| शब्द का अर्थ | 
					
				| दार					 : | स्त्री० [सं०√दृ (विदारण करना)+णिच्+अच्] पत्नी। भार्या। पुं० [√दृ+घञ्] १. चीरना। विदारण। २. छेद। ३. दरार। पुं० दारू। वि० [फा०] [भाव० दारी] एक विशेषण जो कुछ शब्दों के अंत में प्रत्यय के रूप में लगकर रखनेवाला या वाला का अर्थ देता है। जैसे—(क) किरायेदार, दुकानदार। (ख) छज्जेदार, छायादार। | 
			
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				| दारक					 : | पुं० [सं०√दृ+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० दारिका] १. पुत्र। बेटा। २. बालक। लड़का। वि० विदीर्ण करने या फाड़नेवाला। | 
			
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				| दार-कर्म (न्)					 : | पुं० [ष० त०] दार अर्थात् भार्या ग्रहण करने की क्रिया या भाव। पुरुष का विवाह। | 
			
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				| दारचीनी					 : | स्त्री० [सं० दारु+चीन] १. तज की जाति का एक प्रकार का वृक्ष जो दक्षिण भारत और सिंहल में होता है। सिंहल में ये पेड़ सुंगधित छाल के लिए बहुत लगाये जाते हैं। यह दो प्रकार की होती है—जीलानी और कपूरी। कपूरी की छाल मे बहुत अधिक सुगंध होती है और उससे बहुत अच्छा कपूर निकलता है। भारतवर्ष अरब आदि देशों में पहले इसकी सुगंधित छाल चीन देश से आती थी, इसी से इसे दारु चीनी कहने लगे २. उक्त पेड़ की सुगंधित छाल जो दवा और मसाले के काम में आती है। | 
			
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				| दारण					 : | पुं० [सं०√दृ (विदारण करना)+णिच्+ल्युट—अन] १. चीरने-फाड़ने या विदीर्ण करने की क्रिया या भाव। चीर-फाड़। विदारण। २. फोड़ा या व्रण चीरने की क्रिया या भाव। चीर-फाड़। शल्य चिकित्सा। ३. चीरने-फाड़ने आदि का अस्त्र या औजार। ४. ऐसी चीज या दवा जिसके लगाने से फोड़ा फट या फूट जाय। ५. निर्मली का पेड़। | 
			
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				| दारणी					 : | स्त्री० [सं० दारण+ङीप्] दुर्गा। | 
			
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				| दारद					 : | पुं० [सं० दरद+अण्] १. एक प्रकार का विष जो दरद देश में होता है। २. पारद। पारा। ३. ईंगुर। वि० दरद देश का। | 
			
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				| दारन					 : | वि०=दारुन। पुं०=दारण। | 
			
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				| दारना					 : | स० [सं० दारण] १. विदीर्ण करना। फाड़ना। २. नष्ट करना। न रहने देना। ३. मार डालना। उदाहरण—दारहि दारि मुरादहिं मारिकै, संगर साह सुजै बिचलायौ।—भूषण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| दार-परिग्रह					 : | पुं० [ष० त०] विवाह करके किसी को अपनी पत्नी बनाना। पाणि-ग्रहण। | 
			
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				| दार-मदार					 : | पुं० [फा० दारोमदार] १. आश्रय। सहारा। २. ऐसा अवलंब या आधार जिस पर दूसरी बहुत सी बातें आश्रित हों। जैसे—अब तो सारा दार-मदार आपके न या हाँ करने पर ही है। | 
			
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				| दारव					 : | वि० [सं० दारु+अञ्] १. दारु अर्थात् लकड़ी से संबंध रखनेवाला। २. काठ या लकड़ी का बना हुआ। | 
			
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				| दार-संग्रह					 : | पुं० [ष० त०] पुरुष का अपना विवाह करके किसी स्त्री को पत्नी या भार्या के रूप में ग्रहण करना। दार-परिग्रह। पाणि-ग्रहण। | 
			
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				| दारा					 : | स्त्री० [सं० दार+टाप्] पत्नी। भार्या। स्त्री० [?] एक प्रकार की समुद्री मछली जो प्रायः तीन हाथ तक लंबी होती है। पुं० [?] किनारा। तट। (लश०) | 
			
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				| दाराई					 : | स्त्री० [फा०] पुरानी चाल का एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। दरियाई। | 
			
