बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 3
गुप्त वास्तुकला
प्रश्न- गुप्तकाल को कला का स्वर्ण काल क्यों कहा जाता है?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. गुप्तकाल के स्तूप एवं गुहा स्थापत्य का विकास कैसा हुआ?
2. महायान क्या था?
उत्तर -
गुप्तकाल ( 319-550 ई०) भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहलाता है। इतिहासकारों ने इसे क्लासिकल युग भी कहा है। इस युग में साहित्य और कला का विकास अप्रतिम विकास हुआ। यहाँ हम कला और साहित्य के विकास के मुख्य पक्षों से अवगत होने का प्रयास करेंगे।
स्तूप तथा गुहा स्थापत्य - गुप्त सम्राटों के राजत्व काल में स्तूप तथा गुहा स्थापत्य का अच्छा विकास हुआ। जहाँ तक स्तूपों का प्रश्न है, उस युग में दो युग-प्रसिद्ध स्तूपों का निर्माण हुआ। ये स्तूप हैं — सारनाथ का धमत्व स्तूप तथा राजगृह स्थित जरासंघ की बैठक धमेत्व स्तूप 128 फुट ऊँचा है। जिसका निर्माण बिना किसी चबूतरे के समतल धरातल पर किया गया हैं। इसके चारों कोने पर बौद्ध मूर्तियाँ रखने के लिए ताख बनाए गए हैं जहाँ तक गुहा स्थापत्य का प्रश्न है। यह युग परम्परागत गुहा वास्तु के चरम विकास का द्योतक है। पाँचवीं शताब्दी ईसवी से लेकर 750 ई० तक, ईसा पूर्व की अन्तिम सदियों की अपेक्षा अधिक संख्या में गुहाओं का निर्माण हुआ। महायान युग में निर्मित गुहायें अधिक विशाल, विस्तृत अलंकृत तथा संख्या में अधिक हैं। इस काल में चैत्य गृहों की अपेक्षा विहार निर्माण पर अधिक जोर दिया गया है। इस समय की बौद्ध गुहायें अजन्ता, एलोरा, औरंगाबाद एवं बाघ की पहाड़ियों में निर्मित हुई।
अजन्ता गुहा वास्तु का विकास-क्रम सर्वाधिक लम्बा है। यहाँ ईसा की प्रारम्भिक सदियों से 750 ई० तक लगभग 30 गुहाओं का निर्माण हुआ, जिनमें 3 चैत्य गृह एवं शेष विहार हैं। अजन्ता की लगभग 29-30 गुहाओं में से पाँच प्रारम्भिक काल की है। तीन चैत्यगृहों में से 2 चैत्य गृह (नौ एवं दस ) हीनयान युग में उत्कीर्ण किये गये। विद्वानों की मान्यता है कि 20 विहार एवं एक चैत्यगृह पाँचवीं सदी ई० से सातवीं सदी ई० के मध्य निर्मित हुए। गुहा संख्या 19 एवं 26 चैत्य हैं, अन्य विहार हैं। हीनयान चैत्य के साथ जो विहार बने थे, उनकी उपयोगिता कालान्तर में समाप्त हो गई। महायान युग के चैत्य तथा विहार मिश्रित तैयार हुए जिनका क्षेत्रफल पहले से बड़ा था। इनका आकार-प्रकार बढ़ाया गया। विहार संख्या 7, 11, 6 का निर्माण दूसरे क्रम में हुआ था। संख्या 15 से 20 तक के विहार बनावट में सर्वोत्तम माने जाते हैं। 16 एवं 17 भित्तिचित्र के लिए सुप्रसिद्ध हैं, जिन्हें देखने के लिए संसार के लोग आते हैं। अजन्ता गुहायें अपनी विशिष्टता के कारण बरबस लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करती हैं।
अजन्ता एवं अन्य स्थलों की गुहाओं को भीतर से चट्टान खण्ड को काटकर स्तूप निर्माण किया गया है, स्तूप हर्मिका एवं छत्रयुक्त है। महायान काल में निर्मित गुहाओं में महात्मा बुद्ध एवं बोधिसत्वों की प्रतिमाओं का अंकन मिलता है। गुप्तकाल से पूर्व की हीनयान गुहाओं में बुद्ध मूर्तियों का अंकन नहीं देखा जाता। बुद्ध को प्रतीकों के माध्यम से ही अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया। महायान गुहाओं में बुद्ध एवं बोधिसत्वों के अतिरिक्त यक्ष, यक्षिणी, विविध देवताओं एवं नाग प्रतिमाओं का उत्कीर्णन हुआ है। प्रारम्भिक गुहाओं के स्थापत्य में जहाँ सादगी देखी जाती है, वहीं गुप्तकालीन गुहा मन्दिरों के निर्माण में अलंकरण एवं सजावट की प्रमुखता है। हीनयान विहार चैत्य के साथ सम्बद्ध होने से छोटे होते थे, किन्तु महायान विहारों की विशालता के कारण स्तम्भों का निर्माण आवश्यक हो गया।
