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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - २ :
कृदन्त प्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी)

प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।

उत्तर -

रूपसिद्धि प्रक्रिया

१. कारकः

कृ - 'भूवादयो धातवः' सूत्र से 'कृ' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में ण्वुल्तृचौ '
से कर्ता अर्थ में ण्वुल् प्रत्यय।
कृ + ण्वुल् - ण्वुलू के अनुबन्धों के हटाने पर
कृ+वु - 'युवोरनाकौ' से वु को 'अक्' आदेश
कृ+वु - यहाँ स्थानिवद्भाव के कारण 'अक्' आदेश णित् है अतः उसके परे 'अचोञ्णिति' से कृ के त्र+कार को वृद्धि - आर होकर
कारक - अब कृदन्त होने से 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'यार प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय।
कारक+सु - सु के अनुबन्ध को हटाने पर
कारक + स्- 'सरुजुषो रुः' से सकार के स्थान पर रु (र)
'रवरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
कारक: - यह रूप सिद्ध किया।

२. कर्त्ता

कृ - 'भूवादयो धातवः' सूत्र से 'कृ' की धातु संज्ञा होकर "धातो" के अधिकार में 'ण्वुल्- तृचौ' से कर्ता अर्थ में तृच प्रत्यय।
कृ+ तृच् - 'तृच्' के अनुबन्ध को हटाने पर
कृ+तृ - यहाँ 'तृच्' के वलादि आर्धधातुक होने के कारण 'आर्धधातुकस्पेवलोदः' से इट् का आगम प्राप्त है जिसका 'एकाच् उपदेशेऽनुदात्तात् ' से निषेध हुआ।
कृ+तृ - 'सार्वधातुकार्धधातुवयोः' से कृ के त्र+कार को गुण अर् होकर
कर्तृ - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्राप्तिपदिकात् 'सूत्र के अधिकार में 'स्वौजसमौट्' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय।
कर्त् + सु - 'त्र + दुशनस्पुरुदंशोऽनेहसां च' से अनङ् (अन्) आदेश। यह आदेश 'ङिच्च' सूत्र से अन्त्य अल् - त्र + कार के स्थान में हुआ।
कर्त् + अन् + सु - 'अप्तृन्तृच्स्वस० के उपधा की दीर्घ करके
कर्त्तान् + सु - सु के अनुबन्ध को हटाने पर
कर्तान् + स् - 'हल्याब्ध्यो दीर्घात् सुति०' से अपृक्त 'स्' का लोप
कर्तान्-  'न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य' से न्' का लोप होकर
कर्ता - यह रूप सिद्ध हुआ।

३. देयम् -

दा+यत् - डुराञ् दाने से दा धातु से देने के अर्थ में अथो यत् से यत् प्रत्यय होता है।
दा+य - यत् के 'त्' की 'हलन्त्यम्' से इत्संज्ञा होकर तस्यलोपः से लोप
दा+य - यत् परे होने पर ईद्यति से दा के आकार को ईकार आदेश
दे+य - सार्वधातुकार्थधातुकयोः से ईकार को गुण करने पर एकार हुआ।
कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा
स्वौजसमौट ------- से सु आदि प्रत्यय
देय+सु - प्रथमा विभक्ति एकवचन की विवक्षा से सु आया।
देय+अम् - अतोऽम् ने नपुंसकलिंग की विवक्षा में सु को अम् आदेश
देयम् - अमि पूर्वः से पूर्वरूप आदेश करने पर 'देयम्' सिद्ध हुआ।

४. नन्दनः

नदि - भूवादयो धातवः' से 'नदि' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'हेतुमति च' से णिच् प्रत्यय तथा 'इदितो नुम् धातो:' से नुम् (न्) का आगम
नन्दि - 'नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः से ल्यु प्रत्यय
नन्दि+यु - 'युवोरनाकौ' से यु के स्थान पर 'अन' आदेश नन्दि+अन 'णेरनिटि' से णिच् (इ) का लोप
नन्दन - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्यारप्रतिपदिकात्' सूत्र के
अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
नन्दन + स् - 'ससुजषो रु' से सकार को रु (र)
नन्दन् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
नन्दनः - यह रूप सिद्ध हुआ।

५. जर्नादन:

जन+अर्दू - 'भूवादयो धातवः' से 'अर्दू' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युशणिन्यचा: ' से न्यू (यू) प्रत्यय
जन + अ + यु - 'युवोरनाक' से यु को 'अन' आदेश।
जन+अर्दन - 'अकः सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ आदेश
जर्नादन - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपडिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
जर्नादन+स् - 'ससजुषो रु' से सकार के स्थान पर रु (र)
जनार्दनर् - 'खखसानयोर्विसर्जनीयः' से रोक को विसर्ग होकर
जनार्दनः - यह रूप सिद्ध हुआ।

६. लवण:

लू - 'भूवादयो धातवः' से धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'नन्दिग्रहिपचादिभ्यो' से ल्यु (यु) प्रत्यय होकर)
लू+यु - “युवारनाकौ' से 'यु' के स्थान पर अन आदेश
लु+अन - 'सार्वधातुकार्थधातुकयोः' से 'लू' के ऊकार को गुण ओकार। लु+अन- 'एचोऽयवायावः' से ओ के स्थान पर 'अव्' आदेश
लवन - यहाँ नन्द्यादिगण में नियातन से 'न' को 'ण' होकर।
लवण - 'कृत्तद्धितसमाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
लवण+स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
लवणर् - 'खखसानयोर्विसर्जनीयः' से रेक को विसर्ग होकर
लवणः - यह रूप सिद्ध हुआ।

७. पचेलिमा

पच्+केलियर् - 'डुपचष् पाके' धातु के अनुबन्धों का लोप होकर, पच् धातु से 'केलिमर
उपसंख्यानम्
पच्+एलिम - केलियर के क् की लश्क्वतद्धिते से इत्संज्ञा तथा अन्त्य रेफ हलन्त्यम् से इत्संज्ञक होकर तस्लोपः लोग हो जाता है।
कृत्तद्धितसमासाश्च से पचेलिम कृदन्त की प्रातिपदिक संज्ञा
स्वौजसमौट्------------- ० से सु आदि प्रत्यय।
पचेलिम + जस् - पचेलिम शब्द से प्रथमा विभक्ति बहुवचन की विवक्षा में जस् आया।
पचेलिम+अस् - जस् के 'ज्' की चुटू से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप
पचेलिमास् अकः - सवर्णेः दीर्घः' से सवर्ण दीर्घ होता है।
पचेलिमा - हलङयाम्भ्यो दीर्घात् सुपितस्यपृक्तं हल से अपृक्त् सकार का लोप होकर पचेलिमा सिद्ध हुआ।

८. ग्रही।

ग्रह - 'भूवादयो धातवः' से 'ग्रह' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में नन्दिग्रहिपचादि भ्यो ल्युणिन्यचः' से णिनि (इन्) प्रत्यया
ग्रह् +इन् - 'अत उपधायाः' से उपधा के अकार को वृद्धि - आकार।
ग्राहिन् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार
में स्वौजसमौट् ०' से प्रथमा के एकचवन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
ग्राहिन् + स् - 'सर्वनामस्थाने चासम्बद्धौं' से नकारान्त अंग की उपधा को दीर्घ ईकार, होकर। ग्राहीन+स् - 'हल्ड्याक्यो:' से सकार का लोप
ग्राहीन् - 'न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य' से पदान्त नकार का लोप होकर
ग्राही - यह रूप सिद्ध हुआ।

९. शिष्यः

शास्+क्यप् - शासु अनुशिष्टौ धातु से कर्म में एतिस्तुशास्बृहजुषः क्यप् से क्यप् प्रत्यय हुआ। शास्+य - क्यप् के ककार की लशक्तवतद्धिते से इत्संज्ञा तथा पकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा होकर तस्यलोपः से लोप
शिस्+य - हलादिकित् (क्यप्) परे होने पर शास इदङ्हलो: सूत्र से शास् धातु की उपधा के स्थान पर ह्रस्व इकार हुआ।
शिष्+य - शासिवसिघसीनां च से सकार को मूर्धन्य षकार हुआ कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा
स्वौजसमौट ----------० से सु आदि प्रत्यय।
शिष्य + सु० से सु आदि प्रत्यय। प्रथमा वि० एकवचन की विवक्षा में सु, आया।
शिष्यः - सु का रुत्व विसर्ग होकर 'शिष्य' रूप सिद्ध हुआ।

०. स्थायी

स्था - भवदियो धातवः' से स्था की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में ' नन्दि ग्रहिपचादिभ्या ल्युणिन्यतः' से णिनि (इन्) प्रत्यय।
स्था+इन् - ' अतो युक् चिण्कृतो:' से स्था को युक् (य्) आगम।
स्थायिन् - 'कृत्तद्धितसमाशाश्च' से प्राति पदिकसंज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात् के अधिकार में 'स्पोज स्मौट्०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
स्थायिन् + स् - 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' से नकारान्त अंग की उपधा के दीर्घ ईकार।
स्थायीन् +स् - 'हल्ड्याण्भ्यो० से सकार का लोप
स्थायीन् - न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य से पदान्त नकार को लोप होकर
स्थायी -  यह रूप सिद्ध हुआ।

११. बुधः

बुध् - 'भूवादयो धातवः से 'बुध' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'इगु पधज्ञाप्रीकिरः कः से क प्रत्यय,
बुध् +क - 'लशक्वतद्धिते' से 'क' के कवार की इत् संज्ञा तथा लोप होकर
बुध + अ - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' सूत्र के
अधिकार में 'स्वौजसमौट्शस्०' से सु (स्) प्रत्यय
बुध + स् - 'ससजुषो सः से सकार को रु (र)
बुधर् - 'खखसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
बुधः - यह रूप सिद्ध हुआ।