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				| दारि					 : | स्त्री०=दारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दाल। | 
			
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				| दारिउँ					 : | पुं०=दाड़िम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| दारिका					 : | स्त्री० [सं० दारक+टाप्, इत्व] १. वह युवती स्त्री जिसका अभी तक विवाह न हुआ हो। कुँवारी लड़की। कुमारी। २. बालिका। लड़की। ३. पुत्री। बेटी। ४. कठ-पुतली। | 
			
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				| दारिका-सुन्दरी					 : | स्त्री० [सं०] वेश्या की वह लड़की जिसका अभी तक किसी पुरुष से संबंध न हुआ हो। नथिया-बंद। | 
			
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				| दारित					 : | भू० कृ० [सं०√दृ (विदारण)+णिच्+क्त] १. चीरा फाड़ा हुआ। विद्रीर्ण किया हुआ। २. विभक्त किया हुआ। | 
			
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				| दारिद्र					 : | पुं०=दारिद्रय। (दरिद्रता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| दारिद्र					 : | पुं०=दारिद्रय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| दारिद्रय					 : | पुं० [सं० दरिद्र+ष्यञ्] दरिद्र होने की अवस्था या भाव। दरिद्रता। | 
			
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				| दारिम					 : | पुं०=दाड़िम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| दारी					 : | स्त्री० [सं०√दृ+णिच्+इन्—ङीप्] पैर के तलवे का चमड़ा फटने का एक रोग। बिवाई। स्त्री० [सं० दारिका] १. दासी या लौंड़ी विशेषतः ऐसी दासी या लौंड़ी जो लड़ाई में जीतकर लाई गई हो। २. परम दुश्चरित्रा स्त्री। छिनाल। पुंश्चली। उदाहरण—चंचल सरस एक काहू पै न रहै दारी।—भूषण। पद—दारी-दार (देखें) स्त्री० [फा०] दार अर्थात् रखनेवाला होने की अवस्था या भाव। जैसे—किरायेदारी, दुकानदारी आदि। | 
			
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				| दारीजार					 : | पुं० [हिं० दारी+सं० जार] १. लौंड़ी का उपपति या पति। (गाली) 2. दासी-पुत्र। 3. परम दुश्चरित्र से अनुचित संबंध रखनेवाला पुरुष। परम व्यभिचारी। विशेष—हिं० का ‘दाढ़ीजार’ संभवतः इसी ‘दारीजार’ का विकृत रूप है। | 
			
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				| दारू					 : | पुं० [सं०√दृ(चीरना)+उण्] १. काष्ठ। काठ। लकड़ी। २. देवदारु। ३. कारीगर। शिल्पी। ४. पीतल। वि० १. दानशील। दानी। २. उदार। ३. जल्दी टूटने-फूटनेवाला। | 
			
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				| दारुक					 : | पुं० [सं० दारु+कन् (स्वार्थे)] १. देवदारु। २. काठ का पुतला। ३. श्रीकृष्ण के सारथी का नाम। ४. एक योगाचार्य जो शिव के अवतार कहे गए हैं। | 
			
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				| दारु-कदली					 : | स्त्री० [उपमि० स०] जंगली केला। कठ-केला। | 
			
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				| दारुका					 : | स्त्री० [सं० दारु√कै (शब्द करना)+क+टाप्] कठपुतली। | 
			
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				| दारुका-वन					 : | पुं० [मध्य० स०] एक वन जो पवित्र तीर्थ माना गया है। | 
			
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				| दारु-गंधा					 : | स्त्री० [ब० स० टाप्] बिरोजा जो चीड़ से निकलता है। | 
			
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				| दारुचीनी					 : | स्त्री०=दारचीनी। | 
			
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				| दारुज					 : | वि० [सं० दारु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. दारु अर्थात् लकड़ी में (या से) उत्पन्न होनेवाला। २. दारु अर्थात् लकड़ी का बना हुआ। पुं० मृदंग की तरह का एक प्रकार का बाजा। मर्दल। | 
			
