प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- सोलह संस्कारों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. सोलह संस्कार कौन-कौन से हैं?
2. संस्कारों का हिन्दू धर्म में क्या स्थान है?
3. उपनयन संस्कार एवं उसके महत्व की विवेचना कीजिए।
4. हिन्दू समाज में संस्कारों का महत्व बताइये।
5. संस्कारों का नामोल्लेख कीजिए तथा उपनयन संस्कार की महत्ता का वर्णन कीजिए।
6. "विद्यारम्भ" संस्कार पर टिप्पणी लिखिए।
7. "नामकरण" संस्कार का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
8. अन्नप्राशन संस्कार पर प्रकाश डालिए।
9. किन्हीं चार 'संस्कारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
संस्कारों का धर्मशास्त्रकारों ने मानव जीवन से अटूट रूप में स्वीकार किया है। जिनका सम्बन्ध मनुष्य के जन्म से ही नहीं बल्कि उसके पूर्व शुरू होता है और मृत्यु के पश्चात् तक चला करता है। यदि स्वीकृति सोलह संस्कारों को निम्न रूप में स्वीकार करके उनका संक्षेप में वर्णन करे तब अधिक लाभदायक तथा उपयोगी सिद्ध होगा।
1. प्राग्जन्म संस्कार - इसके अंतर्गत निम्नलिखित संस्कार आते हैं
(i) गर्भाधान
(ii) पुंसवन
(iii) सीमन्तोन्नयन |
2. बाल्यावस्था के संस्कार - इसके अंतर्गत निम्न संस्कार आते हैं
(i) जातकर्म
(ii) नामकरण
(iii) निष्क्रमण संस्कार
(iv) अन्नप्राशन
(v) चुड़ाकरण तथा
(vi) कर्णवेध।
3. शैक्षणिक संस्कार - इसके अंतर्गत निम्न संस्कार आते हैं।
(i) विद्यारम्भ संस्कार
(ii) उपनयन संस्कार
(iii) वेदारम्भ
(iv) केशान्त
(v) समावर्तन संस्कार
(vi) विवाह संस्कार
(vii) अन्त्येष्टि संस्कार।
प्रत्येक संस्कारों को निम्न प्रकार से समझाया जा रहा है-
(i) गर्भाधान - यह पहला संस्कार कहा जाता है। जब बच्चा माता के पेट में आता है तो ऐसी माता को गर्भाधान माता कहते हैं। बच्चा रहने पर इस क्रिया को गर्भाधान कहा जाता है। पत्नी के ऋतुरमान की चौथी रात से 16वीं रात तक का गर्भाधारण का उपयुक्त समय मनु ने बताया है। रात में धारण की हुई सन्तान अधिक भाग्यशाली तथा गुण संपन्न कही जाती है। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य योग्य सन्तति उत्पन्न करना है। यह संस्कार धार्मिक कर्म के रूप में भी देखा जाता है।
(ii) पुंसवन - जब गर्भधारण का निश्चय हो जाता है तब पुंसवन संस्कार होता है। इसके अनुष्ठान का समय गर्भ के द्वितीय माह से अष्टम माह तक माना जाता था। यह संस्कार उस समय संपन्न किया जाता था जब चंद्रमा किसी पुरुष में हो। वह समय पुंसन्तति के जन्म में सहायक समझा जाता है।
(iii) सीमन्तोन्नयन - यह गर्भ का तृतीय संस्कार कहा गया है। इसके अन्तर्गत गर्भिणी नारी के बालों को ऊपर उठाया जाता था। इसके संस्कार का समय गर्भावस्था के तृतीय माह से आठवें महीने के मध्य बताया गया है। डॉ० जैन का कथन है "इस संस्कार का प्रयोजन आंशिक रूप में विश्वास मूलक एवं व्यावहारिक था। लोगों का विश्वास था कि स्त्री के गर्भावस्था के अमंगलकारी शक्तियों के आक्रमण का भय रहता है तथा उनके सोचने के लिए संस्कार की आवश्यकता रहती है। इसका धार्मिक प्रयोजन माता को ऐश्वर्य एवं अनुत्पन्न शिशु के लिए दीर्घायु प्राप्ति था। इस संस्कार का एक अन्य प्रयोजन था गर्भिणी स्त्री को हर्षित तथा उल्लसित रखना। इस संस्कार के अंतर्गत गर्भिणी तथा उसके पति के लिए सुजनन तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी नियम विस्तार से दिये हुए हैं। पति का प्रथम कर्त्तव्य था कि अपनी गर्भवती स्त्री की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करना। गर्भ के छठे मास के पश्चात् पति के केशों को कटवाना, मैथुन, तीर्थयात्रा तथा श्राद्ध का अर्जन करना चाहिए। इस प्रकार के शारीरिक श्रम वर्जित थे। उसके अपने मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान पूर्णरूप से देखना चाहिए।
