बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- गुप्तकालीन मूर्तिकला के विषय में आप क्या जानते हैं?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. गुप्तकालं की वैष्णव मूर्तियाँ कैसी थीं?
2. गुप्तकाल की बौद्ध प्रतिमाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर -
भारतीय कला के इतिहास में गुप्तकाल को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इसका कारण यह रहा कि इस युग की कलाकृतियाँ शैली एवं सम्पूर्णता, सुन्दरता एवं सन्तुलन जैसे कला तत्त्वों से सुसज्जित हैं। अन्य कलाओं की तरह इस काल में मूर्तिकला का भी सम्यक विकास हुआ। गुप्तकालीन मूर्तिकार मूर्तिकला के मर्मज्ञ थे। उनकी मूर्तियों में गाम्भीर्य, कमनीयता, लालित्य व माधुर्य के दर्शन होते हैं।
गुप्त शासक हिन्दू धर्म के पोषक थे, किन्तु उन्होंने बौद्ध धर्म और जैन धर्म के लिए भी उदारता दिखायी। यद्यपि गुप्तकाल का प्रारम्भिक दौर हिन्दू कला पर जोर देता है जबकि बाद का युग बौद्ध कला का शिखर युग है। दरअसल गुप्त मूर्तिकला की सफलता पूर्व मध्यकाल की प्रतीकात्मक छवि एवं कुषाण काल की कलात्मक छवि के मध्य निर्मित एवं सन्तुलन पर आधारित है। इस काल की मूर्तिकला में शारीरिक सौन्दर्य के स्थान पर आध्यात्मिक सौन्दर्य को प्रधानता दी गयी। जहाँ कुषाण काल में पारदर्शी वस्त्र विन्यास का प्रयोग मांसल सौन्दर्य को प्रकट करने के लिए किया जाता था, वहीं गुप्तकाल में इसका प्रयोग इसे आवृत्त करने के लिए किया जाने लगा। यही कारण है कि गुप्तकालीन मूर्तियों में आद्योपान्त आध्यात्मिकता, भद्रता एवं शालीनता दृष्टिगोचर होती है।
वैष्णव मूर्तियाँ - गुप्त धर्म से ब्राह्मण थे और उनकी भक्ति विशेष रूप से विष्णु में थी। अतः उनके समय में भगवान विष्णु की बहुसंख्यक प्रतिमाओं का निर्माण किया गया। मथुरा, देवगढ़ तथा एरण से प्राप्त मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। इस काल की विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी हैं। उनके सिर पर मुकुट, गले में हार तथा कैयूर एवं कानों में कुण्डल दिखाया गया है। प्रलम्बबाहु ( लटकती हुई भुजाओं वाली) मूर्ति का केवल धड़ भाग ही अवशिष्ट है। यह चतुर्भुजी है, जिसमें अलंकृत मुकुट, कानों में कुण्डल, भुजाओं पर लटकती हुई वनमाला, गले में ग्रैवेयक आदि का अंकन अत्यन्त कलापूर्ण है।
वस्तुतः अवशिष्ट गुप्त मन्दिर मूर्तिशिल्प की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध हैं। इस प्रसंग में देवगढ़ के दशावतार मन्दिर का विशेष रूप से उल्लेख करना अभीष्ट होगा। इस मन्दिर की दीवार पर शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते हुए विष्णु का अंकन है। उनकी नाभि से निकलते हुए कमल पर ब्रह्म, ऊपर आकाश में नन्दी पर सवार शिव-पार्वती, मयूर पर कार्तिकेय तथा ऐरावत पर इन्द्र को दिखाया गया है। बैठी हुई लक्ष्मी विष्णु का पैर दबा रही हैं। विष्णु के इस रूप को अनन्तशायी अथवा शेषशायी कहा गया है। कनिंघम के शब्दों में, मूर्तियों का चित्रांकन सामान्यतः ओजपूर्ण है तथा अनन्तशायी विष्णु का रेखांकन तो न केवल सहज, अपितु मनोहर और मुद्रा गौरवपूर्ण है।
उदयगिरी से इस काल की बनी हुई एक विशाल प्रतिमा प्राप्त हुई है। इसके पार्श्व भाग में बने हुए दृश्यों में मकर एवं कच्छप की सवारी में गंगा तथा यमुना की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। इसमें वाराह को पृथ्वी को दाँतों में उठाते हुए दिखाया गया है। ए०एल० बाशम के शब्दों में, " वह गम्भीर भावना, जिसने इस आकृति के निर्माण की प्रेरणा, इसे संसार की कला में सम्भवतः एकमात्र पशुवत् मूर्ति का स्थान प्रदान करती है जो आधुनिक काल के मनुष्य को एक सच्चा धार्मिक सन्देश देती है।"
