता प्राप्त भी विद्वानों का हृदय अपने विषय में सर्वदा अविश्वासी ही रहता है।
2. भवितव्यता खलु बलवती।
प्रस्तुत सूक्ति 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नामक नाटक के प्रथम अंक से ली गई है।
व्याख्या - दुष्यन्त शान्त स्थल आश्रम में होने वाली घटनाओं की ओर ध्यान केन्द्रित करते हुए कहते हैं कि होने वाली घटनाओं की ओर 'भावी' स्वयं प्रेरित करने लगती है। घूमकर चारों ओर देखता हुआ दुष्यन्त आश्चर्यपूर्वक कहता है कि यह आश्रम का द्वार है। शुभ सूचक संकेत (शकुन) की ओर ध्यान करता हुआ कहता है। संयोग बलवती होता है। क्योंकि जो संकेत मिल रहा है। वह होने वाली घटनाओं की ओर शुभ संकेत दे रहा है।
3. अनियन्त्रणानुयोगस्तपस्विजनो नाम।
प्रस्तुत सूक्ति 'अभिज्ञानशाकुन्तलम' नाटक के प्रथम अंक से उदधृत है।
व्याख्या - जब राजा दुष्यन्त शकुन्तला की सखियों से उसकी उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनकर उसके अपरिग्रहणीय होने की शंका तो दूर कर लेते हैं। किन्तु सखियों द्वारा परिहास में कहीं वर प्रार्थना संबंधी बातों को सुनकर द्विविधा में पड़े हुए उसके विवाह संबंध में सखियों से कुछ पूछना चाहते हैं। राजा की इस विचारणीय अवस्था का अवलोकन कर प्रियम्वदा कहती है कि आर्य कुछ और भी कहना है। राजा दुष्यन्त इसे स्वीकार कर कहते हैं कि इस सच्चरित्र को सुनने के लोभ से मैं कुछ और भी जानना चाहता हूँ। तब प्रियम्वदा कहती है कि -
अलं विचार्य, अनियन्त्रणानुयोगस्तपस्विजाने नाम |
अर्थात् संकोच करने की आवश्यकता नहीं। तपस्विजनों से निःसंकोच कोई भी प्रश्न पूछा जा सकता है।
सूक्ति का तात्पर्य यह है कि तपस्वी जनों का हृदय छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष आदि से सर्वथा रहित होता है। वह अपने हृदय में कोई दुर्भाव नहीं रखते, जिसे प्रकट करने में किसी प्रकार का भय या संकोच हो, अतः उनसे संबधित बात निःसंकोच पूछी जा सकती है।
इन शब्दों के द्वारा कवि ने तपस्वीजनों को सांसारिक वातावरण से दूर उनके निर्मल मनोरम हृदय को सुन्दर शब्दों में व्यक्त करके अपने अभिव्यञ्जन कौशल को व्यक्त किया है।
4. सर्वः खलु कान्तमात्मीयं पश्यति।
महाकवि कविकुलगुरु कालिदास कृत नाटक 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' से यह सूक्ति गृहीत है।
व्याख्या - इस सूक्ति में उस समय का वर्णन है जब पुरुवंशी राजा दुष्यन्त मृगया हेतु तपोवन चले जाते हैं और वहाँ तापस कन्या शकुन्तला के अलौकिक सौन्दर्य से आकृष्ट हो विदूषक से एकान्त में शकुन्तला के सौन्दर्य की ओर संकेत करते हुए कहते हैं "अनवाप्तचक्षुः फलोसि। येन त्वया दर्शनीयं न दृष्टम्।' अर्थात तुमने नेत्रों का फल प्राप्त नहीं किया क्योंकि तुमने दर्शनीय वस्तु का अवलोकन नहीं किया। किन्तु विनोदप्रिय विदूषक अनभिज्ञ सा बना हुआ राजा से कहता है कि आप तो मेरे सामने ही हैं अर्थात् आपसे अधिक सुन्दर ऐसी कौन-सी वस्तु है जो सुन्दरता एवं मानवोचित गुणों से बढ़कर है। इस प्रकार आपको देखते हुए मेरे नेत्र किस प्रकार सफल नहीं है। विदूषक के इस उत्तर का प्रत्युत्तर देते हुए राजा कहते हैं-
