प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 3
पुरुषार्थ तथा संस्कार
(Purushartha and Sanskar)
प्रश्न- पुरुषार्थ क्या है? इनका क्या सामाजिक महत्व है?
अथवा
चार पुरुषार्थ कौन से हैं? इसके पारस्परिक सम्बन्धों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
पुरुषार्थ का क्या अर्थ है? उसका जीवन में क्या महत्व है? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
सिद्ध कीजिए कि पुरुषार्थ चतुष्टय में मानव जीवन की सभी संभावनाओं की पूर्व सिद्धि समाविष्ट हो जाती है।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. पुरुषार्थ से आप क्या समझते हैं?
2. पुरुषार्थों के उद्देश्य की व्याख्या कीजिए।
3. अर्थ पर टिप्पणी लिखिए।
4. पुरुषार्थ का क्या महत्व है?
5. प्राचीन भारत में पुरुषार्थों पर एक टिप्पणी लिखिए।
6. 'मोक्ष' पुरुषार्थ के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर-
मानव जीवन के स्वरूप तथा लक्ष्य सम्बन्धी विचारधारायें
मानव जीवन के स्वरूप तथा लक्ष्य के संबंध में निम्न दो विचारधारायें हैं
1. भारतीय विचारधारा - इस विचारधारा के अनुसार मानव का जीवन नश्वर है, परन्तु आत्मा अमर है। इस कारण इसके पीछे भागना बेकार है। इसके स्थान पर आत्मा के लिए मानव को इस प्रकार के कार्य करना चाहिए कि उसका आवागमन का बंधन टूट जाये और मानव मोक्ष प्राप्त कर सके।
2. पश्चिमी विचारधारा - यह विचारधारा भोगवाद पर आधारित है। भारतीय विचारधारा केवल परलोक चिन्तन में ही मगन रहने का उपदेश देती है। उसमें जीवन के सुखों का ही महत्व है, परन्तु उन सभी सुखों को भोगने तथा अपनाने के पश्चात भी उनका उद्देश्य केवल मोक्ष प्राप्त करना ही है। जैसेकि वे अन्य तीन पुरुषार्थों का पालन करके मोक्ष प्राप्त कर पाते हैं। पुरुषार्थ का सिद्धान्त इसी पर टिका हुआ है। इसको भौतिक जीवन में उतारने के लिए ही भौतिक शरीर में इसकी साधना का प्रयास है।
पुरुषार्थ का अर्थ - पुरुषार्थ दो शब्दों पुरुष + अर्थ से मिलकर बना है। पुरुष का तात्पर्य पुरि शरीरे इति पुरुषः अर्थात् जीवात्मा से है तथा अर्थ का तात्पर्य उद्देश्य है। अर्थात् जीवात्मा का उद्देश्य ही पुरुषार्थ है।
एक विद्वान के शब्दों में - “पुरुषार्थ दो शब्दों से बना है पुरुष और अर्थ, पुरुष का अर्थ विवेकशील प्राणी तथा अर्थ का तात्पर्य लक्ष्य है। अतः पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ हुआ - विवेकशील प्राणी का लक्ष्य " पुरुषार्थ जहाँ एक ओर सांसारिक तथा पारलौकिक लक्ष्य और कर्तव्य है, वही दूसरी तरफ इससे नैतिक, आर्थिक तथा मनो- शारीरिक मूल्यों का बोध होता है।
भारतीय दर्शन के अंतर्गत प्रतिपादित पुरुषार्थ की अवधारणा, जीवन के प्रमुख लक्ष्य की व्याख्या करती है। इसके अंतर्गत चार पुरुषार्थ माने गये हैं जो दूसरे शूद्रों में मानव जीवन के उन चार लक्ष्य स्तम्भों की ओर संकेत करते हैं जिनकी प्राप्ति मानव जीवन के लिए अनिवार्य है। भारतीय दर्शन के अनुसार मानव जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है, अर्थ और काम इस लक्ष्य तक पहुंचने के माध्यम हैं। इन माध्यमों का प्रयोग किस प्रकार किया जाये इसे स्पष्ट करने वाला नियम धर्म है। इस प्रकार हिन्दू दर्शन ने मानव जीवन के लिए धर्म, अर्थ, काम को आवश्यक स्वीकार किया है। डॉ० कपाड़िया के अनुसार मोक्ष मानव जीवन का चरम लक्ष्य तथा आध्यात्मिक अनुभूति का प्रतीक है।
