बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- खजुराहो के मूर्ति शिल्प के विषय में आप क्या जानते हैं?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. गुप्तयुगीन कला की प्रथम वर्ग की मूर्तियाँ कैसी थीं?
2. खजुराहो की मूर्तियों की क्या विशेषता थी?
उत्तर-
खजुराहो का मूर्ति शिल्प
गुप्तयुगीन मूर्तिकला के पश्चात् खजुराहो ही अति प्रतिष्ठित मूर्तिकला केन्द्र के रूप में. दिखायी पड़ता है। यह अपने अद्भुत सौन्दर्य एवं विषय में विविधता के कारण प्रसिद्ध रहा है। एक ओर जहाँ इन प्रतिमाओं का निर्माण सांस्कृतिक दृष्टि से राजपूती विलासिता, सामन्तवादिता एवं तान्त्रिकता को प्रतिबिम्बित करता है, वहीं दूसरी ओर यह कलात्मक दृष्टि से वास्तुकला एवं मूर्तिकला के सुन्दर सामंजस्य का भी प्रतिनिधित्व करता है। खजुराहो मन्दिर की यह मूर्तियाँ चन्देल सम्राटों के मूर्तिकला के प्रति अटूट लगाव व प्रेम को दर्शाती है, जिनके संरक्षण में यह कला फली फूली और प्रसिद्धि के चरम शिखर को प्राप्त कर गयी।
खजुराहो मन्दिर अपनी वास्तुकला की श्रेष्ठता तथा मूर्तिकला में अद्वितीय है। यहाँ के मन्दिरों के अन्दर एवं बाहर दोनों ही ओर की भित्तियाँ अत्यन्त कोमल एवं भावपूर्ण मूर्तिशिल्पों से भरी हुई हैं। यहाँ की मूर्तिकला के विषय में विद्वानों ने इतना अधिक विचार किया है कि शायद ही भारत की किसी अन्य काल की कला पर इतना अधिक प्रकाश डाला गया हो।
खजुराहो मन्दिर की मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ तीन धर्मों (वैष्णव, शैव, जैन) से सम्बन्धित मन्दिर एक ही स्थान पर निर्मित किये गये हैं। सभी मन्दिरों का अलंकरण भी समान मूर्तियों से किया गया है। बाहर से यह अनुमान लगाना दुष्कर है कि कौन - सा मन्दिर किस धर्म या ईश्वर को समर्पित किया गया है। यह भेद गर्भगृह में स्थापित देव प्रतिमा के दर्शन से ही खुल सकता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि खजुराहो मन्दिर में धार्मिक सामंजस्य का उच्चतम रूप दृष्टिगोचर होता है। खजुराहो की सम्पूर्ण मूर्तियों को पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है-
प्रथम वर्ग की मूर्तियाँ - इस वर्ग के अन्तर्गत वे मूर्तियाँ रखी गयी हैं जो मन्दिर के गर्भगृह में पूजनार्थ स्थापित की गयी हैं। ये प्रतिमाएँ चारों ओर तराशी गयी हैं। देवी-देवता की ये प्रतिमाएँ समभंग मुद्रा में खड़ी पायी गयी हैं। प्रभामण्डल से युक्त इन देव प्रतिमाओं की पृष्ठभूमि में सहायक देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ भी बनायी गयी हैं। ये सहायक देव प्रतिमाएँ पूर्ण यौवन के आनन्द एवं पवित्र शान्ति के प्रतीक रूप में बनायी गयी हैं। इस वर्ग में विष्णु, शिव, गणपति, सूर्य, दुर्गा, महिषासुर मर्दिनी आदि की प्रतिमाएँ बनायी गयी हैं। यहाँ विष्णु की खड़ी, बैठी व शयन मुद्रा तीनों प्रकार की प्रतिमा प्राप्त होती हैं। विष्णु की एक योगासन मूर्ति में देवता अपनी एक अँगुली अपने अधरों पर रखकर विश्व - शान्त का उपदेश देते प्रतीत होते हैं। डॉ० जे० एन० बनर्जी ने इस विष्णु प्रतिमा को 'मौनवर्तिन विष्णु' कहा है। यहाँ से विष्णु के विभिन्न अवतार वाली प्रतिमा भी प्राप्त होती है। रचना सौष्ठव की दृष्टि से ये प्रतिमाएँ आकर्षक एवं सुन्दर अलंकरण तथा शरीर का सन्तुलित गठन, अलौकिक शान्ति एवं गम्भीर भावों से युक्त मुखमण्डल व नेत्र बरबस ही अपनी और आकर्षित कर लेते हैं। इन प्रतिमाओं में शिल्पकारों ने मूर्तिशिल्प नियमों का पालन करते हुए प्रतिमाओं में आन्तरिक भावों एवं सौन्दर्य को उभारने का अनुपम प्रयास किया है।
