बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्यसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य
व्याख्या भाग
प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
(1) वंदना
नन्दक नन्दन कदम्बेरि तरु-तर, धिरे धिरे मुरलि बोलाव।
समय संकेत-निकेतन बइसल, बेरि-बेरि बोलि पठाब।
सामरि, तोरा लागि, अनुखन बिकल मुरारि।
जमुनाक तिर उपवन उद्वेगल, फिर-फिर ततहि निहारि।
गोरस बिकनिके अबइत जाइत, जनि-जनि पुछ बनमारि।
तोहें मतिमान, सुमति मधुसूदन, बचन सुनह किछु मोरा।
भनइ विद्यापति सुन बरजोवति बन्दह नन्द-किसोरा॥1॥
शब्दार्थ - बइसल = बैठे हुए। सामरि = श्यामा सुन्दरि। अनुखन = प्रतिक्षण। तिर = तट। उदवेगल = व्याकुल। नन्दक नन्दन = नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण। कदम्बक तरु तर = कदम्ब के पेड़ के नीचे। समय = राधा से मिलने का निर्धारित किया हुआ समय। संकेत-निकेतन = निर्धारित स्थान। बेरि-बेरि = बार-बार। बोलि पठाव = बुलाते हैं। तोरा लागि = तेरे लिए। बिकल = व्याकुल। जमुना क तिर = जमुना नदी के तट पर। फिरिफिरि = घूम-घूम कर अथवा मुड़-मुड़कर। ततहि = उस ही ओर। निहारि = देखते हैं। गोरस = दूध, दही। अवइत = आते हुए। जाइत = जाते हुए। जनि-जनि = प्रत्येक व्यक्ति से (यहाँ पर प्रत्येक गोपी से)। बनमारि = वन का माली अर्थात् श्रीकृष्ण। मतिमान = बुद्धिमान। सुमति = सद्बुद्धि। मधुसूदन = श्रीकृष्ण। बरजौबति = श्रेष्ठ युवती। बन्दह = वन्दना करना अर्थात् मिलना।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित मैथिली कवि 'विद्यापति की पदावली' के 'वन्दना खण्ड' से उद्धृत है। इन पंक्तियों में कवि विद्यापति ने श्रृंगार रस से सरोबर 'पदावली में रस- वर्णन से पहले रस के देवता श्रीकृष्ण की ब्याज स्तुति की है। राधा से मिलने के लिए पहले से ही निर्धारित समय व स्थान पर श्रीकृष्ण पहुँच जाते हैं परन्तु राधा के वहाँ न पहुँचने के कारण वे व्याकुल हो रहे हैं। इन पंक्तियों में श्रीकृष्ण की दूती या राधा की सखी राधा को मिलने के स्थान पर जाने के लिए प्रेरित करती है।
व्याख्या - कवि कहता है कि श्रीकृष्ण की दूती या राधा की सखी राधा से कहती है कि हे राधा। नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण कदम्ब के पेड़ के नीचे बैठकर धीरे-धीरे मुरली बजा रहे हैं अर्थात् वे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्होंने तुमसे मिलने का जो समय व स्थान निश्चित किया था वे उसी स्थान पर बैठकर बार- बार तुम्हें बुलाने का संदेश भेज रहे हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि वे मुरली के स्वर में बार-बार तुम्हारा नाम लेकर तुम्हें बुलाते हैं। हे श्यामा ! तुम्हारे लिए ही श्रीकृष्ण प्रतिक्षण व्याकुल हो रहे हैं अर्थात् उनकी व्याकुलता प्रतिक्षण बढ़ती जा रही है। यमुना नदी के तट पर स्थित उपवन अथवा बाग में श्रीकृष्ण व्याकुल होकर घूम-घूम कर अथवा मुड़-मुड़कर उस मार्ग की ओर देखने लगते हैं जिस मार्ग से तुम्हारे वहाँ पहुँचने की संभावना है। दूध, दही आदि गोरस को बेचने के लिए जो गोपियाँ उस मार्ग से आती या जाती हैं, श्रीकृष्ण उन गोपियों से तुम्हारे विषय में पूछते हैं। हे राधा ! तुम स्वयं बुद्धिमती हो और श्रीकृष्ण भी सद्बुद्धि वाले हैं अर्थात् तुम दोनों ही बुद्धि सम्पन्न हो। फिर भी तुम्हें मेरी इतनी बात तो अवश्य सुननी चाहिए। विद्यापति कहते हैं - हे श्रेष्ठ युवती राधा। मेरी बात सुनो। तुम शीघ्र ही वहाँ पहुँचकर नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण की वन्दना करों। कहने का अभिप्राय यह है कि तुम वहाँ पहुँचकर शीघ्र ही श्रीकृष्ण से जाकर मिलो।