पुरुषार्थ के आधार अथवा उद्देश्य - पुरुषार्थ के चार आधार या उद्देश्य हैं, जो अग्रलिखित हैं-
(1) धर्म - धर्म शब्द का प्रयोग अनेक ग्रन्थों में होता है। ऋग्वेद में धर्म शब्द का प्रयोग संज्ञा या विशेषण के रूप में हुआ है। इसका अभिप्राय किसी विशिष्ट विश्वास या उत्सामाजिक (Super- Social) शक्ति से नहीं, यह 'थूलू' धातु से बना है। जिसका अर्थ धारण करना आलम्बन देना या पालन करना है। यह मनुष्य के नैतिक कर्त्तव्यों की व्याख्या है। दूसरे शब्दों में “जिससे मनुष्य की इस लोक में उन्नति हो और परलोक से मुक्ति की प्राप्ति हो, वही धर्म है। अर्थात् यतोभ्युदय ति श्रयससिद्ध, सधर्म महाभारत में उल्लिखित विवेचनानुसार 'धर्म' सृष्टि की रचना के लिए है। यह उन सबसे भिन्न है, जो सृष्टि को क्षति पहुंचाती है। धर्म वस्तुतः सृष्टि को हानि से बचाने के लिए है। अतः जो सभी की रक्षा करता है वही धर्म है। अच्छी तरह आचरण करने के लिए दूसरे के धर्म से अपना गुण रहित धर्म ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार धर्मशास्त्र का रचयिताओं के अनुसार धर्म का अभिप्राय किसी ईश्वरीय मत से न होकर, जीवन की उस आचरण संहिता से है जो व्यक्ति के कार्यों को व्यक्ति तथा समाज के सदस्य के रूप में नियमित करती है। इसका लक्ष्य व्यक्ति का क्रमबद्ध विकास कर, उसे इस योग्य बनाना है, जिससे वह मानव जीवन के चरम लक्ष्य को अर्जित करने में समर्थ हो सके।
श्रुति तथा स्मृति के अनुसार सदाचार ही परम धर्म है। धर्म ही भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र है तथा यह आध्यात्मिकता एवं नैतिकता का समन्वय भी है। वह सही रूप में परमार्थ का संपादन भी करता है। धर्म का एक उद्देश्य से चित्त वृत्तियों का विरोध कर आत्मज्ञान प्राप्त करना भी है। सदाचार इन्द्रियसंयम, अहिंसा, दान आदि को परम धर्म के अंतर्गत स्वीकार किया गया है। धर्म मानव के कर्त्तव्यों, सत्कर्मों तथा गुणों के विषयों की भी अच्छी जानकारी देता है तथा व्यक्ति की अनेक प्रकार की रुचियों, इच्छाओं, जरूरतों के मध्य भी संतुलन बनाये रखता है साथ ही साथ मानवीय व्यवहार को अच्छा एवं उचित नियम नियंत्रण भी बनाये रखता है। यह करणीय और त्याग के विषय में भी बताता है तथा धारणा नीति धर्म की सार्थकता का उचित रूप से परिचय भी प्राप्त होता है।
धर्म को धर्म इस कारण कहा जाता है क्योंकि वह धारण किया जाता है। यह प्रजाओं को भी धारण करता है। धारणतम धर्मामित्याहुः धर्मधारयति प्रजा। तात्पर्य है कि धर्म मानव जीवन का कल्याण करता है और साथ ही साथ रक्षा भी करता है। यह पोषण भी करता है तथा मानव मात्र के विकास तथा समृद्ध का मूल भी है।
धर्म के प्रमुख स्रोत - हिन्दू धर्म के चार प्रमुख स्रोत हैं-
1. वेद,
2. स्मृति
3. धर्मात्माओं का आचरण और
4. व्यक्ति का अन्तः रण।
वेदों में हिन्दू धर्म के समस्त विश्वास और निश्चय सन्निहित हैं। यद्यपि इनमें धर्म का सुव्यवस्थित रूप नहीं है, लेकिन इनमें विविध आदर्श तथा व्यवहार की ओर संकेत किया है।
गौतम धर्म सूत्र के अनुसार धर्म के चार उपादान है-
(1) वेद,
(2) वेदज्ञों की परम्परा,
( 3 ) साधुओं का आचार तथा
(4) आत्मसंतुष्टि।