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				| दारुण					 : | वि० [सं०√दृ (भय)+णिच्+उनन्] [भाव० दारुणता] १. भयानक। भीषण। २. घोर। विकट। ३. उग्र। प्रचंड। ४. जिसे सहना कठिन हो। जैसे—दारुण कष्ट या विपत्ति। ५. (रोग) जो बहुत बढ़ गया हो और सहज में अच्छा न हो सकता हो। (सीरियस) ६. फाड़ डालनेवाला। विदारण। पुं० १. चित्रक वृक्ष। चीते का पेड़। २. रौद्र नामक नक्षत्र। ३. साहित्य में, भयानक रस ४. विष्णु। ५. शिव। ६. राक्षस। ७. पुराणानुसार एक नरक का नाम। | 
			
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				| दारुणक					 : | पुं० [सं०दारुण√कै (मालूम होना)+क] सिर में होनेवाला रूसी। (देखें) नामक रोग। | 
			
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				| दारुणता					 : | स्त्री० [सं० दारुण+तल्+टाप्] दारुण होने की अवस्था या भाव। दारुण्य। | 
			
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				| दारुणा					 : | स्त्री० [सं० दारुण+टाप्] १. नर्मदा खंड की अधिष्ठात्री देवी का नाम। २. अक्षय तृतीया। | 
			
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				| दारुणारि					 : | पुं० [सं० दारुण+अरि, ष० त०] विष्णु। | 
			
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				| दारुण्य					 : | पुं० [सं० दारुण+ष्यञ्] दारुण होने की अवस्था या भाव। दारुणता। | 
			
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				| दारुन					 : | वि०=दारुण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| दारु-नटी					 : | स्त्री० [सं० मध्य० स०] कठपुतली। | 
			
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				| दारु-नारी					 : | स्त्री० [मध्य० स०] कठपुतली। | 
			
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				| दारु-निशा					 : | स्त्री० [मध्य० स०] दारु हलदी। | 
			
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				| दारु-पत्री					 : | स्त्री० [ब० स० ङीष्] हिंगुपत्री। | 
			
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				| दारु-पर्वतक					 : | पुं० [सं०] वह नकली पर्वत जो राजप्रसाद के उद्यान में क्रीड़ा आदि के लिए बनाया जाता था। | 
			
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				| दारु-पात्र					 : | पुं० [ष० त०] काठ का बना हुआ बरतन। | 
			
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				| दारु-पीता					 : | स्त्री० [तृ० त०] दारु हलदी। | 
			
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				| दारु-पुत्रिका					 : | स्त्री० [मध्य० स०] कठपुतली। | 
			
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				| दारु-फल					 : | पुं० [मध्य० स०] पिस्ता। | 
			
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				| दारुमय					 : | वि० [सं० दारु+मयट्] [स्त्री० दारुमयी, दारुमय+ङीप्] सिर से पैर तक काठ का बना हुआ। | 
			
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				| दारुमुच्					 : | पुं० [सं० दारु√मुच् (त्यागना)+क्विप्] एक प्रकार का स्थावर विष। | 
			
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				| दारुमूषा					 : | स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार की जड़ी। | 
			
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				| दारु-योषित्					 : | स्त्री० [मध्य० स०] कठपुतली। | 
			
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				| दारुल्-शफा					 : | पुं० [अ० दारुश्शिफा] १. चिकित्सालय। २. आरोग्य शाला। | 
			
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				| दारुल्-सलतनत					 : | स्त्री० [अ० दारूस्सल्तनत] राजधानी। | 
			
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				| दारु-सिता					 : | स्त्री० [स० त०] दार-चीनी। | 
			
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				| दारु-हरिद्रा					 : | स्त्री० [स० त०] दारु हलदी। | 
			
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				| दारु-हलदी					 : | स्त्री० [सं० दारुहरिद्रा] गुल्म जाति का सात-आठ हाथ लंबा एक सदाबहार झाड़ जिसमें पत्ते दंतयुक्त, फल पीपल के फलों जैसे, और फूल पीले रंग के छः छः दंलोंवाले होते हैं। यह हिमालय के पूर्वी भाग से लेकर आसाम तक होता है। इसकी लकड़ी दवा के काम मे आती है। | 
			
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				| दारू					 : | स्त्री० [फा०] १. उपचार। चिकित्सा। २. दवा। औषध। ३. मद्य। शराब। ४. बारूद। विशेष—यह शब्द मूलतः स्त्री० ही है, फिर भी लोक में प्रायः पुं० ही बोला जाता है। | 
			
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				| दारूकार					 : | पुं० [फा० दारू+हिं० कार] शराब बनानेवाला। कलवार। | 
			
