| शब्द का अर्थ | 
					
				| आप					 : | सर्व० [सं० आत्मन्, आत्म, प्रा० अप्प० अप्पणो (षष्ठी) अप० आपणउ० पुं० हिं० आपनो, गुज० आप, आपणा० मरा० आपण, ने० आपु, आपन, पं० आप, आप्पाँ, बँ० आपाँ, आपनि, उ० आपे, आपण, सिं० पाण, पाणु, कन्न० पान, सिंह० अपि] १. अपने शरीर से। स्वयं। खुद। (तीनों पुरुषों मे) जैसे—तुम आप चले जाओ। मुहावरा—आप ही आप पड़ना=अपनी अपनी रक्षा या लाभ का ध्यान रहना। अपने आपको जानना=दे० आपको जानना। अपने आपको भूलना=(क) किसी मनोवेग के कारण बेसुध होना। (ख) घमंड चूर होना। आपको जानना=अपना अस्तित्व महत्त्व आदि प्रकट सूचित या स्थापित करना। उदाहरण—जहाँ जहँ गाढ़ परी भक्तनि कौ तहँ तहँ आपु जनायौ।—सूर। आप से आप या आप ही आप=(क) स्वयं। खुद। मन ही मन। स्वगत। आप से आप-बिना किसी चेष्टा या प्रयास के। २. एक आदर सूचक प्रयोग तुम या वे के स्थान पर प्रयुक्त सर्वनाम। जैसे—आप ही चले जाएँ। पुं० [सं० आपः-जल] १. जल। २. आकाश। ३. प्राप्ति। ४. एक वसु। | 
			
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				| आपक					 : | वि० [सं० आ√आप्(पाना)+ण्वुल्-अक] पाने या प्राप्त करनेवाला। | 
			
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				| आपकाज					 : | पुं० [हिं० आप+काज-कार्य] [वि० आपकाजी] १. अपना या निजी काम। २. स्वार्थ। | 
			
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				| आपकाजी					 : | वि० [हिं० आपकाज] मतलबी। स्वार्थी। | 
			
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				| आपक्व					 : | वि० [सं० प्रा० स०] १. जो अच्छी तरह पका न हो। २. कम, थोड़ा या हीन। | 
			
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				| आपगा					 : | स्त्री० [सं० आप√गम् (जाना)+ड] नदी। | 
			
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				| आपगेय					 : | वि० [सं० आपगा+ठक्-एय] आपगा या नदी से संबंध रखनेवाला। पुं० भीष्म। | 
			
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				| आपचारी					 : | स्त्री० [हिं० आप+आचरण] अपनी इच्छानुसार मनमाना काम करने की क्रिया या भाव। स्वेच्छाचार। वि० मनमानी करनेवाला। स्वेच्छाचारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपजात्य					 : | पुं० [सं० अपजात+ष्यञ्] [वि० अपजात] १. अपजाति होने की अवस्थछा या भाव। २. गुण आदि के विचार से अपने जनक उत्पादक या मूल से घटकर तथा हीन होना। (डीजेनरेशन) | 
			
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				| आपण					 : | पुं० [सं० आ√पण् (सौदा करना)+घ] १. हाट। बाजार। २. दुकान। ३. हाट या बाजार में उगाहा जानेवाला कर। सर्व० १.=अपना। २.=हम। | 
			
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				| आपणिक					 : | वि० [सं० आपण+ठक्-इक] बाजार में होनेवाला क्रय-विक्रय से संबंध रखनेवाला। (मरकेन्टाइल) जैसे—आपणिक लेख या विधि। | 
			
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				| आपत्					 : | स्त्री० [सं० अ√पद् (गति)+क्विप्]=आपद्। | 
			
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				| आपत्काल					 : | पुं० [सं० ष० त०] [वि० आपत्कालिक] १. आपत्ति या विपत्ति का समय। २. बुरा दिन या समय। कुसमय। | 
			