"सर्वः खलु कान्तमात्मीयं पश्यति।'
अर्थात् सभी व्यक्ति आत्मीयजन को मानते हैं। राजा का उक्त कथन पूर्णतया मनोवैज्ञानिक है।
राजा के उपर्युक्त कथन के द्वारा कवि की व्यावहारिक कुशलता का ज्ञान होता है, क्योंकि इस व्यावहारिक जगत् में यह देखा जाता है कि अपनी वस्तु को सभी प्रिय कहते हैं। चाहे वह सुन्दर हो अथवा असुन्दर। भाव यह है कि अपना कुरूप, कुटिल, दुष्ट एवं अनेक दुर्गुणों से युक्त पुत्र भी किसे अप्रिय लगता है? इस कथन में पर्याप्त सत्य पाया जाता है क्योंकि प्रत्येक माता-पिता का अपने पुत्र के प्रति सहज स्नेह पाया जाता है। चाहें वह कुरूप या अवगुणी हो अथवा सर्वगुण संपन्न। इन्हीं भावनाओं को अन्यत्र भी व्यक्त किया गया है -
" वसन्ति हि प्रेम्णि गुणाः न वस्तूनि।'
अर्थात् प्रेम ही गुण है वस्तु में नहीं। तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति के प्रति प्रेम अथवा आत्मीयता रहती है उसके अवगुण भी गुण के समान लक्षित होते हैं और इसके प्रति कोई लगाव नहीं रहता, उसके गुण भी लक्षित नहीं होते।
5. अरण्ये मयारुदितम्।
कालिदासरचित 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' से गृहीत प्रस्तुत सूक्ति उस समय की है जब राजा दुष्यन्त के मृगया व्यसन से थका हुआ शिथिल अंगों वाला विदूषक राजा से कम से कम एक दिन के विश्राम की इच्छा करता है तब राजा मन ही मन शकुन्तला के प्रति आसक्त होने के कारण स्वयं ही मृगया से विरक्त हुई उसकी (विदूषक) की बात का विचार करते हैं, किन्तु विदूषक अपनी बात का उत्तर न पाकर राजा की ओर मुख करके कहता है।-
व्याख्या - आप तो मन ही मन कुछ विचारने लगे और मैंने तो अरण्य रोदन किया।
अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार जंगल में कोई रोकर सहानुभूति प्राप्त करना चाहे तो जंगल में उसका रोदन सुनने वाला कोई नहीं होता। इसीलिए अपने कथन का उत्तर न पाकर विदूषक उसे अरण्य रोदन ही मानता है।
6. अहो कामी स्वतां पश्यति।
प्रस्तुत सूक्ति कामीजनों की मनोदशा को व्यक्त करने वाले महाकवि कालिदास रचित 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' से गृहीत है।
व्याख्या - यहाँ उस समय का वर्णन है जब राजा दुष्यन्त शकुन्तला की ओर आकृष्ट हो उसके प्रति आसक्त हुआ। उसकी प्राप्ति की अभिलाषा से नगर गमन के लिए उत्साहहीन, मन ही मन उसकी प्रत्येक चेष्टा में अपने प्रति अनुराग को देखता हुआ वह स्वयं आश्चर्य करता हुआ कहता है
अहो कामी स्वतां पश्यति।
दूसरी ओर दृष्टि डालती हुई भी जो उसने मुझे प्रेमपूर्वक देखा जो नितम्ब के भारी होने से मानों विलासपूर्वक चल रही थी मत जाओ इस प्रकार रोके जाने पर उसने ईर्ष्यावश जो कुछ अपनी सखी से कहा, वह सब मुझे ही लक्ष्य करके कहा था। आश्चर्य है कामी व्यक्ति सर्वत्र अपनी ही बात देखता है।
अभिप्राय यह है कि कामान्ध व्यक्ति प्रत्येक वस्तु और कार्य को अपने ही दृष्टिकोण से देखता है कि उसके इष्ट व्यक्ति के प्रत्येक कार्य उसके लिए ही किये जा रहे हैं, इसी कारण शकुन्तला के प्रति आसक्त राजा भी शकुन्तला की स्वाभाविक दृष्टि गमन एवं कथन को अपने अनुकूल ही समझता है।
