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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।

उत्तर -

डॉ. नगेन्द्र

डॉ. नगेन्द्र के साहित्यिक व्यक्तित्व की झाँकी कवि, निबन्धकार एवं आलोचक के रूप में कई रूपों में मिलती है। आरम्भ में वे एक कवि थे और इसीलिए कवि सुलभ भावुकता और रसज्ञता के कारण उनकी आलोचनाएँ भी सरस बन पड़ी हैं। डॉ. नगेन्द्र के साहित्यिक जीवन का उदय सन् 1936 ई. में 'बनवाला' नामक रचना के प्रकाशन से हुआ और तब से लेकर अब तक उनका रचना कार्य अबाध गति से चल रहा है। सुमित्रानन्दन पन्त, साकेत एक अध्ययन', 'आधुनिक हिन्दी नाटक', 'विचार और विश्लेषण' तथा 'नई समीक्षा नये सन्दर्भ उनकी प्रमुख समीक्षात्मक कृतियाँ हैं। बहुत लिखने पर भी उन्होंने बहुत अच्छा लिखा है। डॉ. कुमार विमल ने इसका कारण उनके साहित्यिक व्यक्तित्व और पांडित्य का मेल बताया है, "शास्त्रनिष्णात आचार्यत्व और कवित्व की सहस्थिति ने डॉ. नगेन्द्र की आलोचना शैली को एक अप्रतिम दीप्ति से मण्डित कर दिया है।

डॉ. नगेन्द्र को सर्वप्रथम छायावादी आलोचक के रूप में ख्याति मिली। छायावादी काव्य का विस्मय-बोध, प्रेम-भावना और सौन्दर्य चेतना उन्हें आकर्षक लगी थी। छायावादी कविता उन्हें जिस वायवी स्वप्नलोक में ले गयी थी, उसके परिणामस्वरूप 'सुमित्रानन्दन पन्त पुस्तक लिखी गई। इस पुस्तक में कहीं शास्त्रीयता नहीं है केवल है ताजगी और सादगी। इसके पश्चात् 'साकेत एक अध्ययन' में उनकी शास्त्रीय रुचि प्रकट हुई। आगामी कृतियों में उनका पांडित्यपूरित स्वरूप उभर कर सामने आ गया। उनकी रसवादी दृष्टि पुष्ट एवं स्पष्ट रूप में प्रकट हो गई।

डॉ. नगेन्द्र की समीक्षा पद्धति की विशेषता है भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्र का समन्वय। उन्होंने इन दोनों को एक-दूसरे का विरोधी न मानते हुए पूरक माना। भारतीय काव्यशास्त्र में काव्यानुभूति का सूक्ष्म विवेचन है और पाश्चात्य काव्यशास्त्र में कवि की मनःस्थिति तथा काव्य- निर्माण में प्रेरणा देने वाले सामाजिक प्रभावों का विश्लेषण है। इसलिए वे 'विचार और विश्लेषण' में लिखते हैं- "इस प्रकार ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर सहायक या पूरक हैं।

इनके तुलनात्मक अध्ययन की सबसे बड़ी उपयोगिता यह हो सकती है कि इनका समन्वय करके एक पूर्णतर काव्यशास्त्र का निर्माण किया जाये, जिसमें स्रष्टा और भोक्ता के पक्षों का व्यापक विश्लेषण हो।'

डॉ. नगेन्द्र की समीक्षा शैली नन्ददुलारे बाजपेयी की अपेक्षा शुक्ल जी के अधिक निकट है। शुक्ल जी की आलोचना-पद्धति जिन दुर्बलताओं से आक्रान्त थी, डॉ. नगेन्द्र ने उनका बड़ी कुशलता से परिहार किया। अपने आदर्शों के प्रति शुक्ल जी में इतनी अधिक निष्ठा थी कि वे उनमें जरा भी अलग दिखने वाले तत्व को निःसंकोच छोड देते थे। अभिव्यंजनावाद को वे 'वक्रोक्तिवाद का विलायती उत्थान मानते हुए उससे विमुख हो गये। छायावाद और रहस्यवाद के प्रति भी वे अधिक सहिष्णु न हो सके। साहित्य का लोकधर्म से उन्होंने इतना गहरा सम्बन्ध माना कि व्यष्टि की अवहेलना कर गये। डॉ. नगेन्द्र ने इन दोषों से स्वयं को बचाये रखा। उन्होंने छायावाद को साहित्यिक आधार पर प्रतिष्ठित करके उसके सम्बन्ध में शुक्ल जी द्वारा निर्मित भ्रामक धारणा को दूर किया। क्रोंचे के अभिव्यंजनावाद के प्रति भी शुक्ल जी का रुख बड़ा कठोर था। भारतीयता के प्रति अटूट आग्रह के कारण वे पश्चिम को सरलता से हृदयंगम नहीं कर सके। नगेन्द्र में इस प्रकार का कोई आग्रह नहीं है।