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				| आपत्कृत-ऋण					 : | पुं० [सं० आपत्-कृत, स० त० आपत्कृत-ऋण, कर्म० स०] आपत्ति काल में लिया जानेवाला ऋण। | 
			
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				| आपत्ति					 : | स्त्री० [सं० आ√पद्+क्तिन्] १. कष्ट। क्लेश। दुःख। २. अचानक आकर उपस्थित होने वाली ऐसी स्थिति जिसमें बहुत कुछ मानसिक कष्ट या चिंता और आर्थिक शारीरिक आदि हानियाँ हों या हो सकती हों। आफत। मुसीबत। ३. किसी काम या बात के अनुचित अव्यावहारिक नीति-विरुद्ध या हानिकारक जान पड़ने पर उसे रोकने के उद्देश्य से कही जानेवाली विरोधी बात। (आँब्जेक्शन) ४. सार्वजनिक भाषणों आदि के समय वक्ता की उक्त प्रकार की अथवा कोई अनुचित या संदिग्ध बात सामने आने पर श्रोताओं की ओर से कहा जानेवाला ‘आपत्ति’ शब्द जो इस बात का सूचक होता है कि हमें इस कथन या बात के ठीक होने में संदेह है। (क्वेश्चन) | 
			
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				| आपत्ति-पत्र					 : | पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी कार्य या विषय के संबंध में अपनी आपत्ति और मत-भेद लिखा हो। (पेटिशन आफ आब्जेक्शन) | 
			
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				| आपत्य					 : | वि० [सं० अपत्य+अण्] अपत्य संबंधी। पुं० अपत्य या संतान होने की अवस्था या भाव। संतानत्व। | 
			
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				| आपद्					 : | स्त्री० [सं० आ√पद्+क्तिन्] कष्ट और संकट की स्थिति। आपत्ति। | 
			
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				| आपद					 : | स्त्री० =आपद्। | 
			
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				| आपदर्थ					 : | पुं० [सं० आपद्-अर्थ, च० त०] ऐसी संपत्ति जिसे प्राप्त करने पर अपना अनिष्ट होता हो। | 
			
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				| आपदा					 : | स्त्री० [सं० आपद्+टाप्] १. क्लेश। दुःख। २. विपत्ति। आफत। ३. कष्ट या विपत्ति का समय। | 
			
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				| आपद्धर्म					 : | पुं० [सं० आपद्-धर्म, मध्य० स०] १. ऐसा दूषित निंदनीय या वर्जित आचरण या व्यवहार जो आपत्तिकाल में विवशता पूर्वग्रहण किया जा सकता हो और इसी लिए दूषित न माना जाता हो। २. किसी वर्ण के लिए वह व्यवसाय या काम जो दूसरा कोई जीवनोपाय न होने की ही दशा में ग्रहण किया जा सकता हो। जैसे—ब्राह्मण के लिए वाणिज्य। (स्मृति) | 
			
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				| आपधाय					 : | स्त्री०=आपा-धायी। | 
			
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				| आपन					 : | पुं० [हिं० आप] अपना अस्तित्व या स्वरूप। सर्व०-अपना। अव्य० अपने आप। आप से आप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपनपौ					 : | पुं०=अपनवै। | 
			
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				| आपना					 : | सर्व०=अपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपनिक					 : | पुं० [सं० आपर्णिक] पन्ना नामक रत्न। | 
			
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				| आप-निधी					 : | पुं० [सं० आपः-जल+निधि] समुद्र। सागर। | 
			
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				| आपनो					 : | सर्व० =अपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपन्न					 : | वि० [सं० आ√पद्+क्त] १. जो कष्ट में पड़ा हो। विपत्ति-ग्रस्त। २. किसी के चक्कर या फेर में पड़ा हुआ। ग्रस्त। जैसे—संकटग्रस्त। | 
			
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				| आपपर					 : | पद [हिं० आप-स्वयं+पर-दूसरा] अपने और दूसरे के बीच परस्पर। उदाहरण—पुणे सुणै जण आपपर।—प्रिथीराज। | 
			
