बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञान बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 मनोविज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- किशोरावस्था की प्रमुख समस्याओं पर प्रकाश डालिये।
अथवा
ऐसा क्यों कहा जाता है कि “किशोरावस्था समस्याओं का घर है "? स्पष्ट कीजिये।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. किशोरावस्था की संवेगात्मक समस्याएँ ।
2. किशोरावस्था में समायोजन की समस्याएँ ।
3. किशोरावस्था की सामान्य व्यवहारिक समस्याएँ ।
4. किशोरों में पहचान संकट |
उत्तर -
(Problems of Adolescence)
किशोरावस्था 'समस्याओं का घर' है। इस अवस्था में समस्याएँ ही समस्याएँ हैं। किशोर न केवल अपने माता-पिता, अपने संरक्षकों, शिक्षकों एवं समाज के लोगों के लिए समस्या है, वरन् वे स्वयं में भी एक बड़ी समस्या हैं। इनकी समस्याएँ अध्ययन, स्वास्थ्य, मनोरंजन, व्यवसाय का चुनाव, नौकरी, विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षण, प्रेम विवाह की प्रबल इच्छा आदि किसी भी चीज से संबंधित हो सकती हैं। इसीलिए किशोरावस्था को 'समस्याओं की आयु' भी कहा जाता है।
किशोर के लिए तो सबसे बड़ी समस्या यह है कि न तो उसे बालक की दृष्टि से देखा जाता है और न ही वयस्क की दृष्टि से न तो उसकी गलतियों को नजर अंदाज किया जाता है और न ही वयस्कों की भाँति उसे मान-सम्मान, इज्जत व प्यार दिया जाता है। यह स्थिति किशोर के लिए अत्यंत दुखदायी होती है। फलतः उसमें चिन्ता, उद्विग्नता, अनिश्चितता, किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल माना जाता है। इस अवस्था में बालक में अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक परिवर्तन होते हैं। इसी कारण सम्भवः स्टेनली हॉल ने कहा है, “किशोरावस्था अत्यन्त दबाव, तनाव, तूफान एवं संघर्ष की अवस्था है।"
इस अवस्था में किशोर बाल्यावस्था तथा प्रौढ़ावस्था - दोनों अवस्थाओं में रहता है। ब्लेयर तथा जोन्स के अनुसार, “किशोरावस्था प्रत्येक बालक के जीवनमें वह समय है जिसका आरम्भ बाल्यावस्था के अन्त में होता है तथा समाप्ति प्रौढ़ावस्था के आरम्भ में होती है।
अध्ययनों के आधार पर कहा गया है कि किशोरावस्था समस्याओं की आयु है। किशोरों की समस्याएँ परिवार, विद्यालय, मनोरंजन, भविष्य, व्यवसाय, विपरीत लिंग के लोगों आदि से सम्बन्धित हो सकती हैं। ये समस्याएँ आर्थिक, व्यक्तिगत और सामाजिक किसी भी स्तर की हो सकती है। किशोरावस्था को समस्याओं की आयु इसलिये भी कहा गया है, क्योंकि इस आयु में बालक अपने माता-पिता, संरक्षकों और अध्यापकों आदि के लिये एक समस्या होता है तथा साथ ही साथ वह अपनी नई विकास अवस्था के नये रोल्स के साथ समायोजन नहीं कर पाता, उसमें चिन्ता, उत्सुकता, अनिश्चितता और भ्रांति के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। यह किसी न किसी रूप में उसके लिये एक समस्या ही है। किशोरावस्था बढ़ने के साथ-साथ किशोरों की समस्याएँ जटिल होती जाती हैं। यदि किशोर इन समस्याओं को बिना विशेष परेशानी के हल कर लेता है, तो उसमें आत्म-विश्वास व उपयुक्ता की भावना विकसित होती है, अन्यथा विपरीत स्थिति में वह कुंठा का शिकार हो जाता है। किशोरावस्था के अन्त तक अधिकांश समस्याएँ धन, सेक्स व शैक्षिक उपलब्धि के सम्बन्ध में ही होती हैं। किशोरियों की कुछ गम्भीर समस्याएँ व्यक्तिगत आकर्षण, पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों के सम्बन्ध में होती हैं।
किशोरावस्था की मुख्य समस्यायें निम्नलिखित हैं-
(1) किशोरावस्था की संवेगात्मक समस्यायें - किशोरावस्था में बालक तथा बालिकाओं का जीवन क्षेत्र विस्तृत हो जाता है। बालक तथा बालिकायें अलग-अलग रहने लगते हैं। इस अवस्था में विपरीत लिंगीय झुकाव आरम्भ हो जाता है। वास्तव में किशोर तथा किशोरियों का एक नया जीवन आरम्भ होता है । उनको नित नये अनुभव होते हैं। इस अवस्था में अनेक व्यवहारों में परिपक्वता आ जाती है, परन्तु इस अवस्था में अनेक संवेगात्मक समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं।