अतः आगे चलकर जब विश्व-समालोचना (World Critic) स्पष्ट स्वरूप ग्रहण करने लगेगी, तब उसके निर्माण में योग देते समय हिन्दी आलोचना का प्रतिनिधित्व नगेन्द्र ही अच्छी तरह कर सकेंगे, क्योंकि शुक्ल जी की अनेक मान्यताएँ जातीय पूर्वग्रहों और हठी आदर्शों के कारण विश्व - आलोचना के सार्वदेशिक संकाय में स्थान नहीं पा सकेंगी, किन्तु यह मत सर्वांश में सत्य नहीं है, शुक्ल जी का हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में अवदान अप्रतिम है। उनके जैसा प्रौढ़ और सर्वांगीण आलोचक आज तक नहीं हुआ। नन्ददुलारे बाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नगेन्द्र प्रभूति परवर्ती आलोचकों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनसे टकराकर उनकी श्रेष्ठता स्वीकार कर ली और अपने लिए नया मार्ग ढूँढ़कर हिन्दी आलोचना को आगे बढ़ाया।

रस के सम्बन्ध में डॉ. नगेन्द्र ने अधिक विस्तृत और मनोवैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया। इसे देखकर कुछ लोगों से उन्हें भ्रमवश फ्रायडवादी आलोचक कहा है। इसमें संदेह नहीं कि फ्रायड के मनोविज्ञान का उन पर प्रभाव है, किन्तु वह स्वयं साध्य न होकर रसवाद के साधन रूप में सामने आया है। 'साकेत' में गुप्त जी ने जिस एकान्त, निष्ठा और मनोयोग से उसकी विरह व्यथा का अंकन किया है, 'साकेत एक अध्ययन में उसी तन्मयता एवं मनोयोग से डॉ. नगेन्द्र ने उस व्यथा के सूत्र पकड़े हैं। राम, सीता, लक्ष्मण के वन जाते समय उर्मिला एक शब्द भी नहीं बोलती। उसका मौन उसकी कातरता तथा दयनीयता का सूचक है। डॉ. नगेन्द्र ने अपनी मनोवैज्ञानिक अंतदृष्टि द्वारा इस स्थिति की संवेदनशीलता की सही पकड़ की है- "यदि वह स्वयं ही उक्त भावनाओं को शब्दों में व्यक्त करती, तो वे ईर्ष्या का रूप धारण कर लेती, इसलिए कवि ने राम और सीता के द्वारा उनकी ओर संकेत काराया है। इसी प्रकार कैकेयी का यह मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी अपूर्व "युग-युग की लांछिता रानी की भव्य माता के रूप में देखकर वृद्ध जग आज चकित है।"

डॉ. नगेन्द्र ने अपनी दृष्टि रसवाद पर केन्द्रित करके भी समसामयिकता से स्वयं को काटा नहीं है। वे बराबर नई कविता, उपन्यास, कहानी की आलोचना करते रहे हैं। कामायनी के अध्ययन की समस्याएँ तथा उर्वशी आदि ही उनके चिन्तन का केन्द्र नहीं बनी हैं। नयी समीक्षा नये संदर्भ' में मूल्यों के विघटन, सांस्कृतिक संकट जैसे विषयों ने भी उनका ध्यानाकर्षण किया है रसवाद के प्रति उनका आग्रह उनके विचार और विश्लेषण के इन शब्दों से प्रकट हैं।

"साहित्य का चरम - मान रस ही है, जिसकी अखण्डता में व्यष्टि और समष्टि सौन्दर्य और उपयोगिता शाश्वत और सापेक्षित का अन्तर मिट जाता है। अन्य कथित मान या तो रस के एकांगी व्याख्या है, या फिर असाहित्यिक मान है, जिनका आरोप साहित्य के लिए अहितकर है"।

