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आश्रय  : पुं० [सं० आ√श्रि (सेवा करना)+अच्] [वि० आश्रयी] १. वह जिस पर कुछ टिका या ठहरा हो। आधार। २. वह जिसका सहारा लेकर या जिसके आसरे पर रहा जाय। अवलंब। सहारा। ३. ऐसा पदार्थ या व्यक्ति जो किसी को निश्चित, शांत और सुखी रखकर उसके अस्तित्व या निर्वाह में सहायक हो सके। अथवा जिसकी शरण में रहने पर संकटों आदि से रक्षा हो सके। शरण देनेवाला तत्त्व या स्थान (शेल्टर) जैसे—(क) सब प्रकार के तापों से बचने के लिए ईश्वर का आश्रय लेना। (ख) किसी समय अमेरिका में सब प्रकार के राजनीतिक पीड़ितों को आश्रय मिलता था। ४. कोई ऐसा पदार्थ या व्यक्ति जिसमें किसी प्रकार के गुण या विशिष्टता का निवास हो या जिसके आधार पर वह गुण या विशेषता ठहरी हो। जैसे—साहित्य में यदि नायक के रूप में उत्पन्न होनेवाले प्रेम का वर्णन हो तो नायक उस प्रेम का आश्रय माना जाएगा। (जिसके प्रति प्रेम उत्पन्न होता है,उसे साहित्यमें आलंबन कहते हैं) ५. उक्त आधार पर बौद्ध दर्शन में पाँचों ज्ञानेंद्रियों और मन जिनमें सुख-दुख अथवा उनके आलंबनों आदि की अनुभूति ज्ञान का परिचय होता है। ६. व्याकरण में उद्देश्य नामक तत्त्व जिसके संबंध में कुछ विधान किया जाता है अथवा जिसके आधार पर विधेय स्थित रहता है। ७. ठहरने रहने आदि का कोई सुरक्षित स्थान। ८. घर। मकान। ९. जड़। मूल। १. लगाव। संपर्क। ११. बहाना। मिस। १२. निकटता। समीपता।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
आश्रयण  : पुं० [सं० आ√श्रि+ल्युट-अन] किसी का आश्रय लेने या किसी को आश्रय देने की क्रिया या भाव। सहारा लेना या देना।
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आश्रयासिद्ध  : वि० [सं० आश्रय-असिद्ध, ब० स०] (कथन या तर्क) जिसका आश्रय या आधार असिद्ध अर्थात् गलत हो। फलतः मिथ्या और अमान्य।
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आश्रयासिद्धि  : स्त्री० [सं० आश्रय-सिद्धि, ष० त०] न्यायशास्त्र में किसी बात के आश्रयासिद्ध होने की अवस्था या भाव। (इसकी गणना हेत्वाभास में हुई है)।
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आश्रयी (यिन्)  : वि० [सं० आ√श्रि+इनि] १. किसी का आश्रय या सहारा लेनेवाला। २. आश्रय में रहनेवाला।
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