बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- गुप्तकालीन बौद्ध मूर्तियाँ कैसी थीं?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. सारनाथ की मूर्ति का परिचय दीजिए।
2. शैव मूर्तियाँ किस प्रकार की थीं?
उत्तर -
गुप्तकालीन बौद्ध मूर्तियाँ- बौद्ध धर्म में बौद्ध की प्रतीक पूजा के उपरान्त उनकी प्रतिमा की भी पूजा होने लगी। परिणामस्वरूप अब अत्यधिक मात्रा में बौद्ध मूर्तियों का निर्माण होने लगा। गुप्तकाल तक आते-आते महात्मा बुद्ध की ओर शिल्पकारों का ध्यान गया और वे बड़े श्रद्धा एवं प्रेम के साथ बौद्ध मूर्तियों का निर्माण बड़े पैमाने पर करने लगे। इन बौद्ध मूर्तियों में कुछ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं जिनमें तीन मुख्य रूप से प्रसिद्ध हैं, उनका विवरण इस प्रकार है-
1. सारनाथ की बुद्ध मूर्ति,
2. मथुरा की बुद्ध मूर्ति,
3. सुल्तानगंज (बिहार) की बुद्ध मूर्ति।
1. सारनाथ की बुद्ध मूर्ति - वाराणसी के समीप सारनाथ नामक स्थल बौद्ध तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध रहा है। गौतम बुद्ध ने इसकी स्थल पर अपना प्रथम धर्मोपदेश दिया था जिसके कारण सारनाथ बौद्ध अनुयायियों का तीर्थ तथा ज्ञान स्रोत स्थल के रूप में स्वीकारा गया। गुप्तकाल में बुद्ध मूर्तियों का विभिन्न केन्द्रों में व्यापक निर्माण हुआ, किन्तु सारनाथ की यह बुद्ध मूर्ति जिसमें वे धर्मचक्र प्रवर्तन की मुद्रा में बैठे हुए हैं, सभी बुद्ध मूर्तियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
सारनाथ की यह बुद्ध मूर्ति अत्यधिक आकर्षक है। इस मूर्ति में भगवान बुद्ध पदमासन में विराजमान दिखाये गये हैं और उनके सिर के पीछे अलंकरणयुक्त दिव्य आभा मण्डल अंकित किया गया है। बुद्ध के केश घुँघराले एवं कान अपेक्षाकृत लम्बे हैं जिससे उनके योगी भाव मूर्ति में दिखायी पड़ते हैं। इनकी दृष्टि नासाग्र पर केन्द्रित है तथा यह धर्म चक्र प्रवर्तन की मुद्रा में बनाये गये हैं। इस मूर्ति में बुद्ध के मुख मण्डल पर दिव्य आभा, अपूर्व शान्ति तथा कोमलता दिखायी पड़ती है। बुद्ध मूर्ति की मुखाकृति से यह यह भाव सहज ही व्यक्त हो रहा है कि भगवानं बुद्ध में परम शान्ति एवं परमानन्द का अपूर्व सामंजस्य है। बुद्ध के आसन की नीचे. वाली पीठिका के बीच में चक्र और उसके दोनों ओर दो मृग के साथ सप्त मानव मूर्तियों का भी अंकन किया गया है। इन मानव मूर्तियों में पाँच के सिर बिना केश के हैं। सम्भवतः यह भिक्षु है जो भगवान बुद्ध के पंच शिष्य हैं और दो अन्य मानव मूर्तियाँ दानदाता युगल प्रतीत होते हैं। बुद्ध के कन्धों पर पारदर्शी वस्त्र का अंकन किया गया है जो उनके चरण तक लटका हुआ है। इस पारदर्शी वस्त्र का अंकन इतनी सूक्ष्मता के साथ किया गया है कि बुद्ध प्रतिमा की आभा को ये और भी द्विगुणित कर रही है। बुद्ध की दिव्य आभा मण्डल के दोनों उड़ते हुए दो विद्याधरों का अंकन किया गया है जो बुद्ध के परम सन्देश की पवित्रता का प्रदर्शन कर रहे हैं। सारनाथ की बुद्ध मूर्ति के विषय में Kenneth Saunders का कथन है कि,
"The Buddhist images of Sarnath are the typical of the awakening as the poems of Kalidas. A new intellectualism was in the air, reflected in the architecture andsculpture as much in literature and since-a logical beauty which reminds us many ways of Greece at its Zenith, as in the spirit of adventure and of the rest of life it reminds us of Elizabethan England."