विशेष-
(1) इन पंक्तियों में कवि ने अपने आराध्य तथा अपनी आराध्या की वन्दना के साथ-साथ इस बात की ओर भी संकेत किया है इस काव्य रचना का प्रतिपाद्य श्रृंगार रस ही है।
(2) नन्दक नन्दन में सभंग यमक अलंकार है।
(3) 'तोहें मतिमान सुमति मधुसूदन में पर्यायोक्ति अलंकार है।
(2) राधा की वंदना
देख देख राधा रूप अपार।
अपुरुब के बिह आनि मिलाओल
खिटि तल लावनि- सार॥2॥
अंगहि-अंग अनॅग मुरछावत
हेरय पड़ए अधीर।
मनमय कोटि-मंथन करू ने जन
से हेरि गहि-मधि गीर॥4॥
फट कट लखिमी चरन-टल नेओछए
रंगिनि हेरि बिभोरि।
करू अभिलाख मनहि पदपंकज
अहोनिसि कोर अगोरि॥6॥
शब्दार्थ - देख = देखो, रूप = सौंदर्य, अभिलाख = अभिलाषा।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ मैथिली कवि विद्यापति की पदावली में संकलित वंदना खण्ड के अन्तर्गत राधा की वंदना से उद्धृत हैं।
प्रसंग - इस पद्य में कवि विद्यापति ने राधा के अनुपम सौंदर्य का चित्रण किया है।
व्याख्या - कवि राधा के अनुपम सौन्दर्य की ओर संकेत करके कहते हैं- देखो, देखो। राधा के अनुपम सौंदर्य की ओर देखो। राधा के सौन्दर्य को देखकर लगता है मानो विधाता ने इस पृथ्वी पर ' विद्यमान सारे सौन्दर्य तत्वों को लेकर अथवा एकत्र करके मिला दिया है। कहने का यह भाव है, कि राधा का इतना सुंदर रूप है, कि मानों उसके सौन्दर्य में इस पृथ्वी पर मिलने वाले सारे सौन्दर्य तत्वों का समावेश हो गया है। उसके शारीरिक सौन्दर्य अथवा उसके एक-एक अंग के सौन्दर्य को देखकर कामदेव भी अधीर होकर मूर्छित हो जाता है। कहने का भाव यह है, कि राधा के अनुपम सौन्दर्य को देखकर सौन्दर्य का देवता कामदेव भी व्याकुल हो उठता है। भले ही श्री कृष्ण अपनी सुन्दरता से करोड़ों कामदेव को लज्जित करने में सक्षम हैं, परन्तु वे भी राधा के अनुपम सौन्दर्य को देखकर पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। कहने का भाव यह है, कि राधा का सौन्दर्य अतिसुंदर कृष्ण को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। कवि कहता है, कि राधा की सुन्दरता को देखकर कितनी ही लक्ष्मियाँ अपने आपको उसके चरणों में न्योछावर कर देती है और न जाने कितनी ही सुंदरियाँ राधा के सौंदर्य को मुग्ध होकर देखती रहती हैं। वे सुंदर नारियाँ अपने मन में अभिलाषा करती हैं, कि वे राधा के चरण-कमल को अपनी गोद में रखकर उसकी रखवाली करें। कहने का भाव यह है, कि राधा का सौन्दर्य न केवल पुरुषों को बल्कि सुंदर युवतियों के हृदयों को भी अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम है।
विशेष -
(i) इस छंद में कवि ने राधा के सौंदर्य का चित्रण अपनी कल्पना के बल पर किया है।
(ii) अंग-अनॅग में रूपक अलंकार है।
(iii) पूरे पद में श्रृंगार रस है।
(iv) अभिधा और व्यंजना शब्द शक्ति हैं।
(v) मधु मैथिली भाषा का प्रयोग हुआ है।
(3) राधा प्रेम
ए सिख पेखलि एक अपरूप।
सुनइत मानबि सपन-सरूप॥2॥
कमल जुगल पर चाँद की माला।
तापर उपजल तरून तमाला॥4॥
तापर बेढ़लि बिजुरी - लता।
कालिंदी तट धीरे चलि जाता॥6॥
साखा-सिखर सुधाकर पाँति।
ताहि नव पल्लव अरूनक भाँति॥8॥
बिमल बिम्बफल जुगल बिकास।
तापर कीर थीर करू बास॥10॥
तापर चंचल खंजन- जोर।
तापर साँपनि झाँपल मोर॥12॥
ए सखि रंगिनि कहल निसान।
हेरइत पुनि मोर हरल गिआन॥14॥
कवि विद्यापति एह रस भान।
सुपुरूढा मरम तुहू भल जान॥16॥
शब्दार्थ - ए सखि = हे सखि !, अपरूप = अद्वितीय, सुपुरूढा = सुन्दर रूप।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य मैथिली कवि 'विद्यापति की पदावली में संकलित प्रेम प्रसंग खंड के द्वितीय भाग राधा प्रेम से उद्धृत है।
