बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
उत्तर -
१. दाशरथि:
यहाँ ‘दशरथरत्य अयत्यम्' इस विग्रह में दो सम्बन्धी पद हैं। इनमें 'दशरथस्य' पद प्रथम प्रकृति है क्योंकि पिता ही पुत्र से पहले उत्पन्न होता है। अतः उसी से 'अत इञ्' से इञ् प्रत्यय होकर दाशरथि' रूप बनता है।
२. दैत्यः।
यहाँ 'दिते: अपत्यम्' इस विग्रह में अपत्य अर्थ में दिति शब्द से 'ण्य' प्रत्यय होकर 'दिति + य रूप बनता है। पुनः आदि अच् को वृद्धि और अन्त्य इकार का लोप आदि होकर 'दैत्य: रूप सिद्ध होता है।
३. आदित्यः
यहाँ 'आदित्यस्य अपत्यम्' इस अर्थ में आदित्य के ण्य प्रत्यय होकर 'आदित्य + य' रूप बनता है पुनः अकार लोप तथा 'हलो यमां पमि लोप:' सूत्र से यम् प्रथम यकार का लोप होकर प्रथमा के एकवचन में आदित्य: रूप सिद्ध होता है।
४. दैवाम्। दैवम्।
यहाँ 'देवस्य अपत्यय्' इस विग्रह में अपत्य अर्थ में देवाद्यञओं 'वार्तिक से देव' शब्द से यञ् प्रत्यय होकर देवाम् और अञ् प्रत्यय होकर 'देवम्' रूप सिद्ध होते हैं।
५. बाह्यः
यहाँ बहिर्भवः इस विग्रह में बहिषष्टिलोपो यञ्च वार्तिक से 'बाहीर' शब्द से यज् प्रत्यय और रि भाग का लोप होकर 'बह + य' रूप बनता है। पुनः अजादि वृद्धि आदि कार्य होकर 'बाह्य:' रूप सिद्ध होता है।
६. गव्यम्
यहाँ गोरपत्यम् इस विग्रह में 'गो:' शब्द से 'प्राग्दीव्यतोऽण् से अण्' प्रात्यय प्राप्त होता है किन्तु 'गोरजादिप्रसंगेमत्' वार्तिक से उसका बाध होकर यत् प्रत्यय होता है। पुनः अवादेश आदि कार्य होकर 'गव्यम्' रूप सिद्ध होता है।
७. जनता इत्यत्र कः प्रत्ययः?
जनानां समूहः 'जन्' शब्द से ग्रामजनबन्ध भ्यसृल से तल् प्रत्यय होता है।
८. ऐहलौकिकम्
'इहलोक' शब्द से 'अध्यात्मादेष्ठजिष्यते' से ठञ्' प्रत्यय होता है
९. गृहमा
'गृहलाति धान्यादिकम्' इत्यत्र प्रकृति।
ग्रह धातो' गेहेकः सूत्र 'क' प्रत्यय है।
१०. ईहा
(चेष्टा) ईह धातो: स्त्रीलिंग 'गुरोश्चहल : ' सूत्र अ प्रत्ययः ईह + अ
११. दन्तुरः
उन्नताः दन्ताः अस्य सन्ति इस विग्रह में दत्त शब्द से दत्त उन्नत उरच् से उरच् प्रत्यय हुआ। 'च' की इत्संज्ञा तथा लोप दन्त + उर् इस स्थिति में 'यत्येति च' से अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर दन्तुरः रूप बनता है।
१२. दण्डिकः
दण्ड अस्यास्ति इस विग्रह में दण्ड शब्द से 'अत इनिल्यौ' से इनि (इन्) प्रत्यय 'यस्येतिच' से अन्त्य 'अ' का लोप, दण्ड् + इन दण्डिन, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दण्डी' प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दण्डी' रूप बनता है। जहाँ ठन् (उ) प्रत्यय होता है वहाँ ठ को. इक् आदेश अन्त्य अ का लोप प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर दण्डिकः बनता है।
१३. माहेयम्
महयम् जातम् इस अर्थ में मही शब्द से 'नद्यादिभ्यो ढक्' से ढक् प्रत्यय होता है 'क' की इत्संज्ञा तथा लोप ढ को एय आदेश आदि वृद्धि, अन्त्य 'ई' का लोप, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर माहेयम् रूप बनता है।
१४. मदीपः
'मम अयम्' इस विग्रह में एकार्थवाची अस्मद शब्द से 'व्यदादीनि च' से वृद्ध संज्ञा तथा 'वृद्धाच्छ' से 'छ' प्रत्यय होता है।