कील तथा ब्रुस का कथन है - “किशोरावस्था के आगमन का मुख्य चिन्ह संवेगात्मक विकास में तीव्र परिवर्तन है। "
(i) किशोरावस्था में प्रेम, क्रोध तथा सहानुभूति आदि संवेग स्थायी रूप धारण कर लेते हैं। किशोर इन संवेगों पर कोई नियन्त्रण नहीं रख पाता ।
(ii) किशोरावस्था में काम प्रवृत्ति तीव्र हो जाती है। इस कारण किशोर में संवेगात्मक अस्थिरता होती है। प्रवृत्ति संवेगात्मक व्यवहार पर विशेष प्रभाव डालती है।
(iii) उन परिस्थितियों में अन्तर आ जाता है, जो संवेग उत्पन्न करती हैं।
(iv) किशोरावस्था में किशोर के समक्ष एक गम्भीर समस्या यह होती है कि उसे न तो बालक समझा जाता है और न प्रौढ़। अतः उसे वातावरण से अनुकुलन करने में कठिनाई होती हैं। किशोर प्राय: इस अनुकूलन में असफल हो जाता है। ऐसी दशा में उसे निराशा का सामना करना पड़ता है। इसमें संवेगात्मक अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है।
(v) किशोर विभिन्न अवसरों पर एक ही परिस्थिति में अलग-अलग व्यवहार करता है। एक ही परिस्थिति में वह कभी प्रसन्न दिखलाई देता है, तो कभी उसी परिस्थिति में उदास दिखायी देता है।
(vi) जो किशोर शारीरिक रूप से अस्वस्थ होते हैं, उनमें संवेगात्मक अस्थिरता होती है। इस कथन से स्पष्ट होता है कि किशोरावस्था में अनेक संवेगात्मक समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं। ये समस्यायें स्नायुमण्डल के असाधारण कार्य तथा एण्डोक्रायन ग्रन्थियों के कारण उत्पन्न होती हैं।
(2) शारीरिक विकास की समस्यायें - किशोरावस्था में अनेक शारीरिक परिवर्तन होते हैं। कुछ बालकों का शारीरिक विकास जल्दी होता है और कुछ बालकों का देर से । कुछ बालक हकलाते हैं। कुछ बालकों को चश्मे की आवश्यकता होती है। इस प्रकार बालकों में किसी शारीरिक दोष के कारण उनमें हीन भावना ग्रन्थि बन जाती है।
(3) समायोजन की समस्यायें - समायोजन की समस्यायें-
(1) परिवार
(2) विद्यालय
से सम्बन्धित होती हैं।
परिवार से सम्बन्धित समस्यायें निम्नलिखित हो सकती हैं-
(i) किशोर किसी प्रकार के बन्धन में नहीं रहना चाहता।
(ii) किशोर का दृष्टिकोण परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति बदल जाता है।
(iii) किशोर स्वतन्त्र वातावरण चाहता है।
(iv) बालिकाओं की परिवार सम्बन्धी सभी समस्यायें और अधिक होती हैं।
(v) यदि किशोर को स्वतन्त्रता नहीं मिलती तो वह विद्रोह कर बैठता है।
(vi) किशोर परिवार के सदस्यों से झगड़ने लगता है।
विद्यालय से सम्बन्धित समस्यायें निम्नलिखित होती हैं-
(i) किशोर अपने साथियों के साथ समायोजन नहीं कर पाता ।
(ii) किशोर यह चाहता है कि अन्य बालक उसका आदर-सम्मान करें।
(iii) शिक्षकों का कटु व्यवहार भी किशोरों के लिए एक समस्या बन जाता है।
(iv) प्रौढ़ व्यक्तियों का आदर्श किशोर का आदर्श होता है।
(4) काम प्रवृत्ति सम्बन्धी समस्यायें - किशोरावस्था में काम - प्रवृत्ति अत्यधिक तीव्र हो जाती है। इसी कारण अनेक प्रकार की समस्यायें उत्पन्न हो जाती है। इससे किशोर को वातावरण के साथ समायोजन करने में कठिनाई होती है। यदि कहा जाये कि किशोरावस्था में काम इच्छा सबसे अधिक समस्यायें उत्पन्न करती है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । किशोर की प्रथम और मुख्य समस्या 'काम' की होती है। यह अवस्था संघर्षों की अवस्था होती है। यह सबसे कठिन समय होता है। इस समय गुप्त काम-वासना फिर से जाग जाती है। काम सम्बन्धी मुख्य समस्यायें निम्नलिखित है-
(i) हस्त मैथुन,
(ii) सहलिंगीय सहवास,
(iii) विपरीत लिंगीय सहवास,
(iv) अश्लील चित्र बनाना,
(V) काम सम्बन्धी चेष्टायें करना तथा
(vi) रोमांस करना ।