यद्यपि राजा इस बात से भी भली-भाँति परिचित है कि ऐसे प्रेमी उपहास के पात्र होते हैं जो अपने भावों के अनुरूप ही प्रियजन के मनोभावों की संभावना करने लगते हैं किन्तु कामीजनों की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति से स्वयं भी बच नहीं पाता है।
7. आशङ्कसे यग्निं तदिदं स्पर्शक्षमं रत्नम्।
प्रस्तुत सूक्ति 'अभिज्ञानशाकुन्तलम' नाटक के प्रथम अंक से ग्रहण की गई है
व्याख्या - यहाँ उस समय का वर्णन है जब राजा दुष्यन्त सखियों से शकुन्तला के संबंध में उसके जन्म आदि के विषय में जानकारी प्राप्त कर उसे ग्रहण करने योग्य जानकर प्रसन्न होता है। किन्तु सखियों द्वारा हास में कहीं वर प्रार्थना को सुनकर दुविधा में पड़ा हुआ कुछ पूछना ही चाहता है। सखियों द्वारा पूछने के लिए प्रेरित किये जाने पर वह उसके विवाह के संबंध में ही पूछता है कि क्या वह किसी राजा से विवाह होने तक ही ब्रह्मचर्यव्रत को धारण करेगी अथवा मादक नेत्रों वाले इन मृणियों के साथ ही (किसी तपस्वी के साथ विवाह होने के कारण) रहेगी। सखियों द्वारा यह बताये जाने पर कि इनके पिता का विचार इसे योग्य वर देने का है, अपने मनोरथ को सुलभ जानकर राजा मन ही मन कहता है -
आशङ्कसे यदग्नि तदिदं स्पर्शक्षमं रत्नम्॥
अर्थात् राजा अपने हृदय को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हृदय ! अब (तुम शकुन्तला प्राप्ति की) अभिलाषा से युक्त हो सकते हो क्योंकि अब सन्देह का निर्णय हो गया है, (तुम अब तक) जिसे अग्नि समझ रहे थे वह वस्तुतः स्पर्श करने योग्य रत्न है।
अभिप्राय यह है कि महर्षि कण्व शकुन्तला को किसी योग्य वर को सौंपना चाहते हैं, राजा मन में विचार करता है कि मेरी यह शकुन्तला विषयक प्रार्थना व्यर्थ न जायेगी। अतः वह हृदय को आश्वस्त करता हुआ कहता है कि अब तुम निश्चित होकर शकुन्तला के लिए अभिलाषा कर सकते हो क्योंकि अब यह पूर्णतया निश्चित हो गया है कि महर्षि कण्व इसका विवाह योग्य वर से करना चाहते हैं और यह शकुन्तला नैष्ठिक ब्रह्मचारिणी बनकर वन में भी न रहेगी, यह अप्सरा से उत्पन्न कन्या होने से मेरे द्वारा विवाह योग्य भी है। अतः सन्देह की अब कोई बात नहीं। अब तक तुम जिसे ब्राह्मण कन्या होने के कारण अग्निवत् स्पर्श न करने योग्य समझ रहे थे वह वस्तुतः स्पर्श करने योग्य स्पृहणीय रत्न है।
8. किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्।
प्रस्तुत सूक्ति कविकुलगुरु महाकविकालिदासकृत 'अभिज्ञानशाकुन्तलम' नाटक के के प्रथम अंक से उद्धृत है।
व्याख्या - प्रस्तुत सूक्ति उस समय की है जब राजा दुष्यन्त कण्व मुनि के आश्रम में पहुँचकर पेड़ की आड़ में सखियों के सहित शकुन्तला के उन्मुक्त को देखते हैं वे देखते हैं कि शकुन्तला सखियों सहित वृक्ष सिंचन कर रही है। इसी बीच वह यौवन विस्तार के कारण अपनी सखी से वल्कल वस्त्र ढीला करने के लिए कहती है। तब अलंकारों से विहीन वल्कलधारिणी शकुन्तला के सौन्दर्य पर मुग्ध हुए राजा मन ही मन सोचते हैं कि -