१५. कृति
'कृ' धातु स्त्रीलिंग स्त्रियां क्तिन् सूत्रस्य भावः क्तिन् प्रत्ययः अस्ति।
१६. गार्ग्यः। वात्स्यः।
यहाँ 'गर्गस्य अपत्यम्' इस विग्रह में गोत्र अर्थ में षष्ठयन्त् गर्ग से यञ् प्रत्यय होकर 'गार्ग + य' रूप बनता है। पुनः अजादि वृद्धि और अन्त्य अकार का लोप होकर प्रथमा को एकवचन में 'गार्ग्य:' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'वत्सस्य गोत्रापत्यम्' इस विग्रह से षष्ठयन्त वत्स से यज् प्रात्यय होकर वात्स्या रूप बनता है।
१७. कर्मण्य
कर्मणि साधु इस विग्रह में 'कर्मन' शब्द से तज साधु' से पत प्रत्यय 'त' की इत्संज्ञा तथा लोप, कर्मन् + य, इस स्थिति में 'नस्तद्धिते' से अन् (रि) का लोप प्राप्त होता है किन्तु ये चामावकर्मणोः से निषेध हो जाता है। नकार का ठाकार, कर्मण् + य कर्मण्य प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य 'कर्मण्याः ' रूप बनता है।
है।
१८. पटीयांस
पटु शब्द से 'द्विवचनविभज्योपदे' तरवीयसुनौ' से ईयसुन (इयस्) प्रत्यय
पटु + ईयसुन (इयस्) पटु + इयस्
पट + इयस् टे: सूत्र से 'उ' टिका लोप होने पर
प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर प्रथमा विभक्ति बहुवचन में परीयांस रूप सिद्ध होता
१९. गार्ग्यायणः। दाक्षायणः।
यहाँ 'गार्ग्य' में गोत्र अर्थ में यञ् प्रत्यय हुआ है। अतः 'यजिञोश्च' सूत्र से 'गर्भस्य युवापत्यम्' इस अर्थ में यञ् प्रत्ययान्त गार्ग्य से फक् प्रत्यय होकर तथा 'आपने मीनीमिपः ०' से फकार के स्थान पर आपन आदेश होकर 'गार्ग्यापण:' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'दाक्ष्य' से 'दाक्षायणः' रूप बनता है।
२०. दाक्षिः
यहाँ 'द्रक्षस्य अपत्यम्' इस विग्रह में अकारान्त प्रातिपदिक 'दक्ष' के षष्ठयन्त पद से ऊत इञ्। प्रत्यय होकर 'दक्ष + इ' रूप बनता है। पुनः अजादि वृद्धि और अन्त्य अकार का लोप होकर प्रथमा के एकवचन में दाक्षि: रूप सिद्ध होता है।
२१. धुर्यः
'धुरं वहति इस विग्रह में 'धुर्' शब्द से 'धुरोपऽढकौ' से यत् प्रत्यय होता है।
२२. हैमवती
हिमवतः प्रभवति इस विग्रह से 'हिमवत' शब्द से प्रभवति से अज् प्रत्यय होता है।
२३. लक्ष्मण:
'लक्ष्मीः अस्यास्ति' इस विग्रह में 'लक्ष्मी' शब्द से 'लक्ष्मया अच्च' से न प्रत्यय तथा लक्ष्मी
+ न ई को अ आदेश लक्ष्मन लक्ष्मन लक्ष्मण ... अर्कुरवाङ --------० से नकार को णकार आदेश।प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर लक्ष्मणः रूप बनता है।
२४. वैदः। पौत्रः।
यहाँ विदु शब्द त्र+षि वाचन है अतः उससे 'अनृष्यानन्तयें विदादिभ्योऽञ्' सूत्र से गोत्र अर्थ में अञ् प्रत्यय होकर विद + अ' रूप बनता है। पुनः आदि वृद्धि और अन्त्य अकार का लोप होकर प्रथमा के एकवचन में वैद रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'पुत्र' शब्द से अपत्य अर्थ में 'अज्' प्रत्यय हेत्कर पौत्र' रूप बनता है।
२५. वासिष्ठः। विश्वामित्रः। वासुदेवः।
