बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्यसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य
प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
अथवा
जायसी के विरह-वर्णन की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर -
जायसी प्रेम और वियोग के कवि थे। डॉ. विमल कुलश्रेष्ठ ने लिखा है "विरह की व्यापक भावना हिन्दी के अतिरिक्त किसी भी साहित्य में नहीं मिलती और हिन्दी साहित्य में जायसी के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं मिलती। वेदना का जितना निरीह, निरावरण, मार्मिक, गम्भीर, निर्मल एवं पावन स्वरूप इस विरह वर्णन में मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है।' आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी जायसी के वियोग वर्णन को हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि माना है। वास्तव में देखा जाये तो विरह ही प्रेम को पुष्ट करता है। जिस तरह स्वर्ण अग्नि में तपने के पश्चात् ही कुन्दन बनकर चमकता है, उसी प्रकार प्रेम भी विरह की अग्नि में जलकर पवित्र एवं स्वच्छ बनता है। सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा है -
"विरह प्रेम की जागृति गति है और सुसुप्त मिलन है।
मिलन अन्त है मधुर प्रेम का और विरह जीवन है।'
'भ्रमरगीत' में सूरदास जी ने लिखा है -
"ऊधो विरहौ प्रेम करै।
ज्यों बिनु पुट पर गहेन रंगहि पुट रसहि परै।'
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विरह प्रेम की जागरण अवस्था है और वही जीवन है। वैसे तो जायसी ने रत्नसेन और पद्मावती के वियोग का वर्णन भी बड़ी मार्मिकता के साथ किया है, किन्तु नागमती के विरह-निरूपण में जितनी गहनता, आकुलता, मार्मिकता, प्रौढ़ता, प्रांजलता, प्रमविष्णुता, सजीवता, स्वाभाविकता एवं सुकुमारता दिखाई देती है, उतनी किसी भी व्यक्ति के विरह-वर्णन में दृष्टिगोचर नहीं होती। नागमती के विरह-वर्णन में निम्नलिखित विशेषताएँ विद्यमान हैं -
1- प्रेम की पीड़ा की अधिकता - नागमती का हृदय अपने प्रिय पति के प्रेम से इतना लबालब भरा हुआ है कि उसमें अन्य के लिए तिल भर भी स्थान नहीं है। वह एक अनन्य प्रेमिका है। वह यह कदापि नहीं चाहती कि उसका प्रेमी किसी अन्य नारी के चंगुल में फंसकर उससे दूर हो जाये। परन्तु वह विवश हो जाती है। हीरामन तोता काल बनकर उसके प्रियतम को बहकाकर उससे दूर कर दिया। उसने वामन की तरह राजा रत्नसेन रूपी बलि को छल लिया और उसी के चक्कर में पड़कर मेरा प्रिय किसी चतुर नारी के वश में ऐसा पड़ गया कि अभी तक नहीं लौटा। आज उसकी जोड़ी बिछुड़ गई है और अपने प्रियतम की स्मृति में सूखकर कांटा हो गई है। वह पुकार उठती है -
"नागरि नारि काहु बस परा। तेइँ विमोहि मो सौं चित हरा॥
सुवा काल होई लै गा पीऊ पिउ नहिं जात जात बरू जीऊ॥
भएउ नरायन वामन करा। राज करत राजा बलि छरा॥
X X X
सारस जोरी किमि हरी, मारि गएउ किन खग्गि॥
झुरि झुरि पाँजरि धनि भई, विरह कै लागी अग्गि ॥
2- विरह के ताप की अधिकता - नागमती के हृदय में जायसी ने विरह का इतना आधिक्य दिखलाया है कि वह पागल सी हो जाती है। वह पपीहे की तरह रात दिन 'पिउ-पिउ' रहती रहती है और विरह-बाण के आघात से हिल-डुल भी नहीं पाती। उसकी चोली भीग जाती है, उसका शरीर काँपने लगता है और उसके प्राण पखेरू भी उसके तन रूपी वृक्ष को छोड़ने के लिए उद्यत हो जाते हैं। इतना ही नहीं वह जिस पक्षी के समीप उपस्थित होकर अपनी बात कहना चाहती है, वह पक्षी जल जाता है और जिस वृक्ष के नीचे खड़ी होती है, वह पत्रविहीन हो जाता है -