१२. गृहम् (ग्रहम्)

ग्रह्+क - ग्रहधातु से गेहे कः सूत्र से क प्रत्यय आता है।
ग्रह+अ - क के ककार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप
गृह+अ - प्रत्यय के कित्व के कारण ग्रहिज्या.......० सूत्र से धातु के रेफ को सम्प्रसारणाच्च से प्रातिपदिक संज्ञा
- स्वौजसमौट ------------- से सु आदि प्रत्यय
गृह + सु - प्रथमा वि० एकवचन की विवक्षा से सु आया
गृह + अम् - अतोऽम् से नपुंसकलिंग की विवक्षा में सु को अम् आदेश।
गृहम् - अमि पूर्वः से पूर्वरूप होकर देयम् सिद्ध हुआ।

१३. प्रियः

प्री - 'भूवादयोः धातवः' से प्री की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'इगुपपज्ञाप्रीकिरः कः' से 'क' प्रत्यय |
प्री+क - 'लशक्वतद्धिते' से क के ककार की इत्संज्ञा एवं लोप
प्री+अ - 'अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वोरियवुङवङौ' से ईकार को इयङ् (इय) आदेश।
प्र + इय् +अ - प्रिय - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङयाप्प्रातिपदिकात्'
के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
प्रिय+स् - 'ससजुषोः रु' से सकार को रु (र्)
प्रियर् - खखसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग पर
प्रियः - यह रूप सिद्ध हुआ।

१४. प्रज्ञः

प्र + ज्ञा - 'भूवादयो धातवः' से ज्ञा की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'आतश्चोपसर्गे'.
से 'क' प्रत्यय
प्रज्ञा+क - 'लशक्वतद्धिते' से क' के ककार की इत् संज्ञा एवं लोप
प्रज्ञा+अ - 'आतो लोप इटि च' से आकार का लोप
प्रज्ञ् +अ प्रत्र - 'कृतद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौटस्मौट ०' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
प्रज्ञ+स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
प्रज्ञर् - 'खखसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ का विसर्ग होकर
प्रज्ञः - यह रूप सिद्ध हुआ।

१५. कुम्भकार:

कुम्भ + कृ - 'भूवादयो धातवः से 'कृ' की धातु संज्ञा होकर 'धातो' के अधिकार में 'कर्मायम्'
सूत्र से कर्म उपपद होने पर अण् प्रत्यय
कुम्भ कृ+अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
कुम्भ+कृ+अ - 'अचोञ्णिति' से त्र + कार को वृद्धि आर् करने पर
कुम्भंकार - यहाँ ' उपपदमतिङ् से 'कुम्भ' का 'कार' शब्द के साथ उपपद समास हुआ है। अतः ‘कृत्तङितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याय्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौज स्मोट्०' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
कुम्भकार + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
कुम्भकार् - 'खखसानायेर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
कुम्भकार: - यह रूप सिद्ध हुआ।

१६. अवतारः

अव+तृ+घञ् - अव उपसर्ग पूर्वक तृ धातु से अवे तृस्त्रोर्घञ् से घञ् प्रत्यय घञ्।
अव+तृ+अ - घञ् से घकार की लश्क्वतद्धिते से इत्संज्ञा तथा अकार की हलन्त्यम् से
इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप।
अव+तार्+अ - अयोञ्णिति से त्र+कार को वृद्धि रपर होकर प्रवृत्त होगी आर। अवतार उपपदमति से उपपद समास।
- कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा
- स्वौजसमौट० से सु आदि प्रत्यय
अवतार + सु - प्रथमा वि० एकवचन की विवक्षा में सु आया
अवतारः - सु का रुत्व विसर्ग होकर अवतारः सिद्ध हुआ।

१७. गोदः

गो दा - 'भूवादयो धातवः' से 'दा' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में आतो ऽनुपसर्गे कः से 'क' प्रत्यय।
गो दा+क - 'लशक्वतद्धिते' से 'क' के ककार की इत् संज्ञा तथा लोप।
गो दा + अ - 'आतो लोप इटि च' से धातु को अकार का लोप होकर।
गो द् +अ गोद - यहाँ 'उपपदमतिङ्' से गो का 'द' शब्द के साथ उपपद समास हुआ है अतः 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'स्वौज स्मौट ०' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा से सु (स्) प्रत्यय
गो+स् - 'ससजुषी रु' से सकार को रु (र्)
गोदर्- 'खखसानयोर्विसर्जनीयः से रेफ को विसर्ग होकर
गोद: - यह रूप सिद्ध हुआ।

१८. कुरुचरः

कुरु चर् - 'भूवादयो धातवः' से 'चर्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'चरेष्टः से 'ट' प्रत्यय।
कुरु चर्+ट - 'चुटू' से 'ट' के टकार की इत् संज्ञा एवं लोप
कुरुचर - यहाँ ' उपपदमतिङ्' से कुरु का चर शब्द के साथ उपपद समास हुआ है। अतः कृन्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'उयाटप्रातिपदिकात्' के अधिकार में वौजसमौट०' से प्रथमा एकवचन की विपक्षा से सु (स्) प्रत्यय
कुरुचर स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
कुरुचरर - 'रवरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
कुरुचर: - यह रूप सिद्ध हुआ।

१९. वाक्

वच्+ क्विप् - वच् धातु से क्विब् वचिप्रच्छ्यायतस्तुकटप्रुजुश्रीणां
दीर्घोऽसम्प्रसारण च इस वार्तिक से क्विप् प्रत्यय
वाच् - उसका सर्वापहारलोप तथा वकारोत्तर अकार को दी करने पर वाचू हुआ।
- क्विप् के कित्व के कारण वचिस्वपियजादोनों पति द्वारा सम्प्रसारण प्राप्त था उसकी भी
प्रकृत वार्तिक से निषेध
- कृतद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा
-  स्वीजमीट.................. से. सु आदि प्रत्यय
वाच्-सु - प्रथमा वि० एकवचन की विवक्षा में सु आया
वाच् +स्  - उपदेशेऽनुनासिकइत् से सु को की इत्संज्ञा
बाच् - हलङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्पपृक्तं हल में अपृक्त संकार का लोपा
वाक् - चोः कुः से कुत्व करके वाक् सिद्ध हुआ।

२०. स्मारं-स्मारं

स्मृ+णमुल् - स्मृ धातु से आभीक्ष्य प्रकट करने के लिए आभीक्ष्ण्ये णमुल् व सूत्र से धनुल प्रत्यय आया।
स्मृ+अम्
उच्चाशार्थक है।
कार की चुटू से इत्संज्ञा लंकार की हलन्यम से इत्संज्ञा तथा उ
स्मार्+अम् - अयोजिणति से त्र+ की वृद्धि आर जो रपर होकर प्रवृत्त होती है। स्मार- मोनुस्वारः सेो
कृतद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा
स्वोच स्मोट.... से सु आदि
सेस अत्य
स्मारं+ सु - प्रथमा विश्एक० को विवक्षा में सु आया।
स्मारं+स् - उपदेशऽत्रनुनासिका इतू से सु के उकार का लोप
सु.
स्मार- हड्यायो दोषात् सुतिस्पयुक्त हन् से अपृक्त संकार का लोग स्मारं स्मार, नित्यवीरस में नित्य अर्थ में दिल्व होकर
होकर स्मार स्मारं सिद्ध हुआ।
भिक्षा+चर् - 'भूवादयो धातवः' से 'घर' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'भिक्षा' सेनादायेषु च' से 'ट' प्रत्यय


२१. भिक्षाचर

भिक्षा चर्+ट - 'चुटू' से 'ट' के टकार की इत्संज्ञा एवं लोप
भिक्षाचर - यहाँ 'उपपदमति से मिला 'चर' शब्द के साथ उपपद समास हुआ है। अतः 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर ड्यापुप्रातिपदिकात् से अधिकार में 'स्वोज - स्मौट' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु (स) प्रत्ययः
भिक्षाचर+स् - ससजुषो रु' से सकार को रु (र
भिक्षाचर 'खांखासनोविसर्जनीय' से रेफ को विसर्व होकर
भिक्षाचर: - यह रूप सिद्ध हुआ

२२. स्वा

स्था+ णिनि - 'मन्दिग्रहिपचादिभ्वो ल्युणि न्वच 'सूत्र से 'स्था' धातु से 'मिनि' प्रत्यय आया।
- कर्तरि कृत 'सूत्र से 'जिनि' प्रत्यय कृत संज्ञक होने के कराण कर्ता अर्थ में हुआ।
स्था+इन 'ण' की 'चुटू' सूत्र से इत्संज्ञा 'इ' की उपदेशेऽजनुनासिक इत् सूत्र से इत्संज्ञा होकर 'तस्वलोपः' सूत्र से लोप!
स्था+युक्+इन् - आतो युक चिण्कृतो:' सूत्र से आकासन्त 'स्था' सूत्र से युक् का आगम हुआ।
स्था+य्+इन् - 'युक्' के 'क' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से 'उकार' की 'उपदेशऽजनुनासिक' इत् सूत्र से इत्संज्ञा होकर 'तस्यलोपः' सूत्र से लोप हुआ।
- कृन्तद्धितसमासाश्च सूत्र से स्थापिन् की प्रातिपदिक संज्ञा।
स्थायिन् + सु: - प्रथम एकवचन की विवक्षा में 'स्वौजसमौट०' इत्यादि सूत्र से प्रत्यय आया। स्थायीन् + सु - 'सौच्' सूत्र से इकार को दीर्घादेश |
स्थायीन् + स् - उपदेश अनुनासि इत् सूत्र से उकार' की इत्संज्ञा 'तस्यलोपः से लोप।
स्थायीन् - 'हलङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्' सूत्र से स् का लोप।
स्थायी - 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' सूत्र से 'न' का लोप होकर शब्द बना।

