प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 6
राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त व इसके प्रकार
(Principles of Origin of State and Its Types)
प्रश्न- राज्य के सम्बन्ध में हिन्दू विचारधारा का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
राज्य के सम्बन्ध में हिन्दू अवधारणा पर प्रकाश डालिए।
अथवा
प्राचीन भारत में राज्य के सामवयी स्वरूप की विवेचना कीजिए।
अथवा
प्राचीन भारत में राजतंत्र की अवधारणा के बारे में आप क्या जानते हैं? बताइये।
अथवा
राज्य की उत्पत्ति का वर्णन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. राज्य सम्बन्धी अवधारणा को समझाइये।
2. प्राचीन भारत में राज्य के समावयवीय स्वरूप की विवेचना संक्षेप में कीजिए।
3. प्राचीन भारतीय राज्य एवं उनके प्रकार बताइये।
4. राज्य के प्रकार एवं स्वरूप बताइये।
5. प्राचीन भारत में राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
6. राज्य की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्त बताइए।
7. राज्य की उत्पत्ति का वर्णन कीजिए।
8. वैदिक काल में राज्य के स्वरूप की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
राज्य की अवधारणा की परम्परा
हमारे देश भारत में राजनीतिक चिन्तन की परम्परा अधिक प्राचीन है। वैदिककालीन भारत से हमारे देश के हिन्दू जाति के ऋषि-मुनि, आचार्य एवं विचारक राजनीति से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। इन्होंने अपने-अपने समय में राजनीति सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर दिए हैं।
प्राचीन भारत में राज्य का महत्व - मानव संगठन में राज्य का संगठन उसके समस्त संगठनों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण दृष्टि से देखा जाता है। हिन्दू राजतंत्र के आधुनिक विद्वानों ने राज्य को अधिक राजनीतिक समुदाय की संज्ञा दी है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या राज्य वस्तुतः मनुष्यों के संगठन का ही नाम है? संगठन का उचित रूप मानव जाति द्वारा ही हुआ है जिसकी एकता उसके सदस्यों द्वारा ही स्थायी रूप में बनी रहती है। अरस्तु ने राज्य की परिभाषा इसी के सन्दर्भ में दी है।
चाणक्य ने इसे और सूक्ष्म रूप से परिभाषित किया है "राजावे राज्यम्" यद्यपि नियम का पालन कराने वाला, व्यवस्था देने वाला वह एक राजा होता है, जो राज्य का प्रतिनिधित्व भी करता है।" कौटिल्य की राज्य की यह परिभाषा अत्यन्त सटीक लगती है। राज्य की उत्पत्ति के विषय के जो सिद्धान्त हैं उनमें इसका स्वरूप देखा जा सकता है।
राज्य सम्बन्धी अवधारणा का विकास - रामायण तथा महाभारत से राज्यं सम्बन्धी अवधारणा का विकास स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। वह स्वर्ण के राज्य का विवेचन शुरू करते हुए कहते हैं कि चिरपुरातन में स्वर्ण युग था। उस समय किसी को किसी से द्वेष नहीं था, सब एक-दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक रहते थे। सब अपने-अपने कार्य बड़ी ईमानदारी के साथ किया करते थे। हर व्यक्ति एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान भी करता था तब उनको राज्य की किसी प्रकार से आवश्यकता नहीं थी।
राज्य की शरीर रूप से कल्पना: भारत के प्राचीन राजशास्त्रियों ने राज्य के सप्तांगी की कल्पना की है।-
(1) स्वामी (राजा),
(2) अमात्य (मंत्री),
(3) जनपद (राष्ट्र),
(4) पुर (दुर्ग),
(5) कोष (खजाना),
(6) दण्ड (सजा),
(7) मित्र (सहयोगी)
इसके सात अंग होते हैं। राज्य के इन अंगों के सम्बन्ध में कहा गया है कि जो व्यक्ति इन सप्तांग राज्य के विरुद्ध आचरण करे, उसका हनन कर दिया जाये। चाहे वह कोई भी व्यक्ति क्यों न हो?
राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त - राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में महाभारत तथा दीर्घनिकाय में बड़े सुन्दर रूप में वर्णन है। 'महाभारत' के अनुसार बहुत समय तक बिना राजा और न्यायाधीश के समाज सत्पथ पर चलता रहा परन्तु बाद में किसी प्रकार अध: पतन शुरू हुआ। लोग सदाचार के मार्ग से हट गए तथा भ्रष्ट होकर स्वार्थ, लोभ तथा वासना के शिकार हो गए तथा जिस स्वर्गीय व्यवस्था में वे रहा करते थे वह नरक बन गई। अतः समाज में जिसकी लाठी उसकी भैंस का बोलबाला हो गया। बलवान. निर्बलों को खाने लगे। देवता भी यह देखकर चिन्तित हो उठे तथा उन्होंने इस दुर्दशा का अन्त करने का विचार किया। लोग ब्रह्मा की शरण में गये। ब्रह्मा जी इस निर्णय पर पहुँचे कि मनुष्य जाति की तब ही रक्षा हो सकेगी जबकि आचारशास्त्र बनाया जाए और उसे राजा के द्वारा कार्यान्वित किया जाए। अतः उन्होंने एक विस्तृत विधान बनाया और मानस पुत्र बिरेजल की सृष्टि करके उसे राजा बनाया।
प्राचीन भारत में राज्य की उत्पत्ति के चार महत्वपूर्ण सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया गया, जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है-
(1) राज्य की उत्पत्ति का विकासवादी सिद्धान्त,
(2) राज्य की उत्पत्ति का समझौता सिद्धान्त,
(3) दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त,
(4) युद्ध के द्वारा राज्य की उत्पत्ति।
अथवा
(1) दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त,
(2) युद्ध द्वारा राज्य की उत्पत्ति का सिद्धान्त,
(3) सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त,
(4) आधुनिक सिद्धान्त।
(1) राज्य की उत्पत्ति का विकासवादी सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के सर्वप्रथम दर्शन हमें अथर्ववेद में होते हैं। सभा तथा समिति सम्बन्धी ऋग्वेद के सूक्त के अनुसार राज्य क्रमिक विकास का परिणाम है। राज्य संस्था से पूर्व विराट दशा में था। उस दशा में होने पर यह भय हुआ कि क्या यही दशा सदा बनी रहेगी? क्योंकि वह दशा भयावह थी। अतः संगठन बने। मनुष्यों का सर्वप्रथम संगठन परिवार के रूप में उभरा। पारिवारिक दशा में उन्नति हुई जिससे अवाहनीय दशा का रूप धारण हुआ।
(2) राज्य की उत्पत्ति का समझौता सिद्धान्त - महाभारत के शान्तिपर्व में इस सिद्धान्त के दर्शन होते हैं। इसमें उल्लेख है कि राज्य संस्था के पूर्व अराजक दशा थी जो बाद में राज्य की उत्पत्ति का एक कारण बनी। महाभारत के अनुसार युधिष्ठिर ने भीम से प्रश्न किया कि राज्य की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह मुझे बताएँ? राजा के हाथ, पैर, गर्दन, बुद्धि तथा इन्द्रियाँ अन्य मनुष्यों के समान ही होती हैं। सबके समान उसे भी सुख-दुःख का भोग करना होता है।
जैन धर्म के विचारों के मतानुसार, "मनुष्यों में पहले राज्य का अभाव था। उस समय किसी वस्तु की कमी नहीं थी। यह युग देर तक कायम न रह सका। धीर-धीरे पदार्थों में कमी होती गई। इनसे मानव समाज में लोभ, काम, क्रोध, मद तथा हर्ष पैदा हुए। मनुष्यों का नैतिक पतन होने लगा तथा धर्म का लोप हुआ। धर्म के लोप होने से यह आवश्यकता प्रतीत हुई कि राज्य द्वारा मनुष्यों में मर्यादा तथा नियंत्रण की स्थापना की जाए। तब स्वयं मनुष्य ने राज्य की रचना की।" राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में इसी प्रकार के विचार बौद्ध साहित्य में भी देखने को मिलते हैं।
(3) दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त - मनुस्मृति में वर्णन है "संसार की रक्षा के लिए प्रभु ने इस संसार की सृष्टि की। ईश्वर ने राजा का निर्माण इन्द्र, अग्नि, यम, सूर्य, वायु, अरुण, चन्द्र और कुबेर देवताओं से अंश लेकर किया। इसीलिए तो राजा सब लोगों की आँखों और मनों को सूर्य के समान अपने तेज से तृप्त करता है तथा पृथ्वी पर कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी पद पर क्यों न हो, चाहे वह कितना छोटा तथा बड़ा हो, उससे आँखें मिलाकर बात नहीं कर सकता है।