(5) व्यावसायिक समस्यायें - किशोरावस्था में बालकों का जीवन क्षेत्र विस्तृत हो जाता है। किशोर युवक व युवतियाँ अपना समूह बना लेते हैं। शारीरिक व मानसिक परिवर्तनों के कारण वे कल्पनाशील होकर भविष्य के स्वप्न देखने लगते हैं। किशोर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है। वह अपने व्यवसाय के विषय में सोचने लगता है। किशोरियाँ अपने सुखद जीवन की कल्पनायें करने लगती हैं। चूँकि किशोर अनुभवहीन होते हैं, अतः उनके समक्ष अनेक समस्यायें आ जाती हैं। कभी-कभी बालकों को निराशा का सामना करना पड़ता है। किशोर के मस्तिष्क में इसी कारण हर समय तनाव रहता है।
सभी जानते हैं कि आज का नवयुवक शारीरिक श्रम से बचना चाहता है। देश में शिक्षित नवयुवकों में बेरोजगारी फैली हुई है। देश के सामने यह समस्या है कि आज के नवयुवक किस प्रकार अपने पैरों पर खड़े हो सकें। व्यावसायिक निर्देशन व्यक्ति को व्यक्तिगत सहायता प्रदान करने का वह सशक्त साधन है, जिससे किशोर स्वयं अपने लिये उपयुक्त व्यवसाय का चुनाव करता है। बहुधा व्यावसायिक निर्देशन प्राप्त करके व्यक्ति अपने भावी व्यवसाय के सम्बन्ध में स्वयं निर्णय लेने में समर्थ हो जाता है। वह जिस व्यवसाय में प्रविष्ट होता है, उसमें वह प्रगति करता है। व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता आज के युग में बहुत अधिक है, क्योंकि आधुनिक युग में रोजगार की समस्या जटिल है। आज विभिन्न प्रकार के व्यवसायों के लिये विशेष शिक्षा और प्रशिक्षण आवश्यक है।
(6) आर्थिक समस्या - किशोरावस्था में किशोर तथा किशोरियों का दैनिक व्यय बढ़ जाता है । किशोर धूम्रपान करने लगते हैं। किशोरियों को अपने फैशन के लिए धन की आवश्यकता होती है।
उनको जितने धन की आवश्यकता होती है, माता-पिता द्वारा उतना धन प्रदान नहीं किया जाता है। अभिभावक उतने धन की आवश्यकता भी अनुभव नहीं करते। फलस्वरूप किशोर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनुचित साधन अपनाते हैं।
(7) भावात्मक स्थिरता प्रदान करना - किशोर तथा किशोरियों को भावात्मक स्थिरता प्रदान करना भी एक समस्या होती है। निम्नलिखित उपायों से भावात्मक स्थिरता लाई जा सकती है-
(i) अभिभावकों का योगदान - परिवार में पति-पत्नी के सम्बन्ध बालक के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। अतः माता-पिता को अपने सम्बन्ध मधुर रखने चाहियें। माता-पिता को बालक के साथ व्यवहार करते समय विशेष सावधानी रखनी चाहिये।
(ii) शिक्षक का योगदान - एक शिक्षक को ज्ञान होना चाहिए कि किस प्रकार संवेगात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है। शिक्षकों द्वारा बालकों को उनके संवेगों पर नियन्त्रण रखना सिखाया जाना चाहिये ।
(iii) रुझान - रुझान बालक के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करते हैं। ये रुझान स्वार्थ से सम्बन्ध रखते हैं। एक स्वस्थ रुझान संवेगात्मक रुझान में सहायता प्रदान करता है । रुझान के सम्बन्ध में यह स्मरण रखना चाहिये कि "सफलता के लिए आशा की रुझान सफलता प्रदान करती है, परन्तु असफलता की रुझान निराशा में वृद्धि करती है और इसी कारण असफलता मिलती है।"
(iv) मार्गान्तीकरण - जिस प्रकार मूल प्रवृत्तियों का मार्ग परिवर्तन किया जाता है, उसी प्रकार संवेगों का भी मार्गान्तरण किया जा सकता है।
(v) शोधन - संवेगों के शोधन से संवेगात्मक स्थिरता प्राप्त की जा सकती है। अतः संवेगों के दमन के स्थान पर उनका शोधन किया जाना चाहिए।
(vi) देश-प्रेम - बालकों में देश-प्रेम की भावना जाग्रत की जानी चाहिए। इसके लिए शिक्षक को बालकों को देश-प्रेम की शिक्षा देनी चाहिए। देश-प्रेम भावात्मक एकता स्थापित कर सकता है। भावात्मक एकता का अर्थ है- देश या राष्ट्र के सभी निवासियों में विचारों तथा भावनाओं की एकता ।
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- प्रश्न- मानव विकास के सम्बन्ध में निरीक्षण विधि का विस्तार से वर्णन कीजिए।
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