नगेन्द्र की रसवादी दृष्टि का विशेष पल्लवन उनके 'रस-सिद्धांत' नामक ग्रन्थ में हुआ है। वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि रस सिद्धांत उनके लिये कोई 'शास्त्र - विनोद' नहीं है, बल्कि 'साधु काव्य निषेवण से निर्मित अन्तः संस्कारों की सहज संहिति है। आनन्दवर्धन, भट्टनायक, अभिनवगुप्त आदि आचार्यों ने जिस रस सिद्धांत का विकास किया था, उसका पुनर्विकास डॉ. नगेन्द्र ने अपने सूक्ष्म - चिन्तन और गहन अध्ययन के द्वारा किया है। रस सिद्धांत की शक्तिमयता पर उनका इतना अखण्ड विश्वास है कि दे इसके आधार पर प्रत्येक युग के साहित्य का मूल्यांकन किया जा सकने की बात कहते हैं। नगेन्द्र की रसवादी धारणा की मुख्य दो विशेषताएँ हैं -

(1) रस- सिद्धांत की व्याख्या में मनोविज्ञान को अपेक्षित महत्व प्रदान करना।
(2) संश्लिष्ट काव्य - शास्त्र का उन्नयन,

जिसमें एक ओर हिन्दी तथा अहिन्दी भारतीय भाषाओं के काव्य-शास्त्र के तुलनात्मक अध्ययन को अपनाया गया है तथा दूसरी ओर पाश्चात्य काव्यशास्त्र का भी पूरा उपयोग किया गया है। इसकी आवश्यकता बताते हुए वे 'रस- सिद्धांत' में कहते हैं "वर्तमान साहित्य जगत में पाश्चात्य आलोचना के मान-प्रतिमान इतने अधिक रम गये हैं कि आज का साहित्य मनीषी उन्हीं के माध्यम से चिन्तन और मूल्यांकन करता है। अतः प्राचीन काव्यशास्त्र के सिद्धांतों की यथावत् अवतारणा की अपेक्षा उनका नई आलोचना-पद्धति से विचार विवेचन करना आवश्यक हो गया है।"

डॉ. नगेन्द्र ने अभिव्यक्ति को निश्छलता की साहित्य का सर्वप्रथम और सबसे महत्वपूर्ण लक्षण बताया है। महान् कविता के लिए वे कवि के व्यक्तित्व का महान् होना भी आवश्यक बताते हैं। अभिव्यक्ति की निश्छलता उनकी आलोचना-पद्धति का एक विशेष गुण भी है। उनमें अपनी बात कहने में कोई दुराव नहीं है। गहन और स्पष्ट विश्लेषण ही उनकी आलोचना-पद्धति के विशिष्ट गुण हैं। उनका समीक्षा चिन्तन जितना सूक्ष्म और कोमल है, उनकी भाषा भी उतनी ही स्वच्छ और परिमार्जित है। आरम्भ में वे कवि थे, इसलिए उनकी समीक्षा में भी यत्र-तत्र अभिव्यंजना का वैभव मिल जाता है, यथा- 'तरल प्रवाहमान भावुकता', 'कल्पना विलास', भाषा की रेशमी जाली', 'आवेग की प्रखर शिखाएँ' आदि।

भाषा को चित्रोपम एवं आलंकारिक शैली के दर्शन निम्नलिखित उदाहरणों में देखिए-

(क) "गहरे काले अँधेरे में उन्मादिनी रानी उलका के समान चमक रही है।.
(ख) "शांत गम्भीर सागर जो अपनी आकुल तरंगों को दबाकर धूप में मुस्कुरा उठा है या फिर गहन आकाश जो झंझा और विद्युत को हृदय में समाकर चाँदनी की हँसी-हँस रहा है, ऐसा ही कुछ                 प्रसाद का व्यक्तित्व है।,,
(ग) “इस प्रकार के चलचित्र क्षणभर फुलझड़ी की भाँति चमककर पीछे एक रेखा सी दौड जाते हैं !.