प्रसंग - कवि विद्यापति ने नायक-नायिका अर्थात् श्री कृष्ण व राधा के प्रेम का चित्रण किया है। राधा अपनी सखी के सामने श्री कृष्ण के अपार सौंदर्य का वर्णन करती हुई कहती हैं।
व्याख्या - हे सखी! आज मैंने अद्वितीय सौंदर्य को देखा। यदि तुम सुनोगी तो कहोगी कि यह तो तुम्हारा स्वप्न में देखा हुआ रूप है। कहने का भाव यह है, कि ऐसे अद्वितीय सौंदर्य पर तुम विश्वास नहीं करोगी। मैंने दो कमलों के ऊपर चन्द्रमाओं की माला देखी अर्थात् श्री कृष्ण के दोनों चरण कमल के समान दिखाई दे रहे थे और उनके पैरों के नाखून चन्द्रमा के समान दिखाई दे रहे थे। उनके ऊपर एक सुंदर नया अथवा तरूण वृक्ष उगा हुआ था। भाव यह है कि श्री कृष्ण का तरूण शरीर किसी तरूण वृक्ष के समान पुष्ट था। उस तरूण वृक्ष पर बिजली की बेल लिपटी हुई थी अर्थात् उनके शरीर पर लिपटा हुआ पीताम्बर बिजली के समान चमक रहा था। वह तरूण तमाल अर्थात् श्री कृष्ण यमुना नदी के किनारे धीरे-धीरे चला जा रहा था। उस तरूण वृक्ष की शाखाओं के शिखर पर चन्द्रमाओं की पंक्ति थी अर्थात् श्री कृष्ण के हाथों की अंगुलियों के नाखून चन्द्रमा के समान सुन्दर थे। उस वृक्ष पर नये-नये पत्ते लालिमा से युक्त थे अर्थात् श्री कृष्ण की हथेलियाँ कोमल व लालिमा युक्त थीं। उस वृक्ष पर दो विकसित बिम्बफल ' दिखाई दे रहे थे। अर्थात् श्री कृष्ण के होंठ बिम्बफल के समान लाल व सुंदर थे।
उस वृक्ष पर एक तोते ने निवास कर रखा था अर्थात् श्री कृष्ण की नाक तोते के समान सुंदर थी। उसके ऊपर खंजन पक्षियों का एक जोड़ा था अर्थात् श्री कृष्ण के नेत्र खंजन पक्षियों के समान सुंदर और चंचल थे। उसके ऊपर मोर ने काली नागिन को दबा रखा था। अर्थात् श्री कृष्ण ने अपने सिर पर मोर मुकुट लगा रखा था जिसमें उनके काले केश दबे हुए थे। हे सखी! अब मैंने तुम्हारे समक्ष उसके सभी लक्षण बता दिए हैं जिसने अपने सुंदर रूप से मेरे ज्ञान अथवा सुध-बुध को हर लिया है। कवि विद्यापति कहते हैं, कि तुम अर्थात् राधा उस सुंदर पुरुष के मर्म को भली-भाँति जानती हो।
विशेष-
(i) कवि ने नायिका के मुख से नायक के सौंदर्य का गूढ़रीति से वर्णन करवाया है।
(ii) कोमल कांट पदावली है।
(iii) पूर्ण पद में रूपातिश्योक्ति अलंकार है।
(iv) श्रृंगार रस से परिपूर्ण है।
(v) अभिधा व लक्षणा शक्ति का प्रयोग है।
(4)
सैसव जौवन दरसन भेल।
दुहु दल थले दन्द परि गेल॥2॥
कबहु बाँधय कच कबहु विथारि।
कबहु झाँपय अंग कबहु उधारि॥4॥
अति थिर नयन अथिर किछु भेल।
उरज - उदय थाल लालिम देल॥6॥
चंचल चरन, चित चंचल भान।
जागल मनसिज मुदित नयान॥8॥
विद्यापति कह सुनु वर कान।
धैरज धरह मिलायब आन॥10॥
शब्दार्थ- सैसव = बाल्यावस्था। दंद = युद्ध। परि गेल = पड़ गया। कच = केश। बिथारि = खोल देना। अथिर = चंचल। उरज = कुच / उरोज। मुदित = बंद। कान = कान्ह / कृष्ण। चित्त = हृदय मन। मनसिज = कामदेव।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत पद में विद्यापति ने राधा की कैशोर्यावस्था के प्रस्फुटन की स्थिति का वर्णन किया है। वयः सन्धि के इस पद में कवि ने राधा के उदित होते सौन्दर्य व लावण्य का मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया है।