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				| दारूड़ा					 : | पुं० [फा० दारू] मद्य। शराब। (राज०) | 
			
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				| दारूड़ी					 : | स्त्री०=दारूड़ा। | 
			
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				| दारूधरा					 : | पुं० [फा० दारू=बारूद+हिं० धरना] तोप या बंदूक चलाने वाला। उदाहरण—जुर्रा रु बाज कूही गुहा, धानुक्की दारूधरा।—चंदबरदाई। | 
			
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				| दारो					 : | पुं०=दार्यों। (दाड़िम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| दारोगा					 : | पुं० [फा० दारोगः] १. निगरानी रखनेवाला अफसर। देख-भाल रखनेवाला या प्रबंध करनेवाला अधिकारी। जैसे—चुंगी या जेल का दारोगा। २. पुलिस-विभाग का वह अधिकारी जिसके अधीन बहुत से सिपाहियों की टुकड़ी और प्रायः एक थाना होता है। | 
			
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				| दारागाई					 : | स्त्री० [हिं० दारोगा] दारोगा का काम, पद या भाव। | 
			
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				| दारोमदार					 : | पुं० [फा०] दार-मदार। (देखें) | 
			
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				| दार्ढ्य					 : | पुं० [सं० दृढ़+ष्यञ्] दृढ़ होने की अवस्था या भाव। दृढ़ता। | 
			
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				| दार्दुर					 : | वि० [सं० दर्दुर+अण्] दर्दुर-संबंधी। दर्दुर का। पुं० एक प्रकार का दक्षिणावर्त्त शंख। | 
			
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				| दार्दुरिक					 : | पुं० [सं० दर्दुर+ठञ्—इक] कुम्हार। | 
			
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				| दार्भ					 : | वि० [सं० दर्भ+अण्] १. दर्भ अर्थात् कुश-संबंधी। २. दर्भ या कुश का बना हुआ। जैसे—दार्भ आसन। | 
			
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				| दार्यों					 : | पुं०=दाड़िम (अनार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| दार्वड़					 : | पुं० [सं० दारु-अंड, ब० स०] [स्त्री० दार्वडी] मयूर या मोर पक्षी (जिसका अंडा काठ की तरह कड़ा होता है।) | 
			
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				| दार्व					 : | पुं० [सं० दारु+अण्] एक प्राचीन प्रदेश जो कूर्म विभाग के ईशान कोण में और आधुनिक कश्मीर के अन्तर्गत था। | 
			
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				| दार्वट					 : | पुं० [सं० दारु√अट् (भ्रमण)+क] मंत्रणा करने का गुप्त स्थान। मंत्रणा गृह। | 
			
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				| दार्वाघाट					 : | पुं० [सं० दारु आ√हन् (चोट करना)+अण्, नि० टत्व] कठफोड़वा। | 
			
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				| दार्वाट					 : | पुं० [फा० ‘दरबार’ से] मंत्रणा-गृह। | 
			
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				| दार्विका					 : | स्त्री० [सं० दार्वी+क (स्वार्थे)-टाप्, ह्रस्वत्व] १. दारुहलदी से निकाला हुआ तूतिया। २. वन-गोभी। | 
			
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				| दार्वि-पत्रिका					 : | स्त्री० [सं० ब० स०,+कन्+टाप्, इत्व] गोजिह्रा। गोभी। | 
			
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				| दार्वी					 : | स्त्री० [सं०√दृ(विदारण करना)+णिच्+उण्+ङीष्] दारुहलदी। | 
			
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				| दार्श					 : | स्त्री० [सं० दर्श+अण्] दर्श-अमावास्या के दिन होनेवाला। | 
			
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				| दार्शनिक					 : | वि० [सं० दर्शन+ठञ्—इक] १. दर्शन-शास्त्र संबंधी। दर्शन-शास्त्र की तरह का। पुं० वह जो दर्शनशास्त्र का अच्छा ज्ञाता या पंडित हो। | 
			
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				| दार्षद					 : | वि० [सं० दृषद्+अण्] १. पत्थर पर पीसा हुआ। २. पत्थर का बना हुआ। ३. खान से निकला हुआ। खनिज। | 
			
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				| दार्षद्वत					 : | पुं० [सं० दृषद्वती+अण्] कात्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार एक यज्ञ जो द्ववद्वती नदी के किनारे किया जाता था। | 
			
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