बुद्ध के इस मूर्ति में उनके शरीर में सुकुमारता एवं गतिशीलता दिखायी पड़ती है और सम्पूर्ण मूर्ति में शारीरिक तथा मानसिक सन्तुलन व अनुशासन का अनुपम सामंजस्य दिखायी पड़ता है। इस प्रकार शिल्पियों ने बुद्ध के शान्त एवं नि:स्पृह भाव को व्यक्त करने में आश्चर्यजनक रूप से सफलता प्राप्त की है। बुद्ध की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति एवं अधरों पर सुकुमारता के साथ गम्भीर मुस्कान और शान्त योगियों के समान ध्यानमग्न मुद्रा भारतीय कला की उच्चतम सफलता का प्रदर्शन करती है। बुद्ध की इस मूर्ति के विषय में डॉ० बी०एस० अग्रवाल जी का कथन है कि, "भगवान बुद्ध की यह मूर्ति आध्यात्मिक अभिव्यक्ति एवं शान्तिपूर्ण मुस्कान तथा पवित्र ध्यान मुद्रा में उपदेश देने के कारण यह प्रतिमा भारतीय कला की उच्चतम विजय मानी जा सकती है।" सारनाथ से प्राप्त भगवान बुद्ध की यह मूर्ति चुना प्रस्तर से निर्मित कला का एक उत्कृष्ट नमूना माना जा सकता है। यह प्रतिमा अपने रूप-माधुर्य तथा भाव -व्यंजना एवं आध्यात्मिक गाम्भीर्य के कारण जगत प्रसिद्ध रही है।
2. मथुरा की बुद्ध मूर्ति - गुप्तकालीन मथुरा की मूर्तिकला में दो बुद्ध मूर्तियाँ विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण मानी गयी हैं। दोनों ही मूर्ति खड़ी मुद्रा में बनायी गयी हैं जिसकी ऊँचाई सात फुट ढाई इंच के आसपास है।
पहली बुद्ध प्रतिमा जो मथुरा के जमालपुर से प्राप्त की गयी है, उसमें बुद्ध को आदमकद में अंकित किया गया है। इस मूर्ति में भगवान बुद्ध खड़े हुए समभंग मुद्रा में बनाये गये हैं।. इनकी यह मूर्ति रक्त वर्ण के बलुआ प्रस्तर से निर्मित है। इस मूर्ति में बुद्ध के कन्धों पर संघाटी है तथा केश वलयाकार घुँघराले बनाये गये हैं। इनके कान योगियों के समान लम्बे तथा दृष्टि नासाग्र पर केन्द्रित अंकित की गयी है। बुद्ध के मस्तक के पीछे दिव्य आभा मण्डल बनाया गया है जिसमें सुन्दर अलंकरण अभिप्रायों का प्रयोग कुशलता के साथ किया गया है। बुद्ध के कन्धों पर पड़ी संघाटी की महीन सलवटें व उसका पारदर्शीपन मूर्तिकला के इतिहास में अद्वितीय है। मूर्तिकार ने इस मूर्ति के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग को बड़ी जीवन्तता के साथ उकेरा है और हस्त पाद की अँगुलियों के निर्माण में बड़ी स्वच्छता व कोमलता पर ध्यान दिया गया है। इस मूर्ति के मुख मण्डल पर शान्ति, करुणा और आध्यात्मिक भावों का अभूतपूर्व सम्मिश्रण दिखायी पड़ता है। बुद्ध की मूर्ति में उनके अधरों पर एक हल्की मुस्कान दिखाई पड़ती है जो रहस्यमयी प्रतीत होती है। भगवान बुद्ध इस मूर्ति में एक निष्कम्प दीपक के समान स्थिरतापूर्वक खड़े दिखाये गये हैं जिसमें किसी प्रकार की अभद्रता नहीं दिखायी पड़ती है। इस मूर्ति में बुद्ध का बायाँ हाथ संघाटी को सहारा देते हुए बनाया गया है लेकिन दाहिना हाथ अभय मुद्रा में अंकित किया गया है। भगवान बुद्ध के प्रतिमा अंकन में शिल्पकार ने अपनी पूर्ण कुशलता व अद्भुत कारीगरी का परिचय दिया है। ये मूर्ति अपने उत्कृष्ट गढ़न के कारण विशेष प्रसिद्ध है।
मथुरा से प्राप्त बुद्ध की दूसरी मूर्ति भी अत्यन्त आकर्षक और कलापूर्ण है। इस मूर्ति में भगवान बुद्ध के मुखं मण्डल पर अद्भुत शान्ति दिखायी है तथा भगवान बुद्ध को ध्यान मुद्रा में बनाया गया है। इस मूर्ति में बुद्ध की मुद्रा एकदम शान्त तथा गम्भीर है और मुख मण्डल पर
मन्द मुस्कान का भाव प्रदर्शित किया गया है। इस प्रकार बुद्ध की यह प्रतिमा भी शिल्पकार के कला कौशल का परिचय देने में सक्षम है।