यहाँ वशिष्ठ: शब्द त्र+षिवाचक है। अतः उसके षष्ठयन्त पद से त्र+ष्यन्धक वृष्णिकुरुभ्यश्च' सूत्र से अण् प्रत्यय होकर 'वशिष्ठ अ' रूप बनता है। पुनः अजादि वृद्धि आदि कार्य होकर प्रथमा के एकवचन में 'वासिष्ठ' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार विश्वामित्र से 'वैश्वामित्र: ' वसुदेव से 'वासुदेव:' आदि रूप सिद्ध होते हैं।
२६. कानीनः व्यासः कर्णश्च।
यहां 'कन्याया अपत्यम्' इस अर्थ में 'कन्यायाः कनीन च सूत्र कन्या के षष्ठ्पन्त पद से अण् प्रत्यय और 'कन्या' के स्थान पर कनीन होकर 'कनीन अ' रूप बनता हैं। पुनः अजादि वृद्धि और अन्त्य अकार का लोप होकर प्रथमा के एकवचन में 'कानीनः' रूप सिद्ध होता है।
२७. राजन्यः। श्वशुर्यः।
यहां जाति अर्थ में 'राजन्' से यत् प्रत्यय होकर राजन् + य' रूप बनता है। पुनः 'नस्तद्धिते' से राजन के टि भाय- 'अन' का लोप प्राप्त होने पर 'ये चाभावकर्मणोः' से 'अन्' को प्रकृतिभाव होने पर प्रथमा के एकवचन में 'राजन्य' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'श्वसुदस्यापत्यम्' इस अर्थ में 'श्वसुर' के षष्ठयन्त् पद से यत् प्रत्यय होकर श्वशुर्यः रूप सिद्ध होता है।
२८. राजनः
यहाँ 'राजन् अ' इस अवस्था में 'अन्' सूत्र से राजन् की टि-भाम-अन् को प्रकृतिभाव हो जाता है। जिस कारण 'नस्तद्धिते' से प्राप्त टि भाग का लोप नहीं होता है। अतः प्रथमा के एकवचन में 'राजन' रूप सिद्ध होता है।
२९. क्षत्रियः
यहां 'क्षत्र' शब्द से 'क्षत्राद् घः' सूत्र से घ प्रत्यय होकर तथा 'आपनेयीनीयिय०' घकार को इय होने पर 'क्षत्त्र + इय' रूप बनता है। पुनः अन्त्य अंकार का लोप होकर प्रथमा से एकवचन में क्षत्रियः रूप सिद्ध होता है।
३०. राग-रंग पदपोः को भेदः?
उत्तर - राग :- रञ्जनंरागः, रगः - रज्यति अस्मिन्।
३१. क्षत्रिया - क्षत्रियाणी चदानां कोऽर्थः।
उत्तर - क्षत्रिय - वर्णाः स्त्री' अर्थः अस्ति।
३२. पौरव:
यहाँ " पूरुणां राजा' इस अर्थ में पुरु शब्द से पूरोरण वक्तव्यः वार्तिक से अणु प्रत्यय होकर 'पुरु' अ रूप बनता है। पुनः अजादि वृद्धि, गुणादेश और अव् आदेश आदि कार्य होकर प्रथमा के एकवचन में पौरव: रूप सिद्ध होता है।
३३. पाण्ड्यः।
यहाँ ‘पाण्डोः अपत्यम्' तथा 'पाण्डूनां राजा' इन दोनों ही अर्थों पाण्डोडर्पण वार्तिक से 'पाण्डु' शब्द से 'ड्यण्' प्रत्यय होकर 'पाण्डुप' रूप बनता है। पुनः आदि वृद्धि और उकार लोप होकर प्रथमा के एकवचन में पाण्ड्यः रूप सिद्ध होता है।
३४. कम्बोजः
यहाँ कम्बोजस्य अपत्यम् इस अर्थ में 'जनपदशब्दात् क्षत्रियादञ्' सूत्र से 'अज्, प्रत्यय होकर तथा अजादि वृद्धि आदि होकर 'कम्बोज' रूप बनता है। पुनः 'कम्बोजाल्लुक' सूत्र से अञ् का लोप होकर तथा 'अज्' के निमित हुई अजादि वृद्धि की निवृत्ति होकर प्रथमा के एकवचन में कम्बोज रूप सिद्ध होता है।
३५. चोलः। शकः। यवनः।
यहाँ 'चोल' और 'शक' शब्दों से द्वयञ्मगध:' सूत्र से तद्राज प्रत्यय अण् होता है। पुनः कम्बोजादिभ्य इति वक्तव्यम् वार्तिक से उस अण् का लोप होकर प्रथमा के एकवचन में चोल और शक रूप बनते हैं।
३६. काषायम्।
यहाँ 'कषापेण रक्तं वस्त्रम्' इस विग्रह में 'प्राग्दीव्यतोऽण्' से अण् प्रत्यय प्राप्त होता है। 'तेन रक्तं रागात्' के अनुसार यह प्रत्यय तृतीयान्त रङ्गवाची पद 'कषापेण' से ही हुआ है। यहाँ 'कषाय + अ' रूप बनने पर अजादि वृद्धि और अन्त्य लोप होकर प्रथमा के एकवचन में 'कषाणम्' रूप सिद्ध हुआ है।