२३. यशस्करी

यशस् + कृ - 'भूवादयोधातवः' से 'कृ' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'कृञो' हेतुताच्छी ल्यानुलोम्येषु से 'ट' प्रत्यय
यशस् कृ+ट - 'चुटू' से 'ट' टकार की इत् संज्ञा एवं लोप
यशस् कृ+अ - 'सार्वधातुकर्धधातुकयोः' से त्र+कार के स्थान पर गुण् अर् होकर।
यशस्कर - यहाँ ' उपपदमतिड्' से 'यशस्' का 'कर' शब्द के साथ उपपद समास हुआ अतः 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'योप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'टिड्ढाणञ्वसज्दध्नमात्रच्०' से ङीप् (ई) प्रत्यय।
यशस्कर + ई - 'यचिभम' से भ संज्ञा होने के कारण 'यस्येति च' से रेफ के उत्तरवर्ती अकार का लोप होकर
यशस्करी - पुनः 'स्वोजस्मौट०, से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय। यशस्करी+स् - 'हल्ङ्माभ्यो दीर्घात्' से सकार का लोप होकर'
यशस्करी - यह रूप सिद्ध हुआ है।

२४. धनदः

धन+दा+कः - 'धन' कर्म के उपपद रहते आकारान्त 'दा' धातु से 'आतोऽनुपसर्गे कः सूत्र को 'क' प्रत्यय आया।
धन+दा+अ - 'क' के क् की 'लशक्क्तद्धिते से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप
'धन+द+म - 'आतो लोप इटि 'च' सूत्र से दा आकार का लोप
धन+डस्+द्+अ - 'कर्तृकर्मणोः कृत्ति': सूत्र से षष्ठी विभक्ति।
- 'उपपदमतिङ्' सूत्र से उपपद समास होकर।
धन+ट्+अ - सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' सूत्र से विभक्ति का लोप हुआ।
- कृत्तद्धित समासाश्च 'सूत्र से 'धनद' की प्रातिपदिक संज्ञा।
धनद+सु धनदः - प्रथम एकवचन की विवक्षा में 'स्वौस्मौट ०' इत्यादि सूत्र से प्रत्यय आया 'सु' को सत्व विसर्ग होकर शब्द बना।

२५. जनमेजयः

जन+एज् - 'भूवादयो धातवः' से 'एज्' की धातु संज्ञा होकर 'हेतु मिति च' से णिच् (इ) प्रत्यय,
जन+एजि - पुनः 'सनाद्यन्ता धातवः' से धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'एजे: खश्' से शस् प्रत्यय,
जन एजिं+खश् - 'ख‍' के अनुबन्धों को हटाने पर
जन + एजि+अ - 'तिशित्सार्वधातुकम्' से खश् (अ) की सार्वधातुक संज्ञा होने के कारण कर्तरि शप्' से शप् (अ) प्रत्यय
जन+एजिं+अ+अ - 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' से एजि के इकार को स्थान पर गुण- एकार होकर
जन एजे+अ+अ - 'एचोऽयवायाव: ' से एकार को 'अय्' होकर
जन एजय अ - ' अतोगुणे' से पररूप एकादेश, अकार होकर
जन एजय - 'अरुर्द्धिषदजन्तस्य मुम्' से मुम् (म्) आगम 'मिदचो ऽन्त्यात्परः' की सहायता से
'जन' के अन्त्य अच् अकार के बाद होकर।
जनमेजय - यहाँ 'उपपदमतिङ्' से उपपद समास हुआ है, 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'ड्यारप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौटस्मौट ०' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु (स) प्रत्यय।
जनमेजय स् - 'ससजुषो रु: से सकार को रु (र)
जनमेजयर् - 'खखसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
जनमेजयः - यह रूप सिद्ध हुआ।

२६. कार्यम्

कृ+ण्यत् - 'त्र+हलोर्त्यत् सूत्र से त्र+णवर्णान्त धातु से 'ण्यत्' प्रत्यय आया।
- तयोरेव कृत्यक्तखलर्थाः 'सूत्र से ण्यत्' प्रत्यय कृत्य संज्ञक होने से भाव और कर्म में होगा।
- चूँकि धातु सकर्मक है इसलिए यहाँ प्रत्यय कर्म में है।
कृ+य - 'ण्यत्' के त् की 'हलन्त्यम्' सूत्र से 'ण्' की 'चुटू' सूत्र से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः
सूत्र से लोप।
क्+आर्+य - ‘अचोञ्णिति' सूत्र से 'ण्यत्' प्रत्यय के 'णित्' होने से 'कृ' धातु के त्र+कार को वृद्धि 'आर' आदेश।
- 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से कार्य की प्रातिपदिक संज्ञा।
कार्य+सु - प्रथम एकवचन की विवक्षा में 'सवौज स्मौट ०' इत्यादि सूत्र से सु प्रत्यय आया है। कार्य+अम् - 'अतोऽम्' सूत्र से 'सु' को 'अम्' आदेश हुआ।
कार्यम् - 'अमिपूर्वः' सूत्र से पूर्वरूप आदेश होकर शब्द बना।

२७. वशंवदः

वश+वद् - 'भूवादयो धातवः' से वद् की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में प्रियवशं वदः खच्' से खच् प्रत्यय |
वश+वद्+खच् - 'खच्' के अनुबन्धों को हटाने पर
वशवद् +अ - 'अरुर्दिषयजन्दस्य मुम्' से वश को मुम् (म्) आगम यह आगम 'मिदचोऽन्त्यत्परः ' की सहायता से शकार के उत्तरवर्ती अकार को बाद हुआ।
वशम्वद - 'मोऽनुस्वारः' से मकार को अनुस्वार होकर
वशंवद - यहाँ ‘उपपदमतिङ्' से 'वशम्' का 'वद' शब्द के साथ उपपद समास हुआ है अतः 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'यारप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु 'स्' प्रत्यय
वशंवद स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
वशंवदर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
वशंवदः - यह रूप सिद्ध हुआ।

२८. पण्डितम्मन्यः

पण्डित+मन्+खश् - ‘आत्ममानं खश्च' सूत्र से 'पण्डित' सुबन्त के उपपद रहने 'मन्' धातु
से 'खश्' प्रत्यय आया।
पण्डित+मन्+अ - 'खश्' के 'श्' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से 'ख' की 'लशक्वतद्धिते' सूत्र से इत्संज्ञा होकर 'तस्यलोपः' सूत्र से लोप।
पण्डित + ङस् +मन+अ - 'कर्तृकर्मणेः कृति' सूत्र से षष्ठी विभक्ति आई।
- तिङ्शित सार्वधातुकम् ' सूत्र से प्रत्यय शित् होने से सार्वधातुक संज्ञा हुई।
- कर्तरिशप् सूत्र से ' शप्' आगम की प्राप्ति।
पण्डित+ङस्+मन्+श्यन्+अ - 'दिवादिभ्यः श्यन् ' सूत्र से ' शप्' को बाधित कर 'श्यन्' प्रत्यय आया
पण्डित+ङस् +मन्+य+अ-  'श्यन्' के श् की 'लशक्वद्धिते' सूत्र से 'न' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत्संज्ञा होकर 'तस्यलोपः' सूत्र से लोप हुआ।
पण्डित+ङस् +मन+य - अतोगुणे सूत्र से पररूप आदेश हुआ।
- 'उपपदमतिङ् सूत्र से उपपद समास हुआ।
पण्डित+मन्+य - सुपोधातुप्रातिपदिकयोः सूत्र से विभक्ति लोप हुआ।
पण्डित+मुम्+मम्+य - 'अरुर्द्विपदजन्तस्य मुम्' सूत्र से खिदन्त शब्द से पूर्व अजन्त 'पण्डित' को मुम का आगम हुआ।
- 'मिचो ऽन्त्यातपरः ' सूत्र से मित् (मुम्') आगम अन्तिम अच्' के बाद होता है। पण्डित+म्+मन्+य - ‘मुम्' के 'म्' की हलन्त्यम्' सूत्र से 'उकार' की उपदेशेउजनुनासिकात् सूत्र से इत्संज्ञा तस्यलोपः सूत्र से लोप हुआ।
- 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा हुई।
पाण्डितम्मन्य + सु - प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'स्वौजसमौट' इत्यादि सूत्र से 'सु' प्रत्यय आया।
पण्डितम्मन्यः - 'सु' को रुत्वं विसर्ग होकर शब्द बना।

२९. पण्डितमानी

पण्डित + मन - 'भूवादयो धातवः' से 'मन्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' में अधिकार में 'आत्मने खश्च' से खश् प्रत्यय
पण्डित + मन + खश् - 'ख‍' के अनुबन्धों को हटाने पर
पण्डित + मन् + अ- 'तिङ्गितसार्वधातुकम्' से सार्वधातुक संज्ञा, 'दिवादिभ्यः श्यन्' से श्यन् (य) प्रत्ययं
पण्डित + मन् य + अ - 'अतो गुणे से पररूप होकर'
पण्डितमन्य - यहाँ 'उपपदमतिङ्' से उपपद समास हुआ है अतः कृन्तद्वितसमासाश्च से प्रातिपदित संज्ञा होने पर 'ङ्याय्प्रातिपादिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'सु' (स्) प्रत्यय
पण्डितमन्य + स् - 'ससजुषो रुः से सकार को रु (र्)
पण्डितमन्यर् - खरवसानयोर्विसर्जनीयः से रेफ को विसर्ग होकर
पण्डितमन्यः - यह रूप सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार दूसरे पक्ष में पण्डित उपपद वाले 'मन्' धातु से णिनि प्रत्यय करने पर 'पण्डितमानी' रूप सिद्ध होता है।

