| शब्द का अर्थ | 
					
				| संच					 : | पुं० [सं० सम्√ चि (संगृह करना)+ड] लिखने की स्याही। पुं० संचने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| संचक					 : | पुं० [सं० संच+कन्] साँचा। | 
			
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				| संचकर					 : | वि० [सं० संचय+कर] १. संचय करनेवाला। २. देख-भाल करनेवाला। ३. कंजूस। कृपण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| संचना					 : | पुं० [सं० संचयन] १. एकत्र या संग्रह करना। संचय करना। २. देख-भाल करना। अ० [सं० सं०+चर] प्रविष्ट होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| संचय					 : | पुं० [सं० सम्√ चि (चयन करना)+अच् भू० कृ० संचित] १. चीजें इकट्ठी करने की क्रिया या भाव। २. जमा करना। संकलन। ३. इकट्ठी की हुई चीजों का ढेर या राशि (एक्यूमुलेशन)। ४. अधिकता। बहुलता। | 
			
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				| संचयन					 : | पुं० [सं० सम्√ चि (एकत्र करना)+ल्युट्-अन] १. संचय करने या होने की क्रिया या भाव। २. किसी वस्तु का धीरे धीरे एकत्र होते हुए किसी बड़ी राशि का चित्र धारण करना। इकट्ठा या जमा होना (एक्यूमुलेशन)। | 
			
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				| संचयिका					 : | वि० [सं० संचय+ठञ्-इक] जो संचय करता हो। एकत्र या जमा करनेवाला। | 
			
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				| संचयी (यिन्)					 : | वि० [सं० संचय+इनि] संचय करनेवाला जमा करनेवाला। पुं० कंजूस। कृपण। | 
			
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				| संचर					 : | पुं० [सं० सम्√ चर् (चलना)+घ] १. गमन। चलना। २. पुल। सेतु। ३.पानी निकलने का रास्ता।। ४. मार्ग। रास्ता। ५. जगह। स्थान। ६. देह। शरीर। ७. संगी। साथी। | 
			
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				| संचरण					 : | पुं० [सं० सम्√ चर् (चलना)+ल्युट्-अन] १. संचार करने की क्रिया या भाव। चलना। गमन। २. पसरना। फैलना। ३. काँपना। | 
			
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				| संचरना					 : | अ० [सं० संचरण] १. घूमना-फिरना। चलना। २. फैलना। ३. प्रचलित होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=संचारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| संचल					 : | पुं० [सं० सम्√ चल (अस्थिर)+अच्] सौवर्च्चल लवण। साँचर नमक। वि० काँपता हुआ। | 
			
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				| संचलन					 : | पुं० [सं० सम्√ चल् (हिलना)+ल्युट्-अन] १. हिलना-डोलना। २. चलना। ३. काँपना। | 
			
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				| संचार					 : | पुं० [सं०] १. गमन। चलना। २. चलाना। ३. किसी के अन्दर पैठकर दूर तक फैलना। ४. वह राह जिस पर से होकर कोई चीज फैलती हो। ५. आज-कल संदेश, समाचार आदि तथा आदमी सामान आदि भेजने की क्रिया प्रकार और साधन (कम्यूनिकेशन)। ६. रास्ता दिखाना। मार्गदर्शन। ७. विपत्ति। ८. साँप की मणि। ९. देश। १॰. उत्तेजित करना। ११. संक्रमण (ग्रह आदि का)। | 
			
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				| संचारक					 : | वि० [सं० सम्√ चर् (चलना)+ण्वुल्-अक][स्त्री० संचारिका] संचार करने या फैलानेवाला। पुं० १. नेता। सरदार। २. अन्वेषक। | 
			
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				| संचारण					 : | पुं० [सं० सम्√ चर् (चलना)+णिच्-ल्युट्-अन][भू० कृ० संचारित] संचार करने की क्रिया या भाव। | 
			
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				| संचारना					 : | स० [सं० संचारण] १. संचार करना। फैलाना। २. चलाना। ३.चलने और घूमने फिरने में प्रवृत्त करना। उदा०—पुनि इबलीस सँचारेउ डरत रहे सब कोउ।—जायसी। | 
			
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				| संचार-साधन					 : | पुं० [ष० त०] दो या अधिक स्थानों या व्यक्तियों के बीच संबंध स्थापित करने के साधन। डाक, तार, समुद्री तार, रेडियो आदि और गमनागमन के साधन। (मीन्स ऑफ़ कम्यूनिकेशन)। | 
			
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				| संचारिका					 : | स्त्री० [सं०] १. दूती। कुटनी। २. नासिका। नाक। ३. बू। गंध। वि० ‘संचारक’ का स्त्री०। | 
			