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्।
अर्थात् सुन्दर आकृतियों के लिए कौनसी वस्तु अलंकार नहीं है।
कहने का तात्पर्य यह है कि वल्कलधारण किये भी अति सुन्दरी शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त मन में सोचता है कि भले ही यह वल्कल वस्त्र इसके शरीर के योग्य न हो फिर भी यह उसके सौन्दर्य को उसी प्रकार बढ़ा रहा है जैसे सिवार घास से घिरा हुआ भी कमल रमणीक होता है और चन्द्रमा का काला कलंक भी उसकी शोभा को बढ़ाता ही है, यह कृशांगी शकुन्तला भी इस वल्कल में अतीव सुन्दरी लग रही है, क्योंकि स्वभाव से सुन्दर व्यक्ति के शरीर पर प्रत्येक वस्तु शोभायमान होती है कोई भी वस्तु कैसी भी क्यों न हो परन्तु सहज सुन्दर व्यक्ति के शरीर पर वह सुशोभित हो जाती है। अर्थात् वह वस्तु उसकी शोभा को बढाती है।
9. गण्डस्योपरि पिण्डकः संवृत्तः।
प्रस्तुत सूक्ति 'अभिज्ञानशाकुन्तलम' के प्रारम्भ में श्रम से ऊबे हुए विदूषक का कथन है।
व्याख्या - राजा दुष्यन्त के साथ अन्य जन्तुओं के आखेट के लिए भ्रमण करता विदूषक परेशान होकर अनेक प्रकार की शिकायत करता है कि न तो उचित भोजन प्राप्त होता है और न रात्रि को पर्याप्त विश्राम। जिसके कारण हड्डियों के जोड़ों की पीड़ा नहीं जाती। इस बीच दुष्यन्त कण्व के आश्रम में पहुंचकर शकुन्तला के रूप लावण्य को देखकर मुग्ध हो जाता है, और उसका प्रेम चाहता हुआ अपनी राजधानी लौटने की कामना नहीं करता। अतः विश्राम पाने से निराश होकर विदूषक कहता है .
ततो गण्डस्योपरि पिण्डकः संवृत्तः।
अर्थात् फोड़े पर फुंसी निकल आयी। विदूषक के कहने का अभिप्राय यह है कि अभी शरीर की पीड़ा समाप्त भी न हो पायी थी कि तब तक दूसरा दुःख भी आ पड़ा। अर्थात् न तो समय पर भोजन ही मिल पाता है और न ही ठीक से सो ही पाता हूँ अतः शरीर की पीड़ा नहीं निकलती। इस दुःख से तो दुःखी था ही कि साथ ही राजा दुष्यन्त तापस कन्या शकुन्तला के प्रति आसक्त होने के कारण नगर की ओर प्रस्थान भी नहीं करना चाहते। इसीलिए यहाँ 'कोढ़ मंन खाज' यह मुहावरा प्रयोग किया गया है।
10. न ता दृशा आकृति विशेषागुणाविरोधिनों भवन्ति।
सन्दर्भ - प्रस्तुत सूक्ति महाकवि कालिदासकृत अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रथम अंक से उदधृत है।
व्याख्या - ऐसी आकृति विशेष के विषय में अभी तक अपने विरोधियों के द्वारा भी नहीं सुना है। रूप सौन्दर्य के अपूर्व पारखी एवं कला के जौहरी, कवि सम्राट, कालिदास जी ने जो भाव यहाँ पर प्रस्तुत किया है। उसकी कल्पना तब जीवन्त हो उठती अधोवस्त्रधारी शकुन्तला का शरीर दुष्यन्त देखता है। और कहता है कि यह विधाता की अद्भुत एवं अद्वितीय संरचना है जिसे कि स्वयं विधाता ने इसे अलग से बनाया है। यहाँ दुष्यन्त शकुन्तला के रूप सौन्दर्य की प्रशंसा करता हुआ स्वयं आश्चर्यचकित हो जाता है। जबकि शास्त्रानुसार यह कहा जाता है कि एक-दूसरे की सुन्दरता किसी का पसन्द नहीं होती।