इसी प्रकार याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार धर्म के पांच उपादान हैं।
(2) अर्थ - हिन्दू दर्शन के अन्तर्गत अर्थ दूसरा पुरुषार्थ है। शास्त्रकारों के मुख्यानुसार जीवन का लक्ष्य केवल नैतिक कर्त्तव्यों के परिपालन तक ही सीमित नहीं है। अपितु जीवन का भौतिक पक्ष भी महत्वपूर्ण है। धर्म पालन के लिए अर्थ अर्थात् भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी आवश्यक है। शाब्दिक दृष्टि से 'अर्थ' भौतिक सुखों एवं साधनों का द्योतक है। दूसरे शब्दों में 'अर्थ' उन साधनों की ओर इंगित करता है, जो भौतिक प्रगति के लिए सहायक है। वे सभी चीजें जिन्हें हम अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत रखें, अर्थ के अन्तर्गत आती हैं। इनके प्रयोग से हम अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं और अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हैं। अर्थ में केवल मुद्रा नहीं आती बल्कि वे सभी चीजें आती हैं जिनसे हम को भौतिक सुख प्राप्त होता है। महाभारत में लिखा है कि धर्म का पालन अर्थ पर निर्भर करता है। जिसके पास अर्थ नहीं वह अपने कर्त्तव्यों का ठीक ढंग से पालन नहीं कर सकता है
अर्थ का क्षेत्र - इसका क्षेत्र धर्म के मुकाबले में व्यापक रूप में स्वीकार किया गया है। मानव शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति में अर्थ का बड़ा महत्व है। चाणक्य के अनुसार धर्म का मूल अर्थ है। यह सांसारिक जीवन का मूल भी कहा जाता है। अर्थ में अभाव में जीवन व्यर्थ हो जाता है। अर्थ मानव की उन्नति का आधार भी है, भारतीय विचारकों ने धन को भी पुरुषार्थ जीवन में स्थान देकर उसे उचित मानवीय आकांक्षा के रूप में स्वीकार किया है। ऐसा विद्वानों का मत है कि जिस व्यक्ति के जीवन में अर्थ नहीं वह अपने कर्त्तव्यों का सही रूप में पालन नहीं कर पाते हैं, क्योंकि दान एवं अभिलाषाओं की तुष्टि इसी पर टिकी है। पंच महायज्ञों को संपन्न करने के लिए भी अर्थ आवश्यक है। समाज के उत्थान तथा स्वाभिमान पूर्वक जीवन यापन के लिए भी इसका बड़ा महत्व है। मोक्ष को प्राप्त करने के लिए भी अर्थ आवश्यक है। बिना अर्थ के धर्म लंगड़ा रहा करता है अतः अर्थ ही वह कड़ी है जो मनुष्य के लिए सुव्यवस्था की सरल राहें प्रदान करती है।
महाभारत और स्मृतियों - में कहा गया है कि 'अर्थ का पुरुषार्थ पूरा किये बिना वानप्रस्थ एवं संन्यास ग्रहण करने वाले व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि अपने भौतिक सुखों की पूर्ति के लिए दूसरों का शोषण करके धनार्जन किया जाये। धर्माचारण द्वारा अर्जित किया गया अर्थ ही शुभ एवं कल्याणकारी होता है। पुरुषार्थ का सर्वश्रेष्ठ स्थान नहीं है क्योंकि धन भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए है वह जीवन का प्रमुख लक्ष्य नहीं है।
(3) काम - काम मनुष्य का तृतीय उद्देश्य है। पुरुषार्थ के रूप में काम का अभिप्राय उन सभी इच्छाओं की सन्तुष्टि से है जो इन्द्रियपरक है तथा जो मनुष्य की सांसारिक सुखों को भोग करने के लिए प्रेरित करती है। यहां काम का तात्पर्य केवल यौन प्रवृत्ति की सन्तुष्टि करना ही नहीं है बल्कि अन्य प्रकार के शारीरिक, मानसिक तथा कलात्मक सुखों की प्राप्ति करना है। काम शब्द का प्रयोग इसलिए दो अर्थों में किया जाता है-