व्याख्या - कवि कहते हैं कि किशोरी राधा के मन व देह में शिशुता और कैशोर्यावस्था दोनों की संधि बेला आ गई है। दोनों के मिलन के फलस्वरूप दोनों दलों (शैशव व यौवन) की सेनाओं में युद्ध छिड़ गया है। शिशु अवस्था के प्रभाव में आकर बाला कभी अपने केशों को बाँध लेती है फिर युवावस्था के भावों की प्रबलता से तुरन्त ही अपने केशों को उन्मुक्त छोड़ देती है। (अर्थात् बन्धनों से मुक्त होने का भाव प्रकट करती है। इसी प्रकार कभी अपने अंगों को शैशवावस्था के आवेग के कारण ढक लेती है। तो कभी युवावस्था के भावों की प्रबलता से उन अंगों पर से वस्त्रों का आवरण हटा लेती है। किशोरी की स्थिर आँखें यौवनागम की सूचना देते हुए कुछ-कुछ चंचल होने लगी हैं। उरोजों (वक्षस्थल) के विकसित होने के स्थान पर भी लालिमा चढ़ने लगी है। चरण तो बाला के पहले भी गतिशील थे परन्तु अब ऐसा प्रतीत होता है कि यौवन के बीज प्रस्फुटित होने के साथ ही उसका मन भी चंचलता धारण करने लगा है। (चित्त में नई उमंगे बढ़ती जा रही हैं) ऐसा लगता है कि कामदेव जाग्रत हो गए हैं परन्तु उनकी आँखें मुँदी हुई हैं। विद्यापति स्वयं को समझते हुए कहते हैं कि हे विद्यापति ! भली भाँति विचार करो कि ऐसा क्यों हो रहा है। (बालिका के मनोभावों में परिवर्तन का कारण क्या है) ऐसा प्रतीत होता है कि किशोरी राधा के अंगों में ' कामदेव के पंच बाण समा गए हैं।
विशेष -
(1) प्रस्तुत पद में विद्यापति ने किशोरी के मनोभावों का अत्यंत कुशलतापूर्वक शब्द चित्र प्रस्तुत किया है।
(2) नवयौवन के आगमन के कारण शरीर व मन में होने वाले उत्तरोत्तर विकासों को अत्यंत सुन्दरता के साथ वर्णित किया है। अंकुरित यौवना नायिका का वर्णन किया गया है।
(3) परिवर्तन के लक्षणों का स्वाभाविक चित्र खींचा गया है।
(4) भाषा मैथिली, रूपकाशयोक्ति, अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश आदि अलंकार हैं।
(5)
पीन पयोधर दूबरि गता।
मेरु उपजल कनक-लता॥2॥
ए कान्हु ए कान्हु तोरि दोहाई।
अति अपूरुब देखलि साई॥4॥
मुख मनोहर अधर रंगे।
फूललि मधुरी कमल संगे॥6॥
लोचन - जुगल भृग अकारे।
मधु क मातल उड़ए न पारे॥8॥
भउँह क कथा पूछह जनू।
मदन जोड़ल काजर-धनू॥10॥
भन विद्यापति दूतिवचने।
एत सुनि कान्हु कएल गमने॥12॥
शब्दार्थ - पीन = पुष्ट। पयोधर = कुच, गता, शरीर। अपरूव = अपूर्व। भृंग = भ्रमर। मधु कमातल = मधु (शहद) पान से मदमस्त होना। मदन = कामदेव। भन = सुनकर। गमने = प्रस्थान।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत पद में दूती द्वारा श्री कृष्ण के समक्ष राधा के अपूर्व सौन्दर्य का शब्द चित्र प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्या - नखशिख सौन्दर्य खण्ड से उद्धृत इस पद में विद्यापति दूती के माध्यम से राधा के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे कान्हा उस किशोरी राधा की तन्वी देह में स्थित पुष्ट उरोजों की शोभा देख कर ऐसा प्रतीत होता है मानो सोने की लता में सुमेरु पर्वत उत्पन्न हो गया है। (अर्थात् नायिका के सुमेरु पर्वत के समान पुष्ट उरोज अनोखी शोभा से युक्त हैं।) हे कान्हा मैं तुम्हारी दुहाई (शपथ खाकर) देकर कहती हूँ कि वह अपूर्व सुन्दरी मैंने अभी देखी है। उस कमनीय बाला के मनोहर मुखमंडल पर लाल रंग से रंजित अधरों की शोभा देखकर ऐसा भान होता है मानो कमल के पुष्प के साथ (मुख) मधुरी (एक तरह का सुन्दर लाल वर्ण का पुष्प जो केवल मिथिला में ही होता है) फूली हो। उस लावण्य युक्त मुखमंडल पर अंकित युगल नेत्रों की शोभा भ्रमरों के समान प्रतीत होती है। ऐसा लगता है कि सौन्दर्य रूपी मधु का पान करके मदमस्त हो चुके नेत्र रूपी भ्रमर उड़ने में असमर्थ हो चुके हैं अतः वे वहीं स्थिर होकर रह गए हैं। उस कोमलांगी की भौहों के सौन्दर्य की तो गति ही न्यारी है ऐसा प्रतीत होता है मानो कामदेव ने स्वयं काजल से अपने धनुष के समान तीखी भ्रू भंगिमा का निर्माण किया है (अर्थात् उसकी भ्रू भंगिमा का विलास कामदेव के धनुष के समान बंकिम है।) विद्यापति कहते हैं कि दूती के वचनों को सुनकर श्री कृष्ण उस बाला के प्रति अनुरक्त हो जाते हैं और शीघ्रता से उसकी ओर प्रस्थान कर जाते हैं। (अर्थात् श्री कृष्ण शीघ्रातिशीघ्र राधा से मिलने हेतु निकल पड़ते हैं।)