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				| आप-बीती					 : | स्त्री० [हिं०] स्वयं अपने ऊपर बीती हुई घटना या उसका उल्लेख। | 
			
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				| आपया					 : | स्त्री० =आपगा (नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपराह्रक					 : | वि० [सं० अपराह्र+ठञ्-इक] अपराह्में या दिन के तीसरे पहर होनेवाला। अपराह्र-संबंधी। | 
			
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				| आपराधिक					 : | वि० [सं० अपराध+ठक्-इक] १. ऐसे कार्यों या बातों से संबंध रखनेवाला जिनकी गणना अपराधों में हो और जिनके लिए न्यायालय से दंड मिल सकता हो। (क्रिमिनल) जैसे—आपराधिक प्रकिया। (क्रिमिनल प्रोसीजर) २. ऐसी बातों से संबंध रखनेवाला जिनमें अपराध का विचार, भाव या ईप्सा हो। (कल्पेबुल) जैसे—आपराधिक बल प्रयोग, आपराधिक अपचार, आपराधिक प्रमाद। ३. दे० ‘आपराधशील’। पुं० ऐसा कार्य जो धर्म या विधि की दृष्टि में अपराध हो। | 
			
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				| आप-रूप					 : | वि० [हिं० आप+सं० रूप] अपने रूप से युक्त। मूर्तिमान। सर्व० स्वयं आप (व्यंग्यात्मक) जैसे—यह सब आपरूप की करतूत है। | 
			
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				| आपर्तुक					 : | वि० [सं० अप-ऋतु, प्रा० स०+कञ्] १. अप्-ऋतु (अपनी वास्तविक ऋतु) से भिन्न ऋतु में होनेवाला। २. सभी कालों और ऋतुओं में होनेवाला। | 
			
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				| आपवर्ग्य					 : | वि० [सं० अपवर्ग+ष्यञ्] अपवर्ग या मोक्ष देने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। | 
			
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				| आपस					 : | अव्य० [हिं० आप+स(प्रत्यय)] पारस्परिक संबंध का सूचक एक अव्यय जिसका प्रयोग कुछ विभक्तियों के लगने पर कहीं क्रिया विशेषण की तरह और कहीं विशेषण की तरह होता है। जैसे—आपस का-पारस्परिक या एक-दूसरे के साथ का। आपस में-परस्पर या एक-दूसरे के साथ। कही-कहीं यह आत्मीकता अथवा घनिष्ठ व्यवहार का भी सूचक होता है। जैसे—आपस के लोग। | 
			
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				| आपसदारी					 : | स्त्री० [हिं० आपस+फा० दारी(प्रत्यय)] १. एक दूसरे के साथ होनेवाली आत्मीयता अथवा घनिष्ठ व्यवहार या संबंध। जैसे—यहाँ तो आपसदारी की बात है। २. ऐसे लोगों का वर्ग या समूह जिनसे उक्त प्रकार का संबंध हो। जैसे—आपसदारी में तो हर काम में आना जाना ही पड़ता है। | 
			
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				| आपसी					 : | वि० [हिं० आपस] आपस का। आपस में होनेवाला। पारस्परिक। जैसे—आपसी मतभेद। | 
			
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				| आपस्तंब					 : | पुं० [सं० ] [वि० आपस्तंबीय] एक प्राचीन ऋषि जिनके बनाये हुए कल्प गृह्य और धर्म नामक तीन सूत्र-ग्रंथ माने जाते हैं। | 
			