(i) संकुचित अर्थ और है
(ii) विस्तृत अर्थ।
(i) संकुचित अर्थ - इसके अनुसार काम केवल इन्द्रिय सुख या यौन सुख या यौन प्रवृत्तियों की सन्तुष्टि करना है।
(ii) विस्तृत अर्थ - काम के अंतर्गत मनुष्य की समस्त प्रवृत्तियों, इच्छाओं तथा कामनाओं का इसमें समावेश हो जाता है।
भारतीय धर्म दर्शन के अनुसार काम का प्रमुख उद्देश्य सन्तान पैदा करके वंश वृद्धि करना है। काम से तात्पर्य वासना से न होकर इच्छाओं की सन्तुष्टि है। काम का सर्वोत्तम तथा आध्यात्मिक उद्देश्य पति-पत्नी में आध्यात्मिक, मानव-प्रेम, परोपकार एवं सहयोग की भावनाओं का विकास करना है। काम शब्द से कला सम्बन्धी भाव, विलास, ऐश्वर्य तथा कामनाओं का भी होता है। सत्य बात तो यह है कि काम जीवन का एक प्रमुख अंग भी है परन्तु इसका प्रयोग सदा ही धर्म के अनुसार किया जाना चाहिए। अतः काम व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। काम से सबसे पहले यौन तथा सन्तानोत्पत्ति की इच्छा पूर्ण होती है। काम पूर्ति के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता है। डॉ० तिवारी के शब्दों में काम भारतीय संस्कृति में मान्य है जिस काम पर धर्म तथा नैतिकता का अंकुश होगा, वह सर्जनात्मक एवं हितकारी- होगा। धर्मपरक काम से भौतिक ही नहीं, आत्मिक सुख भी प्राप्त होता है। प्राचीनकाल में काम का यही आदर्श स्वरूप था। पुरुषार्थ चतुष्टय में तो धार्मिक एवं नैतिक काम की गणना की गयी है।
(4) मोक्ष - भारत में बसने वाले हिन्दुओं का परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। सांसारिक एवं भौतिक बन्धनों से निजात पाना ही मोक्ष है। 'मोक्ष' हिन्दू दर्शन के अनुसार, मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। मोक्ष को शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से परिभाषित किया है। सांख्यशास्त्र के अनुसार पुरुष कर्ता नहीं है। वह निसंगत अकर्ता है जो कुछ होता है, प्रकृति के फलस्वरूप ही बुद्धि को ज्ञान होता है। ज्ञान तीन प्रकार का होता है -
1. सात्विक
2. राजसिक
3. तामसिक।
सात्विक ज्ञान प्राप्त होने पर पुरुष अनुभव करता है कि वह प्रकृति से भिन्न है। सत्व, रज, तम इत्यादि प्रकृति के गुण हैं- पुरुष स्वयं निर्गुण है और प्रकृति उसका दर्पण है। ब्रह्म निर्माण के अवधारणा के अनुसार जब मनुष्य जब ब्रह्मज्ञानी हो जाता है, तो वह स्वयं ब्रह्म स्वरूप हो जाता है तब आत्मा ब्रह्म में तल्लीन हो जाती है। इस प्रकार के मोक्ष के लिए न पृथक लोक की आवश्यकता होती है और न इस प्रकार का मोक्ष कोई किसी को दे सकता है। यह आत्मा की शुद्धावस्था है। शिव गीता में लिखा है-
“मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामान्तर मेव वा।
अज्ञान हृदय ग्रन्थिनाशों मोक्ष इति स्मृतः ॥”
दूसरे शब्दों में मोक्ष ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे एक स्थान में रखा हो अथवा जिसकी प्राप्ति के लिए किसी गांव या प्रदेश में जाना पड़े। वस्तुतः अज्ञान ग्रन्थि के नाश होने पर पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति को ही मोक्ष कहते हैं। इसी प्रकार गीता के अनुसार, “अभि तो ब्रह्म निर्वाण वर्तते विदितात्वमानम्' अर्थात् जिन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया है, उन्हें मोक्ष अपने आप प्राप्त हो जाता है।