३०. प्रातरित्वा

प्रातर् इण् - 'भूवादयो धातवः' से इण् की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते' से क्वनिप् प्रत्यय।
प्रातर् इण् + क्वनिप् - इण् तथा क्वनिप् के अनुबन्धों को हटाने पर
प्रातर् इ + वन् - 'ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्' से तुक् (त्) का आगम
प्रातरित्वन् - यहाँ 'उपपदमतिङ्' से 'प्रातर्' का 'इत्वन्' शब्द के साथ समास हुआ अतः 'कृत्तद्वितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'यारप्रातिपदिकात्' को अधिकार में 'स्वौजसमौट०', से प्रथम पुरुष एकवचन की विवक्षा से सु (स्) प्रत्यय।
प्रातरित्वन्+ स् - 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ से उपधा को दीर्घ आकार
प्रातरित्वान्+स् - 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् ०' से स् का लोप
प्रातरित्वान् - 'न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य' से पदान्त नकार का लोप
प्रातरित्वा - यह रूप सिद्ध हुआ।

३१. भिन्नः

भिद् - 'भूवादयो धातवः' से भिद् की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'निष्ठा' सूत्र से कर्म में क्त प्रत्यय
भिद्+क्त - क्त के अनुबन्ध हटाने पर
भिद्+त - 'रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः' सूत्र से दकार से परे तकार को नकार तथा पूर्व दकार के भी नकार आदेश
भिन्न - 'कृत्तद्धित समासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्यारप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट.....०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
भिन्न+स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
भिन्नर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
भिन्नः - यह रूप सिद्ध हुआ।

३२. विज्ञान्

विद्+लट् - कर्ता अर्थ की विवक्षा में 'विद्' धातु से वर्तमान काल में 'वर्तमाने लट्' सूत्र से 'लट्' लकार हुआ।
विद्+शतृ - 'लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे' सूत्र से लट्लकार को शतृ, आदेश हुआ।
विद्+वसु - 'विदे: शतुर्वसु सूत्र से विद् धातु के परे विकल्प से 'शत्रु' को वसु आदेश।
विद्+वस् - 'वसु' के उकार की 'उपदेशेननुनासिकइत्' सूत्र से इत्संज्ञा 'तस्यलोपः' से लोप
- 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से 'विद्वाम्' की प्रातिपदिक संज्ञा होकर
विवस्+सु - प्रथम एकवचन की विवक्षा में 'स्वौजसमौट.....०' इत्यादि सूत्र से 'सु' प्रत्यय आया।
विद्वान्+स् - 'सु' के 'उकार' की 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्' सूत्र से इत्संज्ञा 'तस्यलोपः' से लोप
विद्व नुम्+स्+स् - 'उदिगचां सर्वनामस्थाने धातो:' सूत्र से 'नुम्' का आगम।
- मिचो ऽन्त्यापरः' सूत्र से मित् आगम अन्तिम अच् के बाद हुआ।
विव न् + स् + स् - 'नुम्' के 'म्' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इतसंज्ञा तस्यलोपः से लोप।
विद्वा न् + स् + स् - 'सान्तमहतः संयोगस्य' सूत्र से न की उपधा को दीर्घादेश |
- हलोऽन्तरः संयोगः, सूत्र से 'न्' और 'स' की संयोग संज्ञा होकर
विद्वान् + स् - 'संयोगान्तस्य लोपः' सूत्र से संयोग संज्ञक स् का लोप हुआ।
विद्वान - 'हलङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्पपृक्तं हल' सूत्र से स् का लोप होकर रूप सिद्ध हुआ।

३३. विजाया

वि+जन् - 'भूवादयो धातवः' से 'जन्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'अन्ये म्योऽपि दृश्यन्ते' से वनिय् प्रत्यय।
वि+जन्+ वनिप् - वनिप् के अनुबन्धों को हटाने पर
विज़न्+वन्- 'विड्वनोरनुनासिकस्याऽऽतू' से अनुनासिक (न्) को आ आदेश।
विज+आ+वन् - 'अकः सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ आकार होकर।
विजाबन् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङयाप्प्राति दिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा से एकवचन की विवक्षा मे सु (स्) प्रत्यय
विजावन्+स् - 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' से उपधा को दीर्घ होकर
बिजावन्+ स् - 'हल्ड्माभ्यो दीर्थात् ०' से अपृक्त सकार का लोप
विजाबान् - न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य' से नकार का लोप
विजावा - यह रूप सिद्ध हुआ।

३४.अपामार्ग

अप+मृज्+ञ् - 'अप' उपसर्गपूर्वक 'मृज' धातु से 'हलश्च' सूत्र से करम अर्थ में 'घम्' प्रत्यय हुआ।
अपू+मृज्+अ - 'घञ्' के 'ञ्' की 'हलन्तयम्' सूत्र से इत्संज्ञा 'घ' की 'लशुक्वतद्धिते सूत्र से इत्संज्ञा होकर 'तस्यलोपः' से लोप।
अप+मोज+3 अय - 'ज+' को 'मृजेवृद्धि' सूत्र से वृद्धि और- मार्ग+अ
अपा+मार्ग + अ - 'बजोः कुः विण्ण्यतो' सूत्र से 'जू' को 'गू आदेश |
अपा+मार्ग + अ - 'घञ् प्रत्यय परे होने पर उपसर्ग 'अप' के 'अ' को उपसर्गस्य घुञ्यमनुष्ये बहलम्' से दीर्घ (आ)
- कृतद्धित समासाश्व' सूत्र से 'अपामार्ग' की प्रातिपदिक संज्ञा
अपामार्ग+सु - प्रथमा एकवचन की विवक्षा में स्वीजरलोट................ इत्यादि सूत्र से 'सु' प्रत्यय आया।
अपामार्ग: - सु' को 'रुत्वविसर्ग' होकर शब्द बना।

३४.

उरवा+सं
'भूवादयो धातव:
'क्विप् न' से विवर प्रत्यय।
'भूवादयो धातव' से 'संस्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:
उरवा+संस्+क्विप् - विक्य के अनुबन्धों को हटाने पर।
उरवा+संस्+व 'वेरपृक्तस्य' से अपृक्त वकार का लोप
उरवा+स्वस
अधिकार से
'अनिदिता हल उपधायाः क्ङिति' से उपधा के नकार का लोप होगा।
उरवाखम् यहाँ 'उपपदमति' से उपपद समास होने के कारण 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर स्वीटस्मीट में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
उरवालस+स 'हल्ङ्याब्भ्यो दीघति' से सकार को लोप
उरवास्त्रस्
'वसुस्रंसुध्वांचनदुहांदः' से अन्त्य सकार के स्थान पर दकार
उरवाखद्- 'वाऽसाने' से प्रकार को विकल्प से लकार होकर
उरवाखत्- यह रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार पर्ण उपपद रहते 'ध्वंस्' धातु से कर्ता अर्थ में
क्विप् प्रत्यय आदि कार्य होकर 'पर्णध्वत्' रूप सिद्ध हुआ।

३६. उष्णभोजी

उष्ण+भुजू - 'भूवादयो धातव:" से भुज् की धातु संज्ञा होकर 'धातो: के अधिकार में सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये' से णिनि प्रत्यय
उष्ण+भुज+णिनि - णिनि के अनुबन्धों को हटाने पर
उष्ण+ भुज्+इन् - 'युगन्त लघूपधस्य च' से भुज् धातु के उकार को गुण ओकार
उष्णभोजिन - यहाँ उपपदमति से उष्ण का 'भोजिन' के साथ उपपद समास हुआ है अतः 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर ङ्यारप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट - ० 'से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
उष्णभोजिन् + स् - 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' से उपधा इकार को दीर्घ ईकार होकर। उष्णभोजीन्+स् - ‘हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् ०' से अपृक्त सकार का लोप
उष्णभोजीन् - न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य' से नकार लोप होकर
उष्णभोजी - यह रूप सिद्ध हुआ।

३७. चेयम्

चिञ् - चिञ् चयने से चिञ् धातु अर्थ में सक्रर्मक धातु है।
चि - चिञ् से ञ् की हलन्त्यम् से इत् संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप
- चिञ् से ञ् की हलन्त्यम् से इत् संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप.
- चिञ् धातु सकर्मक है अतः तयोख कृत्यक्तरवलर्थाः से कर्म अर्थ में होगा।
चि+ यत् - अचो यत् से अजन्त धातु से परे यत् प्रत्यय
चि+य - यत् के त् की हलन्त्यम् से इत् संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप
- आर्धधातुकं शेष से आर्धधातुक संज्ञा
चे+य - सार्वधातुकार्थधातुकयोः से इकार के स्थान पर एकार आदेश,
- कर्तरि कृत से यत् प्रत्यय कर्त्ता अर्थ से होना चाहिए लेकिन कृत्याः से कृत्यसंज्ञक है।
- चिञ् धातु सकर्मक है लेकिन यह नपुंसक में बनेगा
- कृत्तद्धित समासाश्च से चेय की प्रातिपदिक संज्ञा होगी
चेप+सु - नपुसंकलिंग प्रथमा वि० एक० की विवक्षा में सु आया
चेय+अम् - नपुसंकलिंग में प्रयुक्त होने के कारण से सु को अम् आदेश
चेयम् - 'अमिपूर्वः' से पूर्वरूप आदेश होकर चेयम् सिद्ध हुआ।