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				| आपा					 : | पुं० [हिं० आप-स्वयं] १. अपना अस्तित्व या सत्ता। निजस्व। २. अपनी सत्ता के संबंध में हनेवाला ज्ञान या भान। अहंभाव। मुहावरा—आपा खोना, डालना, तजना या मिटाना=अपनी सत्ता का विचार या ध्यान छोड़ देना। मन में अहंभाव या अहंमन्यता न रहने देना। निरभिमान होना। (त्याग निस्प-हता विरक्ति आदि का लक्षण) आपा सँभालना-वयस्क या सयाने होकर अपना भला बुरा समझने के योग्य होना। ३. अपने पद, योग्यता आदि का ध्यान या विचार। मुहावरा—आपा खोना=दे०आपे से बाहर होना। आपे में आना=क्षणिक आवेश या मनोविकार के प्रभाव से निकलकर साधारण स्थिति में आना। होश-हवास ठिकाने रखना। जैसे—बहुत बहक चुके अब जरा आपे में जाओ। आपे से बाहर होना=क्रोध के वश में अपने पद मर्यादा आदि का ध्यान छोड़कर उग्र रूप धारण करना। | 
			
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				| आपात					 : | पुं० [सं० आ√पत् (गिरना)+घञ्] [वि० आपातिक] १. ऊपर या बाहर से आकर गिरना। २. गिरना। पतन। ३. घटना का अचानक घटित होना। ४. वह घटना या बात जो अचानक ऐसे रूप में सामने आ जाए जिसकी पहले से कोई आशा, कल्पना या संभावना न हो। (एमर्जेन्सी)। | 
			
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				| आपाततः					 : | अव्य० [सं० आपात+तस्] १. अकस्मात्। अचानक। २. अंत में। आखिरकार। | 
			
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				| आपातलिका					 : | स्त्री० [सं० ] एक प्रकार का छंद जो वैताली छंद के विषम चरणों में ६ और सम चरणों में ८ मात्राओं के उपरांत एक भगण और दो गुरु रखने से बनता है। | 
			
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				| आपातिक					 : | वि० [सं० आपात+ठक्-इक] १. नीचे उतरनेवाला। २. अचनाक सामने आनेवाला। ३. इस प्रकार या ऐसे रूप में सामने आनेवाला जिसकी पहले से कल्पना या संभावना न हो। आत्यायिक। (एमर्जेन्ट) | 
			
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				| आपाती (तिन्)					 : | वि० [सं० आ√पत्+णिनि] १. नीचे आने उतरने या गिरनेवाला। २. आक्रमण करने या ऊपर टूट पड़नेवाला। ३. बिना आशा या संभावना के अचानक घटित होनेवाला। (एमर्जेन्ट) | 
			
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				| आपाद					 : | अव्य० [सं० आ√पद्(गति)+घञ्] पैर या पैरों तक। पुं० १. वह जो प्राप्त या सिद्ध किया गया हो। २. पुरस्कार। ३. पारिश्रमिक। | 
			
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				| आपाद-मस्तक					 : | अव्य० [सं० पाद-मस्तक, द्वं० स० आ-पादमस्तक, अव्य० स०] १. पैरों से सिर तक। २. आदि से अंत तक। | 
			
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				| आपा-धापी					 : | स्त्री० [हिं० आपा=धापी का अनुकरण+धापना] १. ऐसी स्थिति जिसमें सभी लोग अपना अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहें हों और दूसरे के हानि लाभ का ध्यान न रखतें हों। २. खींचतान। लाग-डाँट। | 
			
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				| आपान					 : | पुं० [सं० आ√पा (पीना)+ल्युट्-अन] १. कई आदमियों का साथ बैठकर मद्य या शराब पीना। २. उक्त प्रकार से बैठकर मद्य पीने का स्थान। | 
			
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				| आपानक					 : | पुं० [सं० आपान+कन्] १. मद्य पान की गोष्ठी। २. मद्य पीनेवाला व्यक्ति। उदाहरण—रजनी के आपानक का अब अंत है।—प्रसाद। | 
			