के. लैंड का कथन है - 'मोक्ष का तात्पर्य जीवन-मरण के चक्र से परे होता है तथा परिणामस्वरूप संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति पाना भी है। मोक्ष प्राप्त करने के तीन निम्नलिखित मार्ग हैं-
1. कर्म मार्ग - फल की प्राप्ति की आशा किये बिना सच्चे हृदय से कर्म करना, जो कर्म मार्ग कहा जाता है।
2. ज्ञान मार्ग - इसको मोक्ष प्राप्त करने का सबसे सरल ढंग है तथा इसको अच्छे रूप में माना गया है।
3. भक्ति मार्ग - यह आराधना का मार्ग कहा जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए यही मार्ग सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
अतः हम कह सकते हैं कि हिन्दू जीवन एक प्रकार की साधना है, जिसका अन्त मोक्ष प्राप्ति के बाद हो जाता है जो पुरुषार्थ व्यवस्था का अन्तिम साधन के रूप में देखा जाता है।
मोक्ष का महत्व - मोक्ष प्राप्ति के पश्चात् आत्मा और ब्रह्म का साक्षात्कार होता है और मनुष्य जीवन मरण के चक्र से मुक्त हो, शाश्वत आनन्द की प्राप्ति करता है। ऐसी स्थिति में, मनुष्य के अन्दर अपने पराये की भावना का नाश हो जाता है, उनमें से एक ऐसे वृहत् व्यक्तित्व का विकास होता है, जो जनकल्याण की ओर उन्मुख रहता है। अतः दूसरे अर्थों में, परम सत्य की प्राप्ति ही मोक्ष है, जो व्यक्ति पूर्ण सत्य को पहचानता है वही ज्ञानी है। ज्ञान की प्राप्ती से जीवन में व्याप्त अन्धकार और भ्रम समाप्त हो जाता है। इसके अनन्तर न मनुष्य में कोई कामना रहती है और न उसके लिए किसी प्रकार का काम्य ही शेष रह जाता है।
पुरुषार्थ का महत्व - भारत के जीवन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का अपना-अपना एक विशेष महत्व है। पुरुषार्थ संस्था वास्तव में निर्दिष्ट जीवन को पाने के लिए एक साधारण व्यवस्था है, जो आमतौर से हर व्यक्ति को वांक्षित कार्य करने की प्रेरणा देती है। साथ ही साथ भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत के मध्य सन्तुलन भी बनाये रखती है। पुरुषार्थ की अवधारणा जीवन के महान आदर्शों की प्राप्ति का भी एक उत्तम साधन है। पुरुषार्थ के द्वारा ही महान जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। भारतीय सामाजिक जीवन का मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक आधार भी है तथा यह भारतीय संस्कृति की आत्मा है। इसमें हमें क्रमबद्धता के भी दर्शन होते हैं, जो धर्म से शुरू होकर मोक्ष तक पहुंचती है, जिसकी हर कड़ी एक दूसरी कड़ी से शक्तिशाली रूप में जुड़ी हुई है। यदि किसी कड़ी को छोड़ा जाये तब इसमें व्यत्तिक्रम हो जायेगा। इसी कारण इसको पुरुषार्थ चतुष्टय कहा जाता है। इसमें आपसी महत्व की दृष्टि से धर्म और मोक्ष का विशेष स्थान भी है, क्योंकि धर्म पुरुषार्थ का संचालक है और मोक्ष परिणति। दोनों की आपसी सहयोग भी है। मनु ने भी पुरुषार्थ का विश्लेषण अच्छे रूप में किया है
कुछ लोगों का मत है कि मनुष्य हित धर्म तथा अर्थ में है, अन्य का मत है यह काम तथा अर्थ पर आधारित है। कुछ इस पर बल देते हैं कि केवल धर्म से ही भला हो सकता है, किन्तु अन्य तर्कों के अनुसार इस पृथ्वी पर केवल अर्थ से ही भला हो सकता है।
कौटिल्य का कथन है - "मानवता का हित धर्म, अर्थ और काम इन चित्रणों के पारस्पिरक समन्वय से हो सकता है।"