शिवलिंग मूर्तियाँ - विष्णु के अतिरिक्त इस काल की बनी शैव मूर्तियाँ, लिंग तथा मानवीय दोनों रूपों में ही मिलती हैं। लिंग में ही शिव के एक अथवा चार मुख बना दिए गये हैं। इस प्रकार के लिंग मथुरा, भीटा, कौशाम्बी, कमरदण्डा, खोह, भूमरा आदि स्थानों से मिले हैं। इन मूर्तियों को 'मुखलिंग' कहा जाता है। इनमें शिव के सिर पर जटाजूट, गले में रूद्राक्ष की माला तथा कानों में कुण्डल है। ध्यानावस्थित शिव के नेत्र अधखुले हैं तथा उनके होठों पर मन्द मुस्कान है। जटाजूट के ऊपर अर्धचन्द्र विराजमान है। इन मुखलिंगों की रचना आकर्षक एवं कलापूर्ण है। शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की मूर्तियों का निर्माण सर्वप्रथम इसी काल में हुआ। अर्द्धनारीश्वर रूप की दो मूर्तियाँ मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
बुद्ध मूर्तियाँ - गुप्तकालीन मूर्तिशिल्प में बुद्ध धर्म का शान्ति आदर्श अत्यन्त भव्यता से बुद्ध की मूर्तियों में अभिव्यक्त हुआ है। उनके चेहरे की भाव मुद्रा और मुस्कान उस परम समरसता की अनुभूति को दर्शाती है, जिसे उस महाज्ञानी ने प्राप्त किया था। इन मूर्तियों के शिल्प की हर रेखा में सौन्दर्य और भाव का परम्परागत स्वरूप दिखाया गया है। बुद्ध की मूर्तियाँ मथुरा और सारनाथ से मिली हैं।
बौद्ध मूर्तियाँ अभय, वरद, ध्यान, भूमिस्पर्श, धर्मचक्र प्रवर्तन आदि मुद्राओं में हैं। इनमें सारनाथ की दृष्टि मूर्ति अत्यधिक आकर्षक है। इसमें बुद्ध पद्मासन में विराजमान हैं तथा उनके सिर पर अलंकृत प्रभामण्डल है। उनके बाल घुंघराले तथा कान लम्बे हैं। उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर टिकी है। यह धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में है। वस्तुतः कलाकारों को बुद्ध के शान्त तथा निःस्पृह भाव को व्यक्त करने में अद्भुत सफलता मिली है।
पाषाण के अतिरिक्त इस काल में धातुओं से भी बुद्ध मूर्तियाँ बनायी गयीं। गुप्तकाल की अनेक काँसे और ताँबे की आकृतियाँ उपलब्ध हैं, जिनमें से अधिकांश बौद्ध हैं। इनमें सुल्तानगंज (बिहार) की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सुल्तानगंज से प्राप्त बुद्ध की प्रतिमा लगभग साढ़े सात फुट ऊँची है जो अब बरमिंघम के संग्रहालय में सुरक्षित है। ताम्र निर्मित इस मूर्ति में है। संघाटि का घेरा पैरों तक लटक रहा है। यह मूर्ति भी अत्यन्त सजीव तथा प्रभावशाली है। यह एक सुन्दर आकृति है जो पारदर्शक अँगरखा पहने हैं।
उस काल की अन्य कृतियों के समान यह भी यथार्थ विवरण है। अनुपात की ओर ध्यान आकृष्ट कराकर नहीं, अपितु थोड़े से उठे हुए शरीर की चेष्टाओं की भावना, अँगरखे के किनारों को धीरे से स्पर्श करती हुई सुकुमार उँगलियों तथा कोमल रचना द्वारा सजीवता की भावना प्रदर्शित करती है। गुप्तकालीन मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र मथुरा, सारनाथ और पाटलिपुत्र थे।
गुप्तकालीन धार्मिक सहिष्णुता के वातावरण में कुछ जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ भी गढ़ी गयीं जो शिल्प की दृष्टि से उच्चकोटि की हैं। यह ध्यान मुद्रा, अजानवाहु एवं नग्न हैं। इनके हथेली तथा तलवों पर धर्मचक्र एवं भौहों के बीच उर्णा की आकृति बनाई गयी है। इनके उष्णीश सुन्दर एवं आकर्षक हैं तथा प्रभामण्डल में विशेष अलंकरण है।
तीर्थंकर मूर्तियों में बिहार के चौसा से प्राप्त तीर्थकर आदिनाथ की धातु निर्मित मूर्ति उल्लेखनीय है। स्कन्दगुप्त कालीन कहाँवर ( देवरिया जिला) से प्राप्त स्तम्भ के ऊपरी भाग पर चार 'जिन' मूर्तियाँ तथा नीचे पार्श्वनाथ का चित्रण मिलता है। राजगृह, देवगढ़, बेसनगर आदि से भी कुछ जैन मूर्तियाँ पूर्ण या खण्डित अवस्था में मिलती हैं।
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