द्वितीय वर्ग की मूर्तियाँ - इस वर्ग में मुख्य देवता के परिवार या सहायक देवताओं की मूर्तियाँ आती हैं, जो मन्दिरों के अधिष्ठान, मन्दिर के जंघाओं, रथिकाओं एवं बाड़ में बनायी गयी हैं। इनके अंकन में शिल्पियों ने अपनी दक्षता का परिचय देते हुए सहायक देवताओं की शारीरिक संरचनाओं में व अंग-प्रत्यंग के उतार-चढ़ाव का बहुत सन्तुलित रूप ही दर्शाया है।
ये प्रतिमाएँ अधिकांश रूप में सम्मुख दर्शन के सिद्धान्त पर बनायी गयी हैं किन्तु कहीं-कहीं त्रिपाश्वदर्शी प्रतिमा भी दिखाई पड़ती है। ये प्रतिमाएँ प्रतिमाशास्त्र के सिद्धान्तों पर आधारित न होकर स्वतन्त्र रूप में निर्मित की गयी हैं जो विभिन्न रूपों व मुद्राओं में बनी हुई हैं। इन सहायक देवताओं की प्रतिमाओं में सीता-राम, बलराम-रेवती, शिव-पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, सूर्य, ब्रह्मा, सरस्वती, बैकुण्ठ, नरसिंही, इन्द्र, अग्नि, यम, गजलक्ष्मी व सिंहवाहिनी, गंगा, यमुना, कुबेर, वरुण, शंख, चक्र, पदम, नाग, गण, दिग्पाल, गन्धर्व आदि का अंकन किया गया है। इन संयुक्त प्रतिमाओं में देवता अपनी शक्तियों के साथ आलिंगन मुद्रा में बनाये गये हैं। इन संयुक्त प्रतिमाओं में देवता अपनी शक्तियों के साथ आलिंगन मुद्रा में बनाये गये हैं। मन्दिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर मुख्य देवता की लघु प्रतिमा बनी हुई है और प्रवेश द्वार के ऊपरी फलक पर गजलक्ष्मी की प्रतिमा सुशोभित की गयी है। इस प्रकार देव व उनकी शक्ति तथा अष्ट दिग्पाल आदि का अंकन नियमानुकूल किया गया है। ये सभी प्रतिमाएँ द्वितीय वर्ग के अन्तर्गत रखी गयी हैं।
तृतीय वर्ग की मूर्तियाँ - इस वर्ग मे अप्सराओं एवं सुन्दर युवतियों की मूर्तियों का अंकन किया गया है। इस वर्ग की मूर्तियाँ खजुराहो कला की सर्वश्रेष्ठ व अमर कृतियाँ मानी गयी हैं। ये मूर्तियाँ मिथुन एवं नारी अंकन के लिए विख्यात रही हैं। प्राचीन ग्रन्थों में अप्सराओं के दिव्य सौन्दर्य, नृत्य, गायन आदि का जो वर्णन मिलता है वह इस वर्ग की प्रतिमाओं में अक्षरथ: दिखायी पड़ता है। यहाँ की सुर-सुन्दरी प्रतिमाओं में श्रृंगार प्रसाधनों तथा रस- सिद्धान्तों का पूर्ण विवेचन किया गया है। इन प्रतिमाओं में सुन्दरियों के अंकन में मानवीय सौन्दर्य के सहज व भावपूर्ण दर्शन होते हैं। इन प्रतिमाओं के माध्यम से नारियों के जीवन की स्पष्ट झाँकी भी प्रस्तुत करने का सशक्त प्रयास किया गया है। ये नारी प्रतिमाएँ काम कला की ओर प्रेरित करती प्रतीत होती हैं। ये कभी वृक्ष की शाखा पकड़कर शालभंजिका मुद्रा में खड़ी हैं और कभी स्नान करके केश से लास्यपूर्ण ढंग से जल निचोड़ती दिखायी गयी है। इन्हें कभी दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब निहारते हुए कभी विनोद भाव से पैरों से काँटा निकालती तथा कभी कन्दुक क्रीड़ा करती, कभी अपने पीन पयोधरों का स्पर्श करती तथा कभी कातोत्तेजित होकर वस्त्र बन्धन को शिथिल करती अंकित की गयी हैं। उनके उन्नत सरोज, क्षीण कटि, पृथुल नितम्ब तथा चंचल नेत्रों वाली यह नारी मूर्तियाँ भोग-विलास, काम-क्रीड़ा इत्यादि भाव को व्यक्त करती हुई एकदम सजीव प्रतीत होती हैं। इन विभिन्न कामुक दृश्यों में भी उनके नेत्रों व मुख पर अनोखी शान्ति दिखायी पड़ती हैं जो उसके द्वित्व में एकत्व का उपदेश देती जान पड़ती है।
