शब्द का अर्थ
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मूल-बंध :
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पुं० [ष० त०] १. किसी विवादास्पद विषय से संबंध रखनेवाले सभी प्रकार के मतो या विचारों की गवेषणा करके उस पर अपना अधिकारिक मत प्रकट करना (डिस्सर्टेशन)। २. दे० ‘शोध-निबंध’। |
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मूल :
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पुं० [सं०√मृ+क्ल, ऊठ-आदेश] [वि० मूलक] १. पेड़-पौधों का वह भाग जो पृथ्वी के नीचे रहता है, और जिसके द्वारा वे जलीय अंश आदि खींचकर अपना पोषण करते और बढ़ते हैं। जड़। सोर। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के पौधों की जड़े जो प्रायः खाने के काम आती है। उदाहरण—सहि दुःख कन्द मूल फल खाई।—तुलसी। पद—कन्द-मूल। ३. आदि। आरंभ। शुरू। नींव। बुनियाद। ५. कोई ऐसा तत्त्व जिसमें कोई दूसरी चीज या बात निकली, वही या बनी हो। उत्पादक तत्त्व या बात। जैसे—इस झगड़े का मूल कारण तो बताओ। ६. वह धन जो किसी प्रकार के लाभ की आशा में किसी व्यापार में लगाया जाय अथवा सूद पर किसी को उधार दिया जाय। असल पूँजी। मुहावरा—मूल पूजना=व्यापार में लगी हुई पूँजी या मूल धन निकल आना। ७. किसी पदार्थ का वह अंग या अंग जहाँ से उस पदार्थ का आरम्भ होता है। जैसे—भ्रुंज मूल। ८. कोई ऐसी चीज जिसकी अनुकृति पर वैसी ही और कोई चीज या चीजें बनाई जाती हो। ९. साहित्य में वह लेख या लेख्य जो पहले-पहल किसी ने अपनी बुद्धि या मन से तैयार किया या बनाया हो, और आगे चलकर जिसकी प्रति लिपि, व्याख्या आदि प्रस्तुत होती है। जैसे—(क) मूल की चार प्रतिलिपियाँ हुई थीं। (ख) गीता के इस संस्करण में मूल और टीका दोनों है। १॰. सत्ताईस नक्षत्रों में से उन्नीसवाँ नक्षत्र, जिसमें बालक का जन्म होना दूषित या निषिद्ध माना जाता है। ११. जमीकंद। सूरन। १२. पिप्पली मूल। १३. तंत्र में किसी देवता का आदि मंत्र या बीज। वि० १. असल और पहला। २. प्रधान। मुख्य। ३. जिसके आधार पर आगे चलकर किसी प्रकार का विकास होने को हो। अव्य० निकट। पास। समीप। |
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मूलक :
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वि० [सं० मूल+कन्०] १. जो किसी के मूल में हो। २. जिसके मूल में कुछ हो। ३. उत्पन्न करनेवाला। जैसे—अनर्थ मूलक। पुं० १. मूल स्वरूप। २. मूली नामक कंद। ३. वैद्यक में ३४ प्रकार के स्थावर विषों में से एक प्रकार का विष। ऐसा विष जो वृक्षों के मूल या जड़ के रूप में होता है। |
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मूलक-पर्णी :
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स्त्री० [सं० ब०स०+ङीष्] सहिंजन (पेड़)। |
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मूल-कमल :
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पुं० [सं० कर्म० स०] हठयोग के अनुसार नाभि के आसपास का अवयव जो कमल के रूप में माना गया है। नाभि-कमल। |
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मूल-कर्म (न्) :
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पुं० [सं० कर्म० स०] त्रासन, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरण आदि का वह तांत्रिक प्रयोग जो औषधियों के मूल द्वारा किया जाता है। जड़ी-बूटियों के मूल से होनेवाला टोना-टोटका। |
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मूलकार :
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पुं० [सं० मूल√कृ (करना)+अण्] मूलग्रंथ का कर्ता। |
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मूलकारिका :
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स्त्री० [सं० मूलकारक+टाप्, इत्व] १. मूल गद्य या पद्य जिसकी टीका की गई हो २. उधार दिए मूल धन की एक विशेष प्रकार की वृद्धि या सूद। ३. चंडीदेवी का एक नाम। |
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मूल-कृच्छ्र :
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पुं० [सं० सुप्सुपा स०] स्मृतियों में वर्णित ग्यारह प्रकार के पूर्णकृच्छ्रव्रतों में से एक जिसमें मूली आदि कुछ विशेष जड़ों का क्याथ या रस पीकर एक मास तक रहना पड़ता है। (मिताक्षरा)। |
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मूल-खानक :
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पुं० [सं० ष० त०] एक प्राचीन वर्णसंकर जाति जो पेड़ों की जड़ों से जीविका निर्वाह करती थी। |
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मूलच्छेद :