"जेहि पंखी के निचर होई, कहै विरह के बात।
सोई पंखी जाई जरि, तरिवर होई नियात॥'
3- रुदन की अधिकता अपने - प्रियतम के वियोग में नागमती इतना रोती है कि उस वियोगिनी बाला की आँखों से आँसुओं की जगह खून बरसने लगता है। वह कोयल की तरह कुहुकती है और पपीहे की तरह 'पीउ पिउ' कहकर रोती है -
"कुहुकि-कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आंसु घुंघुची बन बोई॥
पै करमुखी नैन तन राती। को सिराव विरहा दुख ताती॥
जहँ जहँ ठाढ होई बनवासी तहँ तहँ होई घुंघुची कै रासी॥
4- दयनीय स्थिति की अतिशयता - विरह के कारण नागमती की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी है। आज उसे पति के बिना कोई आश्रम देने वाला नहीं रहा है। वह एक अनाथ एवं निराश्रित युवती की भांति मारी मारी फिरती है, किन्तु कोई उसकी बात नहीं पूछता। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका पति शीघ्र ही वापस आ जायेगा, किन्तु जब धीरे-धीरे एक वर्ष व्यतीत हो गया और उसका प्रियतम नहीं लौटा तब वह घर-घर घूमकर अपने प्रियतम के बारे में पूछती है, किन्तु कोई भी उससे सहानुभूति नहीं जताता और सान्त्वना नहीं देता। अन्त में वह हारकर अपना दुखड़ा सुनाने के लिए जंगल के पक्षियों के पास जाती है। जायसी ने नागमती की इस दयनीय स्थिति का निरूपण किया है।
5- तीज त्योहारों के द्वारा वेदना की अतिशयता में वृद्धि - नागमती की विरह वेदना उस समय और अधिक बढ़ जाती है जिस समय वह यह देखती है कि जिन बालाओं के घर पर पति है वे तो कुसुंभी रंग का वस्त्र पहनकर तथा सावन में झूला डालकर तीज का पर्व माना रही है, जबकि उसका हृदय हिडोले की तरह ऊपर नीचे हो रहा है -
"सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला। हरियर भूमि कुसुंमी रंथ चोला।
हिय हिंडोल जस डोलै मोरा विरह झुलावै देई झंकोरा॥'
कार्तिक के महीने में दीपावली का पर्व मनाया जा रहा है, सारी सखियाँ अपने-अपने पतियों के साथ झूमक गा रही है, जबकि नागमती अकेली तड़प रही, उसको चारों तरफ अंधेरा दिखाई दे रहा है -
"चहूँ खण्ड लागै अधियारा जौं धर नाहिन कंत पियारा॥
अबहुँ निठुर भाव एहि बारा। परब दिवारी होई संसारा॥
सखि झूमक गावहि अंग गोरी हौ झुराई बिछुरी भोरी जोरी॥'
इसी तरह फागुन के महीने में घर-घर चाँचर जोड़कर फाग मनाया जाता है और होली जलाकर हर्षोल्लास के साथ एक-दूसरे के ऊपर रंग और अबीर की वर्षा कर रहे हैं। किन्तु नागमती किसके साथ होली खेले? उसका तो हृदय ही होली की तरह जल रहा है -
"फाग करहि सब चाँचरि जोरी। मोहि जिय लाइ दीन्हजस होरी॥
6- शारीरिक कृशता की अधिकता - नागमती विरह की पीड़ा में रात-दिन जलती रहने के कारण इनती क्षीण हो जाती है कि उसके शरीर में न तो रक्त रहता है, न मांस रहता है, केवल अस्थिपंजर शेष रह जाता है, क्योंकि रात-दिन रोते रहने के कारण उसका सारा खून आँसू बनकर ढल जाता है, सारा मांस भी गल जाता है और हड्डियाँ सूखकर शंख हो जाती हैं
"रकत ढरा आँसू गरा, हाड़ भए सब संख"
इसी तरह नागमती विरह की अग्नि में अधजली सी रहती है, जिससे उसके शरीर का मांस तो सूख जाता है और केवल हड्डियाँ बचती हैं। उन हड्डियों को भी खाने के लिए विरह भूखे कौवे की तरह झपटता रहता है -
"अधजर भई माँसु तन सूखा लागेउ विरह काग होई भूखा॥
मांसु खाइ अब हाइन्ह लागा। अबहुँ आवत सुनि भाना॥
विरह की अधिकता के कारण नागमती का तन अत्यधिक कृश हो गया है और वह विरह की तीव्र आँच में तपती हुई मूँज की तरह छँछ हो गई है।
"तन तिनउर मा झूरौ खरी। मैं बिरहा आगरि सिरि परी।