विशेष -
(1) मैथिल कोकिल विद्यापति ने राधा के नख-शिख सौन्दर्य का वर्णन किया है।
(2) विद्यापति द्वारा अनूठे उदाहरणों का प्रयोग हुआ है यथा- पीन पयोधर ....... कनक लता।
(3) मधुरी एक विशेष प्रकार का पुष्प होता है जो विशेष रूप से मिथिला प्रान्त में ही प्राप्त होता है।
(4) रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, विभावना आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
(5) विद्यापति नायिका सौन्दर्य वर्णन में रीतिकालीन परिपाटी का अनुसरण करते दिखाई देते हैं।
(6)
सजनी अपरूप पेखल रामा।
कनक-लता अवलम्बन ऊअल
हरिन-हीन हिमधामा॥2॥
नयन-नलिनि दओ अंजन रंजइ
भौंह बिभंग-बिलासा।
चकित चकोर-जोर बिधि बाँधल
केवल काजर पासा॥4॥
गिरिबर-गरुअ पयोधर-परसित
गिम गज-मोति क हारा।
काम कम्बु भरि कनक-सम्भु परि
ढारत सुरसरि-धारा॥6॥
पएसि पयाग जाग सत जागइ
सोइ पावए बहुभागी।
बिद्यापति कह गोकुल-नायक
गोपी जन अनुरागी॥8॥
शब्दार्थ - अपरूप = अपूर्व, पेखल = देखा, शमा = सुन्दरी, हरिन = हीन = हिमधामा निष्कलंक चंद्र (मुख रूपी चंद), नलिन = कृष्ण या नील कमल, अंजन = काजल, विभंग = विलासा = कुटिल कटीली भंगिमा, पास = रस्सी में, गिरिवर गरुअड़ = पहाड़ जैसे, गिम = ग्रीवा कम्बु = शंख, पयाग = प्रयाग (सुमेरु पर्वत), हिमधामा = शीतलता का घर, जाग= यज्ञ, सत= सौभाग्य, सुरसरि धारा = गंगा की धारा।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत पद में दूती दूसरी सखी के सम्मुख राधा के अद्वितीय सौन्दर्य का वर्णन कर रही है।
व्याख्या - हे सजनी ! मैंने अपूर्व सुन्दरी राधा को देखा है। उसकी देह (तन्वेगी) कनक लता के समान दुबली पतली, लचीली और सोने के रंग के समान गोरी थी। उस तन्वेगी स्वर्णिम आभा वाली देह लता का आश्रय लेकर ही निष्कलंक शीतलता का केन्द्र चन्द्रमा अर्थात् उसका मुख उदित हुआ था। उसकी दोनों आँखें कृष्ण कमल के समान तथा काजल से रंजित थीं। उसकी तराशी हुई भौंहों की भंगिमा विलसित (सुशोभित हो रही थीं। उसके नेत्र चकित अर्थात् चंचल चकोर पक्षी की भाँति प्रतीत हो रहे थे। ऐसा लगता था मानों ब्रह्मा ने काजल की डोरी से उन दोनों नेत्रों को वहाँ बाँधकर स्थिर कर दिया था (अन्यथा वे खंजन पक्षी वहाँ से उड़ जाते) उसके सुपुष्ट व सुडौल उरोज सुमेरू पर्वत की भाँति शोभायमान थे। उन्नत सुमेरू पर्वत के समान वृक्षस्थल गजमुक्ताओं से निर्मित सुन्दर हारों से स्पर्शित हो रहे थे। (गले में पड़ा गजमुक्ताओं से निर्मित हार उसके वक्ष स्थल को स्पर्श कर रहा था।) इस छवि को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों कामदेव शंख में गंगा जल को भरकर उसके पयोधरों (उरोजों) पर सुरसरि की धारा प्रवाहित कर रहे हैं। तीर्थराज प्रयाग में प्रविष्ट होकर जो सौ-सौ यज्ञ करेगा, वही बढ़भागी ऐसी नायिका को प्राप्त करने वाला पुण्यात्मा होगा। (अर्थात् राधा जैसी अपूर्व सुन्दरी के वरण का फल सामान्य कोटि का प्रणयी को नहीं मिल सकता) विद्यापति कहते हैं कि इस क्षेत्र गोकुल का श्रेष्ठ नायक श्री कृष्ण जो गोपियों के अनुराग पर एकछत्र राज्य करते हैं वे ही इस परम सुन्दरी के सर्वथा योग्य प्रतीत होते हैं। (विद्यापति स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि गोपियाँ जिनसे अनुराग रखती हैं वे श्रेष्ठ श्री कृष्ण ही ऐसी राधा हेतु उपयुक्त नायक या वर हैं।)
विशेष -
(1) हरिन-हीन अर्थात् मृग की छाप से हीन से आशय निष्कलंक या कलंक रहित चन्द्रमा से है।
(2) एक सखी के दूसरी सखी से वार्तालाप में राधा के अलौकिक, अपूर्व सौन्दर्य की परिचर्चा हो रही है !