३७. वास्त्रो रथः।
यहाँ 'वस्त्रेण परिवृतो रथ:' इस अर्थ में 'वस्त्र' को तृतीयान्त पद के 'परिवृतो रथ:' इस अर्थ में वस्त्र के तृतीपान्त पद से परिवृतो रथः ' सूत्र से अण् प्रत्यय होकर 'वस्त्र अ' रूप बनता है। पुनः अजादि वृद्धि और अन्त्य लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में 'वास्त्र: ' रूप सिद्ध होता है।
३८. भ्राष्टाः यवाः।
यहाँ 'भ्राष्टेषु संस्कृता: यवा:' इस अर्थ में संस्कृतं भक्षा:' सूत्र के भ्राष्ट्र के सातम्यन्त पद से अण् प्रत्यय होकर 'भ्राष्ट्रेषु अ' रूप बनता है। पुनः सुप् लोप और अन्त्य लोप होकर प्रथमा के बहुवचन में 'भ्राष्ट्रा:' रूप सिद्ध होता है।
३९. ऐन्द्रम्। पाशुपतम्। बहिस्पत्यम्।
यहाँ ‘इन्द्रो देवता अस्य' इस अर्थ में 'साऽस्य देवता' सूत्र से प्रथमान्त इन्द्र पद से अण् प्रत्यय होकर 'इन्द्र अ' रुध बनता है। पुनः अजादि वृद्धि, अन्त्य लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में 'सौम्यम्' रूप सिद्ध होता है।
४०. वापव्यम्। त्र+तुव्यम्।
यहाँ 'वायुः देवता अस्य' इस अर्थ में वाम्वृतुपिसुषसो यत्। प्रत्यय होकर वायु + य' रूप बनता है। पुनः उकार को गुण ओकार होकर तथा ओकार के स्थान पर 'अब्' आदेश होकर प्रथमा के एकवचन में 'वापव्यम्' सब सिद्ध होता है। इसी प्रकार त्र+तु से पत् प्रत्यय होकर 'त्र+तकम्' रूप बनता है।
४१. पित्र्यम्। उपस्यम्।
यहाँ 'वाम्वृतुपित्रुषसो यत्' से पितृ शबद से 'यत्' प्रत्यय होकर 'पितृ यू' रूप बनने पर 'रीड् त्र+तः सूत्र से पितृ के त्र+कार के स्थान पर रीङ् होकर 'पित् + री + य' रूप बनता है। पुनः अन्त्य ईकार का लोप होकर प्रथमा के एकवचन में 'पित्र्यम्' रूप सिद्ध होता है।
४२. काकम्।
यहाँ ‘काकानां समूहः इस अर्थ में 'काक' शब्द से अण् प्रत्यय होकर 'काक' + अ' रूप बनता पुनः अजादि वृद्धि और अन्त्य लोप होकर प्रथमा के एकवचन में 'काकम्' रूप सिद्ध होता है।
४३. भैक्षम्।
यहाँ 'भिक्षाणां समूह:' इस अर्थ में भिक्षादिभ्योऽण् सूत्र से भिक्षा शब्द से 'अण' प्रत्यय होकर 'भिक्षा + अ' रूप बनता है। पुनः अजादि वृद्धि अन्त्य लोप आदि होकर प्रथमा के एकवचन में 'भैक्षम् ' रूप सिद्ध होता है।
४४. ग्रामता। जनता। बन्धुता।
यहाँ ‘ग्रामाणां समूहः' इस अर्थ में ग्रामजनबन्धुभ्यस्तत्' सूत्र से ग्राम शब्द से तल् प्रत्यय होकर 'ग्राम + त' रूप बनता है। पुनः 'तलन्तं स्त्रियाम्' इस वचन से स्त्रीलिंग की विवक्षा में टाप् प्रत्यय होकर प्रथमा के एकवचन में 'ग्रामता' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार जन से 'जनता' और बन्धुता रूप बनते हैं।
४५. साक्तुकम्। हास्तिकम्। धेनुकम्।
यहाँ सक्तु शब्द अचेतनवाची है अतः अचित्तहस्तिधेनोष्ठक् से 'सक्तूनां समूह:' इस अर्थ में ठक् प्रत्यय होकर 'सक्तु + ठ' रूप बनता है। पुनः 'ठस्येकः' से ठ के स्थान पर 'इक' प्राप्त होने पर 'इसुसुक्तन्तात्कः' से बाध होकर 'ठ' स्थान पर 'क' आदेश करने पर 'साक्तुकम्' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'हस्ति' से हास्तिकम् और धेनु से धेनुकम् रूप बनते हैं।
