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दीयरा  : पुं० [हिं० दीया=दीपक] १. वह बड़ा सा लुक जो शिकारी हिरनों को आकर्षित करने के लिए जलाया जाता है। उदाहरण—सुभग सकल अंग अनुज बालक संग देखि नरनारि रहै ज्यों कुरंग दियरे।—तुलसी। २. [स्त्री० अल्पा० दियरी] दे० ‘दीया’। पुं० [?] एक तरह का पकवान।
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दी  : स्त्री०=दीमक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीअट  : स्त्री०=दीयट।
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दीआ  : पुं०=दीया। (दीपक)
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दीक  : पुं० [देश०] एक प्रकार का तेल, जो काटू या हिजली के पेड की छाल से निकलता है और जाल में मांजा देने के काम आता है।
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दीक्षक  : पुं० [सं०√दीक्ष् (शिष्य बनाना)+ण्वुल्—अक] १. दीक्षा देनेवाला। मंत्र का उपदेश करनेवाला। २. शिक्षक। गुरु।
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दीक्षण  : पुं० [सं०√दीक्ष+ल्यु—अन] [वि० दीक्षित] दीक्षा देने की क्रिया या भाव।
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दीक्षणीय  : वि० [सं०√दीक्ष्+अनीयर्] १. दीक्षा देने जाने या पाने के योग्य। २.(विशिष्ट तत्त्व या सिद्धांत) जो उसी को बतलाया जा सके जो दीक्षा ग्रहण करके किसी समाज या संप्रदाय में सम्मिलित हो। (एसोटेरिक)
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दीक्षांत  : पुं० [सं० दीक्षा-अंत ष० त०] वह अवभृथ यज्ञ जो किसी यज्ञ के अन्त में उसकी दृष्टि, दोष आदि की शांति के लिए किया जाता है। २. किसी सत्र की पढ़ाई का सफलतापूर्ण अंत। वि० दीक्षा के अंत में होनेवाला। जैसे—दीक्षांत भाषण।
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दीक्षांत-भाषण  : पुं० [स० त०] आज-कल विश्वविद्यालयों में किसी विद्वान का वह भाषण जो उच्च परीक्षाओं में उत्तीर्ण होनेवाले विद्यार्थियों को उपाधि, प्रमाण-पत्र आदि देने के उपरान्त होता है। (कान्वोकेशन एड्रेस)
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दीक्षा  : स्त्री० [सं०√दीक्ष् (यज्ञ करना)+अ-टाप्] १. सोमयागादि का संकल्प-पूर्वक अनुष्ठान करना। २. यज्ञ करना। यजन। ३. किसी पवित्र मंत्र की वह शिक्षा जो आचार्य या गुरू से विधिपूर्वक शिष्य बनने अथवा किसी संप्रदाय में सम्मिलित होने के समय ली जाती है। क्रि० प्र०—देना।—लेना। ४. उपनयन संस्कार, जिसमें विधिपूर्वक गुरु से मंत्रोपदेश लिया जाता है। ५. गुरुमंत्र। ६. पूजन।
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दीक्षा-गुरु  : पुं० [स० त०] वग गुरु जो धार्मिक दृष्टि के कान में मंत्र फूँकता हो। मंत्रोपदेश करनेवाला गुरु।
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दीक्षा-पति  : पुं० [ष० त०] दीक्षा या यज्ञ का रक्षक, सोम।
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दीक्षित  : वि० [सं०√दीक्ष् (यज्ञ करना)+क्त वा दीक्षा+इतच्] जिसने सोमयागादि का संकल्पपूर्वक अनुष्ठान करने के लिए दीक्षा ली हो। पुं० कई प्रदेशों में ब्राह्मणों का एक भेद या वर्ग।
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दीखना  : अ० [हिं० देखना] दिखाई देना। देखने में आना। दृष्टिगोचर होना। क्रि० प्र०—पड़ना।
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दीगर  : वि० [फा०] अन्य। दूसरा।
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दीघी  : स्त्री० [सं० दीर्घिका] १. बडा तालाब। जैसे—कलकत्ते की लाल दीघी। २. बावली।