(3) कवि द्वारा सर्वथा नवीन उपमानों के उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं यथा "काम कम्बु धारा।"
(4) उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, अप्रस्तुत प्रशंसा आदि अलंकार हैं।
(5) कवि का वाक् चातुर्य प्रशंसनीय है।
(7)
कामिनि करए सनाने।
हेरितहि हृदय हनए पॅचबाने॥2॥
चिकुर गरए जलधारा।
जनि मुख-ससि डर रोअए अंधारा॥4॥
कुच-जुग चारु चकेवा।
निअ कुल मिरिअ आनि कोन देवा॥6॥
ते संका भुज-पासे –।
बाँधि घएल उड़ जाएत अकासे॥8॥
तितल बसन तनु लागू।
मुनिहु क मानस मनमथ जागू॥10॥
भनइ विद्यापति गावे।
गुनमति धनि पुनमत जन पावे॥12॥
शब्दार्थ - हेरितहि = देखते ही, हनए = मारती है, निय= निज, चिकुर = केश, गरए = गिराती है, भुज पासे = भुजाओं के पाश में, पुण्यमत = = पुण्यवान, तितल = भीगा हुआ, मनमथ = कामदेव, धनि = रमणी।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - 'सद्यस्नाता खण्ड' से अवतरित इस पद में विद्यापति स्नान के पश्चात् भीगी वस्त्र तथा केशों से अति शोभायमान छवि प्रदर्शित करती नायिका का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या - काम से लोगों के हृदय को उद्वेलित करने वाली नायिका अर्थात् राधा स्नान कर रही हैं। उसकी इस अपूर्व छवि को देखते ही (देखने वाले के) मन में कामदेव के पंच बाणों का आघात लग जाता है। (अर्थात् नायिका अपनी इस अद्भुत छवि से देखने वाले को मंत्रमुग्ध कर लेती है।) नायिका के काले सुदीर्घ केशों से जल की बूँदें टपक रही हैं जिन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो मुखरूपी चन्द्रमा के भय से केश रूपी अंधकार रुदन कर रहा है। (काले केशों से टपकती जल बिन्दुएँ अंधकार के अश्रु रूप में रोने का भाव प्रदर्शित कर रही है।) आर्द्रवसना नायिका के युगल उरोज चकेवा पक्षी के समान सुन्दर व चंचल हैं और नायिका संशकित है कि यदि ये उद्यनशील चकवा रूपी पयोधर युगल आकाश में उड़कर अपने समूह से मिल जाएँगे तो इन्हें कौन वापस लाकर देगा (सा देने वाला है) इन्हीं शंकाओं के कारण नायिका ने अपने युगल उरोजों को अपनी भुजाओं के पाश में कसकर बाँध रखा है। आर्द्र (गीला) वस्त्र नायिका की सुन्दर सुन्दर देह से चिपका हुआ है जिसे देखकर ऋषि-मुनियों के मन में भी काम भावना जाग जाती है। (साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या की जाए।) विद्यापति (सुकवि) गाकर कहते हैं कि इस रूप, गुण, यौवन से सम्पन्न नायिका (राधा) को गुणवान (योग्य नायक) ही प्राप्त करेगा। अर्थात् श्रेष्ठ व गुणवान श्री कृष्ण ही इस गुणवती को प्राप्त कर सकते हैं।
विशेष -
(1) विद्यापति यौवन व अपार रूप सौन्दर्य नायिका हेतु तद्नुरूप योग्य वर की ही बात करते हैं।
(2) सद्य स्नाता नायिका की चेष्टाओं वा छवि का सहज स्वाभाविक तथा मनोहारी चित्र प्रस्तुत हुआ है।
(3) 'जनि मुख-ससि दुर रोअए अँधारा - पंक्ति में वर्ण-साम्य के आधार पर केशों से गिरती बूँदों को अंधकार के आँसू के रूप में चित्रित किया है जो सर्वथा नवीन उद्भावना है।
(4) सद्यः स्नाता नायिका द्वारा वक्षस्थल को भुजाओं से ढकने का कारण युगल चकेवा पक्षी रूपी उरोजों के उड़ जाने की शंका द्वारा स्पष्ट किया जाना भी सर्वथा नवीन उपमान है।
(5) रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, अनुप्रास, अप्रस्तुत प्रशंसा आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
(8)
पथ गति नयन मिलल राधा कान।
दुहु मन मनसिज पूरल संधान॥2॥
दुहु मुख हेरइत दुहु भेल भोर।
समय न बूझय अचतुर चोर॥4॥
बिदगधि संगिनी सब रस जान।
कुटिल नयन कएलह्नि समधान॥6॥
चलल राज-पथ दुहु उरझाई।
कह कबि - सेखर दुहु चतुराई॥8॥
शब्दार्थ - पथगति = राह में जाते हुए, कान = कृष्ण, मनसिज = कामदेव, संघान = बाण का संचालन, भेल भोर = बेसुध हुए, अचतुर = मूर्ख / अनाड़ी, विदगधि = विदग्ध (जलते हुए) कुटिल नयन = टेढ़ी चितवन, समधान = सावधान।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - श्रीकृष्ण का प्रेम' नामक खण्ड से अवतरित 'विद्यापति पदावली' के इस पद में श्रीकृष्ण के हृदय में राधा के प्रति मनोहर भावों का चित्र प्रस्तुत हुआ है।