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पुं० [सं० ष० त०] १. किसी चीज की जड़ काटना जिसमें फिर वह पनप या बढ़ न सके। २. पूरी तरह से किया जानेवाला नाश। |
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मूलज :
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वि० [सं० मूल√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. मूल से उत्पन्न। २. जड़ से उत्पन्न होनेवाला। पुं० अदरक। आदी। |
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मूलतः (तस्) :
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अ० य० [सं० मूल+तस्] मूल रूप में। आदि में। प्रथमतः। |
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मूल-त्रिकोण :
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पुं० [कर्म० स०] फलित ज्योतिष में सूर्य आदि ग्रहों की कुछ विशेष राशियों में स्थिति। |
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मूल-द्रव्य :
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पुं० [कर्म० स०] १. मूलधन। पूँजी। २. वह भूत या द्रव्य जिससे अन्य भूतों या द्रव्यों की उत्पत्ति हुई है। |
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मूल-द्वार :
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पुं० [कर्म० स०] सिंह-द्वार। सदर दरवाजा। |
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मूल-द्वारावती :
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स्त्री० [कर्म० स०] द्वारावती नगरी का एक प्राचीन अंश जो आजकल की द्वारका से कुछ दूर प्रायः समुद्र के अन्दर पड़ता है। |
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मूल-धन :
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पुं० [कर्म० स०] वह धन जो और धन कमाने के उद्देश्य से लगाया जाय। पूंजी। |
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मूलधनी :
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पुं० [सं० मूलधन से] १. वह जो किसी काम में मूलधन लगाता हो। २. दे० ‘पूँजीपति’। |
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मूल-धातु :
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स्त्री० [कर्म० स०] शरीर के अन्दर की मज्जा। |
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मूलन :
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वि० [सं० मूल] पूरा। समूचा। अव्य० १. मूल में ही। मूलतः। २. निश्चित रूप में। अवश्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूल-पर्णी :
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स्त्री० [ब० स०+ङीष्] मंडूक पर्णी नामक की ओषधि। |
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मूल-पाठ :
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पुं० [कर्म० स०] किसी लेखक के वाक्यों की वह मूल शब्दावली जिसका प्रयोग उसने स्वयं ही अपने लेख्य में किया हो। (टेक्स्ट)। |
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मूल-पुरुष :
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पुं० [कर्म० स०] किसी वंश को चलानेवाला व्यक्ति। किसी वंश का आदि पुरुष। |
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मूल-पोती :
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स्त्री० [मध्य० स०] छोटी पोई नाम का शाक। |
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मूल-प्रकृति :
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स्त्री० [कर्म० स०] संसार की बीज-शक्ति या वह आदिम सत्ता, जिसका परिणाम तथा विकास यह सारी सृष्टि है। आद्या शक्ति। प्रकृति। |
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मूल-बंध :
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पुं० [सं०] १. हठयोग की एक क्रिया जिसमें सिद्धासन या वज्रासन द्वारा शिश्न और गुदा के मध्यवाले भाग को दबाकर अपान वायु को ऊपर चढ़ाते हैं, जिससे कुंडलिनी जागकर मेरु-दंड के सहारे ऊपर की ओर चढ़ने लगती है। २. तांत्रिक पूजन में एक प्रकार का अंगुलि-न्यास। |
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मूलबर्हण :
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पुं० [सं० ष० त०] १. कोई चीज जड़ से काटना। मूलच्छेद। २. मूल नक्षत्र। |
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मूल-भूत :
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पुं० [सं०] वह भूत जिसमें अन्य भूतों की सृष्टि मानी जाती है। वि० १. किसी वस्तु के मूल से सम्बन्ध रखनेवाला। जो किसी दूसरे के आधार पर या किसी की नकल न हो। (ओरिजिनल) ३. असल। मौलिक। (फंडामेंटल)। |