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दीच्छा  : स्त्री०=दीक्षा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीच्छित  : वि०=दीक्षित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीठ  : स्त्री० [सं० दृष्टि, प्रा० दिट्ठि] १. देखने की वृत्ति या शक्ति। दृष्टि। निगाह। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना। पद—दीठबंद, दीठबंदी। (हि०) मुहावरा—दीठ करना या फेंकना=देखना। दीठ फेरना=दृष्टि या निगाह हटाकर दूसरी तरफ कर लेना। दीठ बचाना=(क) इस प्रकार किसी के सामने से हट जाना कि उसकी निगाह न पड़ने पावे। (ख) इस प्रकार कोई चीज छिपा या दबा लेना कि उसे कोई देखने न पावे। (किसी की) दीठ बाँधना=इंद्रजाल, जादू-मंतर, टोने-टोटके आदि से ऐसा उपाय करना कि कोई विशिष्ट चीज किसी के देखने में न आवे। दीठ में आना या पड़ना=दिखाई पड़ना। (किसी ओर या किसी की ओर) दीठ लगाना=(क) दृष्टि या निगाह जमाकर देखना। अच्छी तरह या ध्यान से देखना। (ख) किसी प्रकार की आशा से प्रवृत्त या युक्त होकर देखना। कुछ पाने या मिलने के विचार से देखना। २. देखने की इंद्रिया। आँख। नेत्र। मुहावरा—(किसी की ओर) दीठ उठाना=देखने के लिए किसी की ओर आँखें या निगाह करना। दीठ गड़ाना या जमाना=कोई चीज देखने के लिए उस पर टक लगाना। स्थिर दृष्टि से देखना। दीठ चुराना=जहाँ तक हो सके किसी का सामना करने से बचना। (किसी से) दीठ जुड़ना या मिलना=(क) देखा-देखी या सामना होना। (ख) श्रृंगारिक क्षेत्र में प्रेम या स्नेह होना। दीठ जोड़ना या मिलाना=आँखें मिलाना या सामना करना। दीठ भर देखना=अच्छी तरह या जी भर कर देखना। दीठ मारना=आँखें या पलकें हिलाकर इशारा या संकेत करना। (किसी से) दीठ लगना=श्रृंगारिक क्षेत्र में प्रेम या स्नेह का संबंध होना। ३. आँख या दृष्टि की वह वृत्ति या स्थिति, जिसमें कोई विशिष्ट उद्देश्य क्रिया या फल अभीष्ट या निहित हो। ४. अनुग्रह, कृपा, स्नेह आदि से युक्त या मनोवृत्ति। मुहावरा—(किसी की) दीठ पर चढ़ना=किसी का ऐसी स्थिति में होना कि लोगों का ध्यान प्रायः या बराबर उसकी ओर बना या लगा रहे। निगाह पर चढ़ना। (देखें ‘निगाह’ का मुहा०)। (किसी की ओर से) दीठ फेरना=पहले का-सा ध्यान भाव या संबंध न रखना। दीठ बिछाना=(क) अत्यंत आदरपूर्वक स्वागत करना। (ख) बहुत उत्सुकता से प्रतीक्षा करना। (किसी की) दीठ में समाना=बहुत अच्छा लगने के कारण बराबर किसी के ध्यान पर चढ़ा रहना। नजरों में समाना। (किसी की) दीठ से उतरना या गिरना=ऐसी स्थिति में आना कि पहले का-सा अनुराग या आदर न रह जाय। ५. अच्छी या सुंदर चीज पर किसी की पड़नेवाली ऐसी दृष्टि, जिसका परिणाम या फल बहुत ही अनिष्टकारक या घातक सिद्ध हो। बुरा प्रभाव उत्पन्न करनेवाली दृष्टि। नजर। जैसे—इस बच्चे को तो उस बुढ़िया दी दीठ खा गई। (स्त्रियाँ) मुहावरा—दीठ उतरना या झाडऩा=टोने-टोटके, मंत्र-यंत्र आदि के बल से किसी की उक्त की दृष्टि या नजर का बुरा प्रभाव दूर या नष्ट करना। दीठ जलाना=टोना-टोटका करके कपड़े का टुकड़ा, राई नोन आदि इस उद्देश्य से जलाना कि बुरी दीठ या नजर का कुपरिणाम दूर या नष्ट हो जाय। ६. देख-भाल। देख-रेख। निगरानी। ७. गुण-दोष आदि समझने की योग्यता या शक्ति। परख। पहचान। क्रि० प्र०—रखना। विशेष—शेष मुहावरा के लिए ‘देखें’, ‘आँख, ‘नजर’ और ‘निगाह’ के मुहा०।
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दीठना  : अ० [हिं० दीठ] दिखाई देना। स० देखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीठबंद  : पुं०=दीठबंदी।
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दीठबंदी  : स्त्री० [हिं० दीठ+सं० बंध] इंद्र-जाल, टोने-टोटके आदि की वह माया जिसमे लोगों की दृष्टि इस प्रकार बाँध दी जाती अर्थात् प्रभावित कर दी जाती है कि उन्हें और का और या कुछ का कुछ दिखाई पड़ने लगे। नजर-बंद।