3. सुल्तानगंज की बुद्ध की ताम्रमूर्ति - गुप्तकाल में पाषाण के अतिरिक्त धातुओं से भी बौद्ध प्रतिमाएँ निर्मित की गयी थीं। ऐसी मूर्तियों में सुल्तानगंज ( भागलपुर, बिहार) की बुद्ध मूर्ति विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। ताम्र धातु से निर्मित बुद्ध की यह मूर्ति साढ़े सात फुट ऊँची है और इसका भार लगभग दो टन से अधिक है। बुद्ध के वाम हस्त में संघाटी है तथा इसका घेरा बुद्ध के चरणों तक लटका हुआ बनाया गया है। बुद्ध का दायाँ हाथ अभय मुद्रा में थोड़ा आगे की ओर बढ़ा हुआ अंकित किया गया है। बुद्ध की यह ताम्र मूर्ति इस समय बरमिंघम संग्रहालय, लन्दन की शोभा को द्विगुणित कर रही है। इस मूर्ति में बुद्ध की गम्भीरता, महानता एवं लोकोत्तर प्रौढ़ता देखने योग्य है। बुद्ध के मुख मण्डल पर आशा, करुणा, दिव्यता एवं शान्ति का अपूर्व सामंजस्य इस मूर्ति में दिखायी पड़ता है। विद्वान् डॉ० आर०आर० सेठी ने बुद्ध की इस ताम्र मूर्ति के विषय में कहा है कि, "भगवान बुद्ध जी की ताम्र मूर्ति के मुख मण्डल पर अपूर्व शान्ति, दिव्य तेज, प्रेम तथा करुणा दिखायी गयी है तथा उनका स्वरूप विस्तृत निधि के समान गम्भीर, महान दिखाया गया है जिसमें दिव्य तेज व अपार करुणा झलक रही है।"
इस प्रकार भगवान बुद्ध की ये तीनों मूर्तियाँ (सारनाथ, मथुरा, सुल्तानगंज) यथार्थ में बुद्ध की सर्वश्रेष्ठ मूर्तियाँ कही जा सकती हैं। इन मूर्तियों के दर्शन से ऐसा प्रतीत होता है मानो मूर्तिकारों ने श्रद्धा तथा भक्ति भावना का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन पूर्ण रूप से इन बुद्ध मूर्तियों में ही कर दिया है। ऐसा अलौकिक भगवान बुद्ध का दिव्य दर्शन कराकर इन मूर्तिकारों ने मानव जाति का विशेष रूप से महान कल्याण किया है।
गुप्तयुगीन मथुरा कला पूरे उत्तर भारत में लोकप्रिय हुई जिसका प्रथम दर्शन भगवान बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति स्थल बोधगया में होता है। बोधगया में बोधिसत्व की मूर्ति मथुरा शैली में बनी हुई है। यह मूर्ति शक्ति और दिव्य तेज तथा आध्यात्मिक अभिव्यक्ति में पूर्ण रूप से सक्षम है। विद्वान स्टेला क्रमरिश ने इस मूर्ति के विषय में कहा है कि, "बोधगया की बोधिसत्व की मूर्ति भारत देश की पहली मूर्ति है जो अपने उद्देश्य की अभिव्यक्ति में सफल सिद्ध होती है।"
जहाँ एक ओर मूर्तिकारों ने भगवान बुद्ध की विशाल तथा अद्वितीय मूर्ति का निर्माण करके उनके प्रति अपनी अगाध श्रद्धा व भक्ति भावना का अनूठा परिचय दिया है। वहीं दूसरी ओर बौद्ध अनुयायियों ने भी भगवान बुद्ध के प्रति अपनी सच्ची भक्ति भावना एवं निस्वार्थ प्रेम को प्रकट किया है। उन्होंने भगवान बुद्ध से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु को हृदय व माथे से लगाकर आशीर्वाद स्वरूप स्वीकार किया है। यहाँ तक कि चीन, जापान, इण्डोनेशिया से लेकर थाइलैण्ड, श्रीलंका तक के बौद्ध अनुयायी बुद्ध को आशीर्वाद स्वरूप उनके किसी भी वस्तु की हर कीमत देने को तत्पर रहते हैं। इसका ज्वलन्त उदाहरण दैनिक समाचार पत्रिका 18 मई, 2007 'अमर उजाला' के पृष्ठ संख्या नौ के अनुसार, बोधगया के महाबोधि वृक्ष जिसके नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति हुई, उसी बोधिवृक्ष के एक-एक पत्ते के लिए ये अनुयायी पाँच-पाँच सौ डालर देने को तैयार रहते हैं, जबकि इस वृक्ष से पत्र तोड़ना मना है, केवल स्वयं अपने आप गिरे पत्तों को ही लिया जाता है।" आश्चर्य होता है इस प्रकार की भक्ति भावना को देखकर और इतनी अद्भुत बुद्ध की प्रतिमाओं को देखकर जिसके निर्माण के लिए मूर्तिकार व धर्मानुयायी अपना सर्वस्व समर्पण करने को सदैव तैयार रखते थे।
जैन मूर्तियाँ - गुप्तकाल में जैन मूर्तियों का तो निर्माण हुआ लेकिन कोई विशेष प्रगति दिखायी नहीं पड़ती है। गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के कहाँव स्तम्भ लेख से जानकारी प्राप्त होती है जिसके आधार पर मद्र नामक व्यक्ति ने आदिनाथ, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी के प्रतिमाओं की स्थापना करायी। इस समय जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ बनीं, जिसमें शासकों तथा मूर्तिकारों के रुचि का अभाव-सा दिखायी पड़ता है। इस समय के जैन तीर्थकरों की मूर्तियों में महावीर स्वामी की मूर्तियाँ मूर्तिकारों ने सुन्दर ढंग से बनायी