३८. सोमयाजी

सोम+यज् - 'भूवादयो धातवः' से यज् की धातु संज्ञा करके 'धातो:' से अधिकार में 'करणे यज:' से 'णिनि' प्रत्यय
सोम + यज् + णिनि - 'णिनि' के अनुबन्धों को हटाने पर।
सोम+यज्+इन - 'अत उपधामा' से उपपद समास हुआ। अतः कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा को एकवचन की विवक्षा में सुं (स्) प्रत्यय।
सोमयाजिन्+स् - 'हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् ०' से अपृक्त सकार का लोप।
सोमयाजिन्-  'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' से उपधा इकार को दीर्घ ईकार होकर सोमयाजीन् - न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य से नकार का लोप होकर
सोमयाजी - यह रूप सिद्ध हुआ।

३९. सरसिजम् (सरो जम्)

सरसि+जन् - भूवादयो धातवः' से जन की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' को अधिकार में 'सप्तम्यां जनेंड से 'ड' प्रत्यय।
सरसि+जन्+ड - 'ड' के अनुबन्ध को हटाने पर
सरसि+जन् + अ - प्रत्यय के डित् होने से 'टे:' सूत्र से 'जन्' के टि भाग - अन् का लोप होकर
सरसि+ज्+अ - यहाँ ‘उपपदमतिङ्’ से उपपद समास हुआ है अतः 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से
प्रातिपदिक संज्ञा होने पर ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वीटस्मौट ०' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय
सरासिज+सु - ‘अतोऽम्' से अत्यन्त नपुंसकलिंग में सु को अय् होकर .
सरसिजम् - यह रूप सिद्ध हुआ। पक्ष में 'तत्पुरुषे कृति बहुलम्' सूत्र से सप्तमी विभक्ति (ङि) का लोप होकर तथा 'सत्स्' के सकार को रेफ एवं 'हशि च' से रेफ को उकार होकर 'सर उ+ज्+अ' बना। तदनन्दर 'आदगुणः' से गुणादेश ओकार होकर 'सरोजम्' यह रूप सिद्ध होता है।

४०. शीर्णः

शृ - 'भूवादयो धातवः' से 'श्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में भूतकाल अर्थ में निष्ठा से क्त प्रत्यय
शृ+क्त - क्त के अनुबन्ध को हटाने पर
शृ+त - 'त्र + त इद् धातो:' तथा 'उरण रपरः' से त्र+ को रेफ सहित इकार होकर
शिर्+त - 'हलिच' से उपधा इकार को दीर्घ ईकार।
शीर+त - 'रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः' से निष्ण के तकार को नकार
शीर्+न - " रषाभ्यां नो णः समानपदे' से नकार को णकार आदेश
शीर्ण - ' कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'याप्प्रातिपदिकात् के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
शीर्ण+स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
शीर्णर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
शीर्णः - यह रूप सिद्ध हुआ।

४१: द्राणः

द्रा - 'भूवादयो धातवः' से 'द्रा' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'निष्ठा' सूत्र भूतकाल के अर्थ में क्त प्रत्यय।
द्रा+क्त - क्त के अनुबन्ध को हटाने पर
द्राा+ त - 'संयोगादेरातो धातोर्यण्वतः' से निष्ठा के तकार को नकार आदेश
द्रा+त - 'अटकुरवाड्नुम्व्यवायेऽपि से नकार को णकार होकर
द्राण -  'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजस्मौट---------०', से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
द्राण+स् - 'ससजुषो रु' से सकार के रु (र)
द्राण + र् - 'खरवसानयविसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
द्राणः -  यह रूप सिद्ध हुआ।

४२. लून:

लूञ् (लू)  - ‘भूवादयो धातवः' से लू की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' 'के अधिकार में 'निष्ठा'
सूत्र से भूतकाल के अर्थ में क्त प्रत्यय हुआ।
लू+क्त - क्त के अनुबन्ध को हटाने पर
लू+त - 'ल्वादिभ्यः' से निष्ठा के लकार को नकार आदेश
लून - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिकं संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
लून्+ प् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
लूनर् - 'खरवसानयोर्वनिसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
लून: - यह रूप सिद्ध हुआ।

४३. जीन:

ज्या - 'भूवादयो धातवः' से ज्या की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'निष्ठा' सूत्र से भूतकाले के अर्थ में क्त प्रत्यव
ज्या+क्त - क्त के अनुबन्ध को हटाने पर
ज्या+त - ग्रहिज्यावयिव्याधिवष्टिविचति०' से कित परे होने के कारण पकार को इकार सम्प्रसारण हुआ।
ज् इ आ + त - 'सम्प्रसारणाच्च' से इकार और आकार को पूर्वरूप इकार एकादेश
जि+त - हल: सूत्र से उपधा के इकार को दीर्घ इकार होकर।
जीत - 'त्वदिष्यः' से निष्ठा में तकार को नकार आदेश,
जीन - 'कृतद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपदिकात् के अधिकार में 'स्वौजसमौट्" से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यया
जीन+स् - 'ससजुवा रु' से सकार का रु (र्)
जीनर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विस होकर
जीन: -  यह रूप सिद्ध हुआ।

44.प्रियवद

प्रिय वद् - प्रिय वर्ष के उपपद रहते वद व्यक्तायां वाधि से वद् धातु बोलने के अर्थ में कर्ता में विद्यमान है।
प्रिय वदखद्- प्रियवंशे बदः खचे से प्रिय कर्म के उपपद रहते वद् धातु से खच् प्रत्यय आया।
प्रिय वद- अ = छन् के चकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा खकार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप
प्रिय ङस् वेद्+अ-र्तकर्मणो कृति से कर्म में षष्ठी विभक्ति का इस आया।
प्रिय+वद - उपपद्यतिर के उपपद समास तथा सुपे का लोपा
प्रियवद - वदन्त उत्तरपद के परे रहते अरुदन्त उत्तरपद के परे रहते अरुद्भिजन्तस्वर से सुन का आगम, प्रिय+म्+वद - मुम से मकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा उकार उच्चारणार्थक है तथा मुम् के मित होने से यह आगम् मिदचो ऽन्त्यात्परः सूत्र से अन्त अच् से परे उसको होगा।
प्रियंवद - मोऽनुस्वारः सूत्र से हल् परे होने पर मकारान्त पद के स्थान पर अनुस्वार आदेश। यह आदेश अलोऽन्त्यस्य परिभाषा में अन्त्य को होगा।
कृत्तद्धितसमासाश्य से प्रातिपदिक संज्ञा।
प्रियंवंद+सु प्रथमा विभक्ति एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय आचा प्रियंवदः - सु का रुत्व विसर्ग होकर प्रियंवदः सिद्ध हुआ।

४५.उच्छून:

उत् शिव (दुओश्वि) - 'भूवादयो धातवः' से शिव की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'निष्ठा' 'सूत्र से भूतकाल के अर्थ में 'क्त' प्रत्यय।
उत् श्वि+क्त - क्त के अनुबन्ध को हटाने पर
उत् श्वि+त - 'आदितश्च' से निष्ठा के तकार को नकार |
उत् श्वि + न - 'वचिस्वपियजादीनां किति' से वकार के स्थान पर सम्प्रसारण - उकार होकर
उत् श् उ इ न - 'सम्प्रसारणाच्च' से 'उ' और 'इ' के स्थान पर पूर्वरूप उकार एकादेश होकर
उत्+शुन - 'हल' सूत्र से उकार की दीर्घ उकार
उत्+शून - 'शश्छो टि' से शकार को छकार।
उत्+छून - 'स्तो: श्चुना श्चुः' से तकार को चकार होकर
उच्छून - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा को एकवचन की विवक्षा में सु (स) प्रत्यय
उच्छून + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
उच्छूनर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः से रेफ को विसर्ग होकर
उच्छून: - यह रूप सिद्ध हुआ।

४६. शुष्कः

शुष् - 'शूवादयो धातवः' से शुष्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'निष्ठा' सूत्र से भूतकाल के अर्थ में 'क्त' प्रत्यय
शुष्+क्त - क्त के अनुबन्धों को हटाने पर
शुष्+त - 'शुषः कः' से निष्ठा तकार के स्थान पर ककार आदेश
शुष्क - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'क्याप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्पौजसमौट्०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
शुष्क+स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
शुष्कर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
शुष्कः - यह रूप सिद्ध हुआ।

४७. क्षामः

क्षै - 'भूवादयो धातवः' से क्षै' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'निष्ठा' सूत्र से भूतकाल के अर्थ में 'क्त' प्रत्यय
क्षै+क्त - क्त के अनुबन्धों को हटाने पर
क्षै+त - 'आदेच उपदेशेऽशिति' से ऐकार को आकार आदेश
क्षा+त - 'क्षायो यः' से निष्ठा तकार के स्थान पर मकार आदेश
क्षाम - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याध्यातिपदिकात्' के अधिकार
में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
क्षाम+य् - ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
क्षामर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकार
क्षामः - यह रूप सिद्ध हुआ।

४८. भावितः

भू - 'भूवादयो धातवः' से भू की धातु संज्ञा होकर 'हेतुमति च' से णिच् प्रत्यय
भू+णिच् - 'णिच्' के अनुबन्धों को हटाने पर
भू+इ - 'अचोञ्णिति' से भू से ऊकार को वृद्धि ओंकार
भौ+इ - 'एचोऽयवायाव:' से औकार को 'आव्' आदेश
भक्ति - पुनः 'सनाद्यन्ता धातवः' से धातु संज्ञा करने पर 'निष्ठा' सूत्र से भूतकाल के अर्थमें क्त प्रत्यय
भावि+क्त - क्त के अनुबन्धों को हटाने पर
भावि+त - 'आर्धधातुकस्पेड वलदिः' से इट् (इ) का आगम
भावि+इ+त - 'निष्ठायां सेटिं' से वकार उत्तरवर्ती इकार का लोप होकर।
भावित - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्यात्प्रातिपदिकात्' के अधिकार
में 'स्पौज स्मौट्०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
भावित + स् ससजुषो रु: सेरु (र)
भावितर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
भावितः - यह रूप सिद्ध हुआ।