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दीठवंत  : वि० [हिं० दीठ+वंत (प्रत्य०)] १. जिसे दिखाई पड़ता हो। २. जिसे दिव्य-दृष्टि प्राप्त हो।
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दीठि  : स्त्री०=दीठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीत  : पुं० [सं० आदित्य] सूर्य। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीद  : वि० [फा०] देखा हुआ। स्त्री० देखने की क्रिया या भाव। दर्शन।
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दीदबान  : पुं० [फा०] १. बंदूक की नली पर का छोटा गोल टुकड़ा जिसकी सहायता से निशाना साधा जाता है। बंदूक की मक्खी। २. भेदिया। ३. निगरानी करनेवाला व्यक्ति।
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दीदा  : पुं० [फा० दीदः] १. आंख का डेला। २. आँख। नेत्र। क्रि० प्र०—फूटना।—मटकाना। मुहावरा—दीदे का पानी ढल जाना=बुरा काम करने में लज्जा का अनुभव न होना। निर्लज्ज हो जाना। दीदे-गोड़ों के आगे आना=किसी किये हुए बुरे काम का बुरा फल मिलना। (स्त्रियों का शाप) जैसे—तू मेरे साथ जो-जो कर रही है, वह सब तेरे दीदे-गोड़ों के आगे आवेगी अर्थात् इसका बुरा फल तुझे इस रूप में मिलेगा कि तू अंधी लूली-लँगड़ी हो जायगी या बहुत कष्ट भोगेगी। (किसी की तरफ) दीदे निकालना=क्रोध की दृष्टि से देखना। आँखें नीली-पीली करना। दीदे पट्टम होना=आँखों का फूट जाना। अँधा हो जाना। (स्त्रियाँ) दीदे फाड़कर देखना=अच्छी तरह आँखें खोलकर अर्थात् ध्यानपूर्वक देखना। २. दृष्टि। नजर। ३. कोई काम करने के समय ध्यानपूर्वक उसकी ओर जमनेवाली दृष्टि या लगनेवाली नजर। मुहावरा=(किसी काम में) दीदा फोडना=दृष्टि जमाकर ऐसा बारीक काम करना जिससे आँखों को बहुत कष्ट हो। (किसी काम में) दीद लगना=काम में जी या ध्यान लगना। जैसे—तुम्हारा दीदा तो किसी काम में लगता ही नहीं। ४. ऐसा अनुचित साहस जिसमें भय, लज्जा, संकोच आदि का कुछ भी ध्यान न रहे। ढिठाई। धृष्टता जैसे—इस लकड़ी का दीदा तो देखों किस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें करती है। (स्त्रियाँ)
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दीदा-धोई  : स्त्री० [हिं०] ऐसी स्त्री जिसकी आँखों में शर्म न हो। वेशर्म। निर्लज्ज।
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दीदाफटी  : स्त्री०=दीदा-धोई।
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दीदार  : पुं० [फा०] १. दर्शन। देखा-देखी। साक्षात्कार। (प्रिय या बड़े के संबंध में प्रयुक्त) २. छवि। सौंदर्य।
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दीदारबाजी  : स्त्री० [फा०] किसी प्रिय व्यक्ति से आँखें लड़ाना।
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दीदारू  : वि० [फा० दीदार] दर्शनीय। देखने योग्य।
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दीदा व दानिस्ता  : अव्य० [फा० दीद व दानिस्तः] अच्छी तरह देखते हुए और जान-बूझकर या सोच-समझकर।
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दीदी  : स्त्री० [हिं० दादा=(बड़ा भाई) का स्त्री०] बड़ी बहिन को पुकारने का शब्द। ज्येष्ठ भगिनी के लिए संबोधन का शब्द।
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दीधिति  : स्त्री० [सं०√दी (चमकना)+क्तिच्] १. सूर्य, चंद्रमा आदि की किरण। २. उँगली।