साँठि नाहिं लगि बात को पूँछा। बिनु जिय भएउ मूंज तन छूछा॥
नागमती अपने प्रियतम के प्रेम में रात-दिन जलती हुई काली हो जाती है, उसके तन में तोले भर भी मांस नहीं रह जाता, उसका सारा रक्त निचुड़ जाता है और रत्ती रत्ती होकर नेत्रों से आँसु बनकर दुलक जाता है -
"दहि कोइला भई कंत सनेहा तोला मांस रही नहिं देहा॥
रकत न रहा विरह तन गरा। रती-रती होई नैनन्हि ढरा।"
इस प्रकार 'पद्मावत' में कवि ने नागमती की दुर्बलता का वर्णन अत्यन्त मार्मिकता के साथ किया है।
7- बारहमासा का वर्णन - विरहिणी पर बारह महीने प्रकृति का प्रकोप प्रिय के बिना विरहिणी जैसे-तैसे अपना दिन काटती है किन्तु प्राकृतिक पदार्थ तो उसके प्राण लेने पर ही तुले हुए हैं। जैसे ही आषाढ़ का महीना आया, वैसे ही कामदेव, काले-धौरे बादलों की सेना लेकर नागमती पर आक्रमण करने आ पहुँचा और वह बेचारी भयभीत होकर कंत को पुकारने लगती है -
"ओनई घटा आइ चहुँ फेरा कंत उबारू मदन है घेरा।
दादुर मोर कोकिला पीऊ। करहि वेझघट रहै न जीऊ॥'
आषाढ़ के बीतने के पश्चात् फिर सावन का महीना तीव्र वर्षा लेकर आ धमका जिससे सर्वत्र मार्ग अवरुद्ध हो गये, सम्पूर्ण संसार जलमग्न हो गया। ऐसी अवस्था में बेचारी विरहिणी नागमती भंभीरी की तरह पागल होकर घूमती फिरती है और उसकी जीवन नौका बिना सेवक के थकी हुई है -
"बाट असूझ अथाहू गंभीरी जिउ बाउर भा फिर भँभीरी।
जग जल बूड़ि जहाँ लगि ताकी। मोर नाव सेवक बिनु थाकी॥'
इसी तरह भादों की काली रातें और सूना घर उसे खाने को दौड़ता है, सैया नागिन की तरह उसे लगती है। क्वार के महीने में हँस सरोवर में क्रीड़ा करते हैं, सारस और खंजन पक्षी कुलेल करते हैं और ये सभी विरहिणी को प्रियतम की यादकर दुख देते हैं।
कार्तिक में शरद चाँदनी रातें उसकी विरह व्यथा को और भी बढ़ा देती हैं -
"कातिक शरद चन्द उजियारी। जग शीतल हौं विरहै जारी॥'
अगहन की शीतल एवं लम्बी रातें काटे नहीं कटती और वह जाड़े के मारे थर-थर काँपती रहती है। पूस में शीत और भी उसके शरीर को थर-थर कंपाता रहता है और ओढ़ने बिछाने के वस्त्रों में भी उसे जूड़ी आती है। माघ में पाला पड़ने लगता है और विरहिणी का हृदय रात-दिन हहर हहरकर अधिक काँपता रहता है। फागुन में शीतल पवन झकोरों के साथ चलने लगती है, जिससे चौगुना शीत बढ़ जाती है। चैत में कोयल पंचम स्वर में बोलती हुई पंच वाण मारने लगती है। वैसाख में धूप जलाने लगती है और जेठ से बवंडर के साथ लुएँ झुलसाने लगती है। इस प्रकार सभी महीनों में वह विरहिणी प्रकृति के प्रकोप का शिकार बनकर तड़प-तड़पकर जीवन व्यतीत करती है।
8- विरहिणी के प्रति प्रकृति की सहानुभूति - जहाँ प्रकृति नागमती को प्रतिरक्षा संतत्प करती रहती है, वहाँ इस वियोगिनी बाला के साथ वह पूर्ण सहानुभूति भी व्यक्त करती है। यही कारण है कि उस वियोगिनी बाला नागमती को दुखी देखकर पलाश अपने पत्ते त्याग देते हैं, उसी की तरह रक्त में डूबकर लाल रंग के हो जाते हैं, उसी की तरह बिम्बाफल भी रक्त वर्ण के हो जाते हैं। उसको पीला देखकर परवल पककर पीले पड़ जाते हैं और उसके हृदय की तीव्र व्यथा को देखकर गेहूँ का हृदय फट जाता है। इतना ही नहीं, वह विरहिणी बाला जिधर देखती है, उधर ही उसे सम्पूर्ण प्रकृति उसी की तरह लाल दिखाई देती है -
तेहि दुख उहे परास निपाते। लोहू बूड़ी उठे परमाते॥
राते बिम्ब भए तेहि लोहू। परवर पाक आट हिय गोहूँ॥
देखिअ जहाँ सोइ होई राता। जहाँ सो रतन कहै को बाता॥
इतना ही नहीं जब कोई व्यक्ति इस वियोगिनी बाला की व्यथा-कथा नहीं सुनता, तब आधी रात को एक विहंगम ही उसकी विरह-व्यथा को सुनता है, और कहता है -