हैं। जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूर्ति मथुरा तथा गोरखपुर ( उ०प्र०) जनपदों से भी प्राप्त की गयी है। इन मूर्तियों में उन्हें पदमासन लगाये हुए दिखाया गया है। कुछ जैन मूर्तियाँ राजगृह, बेसनगर, देवगढ़, चन्देरी एवं देवरिया जिले से भी मिली हैं जो पूर्ण रूप से नग्न हैं। इन मूर्तियों का शारीरिक सन्तुलन भारतीय आदर्शों पर आधारित है। देवगढ़ ( ललितपुर जिला) नामक स्थल के दशावतार मन्दिर में भी कुछ जैन मूर्तियाँ हैं जो कलात्मक दृष्टि से उत्तम मानी गयी हैं। गुप्तकाल में सम्राट कुमारगुप्त के शासनकाल में जैन मूर्तियाँ अधिक बनायी गयी थीं। इन मूर्तियों पर बाह्य कला का प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता है।
वैष्णव मूर्तियाँ - गुप्त शासक वैष्णव मत के पोषक थे। यही कारण है कि इनके समय में विष्णु की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण किया गया था। चन्द्रगुप्त काल के मेहरौली लौह स्तम्भ लेख से यह ज्ञात होता है कि इस शासक ने विष्णुपद नामक शिला पर विष्णु स्तम्भ स्थापित करवाया था। इस काल के मथुरा, एरण तथा देवगढ़ से प्राप्त मूर्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मथुरा के मूर्तिकारों ने विष्णु भगवान की अति सुन्दर नवीन मूर्तियों का निर्माण किया। इसी के साथ-साथ इस काल में विष्णु भगवान के पौराणिक आख्यान का भी विधिवत उल्लेख किया गया है जो बहुत लोकप्रिय रही है। यही कारण है कि इस समय विष्णु के विभिन्न अवतारों की मूर्तियों का भी निर्माण होने लगा था जिनमें मत्स्य, कच्छप, कूर्म, वाराह, नृसिंह, राम, कृष्ण इत्यादि अवतारों की मूर्तियाँ विशेष रूप से प्रसिद्ध रही हैं।
गुप्त युग की मन्दिर मूर्ति शिल्प की कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध रही है। इस प्रसंग में उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में स्थित देवगढ़ नामक स्थान के दशावतार नामक मन्दिर की भित्तियों पर विष्णु के विभिन्न अवतारों की जो मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं वे विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। देवगढ़ की दर्शनीय मूर्तियों में विष्णु के अवतार से सम्बन्धित मूर्ति ही विशेष प्रसिद्ध है, जिनमें अनन्तशायी विष्णु एवं गजेन्द्र मोक्ष तथा राम और कृष्ण की लीलाएँ आदि मुख्य रही हैं। गुप्त युग में विष्णु की अधिकतर चतुर्भुजी मूर्तियाँ ही लोकप्रिय थीं। विष्णु की ऐसी मूर्तियों में उदयगिरि की गुहा भित्ति पर प्राप्त होती हैं जो बहुत अंकित विष्णु प्रतिमा एवं एरण की विष्णु प्रतिमा प्रमुख रही हैं। इन मूर्तियों में विष्णु को शंख, चक्र, गदा एवं पदम लिए हुए, सिर पर मुकुट, गले में हार व कैयूर और कानों में कुण्डल धारण किये हुए बनाया गया है। विष्णु अवतार की मूर्तियों में मूर्तिकार ने वमन अवतार विष्णु के पैर द्वारा पृथ्वी एवं आन्तरिक लोक को नापने की कथा को मूर्त रूप देने का अद्भुत प्रयास किया है।
दशावतार मन्दिर के दक्षिण दिशा वाले पट्ट में शेषनाग की कुण्डलियों पर विष्णु भगवान् को विश्राम करते हुए अंकित किया गया है। विष्णु की नाभि से उदित पदम पर ब्रह्मा तथा ऊपर व्योम में नन्दी पर सवार शिव-पार्वती व मयूरासीन कार्तिकेय एवं इन्द्र को ऐरावत पर आसीन दिखाया गया है तथा विष्णु के समीप बैठी लक्ष्मी उनके चरणों को सहला रही हैं। इसी चित्र श्रृंखला में नीचे की ओर पाँच पुरुष तथा एक स्त्री का अंकन किया गया है साथ ही साथ दो चैत्यों मधु तथा कैटभ का भी अंकन सुन्दर ढंग से किया गया है। पुराविद् कनिंघम के शब्दों में, "इन मूर्तियों का चित्रांकन सामान्यतः ओजपूर्ण है और अनन्तशायी विष्णु का रेखांकन तो न केवल सहज, बल्कि मनोहर भी है साथ ही साथ इनकी मुद्रा गौरवपूर्ण भी है।"
