| शब्द का अर्थ | 
					
				| आभंग					 : | वि० -अभंग।(बिना टूटा हुआ)। उदाहरण—अनल कुंड आभंग उपजि चहुआन अनिल थल।—चंदवरदाई। | 
			
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				| आभ					 : | स्त्री० [सं० आभा] आभा। कांति। शोभा। पुं० [सं० अभ्र] आकाश। (डिं०) उदाहरण—(क) भला चीत भुर जालरा, आभ लगावा सींग।—बाकीदास। (ख) बीजुलियाँ चहालवलि आगइ आभइ एक।—ढोला मारू। पुं० =आब (जल)। प्रत्य० [सं० ] किसी चीज की आभा रखनेवाला। आभा से युक्त। (यौं०के०अंत में) जैसे—रक्ताभ, स्वर्णाभ आदि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आभरण					 : | पुं० [सं० आ√भृ (भरण करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आभरित] १. आभूषण। गहना। २. भरण-पोषण। | 
			
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				| आभरित					 : | भू० कृ० [सं० आ√भृ+अप् आभर+इतच्] १. आभूषणों या गहनों से युक्त अलंकृत। २. जिसका भरण-पोषण हुआ हो। ३. पाला-पोसा हुआ। | 
			
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				| आभा					 : | स्त्री० [सं० आ√भा (दीप्ति)+अङ्-टाप्] १. हलकी कांति या चमक। २. रंगत, स्वाद आदि की साधारण से कुछ कम या हलकी छाया या प्रतीति। (टिंज) ३. किसी चीज की कुछ अस्थायी झलक या प्रतिबिंब। (शेड) | 
			
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				| आभाणक					 : | पुं० [सं० आ√भण्(बोलना)+ण्वुल्-अक] १. एक प्रकार के नास्तिक। २. कहावत। लोकोक्ति। | 
			
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				| आभार					 : | पुं० [सं० प्रा०स०] १. बोझा। भार। २. घर-गृहस्थी की देखभाल और पालन-पोषण का बार। ३. किसी के उपकार के लिए प्रकट की जानेवाली कृतज्ञता। एहसान-मंदी। ४. उत्तरदायित्व। जिम्मेदारी। (आँब्लिगेशन, अंतिम दोनों अर्थों के लिए) ५. चार चरणों का एक वर्णवृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में आछ तगण होते हैं। | 
			
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				| आभारी (रिन्)					 : | पुं० [सं० आभार+इनि] आभार मानने या कृतज्ञता प्रकट करनेवाला। कृतज्ञ। | 
			
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				| आभावन					 : | पुं० [प्रा० स०] अनुमान। अंदाज। | 
			
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				| आभाष					 : | पुं० [सं० आ√भाष् (बोलना)+घञ्] १. कहना। बोलना। २. भूमिका। ३. संबोधन। | 
			
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				| आभाषण					 : | पुं० [सं० आ√भाष्+ल्युट्-अन] १. बात-चीत करना। बोलना। २. संबोधन। | 
			
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				| आभास					 : | पुं० [सं० आ√भास् (दीप्ति)+अच्] १. चमक। दीप्ति। द्युति। २. कांति। शोभा। ३. छाया। प्रतिबिम्ब। ४. ऐसी बाहरी आकृति रूप या रंग जिसे देखने पर किसी और चीज का धोखा हो सकता हो। ५. उक्त प्रकार की आकृति या रूपरंग के कारण होनेवाला धोखा या भ्रम। जैसे—रस्सी में सांप या सीपी में चांदी का आभास होना। ६. किसी चीज के अनुकरण या ढंग पर बनी हुई कोई दूसरी ऐसी चीज जो ठीक पूरी या शुद्ध न होने पर भी बहुत कुछ मूल की छाया से युक्त हो और देखने में बहुत कुछ वैसी ही जान पड़ती हों। जैसे—यह रस नहीं बल्कि रस का आभास (रसभास) मात्र है। ७. किसी चीज या बात में दिखाई देने वाली किसी दूसरी चीज या बात की ऐसी छाया या झलक जो उस दूसरी चीज या बात का कुछ अनुमान कराती हो। जैसे—उनकी बातों में ही इस बात का आभास था कि वे किसी तरह नहीं मानेगें। ८. ऐसा तर्क या प्रतिपादन जो वास्तव में ठीक न होने पर भी ऊपर से देखने में अच्छा और ठीक जान पड़े। जैसे—हेतु और हेत्वाभास (हेतु का आभास) में बहुत अंतर है। | 
			