(iv) जातकर्म - इस संस्कार से बाल्यावस्था के संस्कार शुरू होते हैं डिलवरी के लिए सर्वप्रथम उपयुक्त कमरे का चुनाव किया जाता था जिसको सूतिका भवन के नाम से पुकारा जाता था। गर्भवती नारी प्रसव के लिए इस भवन में एक दो दिन पहले प्रवेश करती थी। उसकी सहायता के लिए घर की कुछ अनुभवी तथा जानकार नारियाँ भी उसके साथ रहती थीं। पिता अपनी धर्मपत्नी का मुख देखने के लिए उसके पास आता था। जब बच्चा पैदा हो जाता था, तब उसकी जन्म कुण्डली भी बनाई जाती थी। बच्चे का पिता अपने हाथ की चौथी अंगुली तथा सोने की शलाका से शिशु को मधु तथा घृत या केवल घी तथा शुद्ध शहद चटाया करता था। इसके बाद वह बच्चे की लम्बी आयु की कामना भी करता था।
(v) नामकरण - मनुस्मृति मे लिखा है कि दसवें अथवा बारहवें दिन में शुभ तिथि, नक्षत्र एवं मुहूर्त देखकर बच्चे का नामकरण संस्कार किया जाना चाहिए। वर्ष के अन्त पर नाम रखा जा सकता है। नाम प्रायः नक्षत्रों, देवताओं, कुल देवता, ग्राम देवता आदि के नाम के आधार पर रख दिए जाते हैं। नामकरण संस्कार में पूजा, हवन आदि करने के बाद पुरोहित महाराज बच्चे की राशि को विचारकर नाम निकालते हैं और उसी राशि से सम्बन्धित प्रथम अक्षर के आधार पर बच्चे का नाम रख दिया जाता है। उदाहरणार्थ - यदि बच्चा कन्या राशि का है तो इस राशि के एक निश्चित अक्षर 'प' के आधार पर बच्चे का नाम रखा जा सकता है। पहले इस नाम के चुनाव में जाति का भी प्रभाव स्पष्टतः देखने को मिलता था। उदाहरणार्थ ब्राह्मण जाति के बच्चों के आगे 'सिंह' नहीं होगा, परन्तु क्षत्रिय जाति के बच्चों के नाम के आगे 'सिंह' अवश्य जोड़ा जाता था। इसी प्रकार शूद्रों के नाम के आगे दास या चरण लिखने की प्रथा थी।
(vi) निष्क्रमण संस्कार - इस संस्कार के बाद बालक पहली बार घर से बाहर लाया जाता है। यह उसके जीवन की एक महत्वपूर्ण यात्रा कही जाती थी। इसको बड़े उल्लास के साथ मनाते थे। यह बालक के चौथे माह की आयु में किया जाता था। बाद में बच्चे को सूर्य के दर्शन पिता कराता था। जहां से सूर्य के दर्शन कराना होता था, उस स्थान को लीपा-पोता भी जाता था।
(vii) अन्नप्राशन - ठोस भोजन अथवा अन्न खिलाना बालक के जीवन में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जब बच्चा छह माह का हो जाता था तब उसका अन्नप्राशन संस्कार किया जाता था। इस संस्कार में उसे प्रथम बार पका हुआ अन्न खिलाया जाता था। इसमें दूध, घी, दही तथा पका हुआ चावल खिलाने का विधान था।
अन्नप्राशन संस्कार के दिन भोजन को पवित्र रूप से वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर पकाया जाता था। सर्वप्रथम वाग्देवी को आहुति दी जाती थी। अन्त में बच्चे का पिता सभी अन्नों को मिलाकर बच्चे को उसे ग्रहण कराता था। तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोज देकर इस संस्कार की समाप्ति होती थी। इस संस्कार का उद्देश्य यह था कि एक उचित समय पर बच्चा माँ का दूध छोड़कर अन्नादि से अपना निर्वाह करने योग्य बन सके।
