| शब्द का अर्थ | 
					
				| जत					 : | वि० [सं० यत्] जितना। जिसे मात्रा का। क्रि० वि० जिस मात्रा में। पुं० [सं० यति] ढोलक, तबले आदि में, एक प्रकार का ठेला या ताल। स्त्री०=यति (कविता की)। | 
			
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				| जतन					 : | पुं०=यत्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| जतनी					 : | वि० [सं० यत्नी] १. यत्न करनेवाला। २. चालाक या धूर्त्त। स्त्री० [सं० यत्न ?] सूत कातने के चर्खे की वह रस्सी जो उसकी चरखी के पंखों परबँधी रहती है। | 
			
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				| जतलाना					 : | स०=जताना। | 
			
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				| जतसर					 : | पुं०=जंतसर। | 
			
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				| जताना					 : | स० [सं० ज्ञाप्त] १. किसी को किसी बात की जानकारी कराना। ज्ञात कराना। बतलाना। २. पूर्व सूचना देना। सचेत करने के लिए पहले से सूचना देना। चेताना। | 
			
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				| जतारा					 : | पुं० [सं० जाति] कुल। जाति। वंश। | 
			
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				| जति					 : | पुं०=यति। वि० [सं०√जित्] जीतनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| जती					 : | पुं०=यति। | 
			
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				| जतु					 : | पुं० [सं०√जन् (उत्पन्न होना)+उ, त आदेश] १. वृक्ष में से निकलनेवाला गोंद। २. लाक्षा। लाख। ३. शिलाजीत। | 
			
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				| जतुक					 : | पुं० [सं० जंतु√कै (प्रतीतहोना)+क] १. हीग। २. लाख। ३. त्वचा पर का काला चिन्ह। लच्छन। | 
			
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				| जतुका					 : | पुं० [सं० जतुक+टाप्] १. पहाड़ी नामक लता जिसकी पत्तियाँ ओषधि के काम आती है। २. चमगादड़। ३. लाक्षा। लाख। | 
			
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				| जतुकारी					 : | स्त्री० [सं० जतुक्√ऋ (गमनादि)+अण्-ङीष्] पपड़ी नामक लता। | 
			
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				| जतु-कृष्णा					 : | स्त्री० [उपमि० स०] जतुका या पपड़ी नामक लता। | 
			
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				| जतु-गृह					 : | पुं० [मध्य० स०] १. घास-फूस की झोपड़ी। २. लाख का वह घर जो वारणावत में दुर्योधन ने पांडवों के रहने के लिए बनवाया था। | 
			
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				| जतुनी					 : | स्त्री० [सं० जतु√नी (पहुँचाना)+क्विप्] चमगादड़। | 
			
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				| जतु-पुत्रक					 : | पुं० [सं० जतु-पुत्र मध्य० स०√कै (प्रतीत होना)+क] १. शतरंज का मोहरा। २. चौंसर की गोटी। | 
			
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				| जतु-रस					 : | पुं० [ष० त०] राख से बनाया जानेवाला लाल रंग जिसे स्त्रियाँ पैरों, हाथों आदि पर लगाती हैं। अलक्तक। आलता। महावर। | 
			
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				| जतूका					 : | स्त्री० [सं० जतुका, नि० दीर्घ] जतुका। (दे०) | 
			
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				| जतेक					 : | क्रि० वि० [सं० यत्, या हिं० जितना+एक] जिस मात्रा में। वि० जितना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| जत					 : | पुं०=जगत। पुं०=यति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| जत्था					 : | पुं० [सं० यूथ] एक ही वर्ग विचार या संप्रदाय के लोगों का समूह जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर किसी विशिष्ट उद्धेश्य से जाता हो। जैसे–यात्रियों का जत्था, स्वंय-सेवकों का जत्था। | 
			
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				| जत्र					 : | क्रि० वि०=यंत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| जत्रानी					 : | स्त्री० [?] रुहेलखंड में बसी हुई जाटों की एक जाति। | 
			
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				| जत्रु					 : | पुं० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+रु, त आदेश] धड़ के ऊपरी भाग में गले के नीचे और छाती के ऊपर दोनों ओर की अर्द्ध-चंद्राकार हड्डियाँ। हँसली। | 
			
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				| जत्रुक					 : | पुं० [सं० जत्रु+कन्]=जत्रु। | 
			
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				| जत्वश्मक					 : | पुं० [सं० जंतु-अश्मन्, मध्य० स०+कन्] शिलाजीत। | 
			
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				| जत्तु					 : | पुं० [सं०√जनु+तु, र, आदेश]=जर्त्त। | 
			
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