फिर-फिर रोइ न कोई डोला। आधी रात बिहंगम बोला॥
तैं फिरिफिरि दाधे सब पॉखी। केहि दुख रैन न लगवि आंखी॥
वह केवल नागमती की व्यथा कथा ही नहीं पूछता, अपितु नागमती की प्रेम पीड़ा को समझकर उसका संदेश भी उसके प्रियतम के पास सिंहल द्वीप ले जाता है -
"लै सो संदेश विहगम चला। उठी अगि सिगरौ सिंघला।'
इस प्रकार जायसी ने विरहिणी के प्रति पूर्ण सहानुभूति व्यक्त करती हुई प्रकृति का चित्रण बड़ी तत्परता के साथ किया है और यह दिखाया है कि प्रकृति केवल सहानूभूति व्यक्त करके ही चुप नहीं रह जाती, बल्कि उस विरहिणी वाला का दुख दूर करने का भी सक्रिय प्रयास करती है।
9 विरहिणी की सदाशयता - कवि ने विरहिणी नागमती के विरह में केवल रोते ही नहीं दिखलाया है अपितु उसके उन उच्च विचारों एवं गम्भीर भावों की भी व्यंजना की है, जिनमें विरहिणी की उदारता, सदाशयता एवं उच्च भावना विद्यमान है। विरहिणी नागमती कहती है कि मैं अपने इस शरीर को जलाकर राख कर दूंगी और पवन से कहूँगी कि वह मेरी राख को उड़ा कर उस पथ पर पहुँचा दे जहाँ मेरा प्रियतम अपना पांव रखे -
"यह तन जारौ छार कै, कहौ कि पवन उड़ाव।
मुक तेहि मारग उड़ि परै, कंत धरै जहँ पाव॥'
10- विरहिणी की सात्विक भावना - जायसी ने नागमती के जिस विरह की विशद विवेचना की है, उसमें भोग-विलास की भावना की प्रधानता नहीं है, अपितु वहां शुचिता, पवित्रता एवं सात्विकता की प्रधानता है, क्योंकि जायसी की विरहिणी विरह की आग में जलकर इतनी पवित्र इतनी निर्मल एवं इतनी शुद्ध हो जाती है कि उसके हृदय का सारा अहं नष्ट हो जाता है, गर्व की कालिमा घुल जाती है, विषयों की चाह मिट जाती है और राग द्वेष की गन्दगी हमेशा के लिए साफ हो जाती है। इसीलिए तो नागमती सांसारिक भोगों के प्रति अपनी विरक्ति जताती हुई केवल प्रियतम के दर्शनों की तीव्र लालसा व्यक्त करती है और अपने मनोभाव इस तरह प्रकट करती है -
"मोहि भोग सो काज न बारी। सौंह दीठि को चाहन हारी।'
जायसी ने भी इस विरह की आग की सराहना इस रूप में की है कि जिस आग को पर्वत, समुद्र, मेघ, शशि और रवि भी नहीं सह सकते उसे वह वियोगिनी केवल अपने प्रिय पति के लिए सहती रहती है -
"परवत, समुँद, मेघ, ससि, दिनऊर, सहि न सकहि यह आगि।
मुहमद सती सराहिऔ, जरै जो अश पिय लागि।'
11 रानीपन भूलकर आमान्य नारी जैसी स्थिति - जायसी के विरह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने नागमती को सामान्य नारी जैसा चित्रित किया है। वह अपना रानीपन भूल जाती है। यद्यपि उसके पास नौकर-चाकर, दास-दासी, एवं अन्य सभासद हैं फिर भी आषाढ़ के महीने के आगमन पर उसे यह चिन्ता सताने लगती है कि प्रियतम के अभाव में घर के छप्पर कौन छायेगा, कौन कन्धा देकर छप्पर को घर के ऊपर पहुँचायेगा? इसीलिए वह एक अनाथ, अनाश्रित एवं अकेली साधारण विरहिणी नारी की तरह रोती ही पुकार उठती है -
तपै लागि अब जेठ आसाढ़ी। मैं मो कहँ यह छजनि गाढ़ी ॥
बंध नाहिं और कंध न कोई बात न आब कहौ केहि रोई।
ररि दूबरि मई टेक बिहूनी। थंम नाहि उठि सकैन थूनी॥
बरसहि नैन चुअहिं घर माँहाँ। तुम्ह विनु कत न छाजन छाहाँ।
कोरे कहाँ ठाट नव साजा। तुम्ब बिन कंतन छाजन छाजा॥'
12- फारसी वर्णन पद्धति का प्रभाव - जायसी ने विरह वर्णन पर फारसी की विरह वर्णन पद्धति का प्रभाव स्पष्ट दीख पड़ता है, क्योंकि फारसी पद्धति के अनुसार विरह की अधिकता व्यक्त करने के लिए विरहियों की आंखों से आंसू नहीं अपितु खून बहते हुए दिखाया जाता है। जायसी ने भी नागमती को जगह-जगह पर रोते हुए दिखाया है जहाँ वह आँसुओं के स्थान पर खून बहाते हुए प्रकट हुई है -