४९. हितम्

धा - 'भूवादयो धातवः' से धा की धातु संज्ञा होकर ' धातो:' को अधिकार में 'निष्ठा' सूत्र भूतकाल के अर्थ में 'क्त' प्रत्यय
धा+क्त - क्त के अनुबन्धों को हटाने पर
धा+त - 'दधातेर्हिः' से धा के स्थान पर हि आदेश
हित - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ऽयाप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौज समौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सुरस्। प्रत्यय
हित+सु - 'अतोऽम्" से नपुंसकलिंग में सु के स्थान पर अम् आदेश
हित + अम् - 'अमि पूर्व:' से पूर्वरूप एकादेश होकर
हितम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

५०. दत्तः

दा - 'भूवादयो धातवः' से दा की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'निष्ठा' सूत्र से
भूतकाल के अर्थ में 'क्त प्रत्यय'।
दा+क्त - क्त के अनुबन्धों को हटाने पर
दा+त - ''दो दद् घो:' से दा को दद् आदेश
दद्+त - 'खरि च' से दद् के अन्त्य दकार को तकार होकर
दत्त -'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में
'स्वौजसमौट ०' से प्रथमा को एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
दत्त + स् - ' ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
दत्तर् - खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
दत्तः - ' यह रूप सिद्ध हुआ।

५१. चक्राणः

कृ - 'भूवादयो धातवः' से 'कृ' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'छन्दसि लिट' से भूतकाल के अर्थ में 'क्त' प्रत्यय
कृ+लिट् - 'लिटः कान्जवा से लिट प्रत्यय
कृ+कानच् कानच् के अनुबंधों को हटाने पर
कृ+आनच् - लिटि धातोप्नाभ्यासस्य' से कृ को द्वित्व
कृ कृ + आन - पूर्वोऽभ्यासः से प्रथम कृ की अभ्यास संज्ञा एवं उरत् से त्र+कार को अर होकर
कर् क् + आन - 'हलादि शेष:' से रेफ का लोप
क कृ आन - 'कुद्दोश्चुः' से अभ्यास के ककार के स्थान पर चकार
चकृ+आन - 'इको यणचि' से त्र+कार को रेफ होकर
चक्रान - 'अटकुप्वाङ्नुमव्यवायेऽपि' से नकार के स्थान पर णकार।
चक्राण - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रतिपदिक संज्ञा होने पर 'झ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार
में स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
चक्राण + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
चक्राणर् - 'खरवसानर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
चक्राण: - यह रूप सिद्ध हुआ।

५२. विद्वान्

विद् - 'भूवादयो धातवः' से विद् की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'वर्तमाने लट्' से लट् प्रत्यय
विद्+लट् - 'लटः शतृशानचौ' से लट् के स्थान पर शतृ आदेश
विद्+शत् - 'विदेः शतुर्वसुः' से शतृ को विकल्प से वसु (वस्) होकर
विद्+वस् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्यात्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय
विद्वस्+सु - 'उगिदचां सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' से नुम् सा का आगम, यह आगम
'मिदचोऽन्त्यासर' से वकार उत्तरवर्ती के बाद हुआ।
'विद्वन् स् + सु - 'सान्तमहत: ' से उपधा अकार के स्थान पर दीर्घ - आकार होकर
विद्वान् स्+सु - 'हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात०' से षु का लोप
विद्वान् स् - संयोगान्तस्य लोपः से अन्त्य सकार का लोप होकर
विद्वान् - यह रूप सिद्ध हुआ।

५३. जलपाकः

जल्प् - भूवादयो धातवः से 'जल्प' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'जल्पभिक्षकुट्टलुण्टवृड: ' षाकन्' से 'तत् शील' अर्थ में षाकन् प्रत्यय
जल्प्+षाकन् - 'षाकन्' के षकार की 'षः प्रत्ययस्य' से तथा नकार की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर 'तस्यलोपः' से उनका लोप
जल्प् + आकृ - जल्पाक 'कृतद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्यात्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
जल्पाक + स् - 'ससजुषो रु' से सकार के स्थान पर रु (र)
जल्पाक र् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
जल्पाक: - यह रूप सिद्ध हुआ।

५४. चिकीर्षुः

कृ - भूवादयो धातवः से 'कृ' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'धातोः कर्मण: ' से इच्छा के अर्थ में 'सन्' प्रत्यय
कृ + सन् - सन् के अनुबन्धों को हटाने पर
कृ+स - 'अज्झनगमां सनि' से कृ के त्र+कार की दीर्घ त्र+कार
कृ + स - ' त्र+त इद् धातो:' से त्र+कार के स्थान इ आदेश
किर्+स - 'सन्यङो' से किर् को द्वित्व
किर्+ किर्+स - 'पूर्वोऽभ्यासः' से पूर्व किर् की अभ्यास संज्ञा होकर ' हलादि शेष:' से आदि हल् किं शेष।
कि किर्+स - 'कुहोश्चुः' से अभ्यास के ककार को चकार
चिकिर्+स - 'हलि च' से ककार उत्तरवर्ती इकार को दीर्घ-ईकार
चिकीर्+ स - ' आदेश प्रत्ययो:' से सकार को षकार
चिकीर्ष - पुनः 'सनाद्यन्ता धातवः' से धातु संज्ञा होकर 'सनाशंसभिक्ष उ: के उ प्रत्यय चिकीर्ष+उ - 'अतो लोपः' से अकार का लोप
चिकीर्षु - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्राप्तिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
चिकीर्षु + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
चिकीर्षुर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः से रेफ को विसर्ग होकर
चिकीर्षुः - यह रूप सिद्ध हुआ।

५५. धूः

धुर्व - 'भूवादयो धातवः' से 'धुर्व' की धातु संज्ञा होकर 'धातो' के अधिकार मे 'भ्राजभासधुर्विद्युतोर्जिपृजुग्रावस्तुवः क्विप्' से क्विप् (व्) प्रत्यय
धुर्व + व् - 'वेरपृक्तस्य' से अपृक्त वकार का लोप
धुर्व - 'राल्लोप:' से वकार का लोप होकर
धुर् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात् के अधिकरण' 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स) प्रत्यय
धुर्+ स् - 'वोरुपधाया दीर्घ इकः' से उपधा के उकार को दीर्घ करने पर
धूर्+स् - 'हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् ० से सकार का लोप
धूर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
धूः - यह रूप सिद्ध हुआ।

५६. प्राट

प्रच्छ् - 'भूवादयो धातवः' से 'प्रच्छ' की धातु संज्ञा होकर 'क्विप् वचि प्रच्छ्यापतस्तु कटप्रजुग्रीणां 'दीर्घोऽसम्प्रसारणं च वार्तिक से क्विप् प्रत्यय तथा दीर्घ आदेश
प्राच्छ्+क्विप् - क्विप् का सर्वपाहारी लोप होकर
प्राच्छ् - 'च्छ्वोः शूऽनुनासिके च' से 'च्छ्' को 'श' आदेश
प्राश् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ऽयाप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
प्रत्श्+स - 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् ० से सकार का लोप होकर
प्राश् - 'व्रश्चत्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां' से शकार को षकार
प्राष् - 'अलां जशोऽन्ते' से षकार को स्थान पर डकार तथा 'वाडवसाने' से विकल्प से टकार
प्राट् यह रूप सिद्ध हुआ।

५७. श्री.

श्रि - 'भूवादयो धातवः' से 'श्रि' की धातु संज्ञा होकर क्विप् वैचि प्रच्छ्यायतस्तुकटप्रजश्रीणां दीर्घोऽसम्प्रसारणं च' से क्विप् प्रत्यय तथा दीर्घ आदेश।
श्री+क्विप् - क्विप् का सर्वपाहारी लोप होकर
श्री - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्राप्तिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
श्री+स - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
श्रीर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः से टेक को विसर्ग होकर।
श्री -  यह रूप सिद्ध हुआ।

५८. लवित्रम् -

लूञ (लू) - 'भूवादयो धातवः' से 'लू' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में 'अर्तिलूधूसूखनरुहचर इत्रः से इत्र प्रत्यय
लू+इत्र - सार्वधातुकार्धधातुकयोः' से 'लू' के उकार के स्थान पर गुण-ओकार
लो + इत्र - 'एचोऽपवायावः' से 'ओ' को अव् आदेश
लवित्र - 'कृत्तद्धितसमासाश्व' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के
एकवचन की विवक्षा में सुं प्रत्वय
लवित्र+सु - 'अतोऽम्' से नपुंसकलिंग में सु को अम् आदेश
लवित्र+अम् - अभिपूर्वः से पूर्व रूप एकादेश होकर
लवित्रम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

५९. प

पू.- 'भूवादयोधातव:' से 'पू' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' के अधिकार में पुवः के संज्ञायाक्
से संज्ञा के अर्थ में इत्र प्रत्यय
पू+इत्र - 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' से 'पू' के उकार के स्थान पर गुण-ओकार
पो+इत्र - 'एचोऽपवायावः' से ओ कार को अबू आदेश
पवित्र - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार
में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स) प्रत्यय
पवित्र+सु - 'अतोऽम्'' से नपुंसकलिंग में सु को अम् आदेश
पवित्र+अम् - "अभिपूर्वः से पूर्व रूप एकादेश होकर
पवित्रम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