महायान विहारों में भिक्षुओं के निवास का प्रावधान था। अतः तीन ओर कोठरियाँ निर्मित की गयीं जिनमें भिक्षुओं के शयन हेतु प्रस्तर चौकियाँ बनाई गईं। तदनुसार विहार के प्रारूप में परिवर्तन किये गये। भिक्षुओं के लिए कोठरियों से बाहर पूजा की व्यवस्था भी जरूरी थी। इसलिए केन्द्रीय कमरे में बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की गई। इसके अतिरिकत दीवारों को भी विविध अलंकरणों द्वारा अलंकृत किया गया। भस्मपात्र की पूजा का समापन हो गया एवं ब्राह्मण मत की भक्ति भावना का बौद्ध मत में प्रवेश हुआ।
विहार - वास्तुकला की दृष्टि से महायान गुहायें विशिष्ट हैं जिन्हें विहार या संघाराम की संज्ञा दी गईं। अजन्ता, एलोरा, बाघ एवं औरंगाबाद आदि के विहार इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं, जिनका निर्माण भिक्षुओं के निवास के लिए किया गया। गुप्तकाल में विहार योजना में सतत् परिवर्तन एवं परिष्कार लक्षित होता है। केवल आकृति में ही नहीं बल्कि तल विन्यास की दृष्टि से इस युग में दो तीन तल के विहारों का निर्माण किया गया। एक पहाड़ी में दो या तीन तल गुहाओं का निर्माण तकनीकी दृष्टि से अपने आप में एक उपलब्धि है। तिथिक्रम की दृष्टि से प्राचीनतम विहार अजन्ता की पहाड़ी में निर्मित किये गये।
बौद्ध गुहा स्थापत्य के अतिरिक्त ब्राह्मण परम्परा में भी स्थापत्य की अभिव्यक्ति का अवसर मिला। विदिशा के पास प्रदयगिरि की कुछ गुफाओं का निर्माण भी इसी युग में हुआ। यहाँ की गुफाएँ भागवत तथा शैव धर्मों से सम्बन्धित हैं। उदयगिरि पहाड़ी से चन्द्रगुप्त द्वितीय के विदेश सचिव वीरसेन का एक लेख मिलता है। जिससे विदित होता है कि उसने यहाँ एक शैव गुहा का निर्माण करवाया था। यहाँ की सबसे प्रसिद्ध बाराह गुहा है। जिसका निर्माण भगवान विष्णु के सम्मान में किया गया था। गुहा के द्वार स्तम्भों को देवी देवताओं तथा द्वारपालों की मूर्तियों से अलंकृत किया गया है।
मन्दिर निर्माण कला -
गुप्तकाल से पूर्व मन्दिर वास्तु के अवशेष नहीं मिलते। मन्दिर निर्माण का प्रारम्भ इस युग की महत्त्वपूर्ण देन कही जा सकती है। इस काल में मन्दिर वास्तु का विकास ही नहीं हुआ बल्कि इसके शास्त्रीय नियम भी निर्धारित हुए। मन्दिर निर्माण के उद्भव का सम्बन्ध व्यक्तिगत देवता की अवधारणा से है। भारत में देवपूजा की परम्परा बहुत प्राचीन रही है। प्रायः इसके उद्भव को प्रागार्थ (अनार्य) परम्परा में खोजने का प्रयत्न किया गया है।
इत्सिंग ने श्री गुप्त द्वारा 'मि-लि- क्या सी-क्या पोनो' (सारनाथ) में चीनी यात्रियों के लिए मन्दिर बनाये जाने का उल्लेख किया है। इसी तरह चन्द्रगुप्त द्वितीय के मन्त्री शाब (वीरसेन) द्वारा उदयगिरि गुहा में भगवान शिव के लिए गुहा मन्दिर बनवाये जाने का विवेचन आया है। कुमारगुप्त के मिलसद अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने कार्तिकेय के मन्दिर का निर्माण करवाया। उसके मन्दसौर अभिलेख से भी सूर्य मन्दिर निर्माण करवाये जाने एवं मन्दिरों के जीर्णोद्धार की जानकारी मिलती है।