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मूल-भृत्य :
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पुं० [कर्म० स०] पुश्तैनी नौकर। |
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मूल-मंत्र :
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पुं० [कर्म० स०] वह उपाय जिससे कोई कार्य या सब कार्य जल्दी और सहज में सिद्ध हो जाते हों। |
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मूल-रक्षण :
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पुं० [ष० त०] राजधानी या शासन के केन्द्र स्थान की रक्षा। (कौ०)। |
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मूल-रस :
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पुं० [ब० स०] मूर्वा (लता)। |
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मूल-वित्त :
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पुं० [कर्म० स०] मूल-धन। पूँजी। |
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मूल-विष :
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वि० [ब० स०] जिसकी जड़ विषैली हो। (कनेर)। |
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मूल-व्यसन :
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पुं० [कर्म० स०] ऐसा व्यसन जो किसी परिवार या वंश में पुरुषानुक्रम या कई पीढ़ियों से चला आ रहा हो। |
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मूल-शाकट :
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पुं० [सं० मूल+शाकट] वह खेत जिसमें मूली, गाजर आदि मोटी जड़वाले पौधे-बोये जाते हैं। |
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मूल-स्थली :
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पुं० [कर्म० स०] पेड़ का थाला। आलबाल। |
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मूल-स्थान :
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स्त्री० [कर्म० स०] १. रहने का आरम्भिक स्थान। २. बापदादा की जगह। पूर्वजों का निवास-स्थान। ३. प्रधान स्थान। राजधानी। ४. दीवार। भीत। ५. ईश्वर। ६. आधुनिक मुलतान नगर का पुराना और मूल नाम। (प्राचीन काल में यह तीर्थ था)। |
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मूल-हर :
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वि० [ष० त०] जिसने अपना सम्पूर्ण धन नष्ट कर दिया हो। (कौ०) |
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मूला :
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स्त्री० [सं० मूल+टाप्] १. सतावर। २. मूल नामक नक्षत्र। ३. पृथ्वी (डि०) स्त्री० [हिं० मूली] बहुत बड़ी और मोटी मूली। स्त्री०=मूली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूलांश :
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पुं० [सं० मूल+अंश] १. किसी वस्तु का मूल अंश या तत्त्व। २. वह मूल अंश जो आधार के रूप में हो और जिसके ऊपर किसी प्रकार की विस्तृत रचना या विकास हुआ हो। (बेस) |
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मूलाधार :
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पुं० [मूल-आधार, ष० त०] हठयोग में माने हुए मानव शरीर के अन्दर के छः चक्रों में से एक चक्र जिसका स्थान अग्नि-चक्र के ऊपर गुदा और श्शिन के मध्य में होता है। विशेष—यह चार दलोंवाला और लाल रंग का कहा गया है, और इसके देवता गणेश माने गये हैं। कहते हैं कि इसे सिद्ध कर लेने पर मनुष्य सब विद्याओं का ज्ञाता हो जाता है और सदा प्रसन्न तथा स्वस्थ रहता है। |
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मूलार्थ :
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पुं० [सं० मूल+अर्थ, एक प्रकार का क्वाथ] होमियोपैथी चिकित्सा में किसी ओषधि का वह मूल रस या सार जिससे आगे चलकर चिकित्सा के लिए अधिक शक्तिवाले रूप प्रस्तुत किये जाते हैं (मदर टिंचर)। |
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मूलिक :
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वि० [सं० मूल+ठन्—इक] १. मूल-सम्बन्धी। मूल का। २. जो मूल में हो। जैसे—मूलिक न्यायालय=वह न्यायालय जिसमें पहले-पहल कोई मुकदमा या वाद उपस्थित किया गया हो। ३. कंदमूल खाकर जीवन निर्वाह करनेवाला। |
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मूलिन :
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वि० [सं० मूल+इनि] मूल से उत्पन्न। पुं० पेड़। वृक्ष। |
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मूलिनी :