इसी मन्दिर के उत्तरी पट्ट पर गजेन्द्र मोक्ष का भी दृश्य अंकित किया गया है जो अत्यन्त सुन्दरता के साथ बनाया गया है। पूर्वी पट्ट पर नर नारायण तपस्या का दृश्य अंकित किया गया है। इसमें नर नारायण को हिमालय की कुटी में तपस्यारत दिखाया गया है जिनके आसन के नीचे मृग एवं सिंह का अंकन किया गया है। इस प्रकार विष्णु के ये तीनों दृश्य कलात्मक दृष्टि से अति उत्तम मानी गयी है। देवगढ़ मन्दिर की मूर्तिकारी एवं रिलीफ चित्रकला की दृष्टि से सर्वोत्तम कही जा सकती है।
विष्णु की अवतार मूर्तियों में मूर्तिकारों ने वाराह अवतार पर विशेष बल देने का प्रयास किया है। यह मूर्तियाँ दो प्रकार की हैं। नृवराह प्रकार की मूर्तियों में मुख तो वराह का है किन्तु शरीर मानव का अंकित किया गया है। इस मूर्ति में विष्णु के दो हाथ हैं जिसमें वाम हस्त घुटनों पर टिका है और दायाँ हाथ कट्यावलम्बित है। विष्णु का वाम पाद शेषनाग के शरीर पर है। इसमें शेषनाग के तेरह फन दो पत्तियों में बनाये गये हैं। वराह अपने दन्त से भूदेवी को कन्धे पर ऊपर उठाये हुए हैं। वराह का शरीर हृष्ट-पुष्ट तथा गले में वनमाला चित्रित किया गया है। वराह के वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न अंकित किया गया है। यह मूर्ति अत्यन्त सजीव व मनमोहक है। इसमें विष्णु के कल्याणकारी स्वरूप का अंकन किया गया है जिन्होंने धरती की रक्षा हेतु वराह का रूप धारण किया था। बाशम महोदय के शब्दों में, "वह गम्भीर भावना जिसने इस कृति के निर्माण की प्रेरणा दी, इसे संसार की कला में सम्भवतः एकमात्र पशुवत मूर्ति का स्थान प्रदान करती है जो आधुनिक काल के मानव को एक सच्चा धार्मिक सन्देश देती है।" इस मूर्ति में गुप्तकाल का वैभव, शक्ति तथा अनुपम सौन्दर्य का सुन्दर मिश्रण दृष्टिगोचर होता है।
दूसरे प्रकार की वराह मूर्ति एरण नामक स्थान से प्राप्त हुई है जिसका निर्माण धन्य विष्णु ने कराया था। इस मूर्ति पर हूण सम्राट तोरमाण का लेख उत्कीर्ण है। लेकन यह मूर्ति उदयगिरि के नृवराह मूर्ति के समान कलात्मक नहीं है। वराह के साथ-साथ वराही की मूर्तियाँ भी एरण से प्राप्त की गयी हैं।
शैव मूर्तियाँ - इस युग में विष्णु मूर्तियों के अतिरिक्त शैव मूर्तियाँ भी निर्मित की गयी हैं। ये मूर्तियाँ लिंग एवं मानवीय दोनों ही रूपों में पायी गयी हैं। गुप्त युग में लिंग पर शिव के मुख निर्माण की पम्परा अत्यधिक लोकप्रिय रही है जिसे मुख लिंग नाम से पुकारा गया है। इसके अलावा एक तथा चतुर्मुखी शिवलिंग भी बनाये गये हैं। इस प्रकार के शिवलिंग मथुरा, भीटा, कौशाम्बी, खोह, भूमरा आदि स्थानों से मिले हैं। भूमरा एवं खोह से प्राप्त एकमुखी शिवलिंग विशेष रूप से सुन्दर है। इस शिवलिंग की मूर्ति में शिव के सिर पर जटा-जूट, गले में रुद्राक्ष की माला तथा कानों में कुण्डल एवं शिव का अण्डाकार चेहरा मुख्य रूप से देखने योग्य है। इसमें ध्यानावस्थित शिव के नेत्र अधखुले बने हैं एवं उनके अधरों पर मन्द मुस्कान दिखायी पड़ती है। इनकी जटा के ऊपर मध्य में अर्धचन्द्र विराजमान है तथा ललाट पर दिव्य नेत्र का अंकन किया गया है। इस प्रकार इसकी रचना आकर्षक और कलात्मक ढंग से की गयी है।
मथुरा एवं कौशाम्बी से मानव विग्रह में शिव-पार्वती की मूर्तियाँ मिली हैं। इस मूर्ति में शिव के अर्धनारीश्वर रूप का सुन्दर अंकन किया गया है। मथुरा से प्राप्त अर्धनारीश्वर मूर्ति में शिव का दायाँ भाग पुरुष एवं बायाँ भाग स्त्री का बनाया गया है।
कौशाम्बी से शिव-पार्वती की प्रतिमा पायी गयी है जिस पर गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम का लेख अंकित किया गया है। इस मूर्ति में शिव कुछ झुकी अवस्था में खड़े हैं और उनके वामहस्त में प्याला तथा दायें हस्त में अमृत घट लिए हुए हैं। पार्वती, शिव के वाम भाग की ओर खड़ी हैं जिनके वाम हस्त में दर्पण है। यह मूर्ति अत्यन्त सौन्दर्ययुक्त एवं मनोहारी है।
अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ - गुप्तकाल में हिन्दू धर्म के अन्य देवताओं एवं देवियों की मूर्तियों का भी निर्माण किया गया। इस प्रकार की मूर्तियों का अंकन भूमरा के मन्दिर की भित्तियों तथा गवाक्ष पट्टियों पर सफलतापूर्वक किया गया है। इन मूर्तियों के अंकन में मुख्य रूप से सूर्या, ब्रह्म, कुबेर, गणेश, इन्द्र व महिषासुरमर्दिनी आदि का अंकन किया गया है। महिषासुर का वध करती देवी दुर्गा की मूर्ति उदयगिरि गुहा से मिलती है जो अत्यन्त ओजस्वी है। इस प्रतिमा में दुर्गा के बारह हाथ बनाये गये हैं। यह मूर्ति क्षतिग्रस्त होते हुए भी गुप्तकाल की महत्त्वपूर्ण मूर्ति मानी जा सकती है। मथुरा से पार्वती की एक मूर्ति पायी गयी है जिसमें माता पार्वती के जंघा पर स्कन्द को बैठे हुए दिखाया गया है। यह मूर्ति वात्सल्य भाव से ओतप्रोत है तथा कलात्मक दृष्टि से उत्तम है। इन देवी मूर्तियों में स्त्री सौन्दर्य का पूर्ण प्रदर्शन बड़ी सौम्यता एवं भद्रता के साथ किया गया है। ये देवी मूर्तियाँ विभिन्न प्रकार के आभूषणों से पूर्णत: अलंकृत हैं जिसके कारण देवी मूर्तियाँ बड़ी मनमोहक व सौन्दर्ययुक्त दिखायी पड़ती हैं।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि गुप्तयुगीन मूर्तिकला तकनीकी दृष्टि से उत्तम थी। इस काल में बौद्ध, जैन, वैष्णव, शैव आदि सभी धर्मों के अनुनायियों ने अपने आराध्य देव तथा देवियों की मूर्तियों का अंकन करवाने में विशेष रुचि ली थी। गुप्तयुगीन कला केवल भारतीय न होकर वृहत् रूप में अपना विस्तारण करके सुदूर देशों तक अपनी उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन किया और अपनी अनूठी कला की छाप विदेशी कला पर भी छोड़ गयी।
मृण्मयी मूर्तियाँ - गुप्तयुग में मृदभाण्ड कला का पूर्ण विकास हुआ था। इस काल में विष्णु, कार्तिकेय, गंगा, यमुना, दुर्गा आदि देवी एवं देवताओं की मूर्तियों का निर्माण अत्यधिक संख्या में हुआ। यह मूर्तियाँ पहाड़पुर, राजघाट, भीटा, कौशाम्बी, श्रावस्ती, अहिच्छत्र, मथुरा आदि स्थलों से प्राप्त की गयी हैं। गुप्तकालीन मिट्टी की ये मूर्तियाँ साँचे में ढलकर और हस्तनिर्मित दोनों तरह से बनायी गयी हैं। रामायण तथा महाभारत एवं पौराणिक आख्यानों से सम्बन्धित मूर्तियाँ आयताकार एवं वर्गाकार साँचे में ढालकर निर्मित की गयी हैं। ये मूर्तियाँ भीतरगाँव एवं श्रावस्ती के मन्दिरों में पायी गयी हैं। इसी प्रकार अहिच्छत्र से मकरवाहिनी गंगा एवं कूर्मवाहिनी यमुना की मृण्मूर्ति भी प्राप्त हुई हैं। इसी के साथ-साथ इसी स्थल से पार्वती की शीर्ष प्रतिमा प्राप्त की गयी है।
मकरवाहिनी गंगा की मूर्ति में गंगा के वामहस्त में अमृत घट का अंकन किया गया है तथा दायाँ पाद कुछ झुका हुआ बनाया गया है। गंगा खड़ी अवस्था में बनी है जिनके शरीर का पूर्ण सन्तुलन वाम पाद पर आधारित है। इनकी खड़ी मुद्रा अत्यन्त मनमोहक है तथा मुख पर अद्वितीय शान्ति का भाव है।
देवी यमुना को कूर्म पर खड़ी अवस्था में अंकित किया गया है जिनके दाँये व बाँये लघु मानवाकृतियाँ बनायी गयी हैं। देवी यमुना अपने वाम पाद को घुटने से नीचे कुछ मुड़ी हुई अवस्था में रखे हैं और अपने दाहिने पाद पर अपने शरीर के भार को पूर्णत: सौंप दी है। यमुना की यह मूर्ति खड़ी अवस्था में अंकित की गयी है जिसमें उनके मुखमण्डल पर शान्ति व आध्यात्म भाव स्पष्ट रूप से झलकती प्रतीत होती है।
अहिच्छत्र से ही देवी पार्वती की शीर्ष मूर्ति प्राप्त की गयी है जिसमें गुप्तकाल के मूर्तिकारों ने अपनी उत्कृष्ट कला का परिचय देते हुए बड़ी सुन्दरता के साथ इस शीर्ष मूर्ति का अंकन किया है। मूर्ति के केश बहुत सावधानी से बनाये गये हैं तथा केशों का जूड़ा बहुत ही सुन्दर ढंग से बनाया गया है कि देखते ही बनता है। मूर्ति के मुखमण्डल पर अपूर्व शान्ति, दिव्यता एवं गम्भीरता दिखायी पड़ती है।
इन मृण्मूर्तियों के अतिरिक्त कौशाम्बी से हारीति, कुबेर एवं हस्ति लक्ष्मी की मूर्तियाँ पायी गयी हैं। भीटा नामक स्थल से भी शिव एवं पार्वती की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। ये मूर्तियाँ आकार में विशाल हैं और सौन्दर्य से परिपूर्ण हैं। गुप्तकाल को मिट्टी के मुहरों पर भी सुन्दर आकृतियाँ एवं लेख उत्कीर्ण हैं जो उस काल की कला पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है।