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				| आपा					 : | पद—पुं० आत्मपद (मोक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपायत					 : | वि० [सं० आप्यायित-वर्धित] प्रबल। बलवान। (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपी					 : | पुं० [सं० आप्य] पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र। अव्य० आप ही। स्वतः। स्वयं। (बोल-चाल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपीड़					 : | पुं० [सं० आ√पीड़ (दबाना)+अच्] १. ऊपर से दबाकर बैठाई या लगाकर रखी हुई चीज। २. सिर पर पहनने या बाँधने का कपड़ा या गहना। जैसे—पगड़ी मुकुट आदि। ३. वास्तु में छाजन के बाहर पाख से निकली हुई बँडेरी का अँश। मँगौरी। ४. एक प्रकार का विषम वृत्त जिसके पहले चरण में ८, दूसरे चरण में १२, तीसरे चरण में १६ और चौथे चरण में २0 अक्षर होते हैं। वि० १. दबानेवाला। २. कष्ट देनेवाला। | 
			
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				| आपीडन					 : | पुं० [सं० आ√पीड़+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आपीड़ित] १. कसकर या जोर से दबाना या बाँधना। २. कष्ट देना। पीड़ित करना। | 
			
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				| आपु					 : | सर्व० दे० आप। पुं० =आपा (अहंभाव)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपुन					 : | सर्व० दे० अपना। अव्य० आप। खुद। स्वयं। उदाहरण—(क) आपु न आवे ताहि पहँ ताहि तहाँ लेइ जाइ।—तुलसी। (ख) आपुन अध अधगति चलतिं।—केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपुनपौ					 : | पुं० =अपनपौ। (अपनापन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपुनो					 : | सर्व० =अपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
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				| आपुस					 : | अव्य० =आपस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपूर					 : | पुं० [सं० आ√पूर् (पूर्णकरना)+घञ्] १. पूरा या पूर्ण करना। भरना। २. वह जो बहुत अधिक भरा हो। ३. पानी की बाढ़। | 
			
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				| आपूरण					 : | पुं० [सं० आ√पूर्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आपूरित] अच्छी तरह या पूरी तरह से भरना। | 
			
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				| आपूरना					 : | स० [सं० आपूरण] अच्छे तरह भरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आपूर्ति					 : | स्त्री० [सं० आ√पूर्+क्तिन्] १. अच्छी तरह से भरे होने की अवस्था या भाव। २. तृप्ति। | 
			
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				| आपेक्षिक					 : | वि० [सं० अपेक्षा+ठक्-इक] १. किसी प्रकार की या किसी दूसरे की अपेक्षा रखनेवाला। अपेक्षा से युक्त। २. जिसका अस्तित्व दूसरी वस्तु पर अवलंबित हो। निर्भर करनेवाला। ३. किसी की तुलना में होनेवाला। तुलनात्मक। जैसे—आपेक्षिक गुरुत्व। | 
			
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				| आपो					 : | पुं० =आपा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आप्त					 : | वि० [सं० आप् (पाना)+क्त] [भाव०आप्तता, आप्ति] १. आया पहुँचा या मिला हुआ। जैसे—आप्त-गर्भा=गर्भवती, आप्त गर्व अभिमानी। २. विश्वास करनेयोग्य। ३. कुशल। दक्ष। पुं० १. ऐसा व्यक्ति जिसपर विश्वास किया जा सकता हो। २. ऋषि। ३. योग में, ऐसा प्रमाण जो केवल कथन या शब्दों के आधार पर हो। शब्द प्रमाण। ४. गणित में किसी सांख्य को भाग देने पर प्राप्त होनेवाला मान या संख्या। लब्धि। | 
			
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				| आप्त-काम					 : | पुं० [ब० स०] १. वह जिसकी इच्छाएँ पूरी हो चुकी हों। २. वह जिसने सांसारिक बंधनों और वासनाओं से मुक्ति पा ली हो। | 
			
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				| आप्तकारी (रिन्)					 : | पुं० [सं० आप्त√कृ(करना)+णिनि] १. वह जो ठीक प्रकार से तथा विश्वस्त ढंग से काम करता हो। २. गुप्तचर। | 
			