चतुर्थ वर्ग की मूर्तियाँ - इस वर्ग की प्रतिमाएँ धार्मिक जीवन एवं विश्वासों के विरुद्ध लौकिक जीवन से सम्बन्धित हैं। इस वर्ग की प्रतिमाओं के विषय घरेलू दृश्य, गुरु-शिष्य, युद्ध, आखेट, नर्तक, गायक- दल, सेना तथा काम भाव से ग्रसित स्त्री एवं पुरुष की प्रतिमाएँ रही हैं। इनमें मिथुन मूर्तियों की अधिकता है जो अश्लीलता को प्रकट करती हैं। ये मूर्तियाँ सांसारिक जीवन के आनन्द का भोग करते हुए मोक्ष की ओर इंगित करती प्रतीत होती हैं। ऐसे ही अश्लील मूर्तियों का अंकन भुवनेश्वर, कोणार्क एवं पुरी आदि के मन्दिरों में भी दिखाई पड़ता है। खजुराहो का चौंसठ योगिनी नामक मन्दिर भी ऐसी मूर्तियों से भरा पड़ा है। ये मूर्तियाँ चर्मचक्षु को अश्लील अवश्य लगती हैं लेकिन ये जीवन के परम आनन्द व सत्य की ओर इंगित करती हैं। इसी के कारण इस नश्वर जगत् का क्रम चलता रहता है और अन्ततः आत्मा वहीं स्थापित परम आत्मा में विलीन हो जाती है। इस प्रकार इन मूर्तियों का आध्यात्मिक पक्ष भी है जो अति सूक्ष्म होने के कारण चम चक्षु देख नहीं पाता और जो इस नेत्र के सम्मुख है वही सत्य समझ में आता है।
पंचम वर्ग की मूर्तियाँ - इस वर्ग के अन्तर्गत पशु-पक्षी, विभिन्न प्रकार के अलंकरण व बेलबूटे तथा प्रकृति दृश्य का अंकन किया गया है। इनके अंकन से यह ज्ञात होता है कि इस समय का शिल्पी पशु एवं मानव जगत के घनिष्ठ सम्बन्ध से परिचित था व स्वयं इन पशुओं के अंकन में भी पूर्ण दक्षता प्राप्त की थी। इन पशुओं में हस्ति, अश्व, वराह, शूकर, वृषभ, कपि आदि का अंकन किया गया है। इनमें शार्दूल व्याल आदि काल्पनिक पशुओं व अन्य पौराणिक पशु आदि का अंकन सुन्दर अलंकरण हेतु प्रयुक्त किए गये हैं। काल्पनिक पशुओं में उग्रसश्रृंग जिस पर सशस्त्र सैनिक आरूढ़ हैं और इस चित्र के पृष्ठ भाग से योद्धा प्रहार कर रहे हैं। यह एक अत्यन्त रोमांचक दृश्य है जिसका तृण-तृण सजीव जान पड़ता है। कुछ मूर्तियों का अंकन दन्तकथा के आधार पर भी किया गया है। पक्षियों में शुक-सारिका का अंकन विशेष रूप से प्रिय रहा है। इस वर्ग की मूर्तियों से यह स्पष्ट होता है कि इसमें मानवीय रूप के साथ-साथ प्राकृतिक जगत् के पशु-पक्षी व वनस्पति आदि को मानव जगत् में स्वच्छन्द स्थान दिया गया था।
खजुराहो की मूर्तियों की विशेषता - धर्म की दृष्टि से खजुराहो में वैष्णव, शैव एवं जैन आदि के मन्दिर बनाये गये हैं। लेकिन मन्दिर के बाह्य बनावट से यह अनुमान लगाना कंठिन है कि कौन-सा मन्दिर किस धर्म से सम्बन्धित है? इसका कारण यह है कि सभी मन्दिर की बाह्य भित्तियों में उत्कीर्ण की गयीं मूर्तियाँ एक-सी प्रतीत होती हैं जिसके कारण यहाँ के मन्दिरों में बाह्य रूप से धर्म समभाव दिखायी पड़ता है। यही इसकी मूल विशेषता है। खजुराहो की मूर्तियों में गुप्तयुग की विशेषताएँ भी दिखायी