| शब्द का अर्थ | 
					
				| खेद					 : | पुं० [सं०√खिद्(दुःखी होना)+घञ्] १. किसी व्यक्ति द्वारा कोई अपेक्षित काम न करने अथवा कोई काम या बात ठीक तरह से न होने पर मन में होने वाला दुःख। जैसे–खेद है कि बार-बार लिखने पर भी आप पत्र का उत्तर नही देते। (रिग्रेट) २. परिश्रम आदि के कारण होने वाली शरीर का शिथिलता। थकावट। | 
			
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				| खेदना					 : | स०=खदेड़ना। | 
			
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				| खेदा					 : | पुं० [हिं० खेदना] १. जंगली हाथियों के झुंड पकड़ने की वह क्रिया या ढंग जिसमें वे चारों ओर से खेद या खदेड़कर लट्ठों के बनाये हुए घेरे के अन्दर लाकर फँसाये या बन्द किये जाते हैं। २. चीते, शेर आदि हिंसक पशुओं का शिकार करने के लिए उनको उक्त प्रकार से खदेड़ और घेरकर किसी निश्चित स्थान पर लाने की क्रिया या ढंग। ३. आखेट। शिकार। (क्व०) | 
			
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				| खेदाई					 : | स्त्री० [हिं० खेदना] खेदने की क्रिया, भाव या मजदूरी। | 
			
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				| खेदित					 : | वि० [सं० खेद+इतच्] १. जिसे खेद हुआ हो या पहुँचाया गया हो। खिन्न या दुःखी। २. थका हुआ। शिथिल। | 
			
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				| खेदी (दिन्)					 : | वि० [सं०√खिद्+णिनि] १. खेद उत्पन्न करनेवाला। २. थका हुआ। शिथिल। | 
			
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