(viii) चूड़ाकरण - इस संस्कार के द्वारा बच्चे के सिर के बाल मुड़वा दिये जाते थे केवल सिर पर चोटी के बाल छोड़ दिये जाते थे। इससे उसकी लम्बी आयु सौन्दर्य एवं कल्याण की प्राप्ति हुआ करती थी। यह संस्कार बालक की एक वर्ष की आयु होने पर किया जाता था या फिर तीसरे वर्ष की आयु होते ही संपन्न होता था। सर्वप्रथम यह घर का पर होता था, परन्तु बाद में देवालयों में कुल की प्रथा के अनुसार किया जाता था। शिखाओं की संख्या प्रवेश की संख्या को आधार मानकर निश्चित की जाती करती थी।
(ix) कर्णवेध - शुरू में अलंकरण के लिए इसका चलन था। परन्तु बाद के समय में इसको धार्मिक रूप प्रदान कर दिया गया। अण्डकोष वृद्धि एवं अंत्र वृद्धि रोगों से बचाव के लिए किया गया। यह संस्कार बालक की तीन वर्ष या पांच वर्ष की आयु पर किया जाता था। बालक के कान छेदने के लिए आमतौर से सोने, चांदी तथा लोहे की सुई प्रयोग में लाई जाती थी।
(x) विद्यारम्भ संस्कार - यह संस्कार वैदिक काल में प्रचलित था। जब बालक विद्याध्यन करने के योग्य हो जाता था तब यह संस्कार अक्षर ज्ञान के साथ प्रारम्भ होता था। इस संस्कार के द्वारा बालक के मानसिक एंव बौद्धिक विकास का कार्य प्रारम्भ होता था। विश्वामित्र के अनुसार यह संस्कार पाँचवें वर्ष में प्रारम्भ होता था। सातवें वर्ष तक यह प्रारम्भ हो सकता था। सूर्यदेव के उत्तरायण होने पर यह संस्कार प्रारम्भ किया जाता था। इसके लिए बालक को स्नान कराकर, सुन्दर वस्त्र पहनाकर गणेश, सरस्वती, बृहस्पति एवं गुरु देवता की पूजा की जाती थी, तब होम किया जाता था। गुरु पूर्व दिशा में बैठकर पश्चिम की ओर मुख करके बैठे बालक को वस्त्र एवं आभूषण भेंट करता था और देवताओं की परिक्रमा करता था। ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती थी। वे बालक को आर्शीवाद देते थे।
(xi) उपनयन - संस्कार प्राचीनकाल में सांस्कृतिक दृष्टि से इस संस्कार का अपना विशेष रूप में बड़ा महत्व था। बालक अपने गुरु के यहाँ जाकर अनुशासन मय जीवन अपनाकर ही साहित्य एवं संस्कृति के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त करता था। उसको इसी समय अच्छा नागरिक भी बनाया जाता था तथा उसको अपने कर्त्तव्यों तथा अधिकारों की भी जानकारी कराई जाती थी। यह संस्कार एक प्रकार से धार्मिक दीक्षा की विधि भी थी। तीनों वर्णों के बालकों के लिए यह संस्कार अनिवार्य था। इस संस्कार की बदौलत शिक्षा तथा साहित्य की बड़ी तेजी से उन्नति हुई। ब्राह्मण बालक आठ वर्ष की आयु पर, क्षत्रिय बालक का ग्यारहवीं वर्ष तथा वैश्य बालक का बारहवीं वर्ष में यह संस्कार किया जाता था। संस्कार संपन्न करने के लिए कोई शुभ समय नियत कर लिया जाता था। ब्राह्मण बालक का उपनयन बसन्त में, क्षत्रिय गर्मियों के मौसम में, वैश्य बालक का जाड़ों के मौसम में और रथकार बालक का उपनयन बरसात के मौसम में हुआ करता था। इस संस्कार के समय अन्तिम बार माता तथा पुत्र एक साथ भोजन किया करते थे। यह माता तथा पुत्र की विदाई का भोज भी कहलाता था। समस्त रस्में पूर्ण हो जाने पर बालक को सूर्य के दर्शन भी कराये जाते थे।
(xii) वेदारम्भ - प्राचीनतम संस्कारों में इस संस्कार के दर्शन नहीं होते हैं। शिक्षा में वैदिक अध्ययन को बनाये रखने के लिए इसका चलन हुआ। पहले यह उपनयन संस्कार का एक अंग के रूप में माना जाता था।
(xiii) केशान्त - जब बालक 16 वर्ष का हो जाता था, तब यह संस्कार संपन्न होता था जो बालक के यौवन के पदार्पण का भी सूचक था इसे गोदान भी कहा करते थे क्योंकि इस संस्कार के संपन्न के समय आचार्य को गो का दान दिया जाता था।