(4) युद्ध के लिए राज्य की उत्पत्ति - ऐतरेय ब्राह्मण में राज्य तथा राजा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक अन्य सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया गया है। इसके अनुसार युद्ध की आवश्यकताओं से विवश होकर राजा का प्रादुर्भाव हुआ था। इसके अनुसार देवों तथा असुरों में युद्ध हो रहा था। असुरों ने देवों को परास्त कर दिया। इस पर देवों ने कहा क्योंकि हमारा कोई राजा नहीं है, इसी कारण असुर हमें जीत लेते हैं। हम भी राजा बना लें। इसे सबने स्वीकार कर लिया। इस सिद्धान्त में इस बात पर जोर दिया गया है कि युद्ध की आवश्यकताओं से विवश होकर ही राज्य की उत्पत्ति हुई है। वर्तमान समय के विचारक भी राज्य के विकास में युद्ध को एक महत्वपूर्ण अंग समझते हैं।
दीर्घनिकाय के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का सिद्धान्त
दीर्घनिकाय में वर्णित राज्य की उत्पत्ति का सिद्धान्त महाभारत से मेल खाता हुआ दिखाई पड़ता है। दीर्घनिकाय के अनुसार "बहुत पहले स्वर्ण युग था जिसमें दिव्य प्रकाशन शरीर वाले मनुष्य बड़े ही आनन्दपूर्वक ढंग से रहते थे। किसी प्रकार इस आदर्श समाज का अद्यः पतन हुआ तथा चारों ओर अव्यवस्था का साम्राज फूलने-फलने लगा। तब सब लोग इससे छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करने लगे। अन्त में महाजन सम्मत नामक एक दिव्य पुरुष का जन्म हुआ। वह बुद्धिमान, धार्मिक तथा योग्य पुरुष था। सब लोगों ने अव्यवस्था को समाप्त करने की प्रार्थना की तथा उसको अपना राजा स्वीकार कर लिया। उसने लोगों की प्रार्थना को स्वीकार किया तथा वह राजा बन गया। इसकी सेवाओं के बदले में उसको अपने धन का एक भाग भी देना स्वीकार किया। दीर्घनिकाय के उल्लेख से इस बात का पता चलता है कि राज्य की उत्पत्ति का कारण अव्यवस्था थी तथा उससे छुटकारा पाने का भी प्रयत्न था।
राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी पाश्चात्य तथा भारतीय सिद्धान्तों की तुलना निम्नलिखित है
समानताए - दोनों सिद्धान्तों में हमें निम्नलिखित समानताएँ दिखाई देती हैं-
(1) राज्य की उत्पत्ति से सम्बन्धित पाश्चात्य तथा भारतीय सिद्धान्तों में काफी सीमा तक एक-दूसरे के अनुरूप ही झलक है।
(2) महाभारत में राज्य की उत्पत्ति के पूर्व की जिस प्राकृतिक अवस्था का वर्णन किया गया है वह हाब्स के प्राकृतिक सिद्धान्त के अनुरूप हैं। दोनों में समानता की छाप भी मौजूद है।
(3) भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वान् इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्राकृतिक अवस्था में अशान्ति तथा अव्यवस्था थी तथा इस प्राकृतिक अशान्ति को मिटाने हेतु लोगों ने राज्य की उत्पत्ति की।
हाब्स ने लिखा है - "राजा से समझौते की बात कभी नहीं हुई। अतः राजा पर यह उत्तरदायित्व नहीं है कि वह प्रजा की रक्षा करे।"
प्राचीनकाल में भारतीय राज्यों के प्रकार
भारत की भौगोलिक विविधता के कारण ही भारतीय राजनैतिक विचारधारा एवं राजनैतिक प्रणालियाँ अधिक रूप में हमें प्रभावित होती हुई दिखाई पड़ती हैं। प्राचीन भारत में चक्रवर्ती राजा हुए हैं, परन्तु उनके अधीन अनेक प्रकार के राज्यों के राजा थे। राज्य के प्रकारों का विकास वैदिक काल से शुरू होता है।
वैदिक काल में राज्य के प्रकारों का विकास - वैदिक काल में आर्य जाति अनेक कबीलों (जन) में बँटी हुई थी जो भारत के अनेक भागों में बसे हुए थे। यह कबीले एक वंश के थे और इन्हें सजात के नाम से पुकारा जाता था। राजनीतिक रूप से इन्हें संगठित जनराष्ट्र के नाम से पुकारा जाता था। एक जनक जहाँ भी स्थायी रूप से बस जाता था उसको राष्ट्र के नाम से पुकारते थे। ऋग्वेद में तीन जनों का उल्लेख है, जिनके नाम हैं- अनु, तुर्वसु, द्रुह्य। इतिहासकारों का मत है कि इनकी बस्ती को जनपद अथवा राष्ट्र कहा जाता था।