गुप्तकालीन मन्दिरों के अवशेष अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं, जैसे- साँची, शंकरमढ़, दहपर्वतया (आसाम), भीतरी गाँव, अहिच्छत्र, गढ़वा, सारनाथ, बौद्धगया आदि। इन मन्दिरों को गुप्तकालीन स्वीकार किये जाने का एक आधार तो कुछ मन्दिर स्थलों से अभिलेखों की प्राप्ति रहा है।
प्रारूप की दृष्टि से एक गर्भ के मन्दिर धीरे-धीरे पंचायतन शैली में परिबर्तित हुए. अर्थात् इस प्रक्रिया में पाँच देवों के गृह की स्थापना की गई। साधारणतः मन्दिर वर्गाकार हैं। इस विकास प्रक्रिया के प्रमाण भूमरा एवं देवगढ़ के मन्दिर हैं। आयताकार योजना वाले मन्दिर अवश्य ही दक्षिण के चैत्य गुहाओं से सम्बद्ध रहे होंगे। वस्तुतः पंचायतन योजना वर्गाकार मन्दिर का विकसित रूप है। इस प्रक्रिया में गर्भ गृह के चारों ओर चार अतिरिक्त देवालय बनाये गये। भूमरा के गर्भगृह के सामने चबूतरों के दोनों कोनों पर देवालय बने हैं। पृष्ठ भाग में गर्भगृह हैं तथापि इन्हें इसी शैली में रखा जाता है। यह मन्दिर देवगढ़ से पूर्ववर्ती है।
प्रारम्भिक मन्दिर शिखर - रहित अर्थात् सपाट छत से आवृत्त थे किन्तु सपाट छत क्रमशः ऊँची उठती गई और गर्भगृह के ऊपर पिरामिडाकार स्वरूप बनता गया। इस प्रक्रिया में कई तल वाले शिखर का विकास हुआ। इस तरह मन्दिर का स्वरूप सप्त एवं नवप्रासाद के रूप में परिवर्तित हुआ। शिखर मूलतः गर्भ पर बनी ऐसी वास्तुरचना है जो क्रमश: कई तल, गवाक्ष, कर्णश्रृंग, शुकनाशा, आमलक, कलश, बीजपूरक, ध्वजा से युक्त होता है। इन तत्त्वों के साथ शिखर की रचना पीठायुक्त अथवा ऊपर की ओर क्रमशः तनु होते हुए भी कोणाकार हो सकी है। सम्भवतः शिखर का विकास मानव निर्मित कई मंजिलों के प्रासादों के अनुकरण पर हुआ होगा। शिखर प्रासाद के विभिन्न तल ऊपर की ओर छोटे होते गये। इसका सर्वोत्तम उदाहरण नाचनाकुठारा का मन्दिर है जिसमें प्रथम कक्ष पर दूसरे एवं तीसरे कक्ष ( या खण्ड) दिखाई देते हैं। सम्भवत: इसी से आगे शिखर विकास का प्रारम्भ हुआ और आगे जाकर शिखर की बनावट में अनेक तत्त्व जुड़ते गये।
शंकरगढ़ - जबलपुर में तिगवाँ से तीन मील पूर्व में कुण्डाग्राम में लाल पत्थर का एक छोटा शिव मन्दिर प्राप्त हुआ है।
मुकुंददर्रा - राजस्थान के कोटा जिले में एक पहाड़ी दर्रा, जिसे मुकुन्ददर्रा कहा जाता है, में एक छोटे सपाट छतयुक्त स्तम्भों पर खड़ा मन्दिर अवस्थित है।
तिगवा - पत्थर से निर्मित एक वर्गाकार सपाट छत का मन्दिर है जिसके सामने चार स्तम्भों पर मण्डप स्थित है।
भूमरा - सतना (मध्य प्रदेश) में भूमरा नामक स्थान में शिव मन्दिर का निर्माण पाँचवी शताब्दी के मध्य में हुआ माना जाता है।
नाचना कुठारा - भूमरा के निकट अजयगढ़ के पास नाचना कुठारा में पार्वती मन्दिर स्थित है।
देवगढ़ - देवगढ़ (ललितपुर) झाँसी के पास गुप्तकाल के बचे हुए उत्कृष्ट मन्दिर में से है, जिसका विस्मयकारी अलंकरण मन मोह लेता है।
भीतरगाँव - कानपुर के निकट दक्षिण में भीतरगाँव का विष्णु मन्दिर ईंटों से निर्मित किया गया। इसका महत्त्व ईंट का प्राचीनतम मन्दिर होने में ही नहीं है वरन् इस बात में भी है कि उसमें शिखर है।
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