(xiv) समावर्तन संस्कार - यह संस्कार ब्रह्मचर्य के समाप्त होने पर आमतौर से किया जाता था। इसके बाद बालक के विद्यार्थी जीवन का अन्त हो जाता था। इसे स्नान भी कहा जाता था। स्नान इस संस्कार का एक प्रमुख अंग था जो विद्या सागर को पार करने के प्रतीक रूप में देखा जाता था। बालक को इस संस्कार के समाप्त होने पर गुरु दक्षिणा भी देनी पड़ती थी। यह संस्कार जब बालक चौबीस वर्ष का होता था तब किया जाता था।
(xv) विवाह संस्कार - इस संस्कार का बड़ा महत्व समझा गया है। इस संस्कार के पश्चात ही अधिकांश गृह सूत्रों का प्रारम्भ हुआ करता था। प्राचीनकाल में हिन्दू समाज हर व्यक्ति को विवाह करके गृहस्थ जीवन व्यतीत करने की आज्ञा देता है। इसमें धार्मिक तथा सामाजिक पृष्ठभूमि तैयार हुआ करती थी। इस कारण हिन्दू समाज में इस संस्कार का बड़ा महत्व था। विवाह के समय निम्न बातें तय की जाती थीं-
1 वरदान,
2. वर वरण,
3. कन्यादान,
4. विवाह होम,
5. पाणिग्रहण,
6. हृदय स्पर्श,
7. सप्तपदी,
8. अश्वारोहण,
9. सूर्यावलोकन,
10. ध्रुव दर्शन
11. व्रिरात्र व्रत,
12. चतुर्थी कर्म।
डॉ० कैलाश चन्द्र जैन के शब्दों में - “वैवाहिक विधियों का आरम्भिक भाव था वरदान या वर को कन्यादान की मौखिक स्वीकृति। अपनी कन्या के लिए पिता योग्य वर खोजता था। पिता या उसका संरक्षक अग्नि के सम्मुख वर को कन्यादान देता था।"
वैवाहिक विधि विधानों के बाद त्रिरात्र व्रत का क्रम आता है। वर तथा वधू को तीन रात तक सहवास से दूर रहना पड़ता था। चतुर्थी क्रिया विवाह के पश्चात चौथे दिन संपन्न की जाती थी।
(xvi) अन्त्येष्टि संस्कार - यह अन्तिम संस्कार कहा जाता है इस संस्कार के द्वारा व्यक्ति का परलोक सुधारने का प्रयत्न किया जाता था। इस व्यवस्था के लिए दाह क्रिया का चलन था। इसके लिए अनेक क्रियायें करनी पड़ती थीं ब्राह्मणों तथा निर्धनों को दान दिया जाता था। मरते समय गंगा जल तथा तुलसी की पत्तियों के साथ जल की कुछ बूंदें उसके मुंह में डाली जाती थीं, बाँस की अर्थी बनाई जाती थी, फिर उसके शव को श्मशान भूमि में ले जाकर उसकी चिता बनाई जाती थी। उसको जलाया जाता था। शव को जलाने के पश्चात् व्यक्ति श्मशान भूमि से लौटा आता था, तब उदक कर्म किया जाता था। फिर तीजा, दसवां, बीसवां, चालीसवां किया जाता था, उसके नाम पर दान पुत्र द्वारा किया जाता था, एक वर्ष बीतने पर उसकी बरसी भी की जाती थी।
संस्कारों का हिन्दू धर्म में स्थान - इन 16 प्रकार के संस्कारों का हिन्दू धर्म में बड़ा महत्व था। प्राचीनकालीन भारत में मानव जीवन विभिन्न स्टेजों में हमें विभाजित नहीं दिखाई देता है। उस समय सामाजिक विश्वास तथा विज्ञान एक दूसरे के साथ चोली दामन के समान जुड़े हुए थे। इन संस्कारों का महत्व हिन्दू धर्म में इस कारण भी था कि उनके द्वारा ऐसा वातावरण जन्म ले चुका था जिसमें व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास हो सके। इस समय में हिन्दूओं ने मानव जीवन के निम्नलिखित तीन मार्गों को मान्यता दे रखी थी-
(i) कर्म मार्ग
(ii) उपासना मार्ग तथा
(iii ) ज्ञान मार्ग।
यद्यपि मूलतः संस्कार अपने क्षेत्र की दृष्टि से अधिक रूप में व्यापक था, परन्तु भविष्य में उनका मिलन कर्म मार्ग से हो गया। वह एक प्रकार से उपासना मार्ग तथा ज्ञान मार्ग के लिए भी था। पौराणिक हिन्दू धर्म के साथ वैदिक धर्म का ह्रास हुआ। इसके परिणामस्वरूप जो संस्कार घर पर होते थे वे अब मंदिरों और तीर्थस्थानों पर किये जाने लगे। प्राचीनकाल में संस्कारों का बड़ा महत्व था जिनके सहारे मानव जीवन को उन्नति का अवसर प्राप्त हुआ था।
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