(अ) "कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आँसु घुंघची बन बोई॥
जहँ जहँ ठाढि हेउ बनवासी। तहँ तहँ होइ घुँघचि कै रासी॥
बुँद-बुँद महँ जानहुँ जीऊ। कुंजा गुँजि करहि पिउ पीऊ॥
(आ) "रकत न रहा विरह तन गरा। रती रती होई नैनन्हि ढरा "
(इ) "रकत क आंसु परे भुइ टूटी। रेगि चली जनु वीर बहूटी।'
13- ऊहात्मक पद्धति की अधिकता - जायसी ने नागमती की विरह की पीड़ा की अतिशयता का निरूपण करने के लिए ऊहात्मक पद्धति का सहारा अधिक लिया है। इसीलिए नागमती भौंरों और कौवों से कह रही है कि हे भौंरे हे काग ! मेरे प्रियतम से जाकर यह सन्देश कहना कि वह विरहिणी तुम्हारे वियोग की आग में जलकर भस्म हो गई, उसी अग्नि के धुएँ से धूमित होकर हम लोग काले हो गये हैं -
"पिय सौ कहेहु संदेसड़ा, हे भौरा ! हे काग।
सो द्यनि विरहै जरि मुई, तेहि क धुआँ हम लाग॥'
इसी तरह एक स्थान पर विरह में नागमती की सारी हड्डियाँ सूखकर किंगरी बन गई है, नसे तांत हो गई हैं और शरीर के रोम-रोम में उसी प्रियतम की धुन उठ रहीं है -
"हाड़ भए सब किंगरी, नसें भई सब ताँति।
रोवँरोवँ ते धुनि उठै, कहेहु विया केहि भाँति॥'
ऐसे ही नागमती अपने प्रियतम के वियोग में जलकर काली कोयल के समान हो जाती है, तन में तोला भर भी मांस नहीं रहता, तनिक भी खून नहीं रहता, क्योंकि वह सब अश्रु बनकर निचुड़ जाता है
"दहि कोइल भत कत सनेहा तोला मांस रही नहीं देहा॥
रकत न रहा विरह तन गरा। रती रती होई नैनन्हि ढरा॥"
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इसी प्रकार के ऊहात्मक वर्णनों के द्वारा जायसी ने नागमती के विरहाधिक्य का निरूपण अत्यन्त मार्मिकता के साथ किया है।
14. विरह-वर्णन में काम-दशाओं का समावेश - नागमती के वियोग वर्णन में वे सभी काम-दशायें वर्णित हैं, जिनका उल्लेख साहित्यशास्त्र में किया गया है। इनकी संख्या दस मानी गई है -
(1) अभिलाषा,
(2) चिन्ता,
(3) स्मृति,
(4) गुण कथन,
(5) उद्वेग,
(6) प्रलाप,
(7) उन्माद,
(8) व्याधि,
(9) जड़ता,
(10) मरण।
उपयुक्त दसों दशाओं का वर्णन नागमती के वियोग वर्णन में हुआ है। उदाहरणार्थ -
अभिलाषा -
"यह तन जारौ छार कै कहौ कि पवन उड़ाव।
मुकु तेहि मारग उड़ि परै, कत घरे जहँ पाव '
चिन्ता -
"नागरि नारि काहु बस परा। तेई विमोहि मो सौ चितुहारा '
स्मृति -
"एहि मांस उपजै रस मूलू। तूं सो भँवर मोरजोवन फूलू॥
गुणकथन -
"आइ सूर होइ तपु रे नाहा। तेहि बिनु जाड़ न छूटै मार।
उद्वेग -
"सरवर हिया घटतनिति जाई। टूक-टूक है कै बिहराई॥
विहरल लिया करहु पिय टेका। दिष्टि दवंगरा मेरबहु एका।'
प्रलाप -
"बरसहिं नैन चुअहि घर माहाँ तुम्ह बिनु कंत न छाजन छाहाँ॥
कोरे कल ठाढ़ नव साजा। तुम्ह बिनु कंत न छाजन छाजा॥'
उन्माद -
"धौरी काम दगधै सो रामा हरि जिउलै सो गएउ पिय नामा॥
व्याधि -
अधिक काम दगधै सो रामा। हरि जिउलै सो गएउ पिय नामा॥
बिरह बान तस आग न डोली एकत पसीजि भीजि तन चोली॥
जड़ता -
खिन एक अरब पेट मँह स्वाँसा। खिनहि जाइ सब होइ निरासा॥
मरण -
"रतक ढ़रा माँसु गरा हाड़ बए सब संख।
धनि साइसा होइ ररि मुई आइ समेरहु पंख॥'