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				| आप्त-पुरुष					 : | पुं० [कर्म० स०] वह व्यक्ति जो तत्त्वों वस्तुओं आदि के यथार्थ रूप अच्छी तरह जानता हो और जिसकी उपदेशपूर्ण बातें प्रामाणिक मानी जाती हों। | 
			
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				| आप्त-वचन					 : | पुं० [ष० त०] १. ऐसा कथन जिसमें कुछ भी प्रमाद या भूल न हो। बिलकुल ठीक और मानने योग्य बात। २. ऋषि मुनियों के वचन जो श्रुतियों समृतियों आदि से मिलते हैं। | 
			
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				| आप्त-वर्ग					 : | पुं० [ष० त०] आत्मीयों और बंधु बांधवों का वर्ग या समूह। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
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				| आप्तागम					 : | पुं० [आप्त-आगम, कर्म० स०] वेद, श्रुतियाँ स्मृतियाँ आदि। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
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				| आप्ति					 : | स्त्री० [सं०√आप्+क्तिन्] १. आप्त होने की अवस्था या भाव। २. प्राप्ति। लाभ। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
				उपलब्ध नहीं | 
			
					
				| आप्तोक्ति					 : | स्त्री० [सं० आप्त-उक्ति, ष० त०] आप्त वचन के रूप में मानी जानेवाली उक्ति या कथन। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
				उपलब्ध नहीं | 
			
					
				| आप्य					 : | वि० [सं० आ√आप्+ण्यत्] १. प्राप्त करने या लेने योग्य। २. जो प्राप्त किया जाने को हो। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
				उपलब्ध नहीं | 
			
					
				| आप्यायन					 : | पुं० [सं० आ√प्याय् (वृद्धि)+ल्युट्-अन] १. एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होना। जैसे—दूध में खट्टा पदार्थ पड़ने से दही जमना। २. तृप्त करना। ३. वैद्यक में मारी हुई धातु को घी शहद सुहागे आदि से फिर से जीवित करना। ४. कर, विशेषतः जल संबंधी वस्तुओं पर लगनेवाला कर। | 
			
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				| आप्याथित					 : | भू० कृ० [सं० आ√व्याय्+णिच्+क्त] १. जिसे तृप्त या संतुष्ट किया गया हो। २. आर्द्र। गीला। तर। ३. बढ़ा या बढ़ाया हुआ। परिवर्धित। ४. एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचाया या लाया हुआ। परिवर्तित। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
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				| आप्रच्छन्न					 : | वि० [सं० आ+प्र√छद् (अपवारण)+क्त] १. गुप्त। रहस्यपूर्ण। २. छिपा हुआ। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
				उपलब्ध नहीं | 
			
					
				| आप्लव					 : | पुं० [सं० आ√प्लु (गति)+अप्] पानी से तर करना। २. स्नान। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
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				| आप्लवन					 : | पुं० [सं० आ√प्लु+ल्यूट-अन] अच्छी तरह पानी से भरना या तर करना। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
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				| आप्लवनव्रती (तिन्)					 : | पुं० [सं० आप्लवन-व्रत, ष० त०+इनि] ब्रह्मचर्य समाप्त कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करनेवाला स्नातक। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
				उपलब्ध नहीं | 
			
					
				| आप्लावन					 : | पुं० [सं० आ√प्लु+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० आप्लावित] अच्छी तरह पानी में डुबाना या पानी से भरना। | 
			
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				| आप्लावित					 : | भू० कृ० [सं० आ√प्लु+णिच्+क्त] १. अच्छी तरह डूबा या डुबाया हुआ। २. भींगा या भिगोया हुआ। ३. नहाया या नहलाया हुआ। स्नात। | 
			
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				| आप्लुत					 : | भू० कृ० [सं० आ√प्लु+क्त] अच्छी तरह भींगा हुआ। खूब तर या सराबोर। पुं० वह स्नातक जो गुरुकुल की पढ़ाई अच्छी तरह समाप्त कर चुका हों। | 
			
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