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दीन  : वि० [सं०√दी (क्षय होना)+क्त नत्व] [भाव० दीनता] १. जो बहुत ही दयनीय तथा हीन दशा में हो २. गरीब। दरिद्र। ३. जो बहुत दुःखी या संतप्त हो। ४. जिसमें उत्साह, प्रसन्नता आदि का अभाव हो। उदास। खिन्न। ५. जो दुःख, भय आदि के कारण बहुत नम्र हो रहा हो। पुं० तगर का फूल। पुं० [अ०] धार्मिक मत या संप्रदाय। धर्म। मजहब। पद—दीन-दुनिया=धार्मिक विश्वास के कारण मिलनेवाला परम पद और लोक या संसार। जैसे—दीन-दुनिया दोनों से गये (रहित हुए)। मुहावरा—दीन दुनिया दोनों से जाना=न इस लोक के काम का रह जाना और न पर-लोक सुधार सकना।
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दीन-इलाही  : पुं० [अ०] मुगल सम्राट अकबर का चलाया हुआ एक धार्मिक संप्रदाय जो अधिक समय तक न चल सका था।
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दीनक  : वि० [सं० दीन+क (स्वार्थे)] दीन।
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दीनता  : स्त्री० [सं० दीन+तल्—टाप्] १. दीन होने की अवस्था या भाव। २. कातरता। ३. उदासीनता। खिन्नता। ४. नम्रता। विनय।
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दीनताई  : स्त्री०=दीनता।
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दीनत्व  : पुं० [सं० दीन+त्व] दीनता।
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दीनदयाल  : वि०=दीनदयालु।
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दीन-दयालु  : वि० [सं० स० त०] दीनों पर दया करनेवाला। पुं० ईश्वर। परमात्मा।
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दीनदार  : वि० [अ० दीन+फा० दार] [भाव० दीनदारी] जिसे अपने धर्म पर पूर्ण विश्वास हो, और जो उसके नियमों, शिक्षाओं आदि का ठीक तरह से पालन करता हो। धार्मिक। जैसे—दीनदार मुसलमान।
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दीनदारी  : स्त्री० [फा०] दीनदार होने की अवस्था या भाव। धार्मिकता।
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दीनदुनी  : स्त्री०=दीन-दुनिया (दे० ‘दीन’ के अन्तर्गत)
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दीन-बंधु  : वि० [सं० ष० त०] दीनों और दुःखियों का सहायक। पुं० ईश्वर। परमात्मा।
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दीन-वास  : पुं० [सं० ] बहुत ही गरीबों में या गरीबों की तरह रहकर दिन बिताना।
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दीना  : स्त्री० [सं० दीन+टाप्] मूषिका। चुहिया।
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दीनानाथ  : पुं० [सं० दीन-नाथ ष० त० दीर्घ] १. वह जो दीनों का स्वामी या रक्षक हो। दुखियों का पालक और सहायक। २. ईश्वर। परमात्मा।
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दीनार  : पुं० [सं०√दी (क्षय करना)+आरक् (नुट्)] १. सोने का गहना। २. सोने का एक पुराना सिक्का जो ईरान में प्रचलित था। ३. एक निष्क की तौल।
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दीनारी  : पुं० [सं० दीनार] लोहारों का ठप्पा।
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दीपंकार  : पुं० [सं०] बुद्ध के अवतारों में से एक।
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दीप  : पुं० [सं०√दीप (चमकना)+क] १. दीया। चिराग। २. दस मात्राओं का एक छंद जिसके अंत में तीन लघु फिर एक गुरु और फिर एक लघु होता है। पुं० द्वीप। (टापू)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीपक  : वि० [सं०√दीप्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० दीपिका] १. उजाला या प्रकाश करनेवाला। २. कीर्ति, यश आदि बढ़ानेवाला। जैसे—कुल-दीपक। ३. दीप्त करने अर्थात् पाचन-शक्ति बढ़ानेवाला। जैसे—अग्निदीपक-औषध। ४. शरीर में उमंग, ओज, तेज आदि बढ़ानेवाला। पुं० [दीप+कन्] १. चिराग। दीया। २. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें प्रस्तुत और अप्रस्तुत का एक ही धर्म कहा जाता है। अथवा बहुत ही क्रियाओं का एक ही कारक होता है। ३. संगीत में छः मुख्य रागों में से एक। ४. संगीत में एक प्रकार का ताल। ५. अजवायन, जो अग्नि दीपक होती है। ६. केसर। ७. बाज नामक पक्षी। ८. मोर की चोटी या शिखा। ९. एक प्रकार की आतिशबाजी।