अन्ततः यह सिद्ध होता है कि शकुन्तला जैसी विशेष आकृति, रूप एवं सौन्दर्य की विशेषता का वर्णन एवं यथार्थ की स्वीकारोक्ति तो स्वयं विरोधी भी करते हैं। यही कारण है कि ऐसी आकृति एवं सुन्दरता का गुणगान सभी लोग करते हैं।
11. दूरीकृतः खलु गणैरुद्यानलता वनलताभिः।
प्रस्तुत सूक्ति महाकवि कालिदास कृत 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' के प्रथम अङ्क से ग्रहण की गई है।
व्याख्या - प्रस्तुति सूक्ति में उस समय का वर्णन है जब राजा दुष्यन्त महर्षि कण्व के आश्रम में प्रविष्ट होकर आगे बढ़ता है और राजमहलों की सुन्दरियों के रूप को तिरस्कृत करने वाली शकुन्तला आदि ऋषि कन्याओं के रूपलावण्य को देखता है तो आश्चर्य के साथ अपने मन में विचार करता है कि
दूरीकृताः खलु गुणैरुद्यानलता वनलताभिः॥
गुणों को व्यक्त करने वाली इस सूक्ति में जब राजा दुष्यन्त महर्षि कण्व के आश्रम से आगे की ओर बढ़ते हैं जब महलों में रहने वाली सुन्दरियों के रूप को धूमिल करने वाली इस शकुन्तला के रूप को देखकर कहते हैं कि वल्कल वस्त्र में यह शकुन्तला जिसके पास तन ढकने के लिए कपड़े भी नहीं हैं अधिक सुन्दर प्रतीत हो रही है जबकि महलों में रहने वाली स्त्रियों को अधिक सुन्दर होना चाहिए। परन्तु यहाँ पर तो विपरीत दिखाई दे रहा है।
अर्थात् राजाओं के अन्तःपुर में दुष्प्राप्य ऐसा अति सुन्दर शरीर यदि आश्रमवासी व्यक्ति में भी है तो अवश्य ही उपवन, लतायें, वन लताओं के द्वारा अपने सौन्दर्य सौकुमार्य आदि गुणों द्वारा तिरस्कृत कर दी गई हैं।
दुष्यन्त के कथन का तात्पर्य यह है कि इन मुनि कन्याओं का सहज अर्थात् अकृत्रिम सौन्दर्य ही अन्तःपुर की सुन्दरियों के प्रसाधित सौन्दर्य से भी बहुत बढ़ कर है।
12. न प्रभातरलं ज्योतिरुदेति वसुधातलात्।
प्रस्तुत सूक्ति महाकवि कालिदास कृत 'अभिज्ञानशाकुन्तलम' के प्रथम अङ्क से उदधृत है।
व्याख्या - राजा दुष्यन्त एक मृग का पीछा करते हुए कण्व ऋषि के आश्रम तक पहुंच जाते हैं। उनकी भेंट शकुन्तला तथा उसकी दो सखियों अनसूया प्रियम्वदा से होती है। शकुन्तला के जन्म आदि का परिचय देते हुए अनसूया राजा दुष्यन्त से कहती है कि वह कौशिक गोत्र वाले राजर्षि विश्वामित्र व मेनका की पुत्री है, तब राजा इस जानकारी को प्राप्त कर कहता है कि इसके लिए यह ठीक है क्योंकि -
न प्रभातरलं ज्योतिरुदेति वसुधातलात्॥
अर्थात मानव लोक की स्त्रियों में इस ऐसे सौन्दर्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है, कान्ति से देदीप्यमान प्रकाश भूतल से उत्पन्न नहीं हो सकता है।
तात्पर्य यह है कि शकुन्तला की उत्पत्ति की कथा सुनकर दुष्यन्त कहता है कि यह ठीक ही है क्योंकि मानवलोक की स्त्रियों से ऐसे सौन्दर्य की उत्पत्ति कथमपि संभव नहीं हो सकती। अतः शकुन्तला जैसी उदभुत सुन्दरी किसी मानवीय स्त्री की सन्तान नहीं हो सकती। विद्युत आदि का प्रभा से देदीप्यमान प्रकाश आकाश से ही उत्पन्न हो सकता है भूतल से कभी नहीं। आकाशचारिणी अप्सरा से ही शकुन्तला जैसी अपूर्व सुन्दरी की उत्पत्ति हो सकती है।