डॉ. नगेन्द्र की आलोचना में व्यंग्य भी देखने को मिलता है। पर उनका व्यंग्य तीखा एवं कटु नहीं होता। प्रसाद के नाटकों के दोष बताते हुए वे 'आधुनिक हिन्दी नाटक' में लिखते हैं-

"अनेक स्थानों पर नाटककार को घटनाओं की गतिविधि सँभालना कठिन हो गया है और ऐसा करने के लिए उसे या तो वांछित व्यक्ति को उसी समय भूमि फाड़कर उपस्थित कर देना पड़ा है अथवा किसी का जबरदस्ती गला घोटना पड़ा है। वैसे अधिकांश स्थलों पर नगेन्द्र में गम्भीरता का प्राचुर्य है और व्यंग्य-विनोद की कमी है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण होने के कारण ऐसा होना स्वाभाविक ही था।

डॉ. नगेन्द्र की सैद्धांतिक और व्यावहारिक समीक्षा का एक सम्यक् पर्यावलोकन यह सिद्ध कर देता है कि सैद्धांतिक समालोचना के क्षेत्र में उनका कार्य बड़ा विस्तृत और प्रौढ़ है, किन्तु व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में शुक्ल जी ने साहित्यकार तथा उनकी कृतियों का जैसा सूक्ष्म मूल्यांकन किया है वैसा कोई अन्य आलोचक आज तक नहीं कर सका है। सूर, तुलसी, जायसी आदि के सम्बन्ध में आज तक आचार्य शुक्ल के निर्णय अचूक और मान्य समझे जाते हैं। व्यावहारिक समीक्षा का दूसरा रूप काव्य धाराओं का अध्ययन है। इस दिशा में डॉ. नगेन्द्र आगे बढ़ गये हैं। निष्कर्षतः डॉ. कुमार विमल के शब्दों में "ज्ञान - विस्तार और युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप हिन्दी साहित्य में जिस नवीन संश्लिष्ट काव्य शास्त्र का उदय हुआ है, उसे विकास देने वाले मनीषियों की पंक्ति में आचार्य शुक्ल के बाद डॉ. नगेन्द्र ही दूसरे गौरव - शिखर हैं।'

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- आलोचना को परिभाषित करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकासक्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति का मूल्याँकन कीजिए।
  5. प्रश्न- डॉ. नगेन्द्र एवं हिन्दी आलोचना पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- नयी आलोचना या नई समीक्षा विषय पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- द्विवेदी युगीन आलोचना पद्धति का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- नन्द दुलारे वाजपेयी के आलोचना ग्रन्थों का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  12. प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के स्वरूप एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  17. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख भर कीजिए।
  21. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के व्यक्तित्ववादी दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद कृत्रिमता से मुक्ति का आग्रही है इस पर विचार करते हुए उसकी सौन्दर्यानुभूति पर टिप्णी लिखिए।
  23. प्रश्न- स्वच्छंदतावादी काव्य कल्पना के प्राचुर्य एवं लोक कल्याण की भावना से युक्त है विचार कीजिए।
  24. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद में 'अभ्दुत तत्त्व' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इस कथन कि 'स्वच्छंदतावादी विचारधारा राष्ट्र प्रेम को महत्व देती है' पर अपना मत प्रकट कीजिए।
  25. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद यथार्थ जगत से पलायन का आग्रही है तथा स्वः दुःखानुभूति के वर्णन पर बल देता है, विचार कीजिए।
  26. प्रश्न- 'स्वच्छंदतावाद प्रचलित मान्यताओं के प्रति विद्रोह करते हुए आत्माभिव्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति अनुराग के चित्रण को महत्व देता है। विचार कीजिए।
  27. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  30. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझाइए।
  31. प्रश्न- मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  33. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- मनोविश्लेषणवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  35. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  36. प्रश्न- समकालीन समीक्षा मनोविश्लेषणवादी समीक्षा से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  38. प्रश्न- मार्क्सवाद का साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकण है? इसे स्पष्ट करते हुए शैली उसकी धारणाओं पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- मार्क्सवादी साहित्य के मूल्याँकन का आधार स्पष्ट करते हुए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
  40. प्रश्न- "साहित्य सामाजिक चेतना का प्रतिफल है" इस कथन पर विचार करते हुए सर्वहारा के प्रति मार्क्सवाद की धारणा पर प्रकाश डालिए।
  41. प्रश्न- मार्क्सवाद सामाजिक यथार्थ को साहित्य का विषय बनाता है इस पर विचार करते हुए काव्य रूप के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- मार्क्सवादी समीक्षा पर टिप्पणी लिखिए।
  43. प्रश्न- कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवाद की क्या मान्यता है?
  44. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  45. प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।
  47. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- मार्क्सवादी आलोचकों का ऐतिहासिक आलोचना के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
  49. प्रश्न- हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना का आरम्भ कहाँ से हुआ?
  50. प्रश्न- आधुनिककाल में ऐतिहासिक आलोचना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उसके विकास क्रम को निरूपित कीजिए।
  51. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना एवं स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  55. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  56. प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  58. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।

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