४६. साक्तुकम्।
यहाँ 'सक्तूनां समूह:' इस अर्थ में 'अचित्तहस्तिधेनोष्ठक्' ठक् प्रत्यय होकर 'सक्तु + ठ' रूप बनता है। पुनः इसुसुक्तान्तात् सूत्र से उगन्त अंग 'सक्तु' के बाद 'ठ' के स्थान पर 'क' होकर 'सक्तुक' रूप बनता है। तदन्तर आदि वृद्धि करने पर प्रथमा एकवचन में 'साक्तुकम् ' रूप बनता है।
४७. क्रमकः
यहाँ 'क्रमम् अधीते वेत्ति वा' इस अर्थ में ' क्रमादिभ्यो वुन्' से क्रम शब्द से वुन् प्रत्यय करने पर 'क्रम वु' रूप बनता है। पुनः 'युवोरनाकौ' से 'वु' के स्थान पर अकन होकर प्रथमा के एकवचन में 'क्रमक:' रूप सिद्ध होता है।
४८. वैदिशम्।
यहाँ 'विदिशया अदूरभवं नगरम् ' इस अर्थ में अदूरभवश्च' सूत्र से विदिशा शब्द से अण् प्रत्यय होकर 'विदिशा अ' रूप बनता है। पुनः अजादि वृद्धि तथा अन्त्य अकार का लोप होकर प्रथमा के एकवचन में वैदिशम् रूप सिद्ध होता है।
४९. पञ्चालाः
यहाँ पञ्चालानां निवासां जनपद: इस अर्थ में 'तस्य निवासः' सूत्र से अज् प्रत्यय होकर - 'पञ्चाल + अ' रूप बनता है। पुनः जनपदं वाच्य होने के कारण जनपदे लुपः सूत्र से अण् प्रत्यय का लोप करके प्रथमा के बहुवचन में पञ्चालाः ' रूप सिद्ध होता है।-
५०. वरणा
यहाँ वरणानाम् अदूर भवं नगरम् इस अर्थ में 'अदूरभवश्च' सूत्र से अण् प्रत्यय होकर 'वरणा + अ' रूप बनता है। पुनः वरणादिभ्यश्च' सूत्र से वरणा के बाद अन् प्रत्यय का लोप होकर 'लुपि युक्तवद०' की सहायता से प्रथमा के बहुवचन में 'वरणा:' रूप सिद्ध होता है।
५१. कुमुद्वान्। नड्वान्।
यहाँ 'कुमुदाः सन्ति अस्मिन् देशे' इस अर्थ में 'कुमुदनडवेतसेभ्यो ड्यतुप्'। इस अर्थ में कुमुदनऽवेतसेभ्यो मतुप् सूत्र से कुमुद् शब्द से 'ड्यतुप्' प्रत्यय करके 'कुमुद + मत्' रूप बनता है। पुनः हि भाग- अकार का लोप करके तथा 'क्षपः' सूत्र से दकार के बाद मकार को वकार होकर प्रथमा एकवचन में 'कुमुदवान' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'नड' से 'नडवान' रूप बनता है।
५२. वेतस्वान्।
यहाँ वेतस शब्द से 'कुमुदनऽवेतसेभ्यो ड्मतुप्' से ड्मतुप प्रत्यय होकर वेतम् + मत रूप बनता है। पुनः मादुपधापाश्च मतोर्वोडयवादिभ्यः' सूत्र से 'मत्' के मकार के स्थान पर वकार होकर प्रथमा के एकवचन में वेतस्वान् रूप सिद्ध होता है।
५३. नड्वलः। शाद्वलः।
यहाँ 'नडा' सन्ति अस्मिन् देश इस अर्थ में नडशादाड्ड्वलय् सूत्र से नड शब्द से ड्वलच् प्रत्यय हुआ है जिससे यहाँ प्रथमा के एकवचन में 'नडवल : ' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'शाद' से 'ड्वलच्' प्रत्यय होकर शाद्वलः रूप बनता है।
५४. शिखावल :
यहाँ शिखा सन्ति अस्मिन् देशे' इस अर्थ में शिखाया वलच्' सूत्र से शिखा शब्द से वलच् प्रत्यय हुआ है। पुनः सभी विभक्ति कार्य होकर प्रथमा के एकवचन में शिखावल: रूप सिद्ध हुआ है।
५५. औपगवः
यहाँ ‘उपगु + अ (अण्)' इस स्थिति में अजादि वृद्धि होकर ओर्गुणः सूत्र से अन्त्य अकार को गुण ओकार होकर तथा 'एचोऽयवापाव से ओकार के स्थान पर अवादेश करने पर 'औपगवः' रूप सिद्ध हुआ है।
५६. राष्ट्रियः इत्यत्र कः प्रत्ययः?