सारांश - निष्कर्ष यह है कि नागमती की विरह भावना में वेदना, व्यथा एवं पीड़ा का आधिक्य है, उसमें कोमलता, सरसता एवं गम्भीरता का प्राधान्य है और उसमें कामातुरता की अपेक्षा सात्विकता एवं पवित्रता का बाहुल्य है। यद्यपि कवि ने कहीं-कहीं ऊहात्मक वर्णनों द्वारा अथवा अतिशयोक्ति कथन द्वारा नागमती की पीड़ा को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का प्रयास किया है, फिर भी नागमती की विरह भावना रीतिकालीन कवियों की विरह भावना के समान हास्यास्पद नहीं हुई है। नागमती की विरह व्यथा आकुलता, तड़पन आह एवं टीस से भरी हुई है, जिसे सुनकर कोई सजीव प्राणी ही विचलित नहीं होता, बल्कि वृक्ष, लता, फूल, फल एवं पत्ते तक विचलित हो जाते हैं। जायसी ने स्त्री जाति की या कम से कम हिन्दू - गृहिणी मात्र की सामान्य स्थिति के भीतर विप्रलम्भ शृङ्गार के अत्यन्त समुज्जल रूप का विकास दिखाया है। कवि ने विरह के वेदनात्मक स्वरूप का चित्रण करते हुए संवेदनशीलता, विरहजन्य कृशता, करुणा एवं विश्वव्यापी भावुकता का भी स्वाभाविक किन्तु मार्मिक चित्रण किया है। इन सभी विशेषताओं के कारण जायसी को विरह वर्णन का सम्राट और उनके विरह वर्णन को हिन्दी साहित्य में अद्वितीय और अमूल्य माना गया है। वस्तुतः व्यथा की सम्पूर्ण मधुरता, विरह की सारी मिठास, प्रणय के स्थायित्व और नारी की चरम भावुकता को साकार करने में जायसी को साहित्य में अन्यतम स्थान दिया गया है। अन्त में डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत के शब्दों में "नागमती का विरह-वर्णन अपनी संवेदनशीलता, अभिव्यंजना सौष्ठव एवं साहित्यिक चमत्कारों की दृष्टि में हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है।' आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है - "इस बारहमासे में वेदना का अत्यन्त निर्मल और कमल स्वरूप, हिन्दू दाम्पत्य जीवन का अत्यन्त मर्मस्पर्शी माधुर्य, अपने चारों ओर की प्रकृत्ति वस्तुओं और व्यापारों के साथ विशुद्ध भारतीय हृदय की साहचर्य भावना तथा विषय के अनुसार भाषा का अत्यन्त स्निग्ध, सरल, मृदुल और अकृत्रिम प्रवाह देखने योग्य है।'
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- प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
- प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
- प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
- प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
- प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
- प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
- प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
- प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
- प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
- प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
- प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
- प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
- प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
- प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
- प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
- प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
- प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
- प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
- प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
- प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
- प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
- प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
- प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
- प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
- प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)