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				| आभासन					 : | पुं० [सं० आ√भास्+ल्युट्-अन] १. आभास या आलोक से युक्त करना। प्रकाश से युक्त करना। २. स्पष्ट करना। ३. किसी बात का आभास या झलक देना अथवा उसकी हलकी प्रतीति कराना। | 
			
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				| आभासवाद					 : | पुं० [सं० ष० त०] वह दार्शनिक सिद्धांत जिसमें यह माना जाता है कि जितनी अमूर्त्त धारणाएँ या भावनाएँ हैं, वे आभास मात्र या देखने भर की हैं, उनकी वास्तविक सत्ता नहीं हैं। (नॉमिनलिज़्म) | 
			
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				| आभासीन					 : | वि० [सं० आभास से] १. आभास से युक्त। चमकीला। २. आभास रूप में अर्थात् बहुत हलके रूप में दिखाई देनेवाला। | 
			
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				| आभास्वर					 : | वि० [सं० आ√भास्+वरच्] जिसमें बहुत अधिक आभा या चमक हो। बहुत चमकीला। पुं० एक देव-वर्ग। | 
			
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				| आभिचारिक					 : | वि० [सं० अभिचार+ठक्-इक] अभिचार संबंधी। तंत्रोक्त। मारण, मोहन, उच्चाटन आदि अभिचारों से संबंध रखनेवाला। पुं० उक्त अभिचारों के समय पढ़े जानेवाले मंत्र। | 
			
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				| आभिजन					 : | वि० [सं० अभिजन+अण्] जन्म या कुल से संबंध रखनेवाला। पुं० कुलीनता। | 
			
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				| आभिजात्य					 : | पुं० [सं० अभिजात+ष्यञ्] अभिजात होने की अवस्था या भाव। | 
			
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				| आभिजित					 : | वि० [सं० अभिजित+अण्] अभिजित् नक्षत्र में होने या उससे संबंध रखनेवाला। | 
			
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				| आभिधा					 : | स्त्री० [सं० अभिधा+अण्-टाप्] १. ध्वनि। शब्द। २. उल्लेख। ३. नाम। | 
			
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				| आभिधानिक					 : | वि० [सं० अभिधान+ठक्-इक] अभिधान अर्थात् शब्द कोष में होनेवाला या उससे संबंध रखनेवाला। शब्द-कोश संबंधी। पुं० वह जो अभिधान या शब्द-कोश की रचना करता हो। कोशकार। | 
			
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				| आभिप्रायिक					 : | वि० [सं० अभिप्राय+ठक्-इक] १. अभिप्राय संबंधी। २. अभिप्राय के रूप में होनेवाला। | 
			
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				| आभिमुख्य					 : | पुं० [सं० अभिमुख+ष्यञ्] १. अभिमुख या आमने-सामने होने की अवस्था या भाव। | 
			
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				| आभिषेचनिक					 : | वि० [सं० अभिषेचन+ठक्-इक] अभिषेचन या राजतिलक संबंधी। | 
			
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				| आभिहारिक					 : | भू० कृ० [सं० अभिहार+ठक्-इक] १. उपहार या भेंट के रूप में दिया हुआ। २. छीनकर या बलपूर्वक लिया हुआ। पुं० उपहार। भेंट। | 
			
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				| आभीर					 : | पुं० [सं० आ-बी, प्रा० स० आभी√रा (दान)+क] [स्त्री०आभीरी] १. अहीर। गोप। ग्वाला। २. एक प्राचीन देश या जनपद जिसमें गोप जाति के लोग रहते थे। ३. एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ११ मात्राएँ और अंत में जगण होता है। ४. एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा गया है। | 
			