13. " भवितव्यानाम् द्वारणि भवन्ति सर्वत्र"
प्रस्तुत सूक्ति कालिदास कृत 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' के प्रथम अडू से अवतरित है।
व्याख्या - दुष्यन्त कहते हैं कि भावी घटनाएँ ही उपाय बन जाती हैं। राजा दुष्यन्त शान्तप्रिय आश्रम में विचार करता हुआ कहता है कि जो शुभ शकुन होते हैं। वह भावी घटनाओं का संकेत देते हैं। अतः दाहिने हाथ का फड़कना आदि सब कुछ संकेत दे रहे हैं। ऐसे में यह सिद्ध होता है कि भावी घटनाओं के लिए सर्वत्र द्वारा प्रयास बन जाते हैं। घटनाओं एवं संकेतों के प्रति वह इस प्रकार विचार करता है।
14. "आशङ्क से यदग्निं तदिदं स्पर्शक्षमं रत्नम्।'
प्रस्तुत सूक्ति कालिदास कृत 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' के प्रथम अङ्क से अवतरित है।
व्याख्या - उक्त पंक्ति में राजा दुष्यन्त यह विचार करता है कि शकुन्तला तो क्षत्रिय कन्या है। हमारी शंका व्यर्थ थी यह तो वरण करने योग्य है। हे हृदय अभिलाषी बनो, अब तो संशय का निवारण हो गया है। जिसे हम अग्नि समझ रहे थे। वह तो स्पर्श के योग्य है यह तो मणि है क्योंकि यह तो क्षत्रिय कन्या है। शकुन्तला तो स्वीकार करने योग्य है मेरा शक व्यर्थ है। यह शकुन्तला रमणीय रत्न है। अतः नारी जाति की सर्वश्रेष्ठ रचना है।
15. 'प्रिय सखे ! शाकुन्तलं सेव्यताम्'।
विवेच्य पंक्ति के अन्तर्गत महाराज दुष्यन्त के निमित्त शकुन्तला की प्रिय सखी द्वारा पारस्परिक प्रेम की पुष्टता हेतु स्वतंत्र रूप से एकातं में सम्मिलन को भी अभिव्यक्त हुआ है।
व्याख्या - महाकवि कालिदास ने अत्यन्त मनोवैज्ञानिक ढंग से संदर्भित कथन को यथास्थान प्रस्तुत करते हुए नाटक में जीवन्ततः प्रदान करते हुए प्रेम की अनन्यता का अकुंरण करने के लिए महाराज दुष्यन्त तथा शकुन्तला को माध्यन बनाया है। इसलिए महाकवि ने प्रिये सखे ! शाकुन्तलम् सेव्यताम्' इस कथन को प्रस्तुत करके दुष्यन्त और शकुन्तला के अनन्य प्रेम का चरमोत्कर्ष प्राप्त करने का प्रयास किया है।
16. गलर्यात यथा शशांङ्क न तथा हि कुमुद्वतीं दिवसः।
विवेच्य पंक्ति अभिज्ञानशाकुन्तलम् के द्वितीय अंक से संदर्भित है जिसमें शकुन्तला द्वारा दुष्यन्त के अवलोकन से उत्पन्न स्नेहातिशयता के वशीभूत हो कायिक, वाचिक, मानसिक त्रिविध स्थितियों का महाकवि कालिदास ने अत्यन्त सूक्ष्य विश्लेषण प्रस्तुत किया है जिसका आधार नायक दुष्यन्त को बनाना श्रेयस्कर माना गया है क्योंकि पारस्परिक स्नेह की यथार्थतानुभूति नायक और नायिका को ही सम्भव हे जिसका सजीव स्वरूप प्रस्तुत श्लोक में प्राप्त होता है। जिसमें कवि ने प्रकृति के माध्यम से प्रेम की पराकष्ठा प्रदर्शित की है
व्याख्या - राजा शकुन्तला के पास जाकर कहता है कि क्षीण अंगों वाली शकुन्तले ! कामदेव तुमको निरन्तर तपा ही रहा है। क्योंकि शकुन्तला को कुमुदिनी के समान बताया गया है। परन्तु मुझे तो जलाये ही डाल रहे हैं क्योंकि दिन जितना चन्द्रमा को क्षीण करता है उतना कुमुदिनी को नहीं। यहाँ राजा दुष्यन्त को चन्द्रमा तथा शकुन्तला को कुमुदिनी बताया गया। राजा कहता है कि दिन कुमुदिनी को तो मलिन ही कर देता है परन्तु चन्द्रमा के अस्तित्व को ही समाप्त कर देता है।