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दीपक-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. एक प्रकार के वर्ण-वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में भगण, मगण, जगण और एक गुरु होता है। २. दीपक अलंकार का एक भेद।
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दीप-कलिका  : स्त्री० [ष० त०] दीये की टेम। चिराग की लौ।
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दीप-कली  : स्त्री० [सं० दीपकलिका] चिराग की टेम। दीपशिखा। दीए की लौ।
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दीपक-वृक्ष  : पुं० [ष० त०] वह बड़ा दीवट जिसमें दीए रखने के लिए कई शाखाएँ इधर-उधर निकलती हों। झाड़।
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दीपक-सुत  : पुं० [ष० त०] कज्जल। काजल।
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दीप-काल  : पुं० [मध्य० स०] दीया जलाने का समय। संध्या।
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दीपकावृत्ति  : स्त्री० [दीपक-आवृत्ति] १. दीपक अलंकार का एक भेद। २. पनशाखा।
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दीप-किट्ट  : पुं० [ष० त०] कज्जल। काजल।
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दीप-कूपी  : स्त्री० [सं० ष० त०] दीये की बत्ती।
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दीपग  : पुं०=दीपक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीपगर  : पुं० [सं० दीपगृह] दीयट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीपत  : स्त्री० [सं० दीप्त] १. चमक। दीप्ति। २. शोभायुक्त सौंदर्य। ३. कीर्ति। यश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीपता  : वि० [सं० दीप्ति] १. प्रकाशित। चमकीला। २. शोभित। ३. प्रसिद्ध।
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दीपति  : स्त्री०=दीप्ति (प्रकाश)।
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दीप-दान  : पुं० [ष० त०] १. देवता के सामने दीपक जलाने का काम जो पूजन का एक अंग है। २. कार्तिक में राधा-दामोदर के उद्देश्य से बहुत से दीपक जलाने का कृत्य। ३. हिंदुओं में एक रसम जिसमें मरणासन्न व्यक्ति के हाथ से जलते हुए दीपक का दान कराया जाता है।
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दीपदानी  : स्त्री० [सं० दीप-आधान] पूजा के लिए घी, बत्ती आदि (दीपक जलाने की सामग्री) रखने की डिबिया।
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दीप-ध्वज  : पुं० [ष० त०] काजल।
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दीपन  : पुं० [सं० दीप् (प्रकाशित करना)+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० दीपनीय, दीपित, दीप्त, दीप्य] १. प्रकाश करने के लिए दीपक या और कोई चीज जलाना। २. जठराग्नि तीव्र और प्रज्वलित करना। पाचन-शक्ति बढ़ाना। ३. किसी प्रकार का मनोवेग उत्तेजित और तीव्र करना। उत्तेजन। ४. [√दीप्+णिच्+ल्यु—अन] एक संस्कार जो मंत्र को जाग्रत और सक्रिय करने के लिए किया जाता है। ५. पारा शोधने के समय किया जानेवाला एक संस्कार। ६. तगर की जड़ या लकड़ी। ७. मयूरशिखा नाम की बूटी। ८. केसर। ९. प्याज। १॰. कसौंधा। कासमर्द। वि० १. अग्नि को प्रज्वलित करनेवाला। आग भड़कानेवाला। २. जठराग्नि तीव्र करने पाचन-शक्ति बढ़ानेवाला।