वैदिक काल में खंजों के विभिन्न रूप - छठी सदी ईस्वी पूर्व में भारत में बहुत से जनपदों की सत्ता थी। इस काल में बहुत शक्तिशाली तथा कमजोर जनपद भी थे। शक्तिशाली जनपद कमजोर जनपदों को युद्ध के द्वारा जीतकर अपनी शक्ति का विस्तार करके साम्राज्य निर्माण के लिए प्रयत्नशील थे। वत्स, मगध, काशी और अवन्ति के चारों राज्य राजतंत्र थे। प्राचीन भारत में बहुत से ऐसे जनपद भी थे, जिनमें वंशक्रमानुगत राजाओं का शासन नहीं था बल्कि जनता का शासन था।
प्राचीनकाल में राज्य के दो रूप, राजतंत्र तथा गणतंत्र राज्यों की परम्परा चलती रही।
प्रादेशिक राज्य - उत्तर वैदिक काल में प्रादेशिक राज्य की भावना का विकास होने लगा था। अथर्ववेद में इसका उल्लेख देखने को मिलता है। तैत्तिरीय संहिता में ऐसे अनुष्ठान का उल्लेख है जिससे राजा अपने विशु पर प्रभुता पा सकता था पर राष्ट्र अथवा देश पर नहीं। वेदोत्तर युग में एक सम्राट के सामन्त रूप में छोटे-छोटे अनेक राजाओं का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में देखने को मिलता है। वैदिक काल में राज्य का रूप छोटा था जो पूर्ण रूप से स्वतंत्र था।
विशुद्ध प्रजातंत्र - इस प्रकार के राज्य वैदिक काल से हमारे देश भारत में रहे। ऐतरेय ब्राह्मण में जगह-जगह पर विशुद्ध प्रजातंत्र का उल्लेख है। उत्तर करु और उत्तर मद्र आदिजनों में राजाहित शासनतंत्र था। इन्हीं प्रदेशों में प्रजातंत्र राज्यों के भी होने का उल्लेख है।
नगर राज्य - प्राचीन भारत में नगर राज्य भी थे। न्यासा में ऐसा ही नगर राज्य था तथा शिवि का भी नगर राज्य था। जो मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं उनसे पता चलता है कि त्रिपुरी, माध्यमिक, उज्जयिनी, वाराणसी कौशाम्बी के राज्य नगर राज्य थे।
राज्य संघ तथा सम्मिलित राज्य - प्राचीन भारत में इस प्रकार के भी राज्य थे। ये संयुक्त और संघ राज्य किस प्रकार चलते थे इनकी जानकारी प्राप्त नहीं है। हो सकता है कि संघ राज्यों की केन्द्रीय सत्ता केवल परराष्ट्र नीति का संचालन तथा संधि-विग्रह का निश्चय करती हो।
प्रत्येक राज्य का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है।
(1) अराजक राज्य - यह बिना राज्य का राज्य था। डॉ. जायसवाल के शब्दों में - "इस शासन प्रणाली का आदर्श यह था कि केवल कानून एवं धर्मशास्त्र को ही शासक मानना चाहिए तथा कोई व्यक्ति शासक नहीं होना चाहिए।"
(2) राज्यतंत्रात्मक - राज्य इस प्रकार का राज्य सदा भारत में रहा। ऐसे राज्य के अनेक तत्व हमें दिखाई देते हैं। कुछ ऐसे भी राज्य थे जिनकी शासन व्यवस्था निरंकुश राजा द्वारा संचालित हुआ करती थी।
(3) गणराज्य - ऐसे राज्यों में राज्य सत्ता एक व्यक्ति के हाथों में नहीं होती थी। ऐसे राज्य में सत्ता उपभोग जन प्रतिनिधि के हाथों में था।
(4) कुल राज्य - यह वंशानुक्रमिक राज्य था। इस प्रकार के राज्यों का संचालन आमतौर से राज्य कुलों द्वारा किया जाता था। कुल का अभिप्राय वंश से ही है। प्राचीन ग्रन्थों में कुलों को गण के वर्ग में शामिल किया गया है।
(5) भोज राज्य - ऐतरेय ब्राह्मण महाभारत, सम्राट अशोक के शिलालेखों, पाली तथा त्रिक्टक आदि ग्रन्थों में भोज राज्य का उल्लेख देखने को मिलता है।
(6) स्वराज्य - इस प्रकार के राज्य पश्चिमी भारत में थे। इस प्रकार के राज्य के शासक को स्वराष्ट्र के नाम से पुकारा जाता था। इसको साधारण जनता अपनी इच्छानुसार चुना करती थी। इस चुने हुए व्यक्ति को अपनी योग्यता का परिचय भी देना आवश्यक था। यजुर्वेद के समय स्वराज्य उत्तरी भारत में भी थे।
(7) वैराज्य राज्य - ऐतरेय ब्राह्मण में वैराज्य राज्य के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। ऐसे राज्य दक्षिणी भारत में थे। उत्तर मद्रों तथा करुओं के राज्य वैराज्य राज्य थे। इस राज्य का संचालन प्रजा के चित्त के अनुकूल चला करता था। ऐसे राज्य को लोकसत्तात्मक राज्य अथवा लोकतंत्रात्मक राज्य भी कहा जाता था। समस्त राज्य की प्रजा के हाथों में इस प्रकार के शासन की बागडोर होती थी।
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