17. 'न जाने भोक्तारं कीमह समुस्थास्यति विधिः
प्रसंग - प्रस्तुत सूक्ति महाकवि कालिदास द्वारा रचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्' के द्वितीय अंक से अवतरित है।
व्याख्या - यहाँ पर शकुन्तला के निष्कलंक सौन्दर्य की विशेषता का वर्णन किया गया है। ऐसी सुन्दर किसलय के समान कोमल यह कुन्तला जिसके शरीर का अभी तक आस्वादन नहीं किया गया है। ऐसे ताजे शहद के समान पुष्पों के अखण्ड प के समान विधाता ने इस शकुन्तला न जाने किसे भोगने वाला बनायेगा। शकुन्तला की सरसता प्रताप हा रही है। शकुन्तला की परिभोगयोग्यता, कान्तिमत्ता, मुग्धता का कालिदास के द्वारा जो वर्णन किया गया है। न जाने अर्थात पता नहीं विधाता ने इसे किस सुकृती को इसका उपभोक्ता बनाया है।
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- प्रश्न- भास का काल निर्धारण कीजिये।
- प्रश्न- भास की नाट्य कला पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
- प्रश्न- अश्वघोष के जीवन परिचय का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- अश्वघोष के व्यक्तित्व एवं शास्त्रीय ज्ञान की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि अश्वघोष की कृतियों का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि अश्वघोष के काव्य की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य कला की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- "कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते" इस कथन की विस्तृत विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि भट्ट नारायण का परिचय देकर वेणी संहार नाटक की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- भट्टनारायण की नाट्यशास्त्रीय समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- भट्टनारायण की शैली पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि विशाखदत्त के जीवन काल की विस्तृत समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि भास के नाटकों के नाम बताइए।
- प्रश्न- भास को अग्नि का मित्र क्यों कहते हैं?
- प्रश्न- 'भासो हास:' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- भास संस्कृत में प्रथम एकांकी नाटक लेखक हैं?
- प्रश्न- क्या भास ने 'पताका-स्थानक' का सुन्दर प्रयोग किया है?
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- प्रश्न- महाकवि अश्वघोष के चित्रण में पुण्य का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- अश्वघोष की अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- अश्वघोष के स्थितिकाल की विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- 'कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- भवभूति की रचनाओं के नाम बताइए।
- प्रश्न- भवभूति का सबसे प्रिय छन्द कौन-सा है?
