| शब्द का अर्थ | 
					
				| कल्पन					 : | पुं० [सं०√कृप्+णिच्+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु को बनाने, रचने अथवा उसे कोई दूसरा रूप देने की क्रिया या भाव। २. किसी अमूर्त्त भावना या विचार को कल्पना के आधार पर मूर्त्त रूप देना। कल्पना करना। ३. धारदार औजारों से कतरना तथा काटना। ४. वह चीज जो सजावट के लिए किसी दूसरी चीज पर बैठाई या लगाई जाय। | 
			
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				| कल्पनक					 : | वि० [सं० कल्पना से] १. कल्पना से युक्त (कार्य)। २. (व्यक्ति) जिसकी कल्पना-शक्ति बहुत प्रबल हो अथवा जो सदा कल्पना करता रहता हो। | 
			
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				| कल्पना					 : | स्त्री० [सं० कृप्+णिच्+यच्—अन, टाप्] १. किसी वस्तु को बनाना या रचना। विशेष दे० ‘कल्पन’। २. वह क्रियात्मक मानसिक, शक्ति, जिसके द्वारा मनुष्य अनोखी और नई बातों या वस्तुओं की प्रतिमाएँ या रूप-रेखाएँ अपने मानस-पटल पर बनाकर उनकी अभिव्यक्ति काव्यों, चित्रों, प्रतिमाओं आदि के रूप में अथवा और किसी प्रकार के मूर्त्त रूप में करता है। (इमैजिनेशन) ३. उक्त प्रकार से प्रस्तुत की हुई कृति या रूप-रेखा। ४. गणित में कुछ समय के लिए किसी मात्रा या राशि को वास्तविक या सत्य मान लेना। (सपोजीशन) ५. मनगढ़ंत बात। पद—कोरी कल्पना=ऐसी कल्पित बात, जिसका कोई आधार न हो। अ० स०=कल्पना। | 
			
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				| कल्पनी					 : | स्त्री० [सं० कल्पन+ङीष्] कतरनी। कैंची। | 
			
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				| कल्पनीय					 : | वि० [सं०√कृप्+णिच्+अनीयर्] जिसकी कल्पना की जा सकती हो। कल्पना में आने के योग्य। (इमैजिनेबुल) | 
			
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