पड़ती हैं। इन मन्दिरों में जिन घटनाओं के भव्य दृश्य अंकित किये गये हैं वे इस काल की निजी विशेषताओं के सूचक हैं। इन दृश्यों में गति एवं अभिनय स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ है इसीलिए इस काल को भारतीय मूर्तिकला का रचनात्मक काल माना गया है। इस प्रकार खजुराहो की मूर्तिकला अपने अप्रतिम सौन्दर्य और विषयगत् विविधता के लिए प्रसिद्ध तो है ही साथ ही साथ ये मूर्तियाँ एक उत्कृष्ट परम्परा का भी प्रतिनिधित्व करती है जिसमें धार्मिक एवं लौकिक जीवन दोनों पर समान बल देकर जीवन की सच्चाई से अवगत कराती हैं।
खजुराहो के मूर्तिशिल्प का सौन्दर्य - खजुराहो मन्दिर, मन्दिर वास्तुकला केन्द्र के साथ-साथ मूर्तिकला का भी केन्द्र रहा है। यहाँ के मन्दिरों की भित्तियाँ विभिन्न प्रकार की प्रतिमाओं से भरा पड़ा है। ये प्रतिमाएँ द्विपार्श्वदर्शी है जो अत्यन्त कलापूर्ण एवं आकर्षक हैं। यहाँ की प्रतिमाएँ द्विपार्श्वदर्शी सिद्धान्त पर आधारित होने के कारण ये पूर्णतः उभरी हुई व विकसित स्वतन्त्र सी प्रतीत होती हैं। यहाँ पर उत्कीर्ण प्रतिमाओं में द्विपर्थक प्रतिमाओं की अधिकता है और इन प्रतिमाओं से इहलौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही भाव व्यक्त होते हैं।
खजुराहो मूर्तिशिल्प का वास्तविक सौन्दर्य यहाँ की नारी मूर्तियाँ ही हैं जिनकी शिल्पियों ने अत्यन्त सौन्दर्यपूर्ण ढंग से उकेरा है। ये नारी मूर्तियाँ विभिन्न मुद्राओं में मानव मन को इस प्रकार आकृष्ट करती हैं कि दर्शक मन्त्रमुग्ध हो जाता है। ये नारी मूर्तियाँ ही खजुराहो की कला को अमरत्व प्रदान करने में मुख्य रूप से सहायक बनी हैं। ये नारी प्रतिमाएँ कहीं अप्सराओं के रूप में विभिन्न मुद्राओं में नृत्य कर रही हैं तो कभी वृक्ष की शाखा पकड़ कर शालभंजिका मुद्रा में खड़ी हैं और कभी अपने कोमल पाद के प्रहार से अशोक वृक्ष को पुष्पित कर रही हैं। कभी वह विलासमय गति में ऐंठे अपने सुकुमार शरीर के कोमल अंगों को निहारती हैं तथा कभी विनोद भाव के साथ चरण से काँटा निकालती, एवं विभिन्न वाद्य को बजाती व उनके सुर-ताल के साथ नृत्य करती दिखायी पड़ती हैं। ये नारी आकृतियाँ कामुक भावों की तरफ भी कभी इंगित करती प्रतीत होती है जिसमें वह अपने कोमल-उरोज को स्पर्श करती, कभी शिशु को स्तनपान कराती व कभी कामोत्तेजक भावना से प्रेरित होकर वस्त्र बन्धन को शिथिल करती बनायी गयी हैं। ये नारी मूर्तियाँ अश्लील नहीं कही जा सकतीं, क्योंकि कलात्मक दृष्टिकोण से ये मूर्तियाँ अति उत्तम व आकर्षक हैं।
श्रृंगारिक (मिथुन) मूर्तियों के निर्माण का प्रयोजन - खजुराहो के इन सौन्दर्यमयी श्रृंगारिक मूर्तियों के निर्माण का क्या प्रयोजन था, इसका अनुमान लगाना कठिन कार्य है। इस विषय पर विभिन्न प्रकार के मत हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं। एक लोकोक्ति ( भारतीय शिल्प संहिता की प्रस्तावना में) के अनुसार हेमवती नामक स्त्री द्वारा चन्द्रमा के साथ समागम के प्रायश्चित् स्वरूप इन अश्लील प्रतिमाओं का निर्माण कराया गया। इस प्रकार इस युग के शिल्प ग्रन्थों (शिल्प प्रकाश अध्याय - 2 ) में भी मिथुन मूर्तियों को उत्कीर्ण करने का निर्देश दिया गया हैं।