60. द्रष्टुम्

दृश् - 'भूवादयो धातवः' से दृशः की धातुसंज्ञा होकर 'घातो सूत्र से अधिकार में 'तुमुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् से तुमुन् (तुम) प्रत्यया
दृश्+तुम् - 'सृजिदृशोर्झलि से अम् (अ) का आगम, वह आगम 'मिदचोडस्यात्पर: 'इय परिभाषा सूत्र से दृश' के त्रकार के बाद हुआ
दृ अश् तुम् - 'इकोयणचि से प्रकार के स्थान पर रकास
द्र श् तुम् - 'वश्चभ्रस्जसृज' से शकार को षकारा
द्रष्तुम् - टुना टुः से कार को टकार होकर।
द्रष्टुम् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्नातिपदिकात् के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय।
द्रष्टुम्+सु '- कृन्मेजन्तः' से द्रष्टुम् की अत्यप संज्ञा करने पर 'अव्ययादाप्सुपः' से सु का लोष करके।
द्रम् - यह रूप सिद्ध हुआ है।

६१. दर्शक

दृश् - 'भूवादयो धातवः' से 'दृश' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् से ण्वुल् (तु) प्रत्यय।
दृश् वु - 'युवोरनाक' से वु के स्थान पर अंक आदेशा
दृश् अक् - 'युगन्तं लघु पद्यस्य च से दृश् की उपधा त्र+कार को गुण- अर् होकर।
दर्शक - 'कृतद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्रातिपदिकात् के अधिकार
में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स) प्रत्यय !
दर्शक+स् - 'ससजुषो रु' से सकार का रु (र)
दर्शकर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
दर्शक: - यह रूप सिद्ध हुआ।

६२. भोक्तुम्

भुज् - 'भूवादयोधातवः' से 'भुज्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में
'कालसमयवेलासुतुमुन्' से तुमुन् (तुम्) प्रत्यय।
भुज् + तुम् - 'युगन्तलघुपद्यस्य च' से गुण करके
भुज् + तुम् - 'चोः कुः से जकार को गकार।
भोग्+तुम् - 'वाऽवसाने' से गकार को ककार आदेश होकर।
भोक्तुम् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में से प्रत्यय।
भोक्तुम्+ सु - “कृन्मेजन्तः' से 'भोक्तुम्' की अत्यय संज्ञा करने पर 'अव्ययादारसुपः' से सु का लोप करके।
भोक्तुम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

६३. पाकः -

पच् - 'भूवादयोधातवः' से 'पच्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'भावे' सूत्र से भाव अर्थ में घञ् प्रत्यय।
पच्+घञ् - घञ् का अनुबन्ध लोप करने पर।
पच्+अ - 'अत उपधायाः' से पच् की उपधा - अकार को वृद्धि आकार होकर।
पाच्+अ - 'पंजोः कुः घिण्यातो:' से चकार को ककार करने पर।
पाक - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजस्मौट ०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स) प्रत्यय।
पाक स् - 'ससजुषो रु' से सकार का रु (रं)
पाकर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
पाक: - यह रूप सिद्ध हुआ।

६४. रागः

रज् - 'भूवादयोधातवः' से 'रज्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'अकर्तरिच कारके संज्ञायाम् से घञ् प्रत्यय।
रञ्ज्+घञ् - घञ् का अनुबन्ध लोप करने पर।
रज् + अ - 'घञि च भावकरणयोः' से अकार का लोप करके।
रज्+अ - 'अत उपधामा:' से रज् की उपधा आकार को वृद्धि - अकार होकर।
राज्+अ - 'चजोः कुः घिण्ण्यतो' से जकार को गकार करने पर।
राग - ' कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपादिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
राग + स्- 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)।
रागर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
रागः - यह रूप सिद्ध हुआ।

६५. निकाय:

नि+चि - 'भूवादयो धातवः' से निपूर्वक 'चि' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में निवास - चित्ति - शरीरोपसमाधानेश्च कः' सूत्र से घञ् प्रत्यय तथा धातु के चकार के स्थान पर
गकार।
नि+कि+घञ् - घञ् का अनुबन्ध लोप करने पर।
नि+कि+अ - 'सार्वधातुकार्थधातुकयोः' से 'कि' के इकार को गुण- एकार होकर |
नि+के+अ 'अत उपधामा:' से रज् की उपधा आकार को वृद्धि - अकार होकर।'एचोऽयवायावः' के एकार के स्थान पर अम् करने पर।
निकय - 'अत उपधायाः' से उपधा के अकार को वृद्धि आकार होकर।
निकाय - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार
में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
निकाय+स् - 'ससजुषो रु' से सकार का रु (र्)
निकापर् - ‘खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
निकाय: -  यह रूप सिद्ध हुआ।

६६. चय:

चि - 'भूवादयोधातवः' से 'चि' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'एरच्' से अच् (अ) प्रत्यय।
चि+अ - 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' से 'चि' के इकार को गुण- एकार होकर।
चे+अ - 'एचोऽयावायावः' से एकार के स्थान पर अय् करने पर।
चय - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में
'स्वौजसमौट०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
चय+स् - 'ससजुषो रु' से सकार का रु (र्)
चयर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
चयः - यह रूप सिद्ध हुआ है।

६७. जयः।

जि - 'भूवादयोधातवः' से 'जि' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'एरच्' से अच् (अ) प्रत्यय।
जि+अ - ' सार्वधातुकार्धधातुकयोः' से 'जि' के इकार को गुण- एकार होकर।
जे+अ - 'एचोऽयवायाव:' से एंकार के स्थान पर अम् करने पर।
जय - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में
'स्वौजसमौट०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
जय+स् - ' ससजुषो रु' से सकार का रु (र्)
जयर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
जय: - यह रूप सिद्ध हुआ।

६८. प्रस्थः

प्र+स्था - 'भूवादयो धातवः' से प्र-पूर्वक 'स्था' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'घञर्थे कविधानम्' वार्तिक से क (अ) प्रत्यय
प्रस्था+अ - 'आतो लोप इति च' से स्थान के आकार का लोप करने पर।
प्रस्थ - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
प्रस्थ+स् - 'ससजुषो रु' से सकार का रु (र्)
प्रस्थर - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
प्रस्थ: - यह रूप सिद्ध हुआ।

६९. पक्त्रिमम् -

पच् (डुपचष्) - 'भूवादयोधातवः' से 'पच्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'डिवतः क्त्रि:' से क्त्रि (त्रि) प्रत्यय।
पच्+त्रि - 'कत्रेर्मम् नित्यम्' से मप् (म) का आगम।
पच्+ त्रि+म - 'चोः कुः' से चकार को ककार।
पवित्रम् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सुप्रत्यय।
पक्त्रिम + सु - 'अतोऽम्' से सु को अम् करने पर।
पक्त्रिम्+अम् - 'अमिपूर्वः' से अ को पूर्वरूप करके। पक्त्रिम् यह रूप सिद्ध हुआ।

७०. उप्त्रिमम् -

वप् (डुवप्) - 'भूवादयोधातवः' से 'वप्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'डिवत: क्त्रिः' से क्त्रि (त्रि) प्रत्यय।
'वप्+त्रि - 'कोर्मम् नित्यम्' से मप् (म) का आगम।
वप् + त्रि+म - 'वचिस्वपियजादीनां किति' से वप् के वकार को संप्रसारण- उकार होकर।
उ अप् त्रिम - सम्प्रसारणाच्च' से अकार को पूर्वरूप उकार होकर।
उप्त्रिम - ' कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय |
उप्त्रिम+सु - 'अतोऽम्' से सु को अम् करने पर।
उप्त्रिम+ अम् - 'अमिपूर्वः' से अ को पूर्वरूप करके।
उप्त्रिमम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

७१. यज्ञः

यज् - 'भूवादयोधातवः' से 'यज्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'यज्- याच-यत्-विच्छ-प्रच्छ-रक्षो - नङ् 'से नङ्' (न) प्रत्यय |
यज्+न - 'स्तो श्चुना श्चुः' से नकार को अकार !
यज्+ञ्+यज्ञ - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'झ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
यज्ञ + स् - 'ससजुषो रु' से संकार को रु (र्)।
यज्ञर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
यज्ञः - यह रूप सिद्ध हुआ।

७२: याच्या।

याच् - 'भूवादयोधातवः' से 'याच्' की धातु संज्ञा होकर धातोः सूत्र के अधिकार 'यजयाच- यत- विच्छ-प्रच्छ-रक्षो नङ्' से नङ् (न) प्रत्यय।
याच् +न - 'स्तो श्चुना श्चुः' से नकार को अकार।
याच्+ञा - 'अजाद्यतष्टाप्' से स्त्रीलिंग की विवक्षा में टाप् (आ) प्रत्यय
याच्य+आ - 'अकः सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ करने पर
याच्ञा - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्रातिपदिकात् के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय।
याच्ञा+सु - 'कृन्मेजन्तः' से अत्यप संज्ञा करने 'अव्ययादाप्सुपः' से सु का लोप होकर। याञ्चा यह रूप सिद्ध हुआ।

७३. प्रश्न:

प्रच्छ - 'भूवादयो धातवः' से 'प्रच्छ' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'यज- याच-यत-विच्छ-प्रच्छ-रक्षो नङ् से नङ् (न) प्रत्यय।
प्रच्छ+न - 'च्छवो शूऽनुनासिके ध' से 'च्छ' को 'श्' करने पर।
प्रश्न - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार
में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
प्रश्न + स् - ' ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)।
प्रश्नर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
प्रश्न: - यह रूप सिद्ध हुआ।

