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काना  : वि० [सं० काण] [स्त्री० कानी] १. (प्राणी) जिसकी कोई आँख खराब या विकृत हो चुकी हो या किसी प्रकार फूट चुकी हो। एकाक्ष। २. (पदार्थ) जो किसी उपयोगी अंग के टूट-फूट जाने के कारण निकम्मा और भद्दा हो गया हो। त्रुटि या दोष से युक्त। जैसे—कानी कौड़ी। ३. (तरकारी या फल) जिसमें ऊपर से छेद कर कीडे़ अंदर घुसे हों अथवा अंदर से बाहर निकले हों। जैसे—काना बैंगन, काना सेब। पद—कान-कुतरा (देखें)। वि० [सं० कर्ण] जिसका कोई कोना या सिरा कान की तरह बाहर निकला हो। जैसे—कानी चारपाई। पुं० [सं० कर्ण] १. लिखने में आकार की मात्रा जो अक्षरों के आगे लगाई जाती है। जैसे—लिखते समय काना-मात्रा ठीक से लगाया करो। २. पासे का वह अंग या पार्श्व जिस पर एक ही बिंदी होती है। ३. पासे का वह दाँव जो उस दशा में आता है जब पासे का वह भाग ऊपर होता है जिस पर एक ही बिंदी होती है। जैसे—हमारे तीन काने हैं, और तुम्हारा पौ बारह है। अव्य=कहाँ (बुंदेल०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
काना-कानी  : स्त्री०=कानाफूसी।
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काना-कुतरा  : वि० [हिं० काना+कुतरना] जो खंडित या विकलांग होने के कारण कुरूप या भद्दा हो। जैसे—काना-कुतरा फल, काना-कुतरा लड़का।
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काना-गोसी  : स्त्री०=कानाफूसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कानाफुसकी  : स्त्री०=कानाफूसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कानाफूसी  : स्त्री० [हिं० कान+अनु,० ‘फुस’ ‘फुस’] १. किसी के कान में बहुत धीरे से इस प्रकार कुछ कहना कि दूसरों को केवल फुस-फुस शब्द होता जान पड़े। २. उक्त प्रकार से होनेवाली बात-चीत, जो दूसरों से छिपा कर और बहुत धीरे-धीरे की जाय।
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काना-बाती  : स्त्री० [हिं० कान+बात] १. किसी के कान में चुपके से और धीरे से कही जानेवाली कोई बात। (दे० ‘कानाफूसी’) २. बच्चों को हँसाने के लिए एक प्रकार का विनोद, जिसमें उन्हें कान में बात कहने के बहाने से अपने पास बुलाकर उनके कान में जोर से कुर्र या ऐसा ही और कोई शब्द करते हैं, जिससे उनके कान झन्ना जाते हैं और वे हँसकर दूर हट जाते हैं।
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