घ प्रत्यय है। (तद्धित प्रत्यय के अन्तर्गत)।
५७. 'अमात्य' इति पदे कः प्रत्यय।
ल्यप् प्रत्यय है। (तद्धित प्रत्यय के अन्तर्गत)।
५८. अस्मदीपः इत्यत्र कः प्रत्यय?
छ प्रत्यय है। (तद्धित प्रत्यय के अन्तर्गत)।
५९. गाणपतम् सूत्रनिर्देशपूर्वकं साधनानि।
गाणपतिङस 'समर्थानां प्रथमाद्वा के अधिकार में 'गणपति ङ स् अण् - कृन्तद्धिसमासाश्च' से प्रतिपादित संज्ञा होने पर 'सुपोधातु प्रतिपादिकयोः के सुप् (ङ स्) लोप
गणपति + अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
गणपति + अ - 'तद्वितेष्वक्वामादः' से गणपति के आदि गकार को वृद्धि आदेश होकर। गणपति + अ - ' यचि भम्' से लोप होकर गाणपत बना।
गाणपत + सु - 'अतोऽम्' से सु को अम् आदेश।
गाणपत + अम् - 'अमि पूर्व:' से पूर्वस्य स्वादेश होकर गाणपतम् यह रूप सिद्ध हुआ।
६०. कौशेयम्, औपाध्यायकः पदेषु प्रकृति-प्रत्ययः विधेयः।
कौशेयम् - (कोशे संभवति, कोश में होने वाला रेशम) यहाँ सप्तम्यन्त समर्थ कोश शब्द से संभूत अर्थ में ढञ् प्रत्यय हुआ। 'कोशाद् ढञ् सूत्र' से ढकार को एय् आदेश और आदि वृद्धि होने से कोशेयम् रूप सिद्ध हुआ।
औपाध्यापकः - (उपाध्यायाद् आगतः उपाध्याय गुरु से आया हुआ) -यहाँ उपाध्याम् विद्या- सम्बन्ध का वाचक है। पञ्चाम्यन्त इस पद से पूर्वोक्त अर्थ में वुञ् प्रत्यय हुआ। विद्यायोनिसंबन्धेभ्यो वुञ् से आदि वृद्धि वु को अक् आदेश और अन्त्य अकार का लोप होकर औपाध्यायकः रूप सिद्ध हुआ।
६१. कौन्तेयः।
कुन्ती पुत्र कौन्तेयः अर्थात् कर्ण। यहाँ कर्ण शब्द जातिवाचक है।
कन्याया अपत्यं पुमान् कन्या अविवाहिता को पुरुष सन्तान व्यास और कर्ण। यहाँ कन्या शब्द 'कन्यायाः कनीन च' सूत्र से कानीन और अण् प्रत्यय होने पर कालीन रूप बनता है। पुनः इसमें वृद्धि करने पर कौन्तेयः रूप सिद्ध होता है।
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- प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
- १. भू धातु
- २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
- ३. गम् (जाना) परस्मैपद
- ४. कृ
- (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
- प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
- प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
- प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
- प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
- कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
- कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
- करणः कारकः तृतीया विभक्ति
- सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
- अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
- सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
- अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
- प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
- प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
- प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
- प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
- प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
- प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
- प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
- प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
- प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
- प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
- प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
- प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
- प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
- प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
- प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
- प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
- प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
- प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।