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इंद्रिय  : स्त्री० [सं० इन्द्र+घ-इय] १. शरीर के वे पाँच अंग (आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) जिनके द्वारा प्राणियों को बाह्य जगत या उसकी वस्तुओं आदि का ज्ञान होता है। २. उक्त के आधार पर पाँच की संख्या। ३. योनि और लिंग। जननेन्द्रिय। ४. वीर्य।
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इंद्रियजित्  : पुं० [सं० इंद्रिय√जि (जीतना)+क्विप्] वह, जिसने इंद्रियों को जीत लिया हो अर्थात् उन्हें वश में कर लिया हो।
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इंद्रिय-निग्रह  : पुं० [ष० त०] इंद्रियों को इस प्रकार वश में करना कि वे मन को चंचल न कर सके।
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इंद्रिय-लोलुप  : वि० [ष० त०] जिसे इंद्रियों के सुख-भोगों की बहुत अधिक लालसा हो।
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इंद्रियागोचर  : वि० [इंद्रिय-अगोचर, ष० त०]=इंद्रियातीत।
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इंद्रियातीत  : वि० [इंद्रिय-अतीत, द्वि० त०] (पदार्थ या विषय जो इंद्रियों की पकड़ या पहुँच में न आ सके। जिसे इंद्रियों से जाना जा सके। जैसे—ईश्वर या ब्रह्म।
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इंद्रियायतन  : पुं० [इंद्रिय-आयतन, ष० त०] १. वह जिसमें इंद्रियाँ स्थित हों अर्थात् शरीर। २. वेदांत के मत से, सूक्ष्म शरीर।
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इंद्रियाराम  : वि० [इंद्रिय-आराम, ब० स०] विषय-भोग में फँसा हुआ। विषयासक्त।
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इंद्रियारामी  : वि० =इंद्रियाराम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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इंद्रियार्थ  : पुं० [इंद्रिय-अर्थ, ष० त०] वह जिसे इंद्रियाँ ग्रहण सरे। इंद्रियों के भोग का विषय। जैसे—गंध, रस, रूप शब्द तथा स्पर्श।
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इंद्रियार्थवाद  : पुं० [इंद्रिय-अगोचर, ष० त०] १. इंद्रियों के सुख भोगने की वृत्ति। २. वह दार्शनिक सिद्धांत जिसके अनुसार यह माना जाता है कि हमें सब प्रकार के ज्ञानइंद्रियों की अनुभूति से ही प्राप्त होते हैं। (सेन्सुअलिज्म)।
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इंद्रियासंग  : पुं० [इंद्रिय-असंग, स० त०] अनासक्ति। वैराग्य।
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