गुप्तकालीन मुद्राएँ व उसकी कला - गुप्तकालीन मुद्राएँ भी उस काल की कला पर अच्छा प्रकाश डालती हैं जिस पर मूर्तिकला के दृष्टिकोण से निम्नांकित मुद्राएँ विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण मानी गयी हैं जिसके निर्माण में मूर्तिकारों ने अत्यन्त सुन्दर कलाकृतियों का प्रयोग करके अपनी पूर्ण दक्षता का परिचय इन मुद्राओं के माध्यम से दिया है।
समुद्रगुप्त की मुद्राओं पर अंकित मूर्तिकला - गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त की मुद्राएँ अश्वमेध प्रकार के कहे जा सकते हैं जिसको इस शासक ने अश्वमेध यज्ञ के समय चलवाया था। इस प्रकार की मुद्राओं में अश्वमेध का अश्व बलिवेदी के साथ बँधा हुआ मूर्ति रूप में अंकित किया गया है। इस स्वर्ण मुद्रा के पृष्ठ भाग पर दत्त देवी की सुन्दर आकृति अंकित की गयी है।
इसी प्रकार एक अन्य स्वर्ण मुद्रा के मुख भाग पर वीणा बजाते हुए सम्राट की आकृति उत्कीर्ण है। सम्राट के मुख पर मूँछ का अंकन किया गया है और सिर के पीछे आभा मण्डल दिखाने की कोशिश की गयी है। सम्राट एक छोटी-सी चौकी पर बैठे हुए हैं और उनका वाम पाद भूमि को स्पर्श कर रहा है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय की मुद्राओं पर अंकित मूर्तिकला - सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय की स्वर्ण मुद्राएँ भी मूर्तिकला की दृष्टि से अच्छी मानी गयी हैं जिससे उनके पराक्रम व विजय का ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार की स्वर्ण मुद्राओं में सर्वप्रमुख वे मुद्रा हैं जिसमें सम्राट सिंह को धनुष बाण से मारते हुए अंकित किया गया है। इस सिक्के पर सम्राट की आकृति अत्यन्त निर्भीक दिखायी गयी है तथा उनके अंकन में जीवन्तता एवं गति का बोध कराया गया है।
इसी स्वर्ण मुद्रा के पृष्ठ भाग पर सिंह पर आसीन देवी दुर्गा की आकृति बनायी गयी है जिसमें देवी के वाम हस्त में पदम नाल दिखाया गया है। देवी के गले में कण्ठाहार सुशोभित है और सिर के पीछे दिव्य आभा मण्डल अंकित किया गया है।
चन्द्रगुप्त प्रथम की मुद्राओं पर अंकित मूर्तिकला - गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम के शासनकाल में भी स्वर्ण मुद्राओं पर सुन्दर आकृतियाँ उत्कीर्ण पायी गयी हैं जो भारतीय उत्कीर्ण कला की दृष्टि से उत्कृष्ट धरोहर मानी जा सकती हैं। इस समय की एक स्वर्ण मुद्रा के मुख भाग पर चन्द्रगुप्त प्रथम एवं कुमार देवी की आकृति उनके नामों के साथ अंकित की गयी हैं, जिसमें रानी राजा को अँगूठी सदृश्य कोई वस्तु समर्पित कर रही है तथा राजा के वाम है
हस्त में एक दीर्घ शक्ति के समान कोई शस्त्र है जिसके शीर्ष पर अर्धचन्द्र का अंकन किया गया है, जो उनके पराक्रम को इंगित करता है। राजा के शीर्ष पर पीछे की ओर आभा मण्डल अंकित किया गया है तथा दोनों आकृतियों को आभूषण से युक्त दिखाया गया है।
इसी मुद्रा के पृष्ठभाग पर सिंहवाहिनी देवी दुर्गा की आकृति उकेरी गयी है। देवी की मुखमुद्रा एकदम शान्त तथा सिर के पीछे दिव्य आभा मण्डल बनाया गया है। इस आकृति के वाम हस्त में चंवर सदृश्य कोई वस्तु है जो सम्भवतः दीर्घ पदम या देवी का कोई शस्त्र हो। देवी के चरण आसन पर रखे हुए अंकित किये गये हैं और सिंह शान्त मुद्रा में बैठा हुआ बनाया गया है जिस पर देवी विराजमान हैं।
इस प्रकार गुप्तयुगीन सम्राटों की मुद्राओं पर भी हम मूर्तिकला की सुन्दर छवि के दर्शन पाते हैं जो अत्यन्त सौन्दर्यमुक्त व सजीव है। इन मुद्राओं से सम्राटों के पराक्रम एवं विजयों का ज्ञान प्राप्त होता है तथा उनके राज्य विस्तार, मनोरंजन एवं संगीत प्रेम आदि का भी ज्ञान इन मुद्राओं के द्वारा ज्ञात होता है।