व्याख्या - मार्ग में चलते हुए एकाएक राधा और कृष्ण दोनों के नेत्र परस्पर मिल जाते हैं और जैसे ही उनकी दृष्टि एक-दूसरे पर पड़ती है दोनों के ही मन में कामदेव मानों अपने बाण का संघान कर देते हैं अर्थात् दोनों के ही मन में काम भावना का संचार हो जाता है। (एक-दूसरे के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है) दोनों एक-दूसरे का मुख देखते ही प्रेम के प्रवाह के कारण बेसुध हो जाते हैं। उनकी अवस्था उस मूर्ख चोर की ही भाँति हो गई है जो चोरी करते समय उचित अवसर को नहीं देखता। (अर्थात् राधा और कृष्ण उचित अवसर की प्रतीक्षा किए बिना सबके सम्मुख ही अपने मनोभावों को प्रदर्शित होने से रोक नहीं पाते) श्री कृष्ण अपने प्रेम में विदग्ध हो उठी संगिनी (राधा) के मनोभावों को भलीभाँति समझ जाते हैं। वे बंकिम चितवन के संकेत द्वारा राधा को सावधान कर देते हैं कि यह स्थान तथा अवसर प्रेमालाप हेतु उपयुक्त नहीं है। इस प्रकार दोनों की दृष्टि इस राज पथ पर चलते हुए उलझकर ही रह जाती है। कवि शेखर अर्थात् विद्यापति दोनों की चतुराई को भलीभाँति समझ चुके हैं। (अर्थात् दोनों एक दूसरे के मनोभावों से भलीभाँति परिचित होकर अन्यत्र मिलने की बात संकेतों द्वारा एक-दूसरे को समझा देते हैं।)
विशेष -
(1) यहाँ विद्यापति ने अपनी उपाधि 'कवि शेखर' का प्रयोग किया है।
(2) रूपक, उपमा, पुनरुक्ति प्रकाश, अनुप्रास आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
(3) रस - श्रृंगार, गुण - माधुर्य।
(9)
ससन परस खसु अम्बर रे
देखल धनि देह।
नव जलधर - तर संचर रे
जनि बिजुरी - रेह॥2॥
आज देखल बनि जाइवत रे
मोहि उपजल रङ्ग।
कनक लता जनि संचर रे
महि निर अबलम्ब॥4॥
ता पुन अपरुब देखल रे
कुच - जुग अरबिन्द।
बिगसित नहि किछु कारन रे
सोझा मुख - चन्द॥6॥
विद्यापति कवि गाओल रे
रस वृझ रसमन्त।
देवसिंह नृप नागर रे
हासिनि देइ कन्त॥6॥
शब्दार्थ - ससन = श्वसन / पवन परस = स्पर्श से खसु = गिर गया, अम्बर = आँचल / वस्त्र, द्यनि = बाला, जलधर = बादल, रेह = रेखा, रंग = प्रेम, सचर = जा रही है, निर अवलम्बन = बिना आश्रय के ता = उस पर जुग = दो, अरविन्द = कमल, विगलित = खिला हुआ, सोझा = सम्मुख।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण में अंकुरित यौवना नायिका के सौन्दर्य का वर्णन प्रस्तुत हुआ है।
व्याख्या - मार्ग में जाती हुई नायिका को देखकर दूती कहती है कि मैंने मार्ग में जाती अपूर्व सुन्दरी को देखा। उस नायिका के तीव्र श्वसन के कारण आ रहे हवा के झोंकों के स्पर्श से उसका आँचल खिसक कर गिर गया और उसके अंग प्रत्यंगों की मादक सुन्दरता ने मुझे उस बाला के प्रति अनुरक्त कर दिया। उसके उभरे हुए वक्षस्थल की शोभा को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों जल से परिपूर्ण अम्बर (आकाश) रूपी आँचल के नीचे से बिजली की रेखा कौंध कर अपनी आभा से देखने वाले के नेत्रों को चकाचौंध कर रही है। उस जाती हुई सुन्दरी को देखने मात्र से ही मेरे मन में उसके प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया है। उसको देखते ही ऐसा लगा मानो स्वर्ण लता बिना किसी अवलम्ब के आगे बढ़ती जा रही है। उस पर जब मेरी दृष्टि पुनः उसके अर्ध विकसित कमल के समान शोभायमान युगल कुचों पर पड़ी तो उनकी छटा देखकर ऐसा प्रतीत हुआ मानो उस सुन्दरी के चन्द्रमा के समान मुखमंडल को देखकर ही ये युगल पयोधर हीन भावना के कारण पूर्ण विकसित नहीं हो सके। विद्यापति कहते हैं कि मैं तो रस से भरे हुए पदों को गा रहा हूँ और रस के पारखी ही इसे भली-भाँति समझ सकते हैं। (अर्थात् रस प्रेमी ही विद्यापति के काव्य का भली भाँति आस्वादन कर सकते हैं) विद्यापति कहते हैं राजा देव सिंह सभी राजाओं में श्रेष्ठ हैं और वही ऐसी अपूर्व सुन्दरी के यथायोग्य वर हैं। अर्थात् ऐसी श्रेष्ठ सुन्दरी को उनके समान ही वर मिलना चाहिए।
विशेष - रूपक, उत्प्रेक्षा, उल्लेख, उपमा, अनुप्रास, विभावना आदि अलंकार हैं।
(10)
कत न बेदन मोहि देसि मदना।
हर नहि बला मोहि जुवति जना॥2॥
बिभुति-भूपन नहि चानन क रेनू।
बघछाल नहि मोरा नेतक बसनू॥4॥
नहि मोरा जढाभार चिकुर क बेनी।
सुरसरि नहि मोरा कुसुम क स्त्रेनों॥6॥
चाँद क बिन्दु मोरा नहि इन्दु छोटा।
ललाट पाबक नहि सिन्दुर का फोट॥8॥
नहि मोराकालकूट मृगमद् चारु।
फनपति नहि मोरा मुकुता हारू॥10॥
भनइ बिद्यापति सुन देव कामा।
एक पए दूखन नाम मोरा बामा॥12॥
शब्दार्थ - वेदन = पीड़ा, मदना = कामदेव, जुवति = युवती, चानन = चन्दन, रेनू = कण, सुरसरि = गंगा, ललाट = मस्तक, कालकूट = विष, फनपति = सर्प।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत पद में विरहणी कामदेव से प्रार्थना कर रही है कि वे उसे कामाग्नि से विदग्ध न करें।
