शब्द का अर्थ
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कोकंब :
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पुं० =कोकम (वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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कोक :
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पुं० [सं०√कुक् (आदान)+अच्] [स्त्री० कोकी] १. चकवा पक्षी। सुरखाब। २. मेढ़क। ३. दे० ‘कोकदेव’। पुं० [फा०] कपड़े पर की कच्ची सिलाई। |
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कोकई :
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पुं० [तुं० कोक] कौड़ी की तरह का ऐसा पीला रंग जिसमें कुछ गुलाबी या नीली झलक भी हो। (सीपिया) वि० उक्त प्रकार के रंग का। |
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कोक-कला :
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स्त्री० [सं० ष० त०] १. रति, केलि और संभोग की कला या विद्या। २. दे० ‘कोकशास्त्र’। |
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कोकटी :
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वि० [मैथिल] १. मुलायम सूत की, किन्तु बिना किनारीदार और जानु तक की चौड़ी धोती, जिसे पहले मिथिला में शिष्ट लोग पहनते थे। उदाहरण—कोकटी धोती पटुआ साग।—मैथिली लोकगीत। २. एक प्रकार का रंग, जो कुछ लाली लिए हलका पीला होता है। ३. उक्त रंग का कपड़ा। |
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कोक-देव :
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पुं० [सं० कोक√दिव् (कीड़ा करना)+अच्, उप० स०] कामशास्त्र के एक प्रसिद्ध आचार्य जो कोकशास्त्र नामक ग्रन्थ के रचयिता थे। |
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कोकन :
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पुं० [देश] एक प्रकार का बड़ा पेड़। |
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कोकनद :
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पुं० [सं० कोक√नद् (अव्यक्त शब्द)+अच्] १. लाल कमल। २. लाल कुमुद। |
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कोकना :
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स० [फा० कोक=कच्ची सिलाई] कच्ची सिलाई करना। कच्चा करना। लंगर डालना। |
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कोकनी :
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पुं० [सं० कोक=चकवा] एक प्रकार का तीतर। पुं० [सं० कोंकण] संतरे के पेड़ (तथा फल) की एक जाति। स्त्री दे० ‘कोकई’। वि० [तु० कोका ?] छोटा। नन्हा। |
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कोकम :
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पुं० [देश] एक प्रकार का वृक्ष, जिसके सभी अंग खट्टे होते है और इसी लिए कुछ अंग अचार, चटनी आदि में पड़ते हैं। |
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कोकला :
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स्त्री० [सं० कोकिला] कोयल। |
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कोकव :
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पुं० [सं० कोक√वा (गति)+क] एक राग जो पूरबी बिलावल केदारा, मारू और देवगिरी के योग से बनता है। |
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कोकवा :
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पुं० [?] पूरबी भारत में होनेवाला एक प्रकार का बाँस। |
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कोक-शास्त्र :
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पुं० [मध्य० स०] आचार्य कोकदेव का लिखा हुआ कामशास्त्र नामक ग्रन्थ। |
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कोकहर :
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पुं० [सं० कोक√हृ (हरण)+अच्] चंद्रमा। |
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कोका :
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पुं० [अं०] दक्षिणी अमेरिका का एक वृक्ष, जिसकी सुखाई हुई पत्तियाँ चाय या कहवे की तरह बलकारक मानी जाती हैं। पुं० स्त्री० [तु] एक ही धाय का दूध पीनेवाले अलग-अलग बच्चे। दूध-भाई या दूध-बहन। पुं० [सं० कोक] [स्त्री० कोकी] चकवा। पुं० [हिं० कूक] आह्वान। निमंत्रण। उदाहरण—महाकाल को दीन्हौ कोको।—भड्डरी। स्त्री० [?] नीली कुमुदिनी। |
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कोकाबेरी-(बेली) :
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स्त्री० [हिं० कोका+वेली] नीली कुमुदिनी। |
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कोकामुख :
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पुं० [सं० ] भारत का एक प्राचीन तीर्थ। |
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कोकाह :
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पुं० [सं० कोक-आ√हन् (हिसा)+ड] १. सफेद रंग के घोड़ों की एक जाति। २. उक्त जाति का घोड़ा। |
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कोकिल :
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पुं० [सं०√कुक् (आदान)+इलच्] १. कोयल। २. रहस्य संप्रदाय में (क) उत्तम मनोवृत्ति। (ख) मधुर भाषण या मीठा बोल। ३. नीलम की एक छाया। ४. एक प्रकार का जहरीला चूहा। ५. जलता हुआ अंगारा। ६. एक प्रकार का साँप। ७. छप्पयका १९ वाँ भेद, जिसमें ५२ गु०,४ ८ लघु (१॰॰ वर्ण) और १५२ मात्राएँ होती हैं। |
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कोकिल-कंठ :
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वि० [ब० स०] जिसका स्वर कोयल की तरह मधुर तथा सुरीला हो। |
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कोकिल-नयन :
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पुं० [ब० स०]=कोकिलाक्ष। |
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कोकिल-रव :
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पुं० [ब० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल। |
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कोकिला :
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स्त्री० [सं० कोकिल+टाप्] कोयल। पिक। |
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कोकिलाक्ष :
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पुं० [सं० कोकिल-अक्षि, ब० स०] तालमखाना। |
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कोकिला-प्रिय :
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पुं० [ष० त०] संगीत में एक ताल, जिसमे क्रमशः एक प्लुत, एक लघु, एक प्लुत और तब एक प्लुत होती हैं। |
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कोकिला-रव :
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पुं० [ब० स०] ताल के ६॰ भेदों में से एक । |
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कोकिलावास :
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पुं० [सं० कोकिल-आवास, ष० त०] १. कोयल का घोंसला। २. आम का पेड़। |
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कोकिलासन :
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पुं० [सं० कोकिल-आसन, उपमि० स०] तंत्र के अनुसार एक प्रकार का आसन। |
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कोकिलेष्टा :
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स्त्री० [सं० कोकिल-इष्टा, ष० त०] बड़ा जामुन। फरेंदा। |
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कोकिलोत्सव :
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पुं० [सं० कोकिल-उत्सव, ब० स०] आम का वृक्ष। |
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कोकी :
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स्त्री० [सं० कोक+ङीष्] मादा चकवा। |
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कोकीन :
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स्त्री०=कोकेन। |
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कोकीनची :
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पुं० =कोकेनबाज। |
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कोकुआ :
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पुं० [सं० कोकाग्र] समष्ठिल नामक पौधा। |
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कोकेन :
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स्त्री० [अं०] कोका नामक वृक्ष की पत्तियों से तैयार की हुई एक प्रकार की ओषधि, जो गंध-हीन और सफेद रंग की होती है और जिसके प्रयोग से शरीर के अंग-सुन्न हो जाते हैं। लोग इसका प्रयोग पान के साथ नशे के रूप में करते हैं। |
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कोकेनबाज :
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वि० [हिं० कोकीन] वह जिसे कोकेन खाने का चसका हो। नशे के लिए कोकेन खानेवाला। |
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कोको :
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स्त्री० [अनु०] कौओं को बुलाने का शब्द। स्त्री० एक कल्पित पक्षी, जिसके नाम का प्रयोग बच्चों को डराने, बहलाने आदि के लिए होता है। अं० ताड़ की तरह एक प्रकार के फल का चूरा, जिससे चाय के ऐसा पेय बनाकर पिया जाता है। |
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कोकोजम :
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पुं० [अं०] साफ किया हुआ नारियल का तेल जो घी की तरह काम में लाया जाता है। वनस्पति घी। |
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