गुप्तकालीन मूर्तियों की विशेषताएँ - इस काल में जो मूर्तिकला विकसित हुई उसका उद्देश्य केवल मनोरंजन के द्वारा तामसिक भावों को ही उत्पन्न करना नहीं था, बल्कि उसका उद्देश्य भद्रता व शालीनता के माध्यम से दर्शन के मनोमस्तिष्क में आध्यात्मिक चिन्तन की भावना को जाग्रत करना भी था। इस की मूर्तियों में जटिलता का अभाव है तथा सर्वत्र सरलता एवं बोधगम्यता के दर्शन होते हैं। गुप्तकालीन मूर्तियों में शारीरिक अनुपात का बड़ा स्वाभाविक अंकन किया गया है जिसके कारण मूर्तियाँ जीवन्त प्रतीत होती हैं। कुषाण काल में हमें विदेशी प्रभाव भारतीय कला पर दिखायी पड़ता है जिसे गांधार कला से अभिहित किया गया है किन्तु गुप्तकाल की मूर्तिकला में विदेशी कला तत्त्व का समावेश नगण्य है, बल्कि इस काल की भारतीय कला ने अपना प्रभाव विदेशी कला पर दिखाया है। अतः गुप्तकाल की मूर्तिकला मूल रूप से भारतीय ही है।
इस काल में भारतीय मूर्तिकारों ने अपनी एक विशिष्ट तथा निजी राष्ट्रीय शैली का निर्माण किया था जिसमें मूर्ति के आकार, गति एवं उसकी बनावट तथा स्वाभाविकता पर विशेष ध्यान इन मूर्तिकारों ने दिया था। इन मूर्तियों में एक प्रकार से भारत की आत्मा और उसकी ऐतिहासिक परम्परा को प्रतिष्ठित किया गया है। इस काल की कला में स्वाभाविकता एवं वास्तविकता के दर्शन होते हैं। इस विषय पर लूनिया का कथन है कि, "इस युग की मूर्तियों की मुख्य विशेषता यह है कि उनके मुख एवं नेत्रों की मुद्रा शान्त है जो उनके ध्यानास्थ शान्त चित्त का आत्मिक अभिव्यक्तिकरण है। इनके मुख मण्डल पर अपूर्व आभा तथा कोमलता एवं. गम्भीरता के साथ स्वाभाविकता भी दिखलायी पड़ती है।" इस युग की सभी मूर्तियाँ मूर्तिकला के दृष्टिकोण से अत्यधिक सौन्दर्ययुक्त व महत्त्वपूर्ण हैं।
गुप्तकालीन मूर्तियों का सौन्दर्य विधान - गुप्तकालीन मूर्तियों में सर्वत्र सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता है। विद्वान सत्यकेतु विद्यालंकार के शब्दों में, "भारत में तो मूर्तिकला की परम्परा बड़ी प्राचीन रही है किन्तु गुप्तकालीन भारतीय मूर्तिकला में भारतीय आध्यात्मवाद एवं पाश्चात्य भौतिकवाद दोनों ने मिलकर इस काल की मूर्तियों में एक नवीन बात पैदा कर दी है जिसके कारण इस युग की मूर्तियों में अपूर्व सौन्दर्य दिखायी पड़ता है। इसमें भौतिक सौन्दर्य की अपेक्षा उसमें आन्तरिक शान्ति, ओज एवं आध्यात्मिक आनन्द की जो झलक मिलती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार मूर्तिकला की दृष्टि से गुप्तकाल वस्तुतः अद्वितीय माना जा सकता है।"
इस युग की कला विदेशी तत्त्वों को अपने में उतार लेने वाली एक समन्वयवादी कला है। इस काल की मूर्तियों में आदर्श एवं सौन्दर्य का अद्भुत सौन्दर्य दिखायी पड़ता है। आदर्श और समन्वय की सर्वोत्तम कृति सारनाथ की बौद्ध मूर्ति को मान सकते हैं जिसमें सौन्दर्य की उच्च भावना से परिपूर्ण उच्च आदर्श का अंकन किया गया है। इस काल की कला में बौद्धिकता का प्रमुख स्थान है जिसके कारण उच्च विकसित भावना एवं अत्यधिक अलंकरण पर नियन्त्रण करके कलाकृति की रचना की गयी है।
देवी मूर्तियों में स्त्री सौन्दर्य का पूर्ण प्रदर्शन किया गया है, जिसमें देवी उन्नत उरोज, क्षीण कटि, चंचल नेत्र, सुकोमल मुख पर रक्ताभ अधर तथा पुष्ट नितम्ब सभी सौन्दर्य के प्रतीक हैं, जिनका अंकन बड़ी शालीनता के साथ किया गया है। कहीं से भी इन मूर्तियों में कामुकता के भाव प्रकट नहीं होते हैं। इन मूर्तियों के सरस सौन्दर्य व कोमलता को देखकर दर्शक का मन प्रफुल्लित हो जाता है तथा नेत्र तृप्त व आत्मा आन्तरिक सुख का अनुभव करने लगती है। संक्षेप में, ये मूर्तियाँ हमें अपनी आन्तरिक सौन्दर्य की ओर खींचती हैं न कि केवल बाह्य सौन्दर्य में उलझाये रखती हैं। इन मूर्तियों में आध्यात्मिकता एवं बौद्धिकता का सुन्दर सामंजस्य व आध्यात्मिक भावनाओं की सचेष्टता स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ती है। इस प्रकार गुप्तकालीन मूर्तिकारों ने इन मूर्तियों में पार्थिव सौन्दर्य से अधिक ईश्वरीय सौन्दर्य को प्रकट करने में अद्भुत सफलता प्राप्त की है।
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