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दीपन-गण  : पुं० [ष० त०] जठराग्नि को तीव्र करनेवाले पदार्थों का एक गण या वर्ग। भूख लगने वाली औषधियों का वर्ग।
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दीपना  : अ० [सं० दीपन] प्रकाशित होना। चमकाना। जगमगाना। स० तीव्र या प्रज्वलित करना।
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दीपनी  : स्त्री० [सं० दीपन+ङीष्] १. मेथी। २. पाठा। ३. अजवायन।
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दीपनीय  : वि० [सं०√दीप् (दीप्ति)+अनीयर्] १. जो दीपन के लिए उपयुक्त हो। जो जलाया या प्रज्वलित किया जा सके। २. जो उत्तेजित, तीव्र या प्रबल किये जाने के योग्य हो।
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दीपनीयक  : वि० [सं०] दीपन।
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दीपनीय-वर्ग  : पुं० [ष० त०] चक्रदत्त के अनुसार एक ओषधि वर्ग जिसके अंतर्गत जठराग्नि तीव्र करनेवाली ये ओषधियाँ हैं—पिप्पली, पिप्पलामूल, चव्य, चीता और नागर।
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दीप-पादप  : पुं० [ष० त०] दीयट।
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दीप-पुष्प  : पुं० [ब० स०] चंपक-वृक्ष। चंपा।
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दीप-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. जलते हुए दीपों की पंक्ति। जगमगाते हुए दीयों की श्रेणी। २. आरती या दीपदान के लिये जलाई जानेवाली बत्तियों की पंक्ति या समूह।
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दीप-मालिका  : स्त्री० [ष० त०] १. दीयों की पंक्ति। जलते हुए दीपों की श्रेणी। २. दीवाली का त्योहार जो कार्तिक की अमावस्या को होता है।
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दीप-माली  : स्त्री० [सं० दीपमालिका] दीवाली।
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दीपवती  : स्त्री० [सं० दीप+मतुप्—ङीष्] कालिका पुराण के अनुसार एक नदी जो कामाख्या में है और जिसके पूर्व में श्रृंगार नाम का प्रसिद्ध पर्वत है।
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दीप-वृक्ष  : पुं० [ष० त०] दीअट।
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दीप-शत्रु  : पुं० [ष० त०] पतंग या फतिंगा। (जो दीपक को बुझा देता है)।
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दीप-शिखा  : स्त्री० [ष० त०] १. दीपक की लौ। टेम। २. दीपक से निकलनेवाला धुआँ।
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दीप-सुत  : पुं० [ष० त०] कज्जल। काजल।
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दीप-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] १. वह आधार या स्तंभ जिसके ऊपर रखकर दीया जलाया जाता है। दीयट। २. समुद्र में जहाजों को रात के समय रास्ता दिखाने और उन्हें चट्टानों आदि से बचाने के लिए बना हुआ उक्त प्रकार का स्तंभ जिसके ऊपरी भाग में रात को बहुत तेज रोशनी होती है। (लाइट हाउस)
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दीपांकुर  : पुं० [दीप-अंकुर, ष० त०] दीए की लौ।
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दीपा  : वि० [?] १. मंद। धीमा। २. फीका।
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दीपाग्नि  : पुं० [दीप-अग्नि, ष० त०] १. दीये की लौ। २. उक्त की आँच या ताप।
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दीपाधार  : पुं० [दीप-आधार, ष० त०] वह आधार या स्तंभ जिस पर रखकर दीये जलाये जायँ। दीयट।