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				| संचारिणी					 : | स्त्री० [सं० सम्√चर् (चलना)+णिनि-ङीप्] १. हंसपदी नाम की लता। २. लाल लजालू। वि० ‘संचारी’ का स्त्री। | 
			
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				| संचारित					 : | भू० कृ० [सं० सम्√चर् (चलना)+णिच्-कत] १. जिसका संचार किया गया हो। चलाया या फैलाया हुआ। २. भड़काया हुआ। ३. पहुँचाया हुआ। | 
			
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				| संचारी					 : | वि० [सं० सम्√ चर् (चलना)+णिनि-दीर्घ-नलोप][स्त्री० संचारिणी] १. संचरण या संचार करने वाला। २. आया हुआ। आगंतुक। पुं० १. साहित्य में वे तत्त्व, पदार्थ या भाव जो रस में संचार करते हुए उसके परिपाक में उपयोगी तथा सहायक होते हैं। इन्हीं को ‘व्यभिचारी भाव’ भी कहते हैं। (स्थायी भाव से भिन्न)। विशेष—यह माना गया है कि स्थायी भाव तो रस के परिपाक तक स्थिर रहते हैं परन्तु संचारी भाव अस्थिर होते और आवश्यकता तथा सुभीते के अनुसार सभी रसों में संचार करते रहते हैं। इसकी संख्या ३३ कही गई है,यथा-निर्वेद ग्लानि, शंका, असूया, श्रम, मद धृति, आलस्य, विषाद, मति, चिंता, मोह, स्वप्न, बिबोध, स्मृति, आमर्ष, गर्व, उत्सुकता, अवहित्थ, दीनता, हर्ष, व्रीड़ा, उग्रता, निद्रा, व्याधि, मरण, अपस्मार, आवेग, मस, उन्माद, जड़ता, चपलता और विर्तक। २. संगीत में किसी गीत के चार चरणों में से तीसरा। ३. वायु। हवा। ४. धूप नामक गंध द्रव्य। | 
			
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				| संचाल					 : | पुं० [सं० सम्√ चल् (काँपना)+ण—घञ् या संचालन] १. काँपना। २. चलना। | 
			
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				| संचालक					 : | वि० [सं० संचाल+कन् सम्√ चल् (चलना)+ण्वुल-अक] जो संचालन करना हो। चलाने या गति देनेवाला। परिचालक। पुं० वह प्रधान अधिकारी जो किसी कार्य, विभाग, संस्था आदि चलने की सारी व्यवस्था करता हो। निरीक्षण तथा निर्देशन करनेवाला विभागीय अधिकारी जो किसी कार्य, विभाग, संस्था आदि चलने की सारी व्यवस्था करता हो। निराक्षण तथा निर्देशन करनेवाला विभागीय अधिकारी। निदेशक (डाइरेक्टर)। | 
			
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				| संचालन					 : | पुं० [सं० सम्√चल् (चलना)+णिच्-ल्युट्-अन] १. चलाने की क्रिया। परिचालन। २. ऐसा प्रबंध या व्यवस्था जिसमें कोई काम चलता या होता रहे। किसी कार्य आदि का किया जानेवाला निर्देशन। ३. नियंत्रण। | 
			
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				| संचालित					 : | भू० कृ० [सं०] (कार्य, विभाग या संस्था) जिसका संचालन किया गया हो या किया जा रहा हो। | 
			
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				| संचाली					 : | स्त्री० [सं० संचाल-ङीप्] गुंजा। घुँघची। वि० दे० ‘संचालक’। | 
			
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				| संचिका					 : | स्त्री० [सं० संचय] वह नत्थी जिसमें पत्र, कागज आदि इकट्ठे करके रखे जाते हैं। मिसिल (फ़ाइल)। | 
			
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				| संचित					 : | भू० कृ० [सं०] १. संचय किया हुआ। इकट्ठा, एकत्र या जमा किया हुआ। २. ढेर के रूप में रखा, लगाया या लाया हुआ (एक्यूमुलेटेड)। ३. संचिका या नत्थी में लगाया हुआ। | 
			
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				| संचित-कर्म					 : | पुं० [सं०] १. वैदिक युग में यज्ञ की अग्नि संचित कर लेने पर किया जानेवाला एक विशिष्ट कर्म। २. आज-कल, पूर्व जन्म में किए हुए वह वे सब कर्म जिनका फल इस जन्म में अथवा आनेवाले जन्मों में भोगना पड़ता है। | 
			
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				| संचिति					 : | स्त्री० [सं० सम्√ चि (रखना)+क्तिन्] १. संचित करने की क्रिया या भाव। संचय। २. तह लगाना। | 
			
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