- प्रश्न- उत्तररामचरित के रचयिता का नाम भवभूति क्यों पड़ा?
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- प्रश्न- महाकवि भवभूति के प्रकृति-चित्रण पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- क्या अभिनय की दृष्टि से वेणीसंहार सफल नाटक है?
- प्रश्न- भट्टनारायण की जाति एवं पाण्डित्य पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भट्टनारायण एवं वेणीसंहार का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- महाकवि विशाखदत्त का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटक का रचयिता कौन है?
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- प्रश्न- मुद्राराक्षस में कुल कितने अंक हैं?
- प्रश्न- निम्नलिखित पद्यों का सप्रसंग हिन्दी अनुवाद कीजिए तथा टिप्पणी लिखिए -
- प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग - संस्कृत व्याख्या कीजिए -
- प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तियों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- "वैदर्भी कालिदास की रसपेशलता का प्राण है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के नाम का स्पष्टीकरण करते हुए उसकी सार्थकता सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य की सर्थकता सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् को लक्ष्यकर महाकवि कालिदास की शैली का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि कालिदास के स्थितिकाल पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के नाम की व्युत्पत्ति बतलाइये।
- प्रश्न- 'वैदर्भी रीति सन्दर्भे कालिदासो विशिष्यते। इस कथन की दृष्टि से कालिदास के रचना वैशिष्टय पर प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 3 अभिज्ञानशाकुन्तलम (अंक 3 से 4) अनुवाद तथा टिप्पणी
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- प्रश्न- प्रियम्वदा और अनसूया के चरित्र की तुलनात्मक समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् में चित्रित विदूषक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् की मूलकथा वस्तु के स्रोत पर प्रकाश डालते हुए उसमें कवि के द्वारा किये गये परिवर्तनों की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रधान रस की सोदाहरण मीमांसा कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि कालिदास के प्रकृति चित्रण की समीक्षा शाकुन्तलम् के आलोक में कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के चतुर्थ अंक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- शकुन्तला के सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् का कथासार लिखिए।
- प्रश्न- 'काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला' इस उक्ति के अनुसार 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की रम्यता पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 4 स्वप्नवासवदत्तम् (प्रथम अंक) अनुवाद एवं व्याख्या भाग
- प्रश्न- भाषा का काल निर्धारण कीजिये।
- प्रश्न- नाटक किसे कहते हैं? विस्तारपूर्वक बताइये।
- प्रश्न- नाटकों की उत्पत्ति एवं विकास क्रम पर टिप्पणी लिखिये।
- प्रश्न- भास की नाट्य कला पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'स्वप्नवासवदत्तम्' नाटक की साहित्यिक समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर भास की भाषा शैली का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के अनुसार प्रकृति का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- महाराज उद्यन का चरित्र चित्रण कीजिए।
- प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् नाटक की नायिका कौन है?
- प्रश्न- राजा उदयन किस कोटि के नायक हैं?
- प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर पद्मावती की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
- प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के प्रथम अंक का सार संक्षेप में लिखिए।
- प्रश्न- यौगन्धरायण का वासवदत्ता को उदयन से छिपाने का क्या कारण था? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'काले-काले छिद्यन्ते रुह्यते च' उक्ति की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- "दुःख न्यासस्य रक्षणम्" का क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए : -
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिये (रूपसिद्धि सामान्य परिचय अजन्तप्रकरण) -
- प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिये।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (अजन्तप्रकरण - स्त्रीलिङ्ग - रमा, सर्वा, मति। नपुंसकलिङ्ग - ज्ञान, वारि।)
- प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (हलन्त प्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी) - I - पुल्लिंग इदम् राजन्, तद्, अस्मद्, युष्मद्, किम् )।
- प्रश्न- निम्नलिखित रूपों की सिद्धि कीजिए -
- प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (हलन्तप्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी) - II - स्त्रीलिंग - किम्, अप्, इदम्) ।
- प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूप सिद्धि कीजिए - (पहले किम् की रूपमाला रखें)