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दीपान्विता  : स्त्री० [दीप-अन्विता, तृ० त०] कार्तिक मास की अमावास्या। दीवाली की रात।
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दीपाराधन  : पुं० [दीप-आराधन, ष० त०] दीप जलाकर तथा उन्हें किसी के सम्मुख घुमाते हुए आराधन करना। आरती करना।
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दीपालि, दीपाली  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. दीपमाला। २. दीपावली। दीवाली।
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दीपावती  : स्त्री० [सं० दीप+मतुप्—ङीष् (दीर्घ)] एक रागिनी जो दीपक और सरस्वती रागों के योग से बनी है।
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दीपावली  : स्त्री० [दीप-आवली, ष० त०] १. दीप-श्रेणी। दीयों की पंक्ति। २. दीवाली।
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दीपिका  : स्त्री० [सं० दीप+क—टाप्, इत्व] १. छोटा दीया। २. [√दीप्+णिच्+ण्वुल्—अक, टाप्, इत्व] चाँदनी। ३. संध्या के समय गाई जानेवाली एक रागिनी जो हिंडोल राग की पत्नी कही गई है। ४. किसी कठिन ग्रंथ का सरल आशय बतानेवाली टीका या पुस्तक। वि० स्त्री० [हिं० दीपक का स्त्री०] समस्त पदों के अंत में, दीपन अर्थात् उजाला या प्रकाश करनेवाली।
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दीपिका-तैल  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का आयुर्वेदोक्त तेल जो कान की पीड़ा दूर करता है।
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दीपित  : भू० कृ० [सं०√दीप्+णिच्+क्त] १. दीप्त किया अर्थात् जलाया हुआ। २. दीपों से युक्त। ३. उजाले या प्रकाश से युक्त किया हुआ। प्रकाशित। प्रज्वलित। ४. चमकता या जगमगाता हुआ। ५. जिसे उत्तेजना दी गई हो या मिली हो। उत्तेजित।
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दीपी (पिन्)  : वि० [सं० उत्तरपद में] १. जलता हुआ। २. चमकता हुआ। ३. दीपन करनेवाला।
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दीपोत्सव  : पुं० [दीप-उत्सव, ष० त०] १. दीप जलाकर मनाया जानेवाला उत्सव। २. दीवाली।
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दीप्त  : वि० [सं०√दीप्+क्त] [स्त्री० दीप्ता] १. जलता हुआ। प्रज्वलित। २. चमकता या जगमगाता हुआ। प्रकाशित। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. हींग। ३. नींबू। ४. सिंह। शेर। ५. एक रोग जिसमें नाक में जलन होती है तथा उसमें से गरम हवा निकलती है।
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दीप्तक  : पुं० [सं० दीप्त+क (स्वार्थे)] १. सोना। सुवर्ण। २. दे० ‘दीप्त’ (नाक का रोग)।
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दीप्त-किरण  : पुं० [ब० स०] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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दीप्त-कीर्ति  : पुं० [ब० स०] कार्तिकेय।
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दीप्त-केतु  : पुं० [ब० स०] दक्ष सावर्णि मनु के एक पुत्र का नाम। (भागवत)
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दीप्त-जिह्वा  : स्त्री० [ब० स०] १. मादा गीदड़। सियारिन। २. लाक्षणिक अर्थ में, झगड़ालू स्त्री।
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दीप्त-पिंगल  : पुं० [उपमि० स०] सिंह।
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दीप्त-रस  : पुं० [ब० स०] केंचुआ।
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दीप्त-रोमा (मन्)  : पुं० [ब० स०] एक विश्वदेव का नाम। (महाभारत)
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दीप्त-लोचन  : पुं० [ब० स०] बिल्ला।
