| शब्द का अर्थ | 
					
				| जंघा					 : | स्त्री० [√हन् (जाना) √यङ-लुक्+अच्, टाप्] १. पैर का घुटने और पेड़ू के बीच का भाग। २. एक प्रकार का जूता। ३. कैंची का दस्ता जिसमें फल और दस्ताने लगे रहते हैं। | 
			
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				| जंघा-त्राण					 : | पुं० [ष० त०] एक प्रकार का कवच जो जांघ पर बाँधा जाता था। | 
			
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				| जंघाफार					 : | पुं० [हिं० जंघा+फारना] रास्ते में पड़नेवाली खाई। (कहार)। | 
			
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				| जंघा-बन्धु					 : | पुं० [ब० स०] एक ऋषि का नाम। | 
			
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				| जंघामथानी					 : | स्त्री० [सं० जंघा+हिं० मथानी] १. छिनाल स्त्री। पुंश्चली। २. वेश्या। | 
			
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				| जंघार					 : | पुं० [हिं० जंघा+आर] जाँघ पर होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा। | 
			
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				| जंघा-रथ					 : | पुं० [ब० स०] १. एक प्राचीन ऋषि। २. उक्त ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष। | 
			
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				| जंघारा					 : | पुं० [देश०] राजपूतानों की एक जाति। | 
			
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				| जंघारि					 : | पुं० [सं० ब० स०] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम। | 
			
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				| जंघाल					 : | पुं० [सं० जंघा+लच्] १. धावन। धावक। दूत। २. मृग। | 
			
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				| जंघाला					 : | स्त्री० [सं०] पुरानी चाल की एक प्रकार की नाव जो १२८ हाथ लम्बी, १६ हाथ चौंड़ी और १२ हाथ ऊँची होती थी। | 
			
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