व्याख्या - विरहिणी कामदेव से विनती करते हुए कह रही है कि अरे कामदेव ! मुझे इतनी वेदना मत दो। मैं महादेव नहीं हूँ जो तुम्हारे तीक्ष्ण बाणों को सहन कर सकूँ। (महादेव ने काम के बाणों को आत्मसात करते हुए तीसरे नेत्र की ज्वाला से भस्म कर दिया था) मैं एक सामान्य युवती हूँ जो तुम्हारे मारक प्रहार का सामना नहीं कर सकती। युवती महादेव से अपना साम्य प्रदर्शित करते हुए कहती है मेरे शरीर में भूषित ये भस्म का लेप नहीं वरन् विरहाग्नि से जल रहे अंगों को शीतलता देने हेतु लगाया गया चन्दन का लेप है। (यहाँ चन्दन के लेप की तुलना महादेव के भस्मराग से की गई है) मेरे अंग पर सुशोभित वस्त्र बाघछाला नहीं बल्कि मेरी चुनरी है। मेरे शीश पर जटा जूट का भार नहीं वरन् केशों की सुगुंठित वेणी है। मेरे शीश पर चमक रहे उज्ज्वल पुष्पों की आभा को गंगा की श्वेत धारा मत समझ लेना, ये तो वेणी में गूंथे गए सुन्दर पुष्पों की छटा है। मेरे कपाल पर चन्दन का तिलकं नहीं वरन् माँगटीका सुशोभित हो रहा है। द्वितीया के चन्द्रमा के समान छोटा यह मेरा मुख मंडल है इसे महादेव के शीश पर चमकने वाला चन्द्र मत समझो। मेरे ललाट में (तृतीय नेत्र) अग्नि का प्रचंड तेज नहीं बल्कि सिन्दूर का टीका है। चिबुक पर अंकित कृष्ण वर्णी बिन्दु को देखकर यह न समझ लेना किं यह विष है यह तो सुन्दर (काला) मृगमद है। मेरे कंठ में विषैले सर्प के स्थान पर मोतियों की माला सुशोभित हो रही है। विद्यापति कहते हैं कि हे कामदेव ! भली प्रकार सुन लो मैं एक दुखित स्त्री हूँ अतः मुझे अपनी मार से मत सताओ।
विशेष -
(1) भाव साम्य संकेत में उर्मिला द्वारा भी कुछ यही भाव व्यक्त किया गया है "मुझे फूल मत मारो"
(2) शिव के वस्त्राभूषणों के साथ विरहिणी युवती का साम्य प्रदर्शित हुआ है।
(3) शिव के ऊपर कामदेव के कामबाणों के प्रहार वाले पौराणिक आख्यान द्वारा विरहिणी की दयनीय दशा का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।
(4) उपमा, सांगरूपक, अनुप्रास, विशेषण विपर्यय, उदाहरण अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
(5) वियोग श्रृंगार का प्रयोग है।
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- प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
- प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
- प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
- प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
- प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
- प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
- प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
- प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
- प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
- प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
- प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
- प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
- प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
- प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
- प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
- प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
- प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
- प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
- प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
- प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
- प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
- प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
- प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
- प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
- प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
- प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
- प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
- प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
- प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
- प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
- प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
- प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
- प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
- प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
- प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
- प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
- प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
- प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)