| शब्द का अर्थ | 
					
				| जंज					 : | अव्य० [?] जो। स्त्री० [सं० यज्ञ] बरात। (पंजाब)। | 
			
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				| जंज घर					 : | पुं० [हिं० जंज+घर] १. बरात को ठहराने का स्थान। २. वह स्थान जहाँ पर बरातें आकर ठहरती हों। | 
			
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				| जंजपूक					 : | पुं० [सं०√ जप् (जपना)+यङ्+ऊक] मंद स्वर में जप करने वाला व्यक्ति। | 
			
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				| जंजबील					 : | स्त्री० [अ०] सोंठ। | 
			
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				| जंजर(ल)					 : | वि=जर्जर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| जंजाल					 : | पुं० [हिं० जग+जाल] [वि० जंजालिया] १. सांसारिक व्यापार जिसमें मनुष्य फँसा रहता है। मनुष्य को ईश्वर या भगवत् भजन से विमुख करने तथा उसका ध्यान अपनी ओर लगाये रखनेवाली बात। माया। २. प्रपंच। झंझट। बखेड़ा। ३. उलझन। ४. पानी का भँवर। ५. पुराने ढंग की एक प्रकार की पलीतेदार बड़ी बंदूक। ६. चौड़े मुँहवाली एक प्रकार की पुरानी चाल की तोप। ७. मछलियाँ पकड़ने का बड़ा जाल। | 
			
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				| जंजालिया					 : | वि० [हिं० जंजाल+इया (प्रत्य)]=जंजाली। | 
			
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				| जंजाली					 : | वि० [हिं० जंजाल+ई (प्रत्यय)] १. जो जंजाल में फँसा हो। सांसारिक बंधनों में पड़ा हुआ। २. झगडा-बखेड़ा करनेवाला। स्त्री० [देश०] वह रस्सी और घिरनी जिससे नावों का पाल चढ़ाया और उतारा जाता है। | 
			
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				| जंजीर					 : | स्त्री० [फा०] १. धातु की बहुत-सी कड़ियों को एक दूसरे में पहनाकर बनाई जानेवाली लड़ी। सांकल। २. साँकल की तरह का बना हुआ गले में पहनने का एक आभूषण। सिकड़ी। ३. कैदियों के पावों में बाँधी जानेवाली लोहे की श्रृंखला। ४. किवाड़े के पल्ले बंद करने की सिकड़ी। साँकल। ५. लाक्षणिक अर्थ में, वह बात जो आगे-पीछे की घटनाओं को जोड़ती या मिलाती है। श्रृंखला। | 
			
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				| जंजीरा					 : | पुं० [हिं० जंजीर] १. कसीदे के काम में, कपड़े आदि पर काढ़ी या निकाली हुई जंजीर की बनावट। लहरया। २. लहरियेदार कपड़ा। उदाहरण–जनि बाँधों जंजीरें की पाग नजर तोहें लगि जायगी।–गीत। | 
			
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				| जंजीरी					 : | वि० [हिं० जंजीर] १. गले में पहनने की सिकड़ी। २. हथेली के पिछले भाग पर पहना जानेवाला एक प्रकार का गहना। वि० जिसमें जंजीर या सिकड़ी लगी हो। | 
			
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