इस प्रकार की मूर्तियों के निर्माण में पीछे तान्त्रिक प्रभाव भी हो सकता है, क्योंकि राजपूत में तान्त्रिक उपासना का प्राधान्य था। ऐसे चित्र पहले कन्नौज के प्रतिहार शिल्पियों द्वारा बनाये गये थे, तदुपरान्त इसमें तान्त्रिक शिव की उपासना के भावों को व्यक्त किया गया। तान्त्रिक साधना में सुन्दरियाँ देवी भैरवी के रूप में कार्य करती थीं और तन्त्र में मिथुन, मुद्रा, मत्स्य, माँस ये साधना के पाँच आवश्यक अंग माने गये हैं। तान्त्रिक दृष्टि से ये मिथुन प्रतिमाएँ परम ब्रह्म के साथ एकत्व से परमानन्द की प्राप्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये मिथुन प्रतिमाएँ शिव-शक्ति, प्रकृति-पुरुष, आत्मा-परमात्मा के एकत्व का चित्रण करती हैं। प्राचीनकाल से ही मिथुन मूर्तियाँ मन्दिरों में शुभ मानी गयी हैं। खजुराहो के चौंसठ योगिनी नामक मन्दिर में इस प्रकार की असंख्य प्रतिमाएँ उकेरी गयी हैं जो मैथुन तथा मद्य सम्बन्धी कर्मकाण्डों से भरी पड़ी हैं। ये प्रतिमाएँ यह सन्देश देते हुए प्रतीत होती हैं कि 'योग, भोग के द्वारा ही सम्भव होता है।' इसलिए इन प्रतिमाओं में जो अश्लीलता गढ़ी गयी है, अन्ततः वह सत्य है। इसलिए ये प्रतिमाएँ योग के द्वारा परमब्रह्म को पाने का एक मार्ग दर्शाती हैं। परम सत्य को आवरण की आवश्यकता नहीं होती है। वह हमेशा नग्न होती है और यही नग्नता खजुराहो मूर्तिकला का अदभुत सौन्दर्य है।
इस प्रकार खजुराहो के मन्दिर अपनी वास्तु एवं मूर्ति दोनों के लिए विख्यात हैं। वाजपेयी महोदय के शब्दों में, "प्रकृति और मानव जीवन की ऐहिक सौन्दर्य राशि को खजुराहो के मन्दिरों में शाश्वत रूप प्रदान कर दिया गया है।"
खजुराहो के मूर्तिकला के विषय में डॉ० कृष्णदेव जी का कथन है कि, "ये मूर्तियाँ अत्यन्त आकर्षक एवं भावपूर्ण चित्रण तथा कामसूत्र की स्पष्ट व्याख्या करने के कारण खजुराहो की ये मूर्तिकला अन्य समकालीन मूर्ति परम्पराओं में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं।"
खजुराहो मन्दिर की भित्तियों पर शिल्प श्रृंगार का इतना प्रचुर एवं व्यापक रूप भारत के अन्य किसी कला केन्द्र में मिल पाना सम्भव नहीं लगता है। यहाँ पर असंख्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं जो सजीव बोलती प्रतीत होती हैं। इस प्रकार बुन्देलखण्ड के खजुराहो मन्दिर का कण-कण मोहक व आकर्षक मूर्तियों से सम्यक् रूप से अलंकृत किया गया है।
इस प्रकार भारतीय मन्दिरों की स्थापत्य कला व शिल्प में खजुराहो का स्थान अद्वितीय है। इसके दा प्रमुख कारण हैं- प्रथम, खजुराहो का प्रत्येक मन्दिर शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ है। द्वितीय, इन मन्दिरों की भित्तियों पर स्त्री-पुरुष प्रेम की जो आकृतियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं, ऐसी प्रस्तर कलाकृतियाँ संसार में अन्यत्र दिखाई नहीं पड़ती हैं। यही कारण है कि खजुराहो को यूनेस्को से विश्व विरासत का दर्जा मिला हुआ है। समग्र रूप से खजुराहो की कलो अत्यन्त प्रशंसनीय व अलौकिक है जो चन्देल सम्राटों की अमर कीर्ति का प्रतीक है।
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- प्रश्न- मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के कला नमूने विकसित कला के हैं। कैसे?