वात्स्यायन के शब्दों में - धर्म, अर्थ और काम की परिभाषा दी है और क्रम से पहले को बाद वाले से उत्तम माना है। राजा के लिए उन्होंने अर्थ को सर्वश्रेष्ठ माना है।
धर्मशास्त्रकारों के अनुसार - “उच्चतर जीवन के लिए तन और मन दोनों का अनुशासित होना परम आवश्यक है तथा निरन्तर लक्ष्यों का उच्चतर गुणों एवं मूल्यों पर आश्रित हो जाना भी परम आवश्यक है। इन तीनों पुरुषार्थों के पारस्परिक समन्वय से ही मनुष्य के व्यक्तित्व का ठीक विकास होता है।"
पुरुषार्थ चतुष्टय की परिकल्पना के महत्व को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है
1. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ अपनी सन्तुलित अवस्था में आदर्श व्यक्तित्व या जीवन का प्रतीक है।
2. मानव जीवन के सन्तुलित या सर्वांगीण विकास को ही पुरुषार्थ कहते हैं।
3. हिन्दू जीवन दर्शन में जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। इसी को ध्यान में रखकर अन्य सभी कार्यों का निर्धारण किया गया है। लौकिक जीवन के अपेक्षा पारलौकिक जीवन को अधिक महत्व दिया गया है।
4. आश्रमों की कल्पना इसी सिद्धान्त पर आधारित है। इसे इस रूप में आयोजित किया गया है कि इन आश्रमों के द्वारा मानव अपने जीवन में चारों पुरुषार्थों को पूर्णरूपेण प्राप्त करने का समय पा सके।
5. स्वतंत्रता चारों पुरुषार्थों को सम्यक् रूप में अंगीकृत से प्राप्त हो सकती है। धर्म और ऐश्वर्य की प्राप्ति उसका सन्तुलित भोग, कर्त्तव्य पालन और आत्मसाक्षात्कार से प्राप्त होता है।
6. भारत में जन्म से ही उत्तरदायित्व प्राप्त होने लगते हैं इनका निर्वाह पुरुषार्थ के द्वारा कर सकते हैं।
7. व्यक्ति के जन्म के साथ उत्तरदायित्वों का बोझ उसे सम्भालना तथा पूरा करना ही पुरुषार्थ की प्राप्ति है।
8. पुरुषार्थ की अवधारणा जीवन के उच्चतर आदर्शों की भी प्राप्ति करता है।
9. जीवन के उच्चतम आदर्शों को प्राप्त करने के लिए सन्देश देते हैं जीवन और संसार में कुछ भी है या नहीं है।
10. काम को प्रेम करो। दोनों में 'म' ठी ही है केवल का के 'प्रे' करो, हमको तुम करो, दो में 'म' ठीक है केवल 'ह' को 'तु' में बदलो, जीवन ओर शिव करो। यही जीवन का सही पुरुषार्थ है।
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- प्रश्न- वर्ण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? भारतीय दर्शन में इसका क्या महत्व है?
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- प्रश्न- जाति व्यवस्था के गुण-दोषों का विवेचन कीजिए। इसने भारतीय
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- प्रश्न- वैदिक काल में सिंचाई के साधनों एवं उपायों पर एक टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- उत्तर वैदिक कालीन कृषि व्यवस्था पर टिप्पणी लिखिए।
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- प्रश्न- वैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध शिक्षा की तुलना कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय शिक्षा के प्रमुख उच्च शिक्षा केन्द्रों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- "विभिन्न भारतीय दार्शनिक सिद्धान्तों की जड़ें उपनिषद में हैं।" इस कथन की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।