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स्त्री० [सं० मूलिन+ङीष्] जड़ के रूप में होनेवाली ओषधि। जड़ी। |
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मूलिनी-वर्ग :
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पुं० [सं० ष० त०] नागदंती, श्वेतवचा, श्यामा, त्रिवृत्त, वृद्धदारका, सप्तला, श्वेतापराजिता, मूषकपर्णी, गोंडुवा, ज्योतिष्मती, बिबिं, क्षणपुष्पी, विषाणिका, अश्वगंधा, द्रवंती, और क्षीरिणी जड़ों का समाहार। (सुश्रुत)। |
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मूली :
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स्त्री० [सं० मूलक] १. एक पौधा जो अपनी लम्बी मुलायम जड़ के लिए बोया जाता है और जिसकी तरकारी बनती है। यह जड़ खाने में मीठी, चरपरी और तीक्ष्ण होती है। मुहावरा—(किसी को) मूली गाजर समझना=बहुत ही तुच्छ समझना। किसी गिनती में न समझना। २. एक प्रकार का बाँस। स्त्री० [सं] १. ज्येष्ठी। २. एक पौराणिक नदी। स्त्री०=मूलिका। (जड़ी) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूलीय :
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वि० [सं० मूल+छ-ईय] मूल का या मूल से होनेवाली। मूल सम्बन्धी। जैसे—जिह्वा-मूलीय। |
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मूलोच्छेद :
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पुं० [सं० मूल-उच्छेद, ष० त०]=मूलच्छेद। |
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मूलोदय :
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पुं० [सं० मूल-उदय, ष० त०] ब्याज का बढ़ते-बढ़ते मूल धन के बराबर हो जाना। |
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मूल्य :
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पुं० [सं० मूल्य+यत्] १. मुद्रा के रूप में उतना धन जो कोई चीज क्रय करने के लिए उसके बदले में किसी को देना पड़ता है। वह दर या भाव जिस पर कोई चीज बिकती हो। अर्थशास्त्र के अनुसार यह किसी वस्तु की माँग और होनेवाली पूर्ति की मात्रा के आधार पर स्थिर होता है। ३. वह गुण, या तत्त्व जिसके आधार पर किसी का महत्त्व या मान होता है। ४. वह जो किसी को किसी कारणवशात् झेलना, भुगतना या बलिदान करना पड़ता है। जैसे—अत्यधिक परिश्रम का मूल्य स्वास्थ्य-हानि के रूप में चुकाना पड़ता है। क्रि० प्र०—चुकाना। वि० १. प्रतिष्ठा के योग्य। कदर के लायक। २. (पौधा) जो रोपा जा सकता हो। ३. (फसल) जो जड़ से उखाडी जाने के योग्य। जैसे—उड़द, मूँग आदि। |
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मूल्यन :
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पुं० [सं०√मूल्य+णिच्+ल्युट-अन] किसी वस्तु का मूल्य या निश्चित या स्थिर करना। दाम आँकना। मूल्यांकन। (वैल्युएशन)। |
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मूल्यवान् (वत्) :
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वि० [सं० मूल्य+मतुप्] १. जिसका मूल्य अत्यधिक हो। बहुमूल्य। २. जिसका महत्व य मान किसी की दृष्टि में बहुत अधिक हो। |
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मूल्य-विज्ञान :
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पुं० [ष० त०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि बाजारों में वस्तुओं के मूल्य किन आधारों पर या किन कारणों से घटते-बढ़ते रहते हैं। |
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मूल्य-सूचनांक :
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पुं० [ष० त०] दे० ‘सूचकाँक’। |
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मूल्य-ह्रास-निधि :
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पुं० [ष० त०] वह कोश या निधि जिसका मुख्य उद्देश्य दैनिक उपयोग में आनेवाले उपकरणों आदि के घिस जाने, पुराने तथा बेकाम हो जाने के कारण उनके मूल्य में क्रमशः होनेवाली घटी-पूरी करना होता है। (डिप्रिशियेशन फंड)। |
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मूल्यांकन :
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पुं० [सं० मूल्य-अंकन, ष० त०] १. किसी बात या वस्तु का मूल्य निर्धारित या निश्चित करने की क्रिया या भाव। (वैल्युएशन) २. किसी वस्तु की उपयोगिता, गुण, महत्त्व आदि का होनेवाला अंकन। कूत। |
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मूल्यानुसार :
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अव्य० [सं० मूल्य-अनुसार, ष० त०] दे० ‘यथा-मूल्य’। |
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