- प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज किसने की तथा वहाँ का स्वरूप कैसा था?
- प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता की मूर्ति शिल्प कला किस प्रकार की थी?
- प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेष कहाँ-कहाँ प्राप्त हुए हैं?
- प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता का पतन किस प्रकार हुआ?
- प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता के चरण कितने हैं?
- प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता का नगर विन्यास तथा कृषि कार्य कैसा था?
- प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता की अर्थव्यवस्था तथा शिल्पकला कैसी थी?
- प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता की संस्थाओं और धार्मिक विचारों पर लेख लिखिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय वास्तुकला का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- भारत की प्रागैतिहासिक कला पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
- प्रश्न- प्रागैतिहासिक कला की प्रविधि एवं विशेषताएँ बताइए।
- प्रश्न- बाघ की गुफाओं के चित्रों का वर्णन एवं उनकी सराहना कीजिए।
- प्रश्न- 'बादामी गुफा के चित्रों' के सम्बन्ध में पूर्ण विवरण दीजिए।
- प्रश्न- प्रारम्भिक भारतीय रॉक कट गुफाएँ कहाँ मिली हैं?
- प्रश्न- दूसरी शताब्दी के बाद गुफाओं का निर्माण कार्य किस ओर अग्रसर हुआ?
- प्रश्न- बौद्ध काल की चित्रकला का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- गुप्तकाल को कला का स्वर्ण काल क्यों कहा जाता है?
- प्रश्न- गुप्तकाल की मूर्तिकला पर एक लेख लिखिए।
- प्रश्न- गुप्तकालीन मूर्तिकला के विषय में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- गुप्तकालीन मन्दिरों में की गई कारीगरी का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- गुप्तकालीन बौद्ध मूर्तियाँ कैसी थीं?
- प्रश्न- गुप्तकाल का पारिवारिक जीवन कैसा था?
- प्रश्न- गुप्तकाल में स्त्रियों की स्थिति कैसी थी?
- प्रश्न- गुप्तकालीन मूर्तिकला में किन-किन धातुओं का प्रयोग किया गया था?
- प्रश्न- गुप्तकालीन मूर्तिकला के विकास पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- गुप्तकालीन मूर्तिकला के केन्द्र कहाँ-कहाँ स्थित हैं?
- प्रश्न- भारतीय प्रमुख प्राचीन मन्दिर वास्तुकला पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- भारत की प्राचीन स्थापत्य कला में मन्दिरों का क्या स्थान है?
- प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दू मन्दिर कौन-से हैं?
- प्रश्न- भारतीय मन्दिर वास्तुकला की प्रमुख शैलियाँ कौन-सी हैं? तथा इसके सिद्धान्त कौन-से हैं?
- प्रश्न- हिन्दू मन्दिर की वास्तुकला कितने प्रकार की होती है?
- प्रश्न- जैन धर्म से सम्बन्धित मन्दिर कहाँ-कहाँ प्राप्त हुए हैं?
- प्रश्न- खजुराहो के मूर्ति शिल्प के विषय में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- भारत में जैन मन्दिर कहाँ-कहाँ मिले हैं?
- प्रश्न- इंडो-इस्लामिक वास्तुकला कहाँ की देन हैं? वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- भारत में इस्लामी वास्तुकला के लोकप्रिय उदाहरण कौन से हैं?
- प्रश्न- इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला की इमारतों का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- इण्डो इस्लामिक वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने के रूप में ताजमहल की कारीगरी का वर्णन दीजिए।
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- प्रश्न- भारत में इस्लामी वास्तुकला की विशेषताएँ बताइए।
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- प्रश्न- शाहजहाँ कालीन चित्रकला मुगल शैली पर प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- अकबर कालीन मुगल शैली की विशेषताएँ लिखिए।
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- प्रश्न- राजस्थान की वास्तुकला का परिचय दीजिए।
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