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				| आभीरक					 : | वि० [सं० आभीर+अण्+कन्] अहीर या गोप संबंधी। पुं० १. आभीर या गोप जाति। अहीर। २. इस जाति का कोई व्यक्ति। अहीर। | 
			
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				| आभीरी					 : | स्त्री० [सं० आभीर+ङीष्] १. अहीर की स्त्री। २. अहीर जाति की स्त्री। ३. प्राचीन आभीरो की एक बोली जो ईसवी आरंभिक शतियों में उत्तरी पंजाब में बोली जाती थी और जो आगे चलकर अपभ्रश बन गई थी। ४. संगीत में एक संकर रागिनी। | 
			
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				| आभुक्ति					 : | स्त्री० [सं० आ√भुज् (भोगना)+क्तिन्] १. आभोग करने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘आभोग’ (ईजमेण्ट) | 
			
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				| आभूत					 : | भू०कृ० [सं० आ√भू (होना)+क्त] जो उत्पन्न हो चुका हो अथवा अस्तित्व में आ चुका हो। | 
			
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				| आभूषण					 : | पुं० [सं० आ√भूष् (सजाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० आभूषित] १. अलंकार। गहना। जेवर। २. वह चीज या बात जो किसी दूसरी चीज या बात की शोभा का सौन्दर्य बढ़ाती हों। (आँर्नामेण्ट) | 
			
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				| आभूषन					 : | पुं० =आभूषण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| आभूषित					 : | भू० कृ० [सं० आ√भूष्+क्त] १. गहनों आदि से सजाया हुआ। अलंकृत। २. किसी प्रकार सजाया हुआ। | 
			
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				| आभृत					 : | भू० कृ० [सं० आ√मृ (भरण करना)+क्त] १. अच्छी तरह से या पूरा भरा हुआ। २. जिसका भरण-पोषण किया गया हो। ३. पास लाया हुआ। ४. जकड़ा या बँधा हुआ। | 
			
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				| आभोग					 : | पुं० [सं० आ√भुज्+घञ्] १. किसी वस्तु का उपभोग करके उससे सुख प्राप्त करना। भोग। २. ऐसी सब बातें या लक्षण जिनसे किसी दूसरी बात या स्थिति अथवा उसके भोग का पता चले। जैसे—आभोग से पता चलता है कि किसी समय यह बहुत संपन्न नगर रहा होगा। ३. विधिक क्षेत्र में, किसी प्रकार के सुख या सुभीते का ऐसा भोग जो कुछ समय से होता आया हो और इसी प्रकार आगे भी चल सकता हो। आभुक्ति। (ईजमेन्ट) ४. किसी पद्य में कवि के नाम का उल्लेख। ५. तक्षक या नाग का फन जो वरुण के सिर पर छत्र के रूप में रहता है। ६. साँप। | 
			
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				| आभोगी (गिन्)					 : | वि० [सं० आभोग+इनि] १. आभोग या भोग करनेवाला। २. खाने या भोजन करनेवाला। पुं० १. वह जो बराबर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता आया हो। २. आराम तलब। | 
			
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				| आभोग्य					 : | वि० [सं० आ√भुज्+ण्यत्] (पदार्थ) जिसका भोग होता हो या हो सकता हो। | 
			
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				| आभोजी (जिन्)					 : | वि० [सं० आ√भुज्+णिनि] खानेवाला। भोजी। | 
			
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				| आभ्यंतर					 : | वि० [सं० अभ्यंतर+अण्] १. अभ्यंतर में होनेवाला। अंदर का। भीतरी। २. देश, शरीर आदि के भीतरी भाग में होनेवाला। जैसे—आभ्यंतर कोप। | 
			
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				| आभ्यंतरिक					 : | वि० [सं० अभ्यंतर+ठञ्-इक] अभ्यंतर में या बिलकुल अंदर होनेवाला। | 
			
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				| आभ्युदयिक					 : | वि० [सं० अभ्युंतर+ठञ्-इक] १. अभ्युदय-संबंधी। २. अभ्युदय या उन्नति करने या करानेवाला। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। पुं० नांदीमुख श्राद्ध, जो कर्ता का अभ्युदय करानेवाला माना गया है। | 
			
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