७४. कृतिः

कृ - 'भूवादयोधातव:' से 'कृ' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'स्त्रियां क्तिन्' से क्तिन् प्रत्यय।
कृ+क्तिन् - 'क्तिन्' का अनुबन्ध लोप करने पर।
कृति - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
कृति + स् - 'ससजुषो रु: ' सकार को रु (र)
कृतिर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
कृति: - यह रूप सिद्ध हुआ।

७५. स्तुतिः

स्तु - 'भूवादयोधातवः' से 'स्तु' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'स्त्रियां क्तिन्' से क्तिन् प्रत्यय।
स्तु + क्तिन् - 'क्तिन्' का अनुबन्ध लोप करने पर।
स्तुति - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा की एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
स्तुति + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
स्तुतिर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
स्तुति: - यह रूप सिद्ध हुआ।

७६. इच्छा -

इष् - 'भूवादयोधातव:' से 'इष्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'इच्छा' से 'श' प्रत्यय का निपातन।
इष् श् - 'श' का अनुबन्ध लोप करने पर।
इष् अ - 'अतिशित्सार्वधातुकम्' से सार्वधातुक संज्ञा करने पर 'कर्तरि शप्' से शप् (अ) का विवरण।
इष् अ अ - “इषुगामियमां' से षकार को छकार।
इछ् अ अ - 'छेच' से तुक् (त्) का आगम।
इ त् छ् अ अ - 'स्तो श्चुना श्चुः' से लकार को चकार।
इच्छ अ - 'अतोगुणे' से अ को पररूप होने पर।
इच्छ - 'अजाद्यतष्टाप्' से स्त्रीलिंग का विवक्षा में टाप् (आ) प्रत्यय
इच्छ+आ - 'अकः सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ करने पर
इच्छा - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यया।
इच्छा+सु - 'कृन्मेजन्तः' से अव्यय संज्ञा करने पर 'अत्ययादाप्सुपः' से सु लोप होकर।
इच्छा - यह रूप सिद्ध हुआ।

७७. चिकीर्षा

चिकीर्ष - 'सनाद्यन्ता धातवः' से सन्नत 'चिकीर्ष' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'अ प्राययात्' से अ प्रत्यय करने पर।
चिकीर्ष+अ - 'अतो लोपः' से षकारोत्तरवर्ती अकार का लोप होकर।
चिकीर्ष - 'अजाद्यतष्टाप्' से स्त्रीलिंग की विवक्षा में टाप्। (आ) प्रत्यय।
चिकीर्ष+आ - 'अकः सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ होकर
चिकीर्षा - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय।
चिकीर्षा + सु - 'कृन्मेजन्तः' से अत्यप संज्ञा करने पर 'अव्ययादाप्सुपः से सु का लोप होकर। चिकीर्षा यह रूप सिद्ध हुआ।

७८. ईहा

ईह् - 'भूवादयो धातवः' से 'ईह' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'गुरोश्च' हल: सूत्र से अ प्रत्यय।
ईह् +अ - 'अजाद्यतष्टाप्' से स्त्रीलिंग की विवक्षा में टाप्। (आ) प्रत्यय।
ईह + आ - 'अकः सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ करके।
ईहा - ' कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा करने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०' से सु प्रत्यय।
ईहा + सु - 'कृन्मेजन्तः' से अव्यय संज्ञा करने पर 'अव्ययादाप्सुपः से सु का लोप होकर।
ईहा - यह रूप सिद्ध हुआ।

७९. कारणा

कारि - 'सनाद्यन्ता धातवः' से णिजन्त 'कारि' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'व्यासश्रन्यो पुच्' पुच् (यु) प्रत्यय।
कारि+यु - 'युवोरनाकौ' से यु को अन करने पर
कारि+अन - 'णेरनिटि' से इ का लोप करने पर।
कार+अन् - 'अजाद्यतष्टाप्' से स्त्रीलिंग की विवक्षा में टाप्। (आ) प्रत्यय।
कारन+आ - 'अकः सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ करने पर।
कारना - रषाभ्यां नो णः समानपदे' नाकर को पकार।
कारणा - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०' से सु प्रत्यय।
कारणा + सु - 'कृन्मेजन्तः' से अव्यय संज्ञा करने पर 'अव्ययादाप्सुपः से सु का लोप करने पर।
कारणा - यह रूप सिद्ध हुआ।

८०. हसनम् -

हस् - 'भूवादयो धातवः' से 'हस्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'ल्युट् च' से 'ल्युट् (यु) प्रत्यय।
हस्+यु - 'युवोरनाकौं' से यु को अन करने पर
हस्+अनृ हसन - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा करने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से सु प्रत्यय।
हसन + सु - 'अतोऽम्' से सु को अम्।
हसन + अम् - 'अमिपूर्वः' से अकार का पूर्वरूप करके।
हसनम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

८१. रामः

रम् - 'भूवादयो धातवः' से 'रम्' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'हलश्च' में घञ् प्रत्यय।
रम्+घञ् - घञ् का अनुबन्ध लोप करने पर।
रम्+अ - 'अत उपधायाः' से रम् के अकार को वृद्धि - आकार करके।
राम - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात् के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से सु (स्) प्रत्यय।
राम+स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
रामर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग लेकर
रामः - यह रूप सिद्ध हुआ।

८२. दुष्करः

दुस् + कृ - 'भूवादयो धातवः' से दुस्पूर्वक 'कृ' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'ईषदुस्सुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल्' से खल् प्रत्यय।
दुस् कृ+खल् - खल् का अनुबन्ध लोप करने पर।
दुस् कृ+अ - 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' से कृ के त्र+कार को गुण - अर् करने पर।
दुस् कर + अ - ' आदेश प्रत्यययोः' से सकार को षकार होकर।
दुष्कर - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा करने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार
में 'स्वौजसमौट्०' से सु (स्) प्रत्यय।
दुष्कर+स् - 'ससजुषो स:' से सकार को रु (र)
दुष्करर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
दुष्करः - यह रूप सिद्ध हुआ।

८३. ईषत्पानः

ईर्षत् पा 'भूवादयोधातवः' से ईषत् पूर्वक 'पा' की धातु संज्ञा होकर 'धातो: ' अधिकार में 'आतो पुत्र' से पुत्र (पु) प्रत्यय।
ईषत् त्या + पु - 'युवोरनामौ' से पु को अन करने पर।
ईषत्या+अन - 'अकः सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ करके।
ईषत्यान - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा करने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से सु (स्) प्रत्यय।
ईषत्पान + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
ईषत्पानर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
ईषत्पान: - यह रूप सिद्ध हुआ।

८४. दत्वा -

दा - 'भूवादयो धातवः' से 'दा' की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'अलंखल्कोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा' से क्त्वा (त्वा) प्रत्यय।
दा+त्वा - 'दो दद् द्यो:' से दा को दद् करने पर।
दद्+त्वा - 'खरि च' से दकार को तकार।
दत्त्वा - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार
में 'स्वौजसमौट् ०" से सु प्रत्यय।
दत्त्वा - 'क्त्वातोसुन्कसुनः' से अव्यय संज्ञा करने पर 'अव्ययादात्सुपः' से सु का लोप होकर।
दत्त्वा - यह रूप सिद्ध हुआ।

८५. भुक्त्वा

भुज् - 'भूवादयो धातवः' से भुज् की धातु संज्ञा होकर 'धातो:' सूत्र के अधिकार में 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाले' से क्त्वा (त्वा) प्रत्यय।
भुज् + त्वा - 'चोः कुः' से जकार को गकार करने पर।
भुग्+त्वा - 'खरिच' से गकार को ककार।
भुक्त्वा - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा करने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के
अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से सु प्रत्यय।
भुक्त्वा + सु - ' क्त्वातोसुन् कसुनः' से अव्यय संज्ञा करने पर 'अव्ययदापूसुप:' से सु का लोप होकर
भुक्त्वा - यह रूप सिद्ध हुआ है।

८६. एधनीयम्

एध् धातु से भाव में तथ्य और अनीयर् प्रत्यय हुए हैं।
धातु से विहित होने से ये आर्धधातुक हैं। बलादि आर्ध धातुक होने से तत्व को इट् आगम हुआ।
भाव में ये इसलिए हुए कि एध् धातु अकर्मक है। अकर्मक से भाव में वे प्रत्यय होंगे। कर्ता अनुक्त है - इस बात को दिखाने के लिए त्वया यह तृतीयान्त कर्ता हुआ है।
भाव इति-भाव में सामान्य एकवचन और नपुंसकलिंग हुआ। कर्म में ये प्रत्यय सकर्मक धातुओं से आते हैं तब लिंग वचन कर्म के अनुसार होते हैं।

८७. शय्यम्

शय्यम् (शपथ के योग्य शाप देना चाहिए) - शप् धातु पवगन्ति है, क्योंकि इसके अन्त में पकार है, इसकी उपधा में ह्रस्व अकार भी है। अतः इससे यद्यपि हलन्त होने के कारण 'त्र+हलोर्ण्यत् से ष्यत् प्राप्त हुआ। उसको बाधकर 'पोरदुपधात्' सूत्र से यत् प्रत्यय हुआ। शय्यम् रूप बना।
८८. हार्यम्।
हार्यम् - हृ धातु से ऋकारान्त होने के कारण ण्यत् प्रत्यय कटहलोर्ण्यत् सूत्र से हुआ। ण्यत् के णित होने में उसके परे रहते 'अचो ञ्णिचि' से ऋकार को आर् वृद्धि होने पर हार्यम् रूप बना।
लघ

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

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