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दीप्त-लौह  : पुं० [कर्म० स०] काँसा।
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दीप्त-वर्ण  : वि० [ब० स०] चमकते या दमकते हुए वर्णमाला। पुं० कार्तिकेय।
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दीप्त-शक्ति  : पुं० [ब० स०] कार्तिकेय।
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दीप्तांग  : वि० [दीप्त-अंग, ब० स०] जिसका शरीर चमकता हो। पुं० मोर पक्षी। मयूर।
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दीप्तांशु  : पुं० [दीप-अंशु, ब० स०] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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दीप्ता  : वि० स्त्री० [सं० दीप्त+टाप्] चमकती हुई। प्रकाशमान। जैसे—सूर्य के प्रकाश से दीप्ता दिशा। स्त्री० १. ज्योतिष्मती। मालकंगनी। २. कलियारी। ३. सातला (थूहर)।
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दीप्ताक्ष  : वि० [दीप्त-अक्षि, ब० स० (षच् समा०)] चमकती हुई आँखोंवाला। पुं० बिल्ला। बिड़ाल।
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दीप्ताग्नि  : वि० [दीप्त-अग्नि, ब० स०] १. जिसकी जटराग्नि बहुत तीव्र हो। जिसकी पाचन-शक्ति अत्यंत प्रबल हो। २. जिसे बहुत भूख लगी हो। भूखा। पुं० अगस्त्य मुनि जो वातापि राक्षस को खाकर पचा गये थे और समुद्र का सारा जल पी गये। स्त्री० प्रज्वलित अग्नि।
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दीप्ति  : स्त्री० [सं०√दीप्+क्तिन्] १. दीप्त होने की अवस्था या भाव। प्रकाश। उजाला। रोशनी। २. आभा। चमक। ३. छवि। शोभा। ४. योग में ज्ञान का प्रकाश जिससे हृदय का अंधकार दूर होता है। ५. लाक्षा। लाख। ६. काँसा। ७. थूहर। ८. एक विश्व-देव का नाम।
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दीप्तिक  : पुं० [सं० दीप्ति√कै (मालूम पड़ना)+क] शिरशोला। दुग्धपाषाण वृक्ष।
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दीप्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० दीप्ति+मतुप्] [स्त्री० दीप्तिमती] १. दीप्तयुक्त। प्रकाशित। चमकता हुआ। २. कांति या शोभा से युक्त। पुं० श्रीकृष्ण के एक पुत्र, जो सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
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दीप्तोद  : पुं० [दीप्त-उदक, ब० स० उद आदेश] एक प्राचीन तीर्थ-क्षेत्र जिसमें बहनेवाली वसूधर नामक नदी में स्नान करके परशुराम ने अपना खोया हुआ तेज फिर से प्राप्त किया था। इसी क्षेत्र में महर्षि भृगु ने भी कठोर तपस्या की थी।
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दीप्तोपल  : पुं० [सं० दीप्त-उपल, कर्म० स०] सूर्यकांत मणि।
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दीप्य  : वि० [सं० दीप+यत्] १. जो जलाया जाने को हो। प्रज्वलित किया जानेवाला। २. जो जलाकर प्रकाश से युक्त किया जा सके। ३. जठराग्नि अर्थात् भूख बढानेवाला। पुं० १. अजवायन। २. जीरा। ३. मयूर- शिखा। ४. रुद्र-जटा।
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दीप्यक  : पुं० [सं० दीप्य+कन्] १. अजवायन। २. अजमोदा। ३. मयूरशिखा। ४. रुद्रजटा।
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दीप्यमान  : वि० [सं० दीप (चमकना)+शानच् (यक्)] चमकता हुआ। दीप्त।
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दीप्या  : स्त्री० [सं० दीप्य+टाप्] पिंड खजूर।
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दीप्र  : वि० [सं०√दीप्+र] दीप्तिमान।
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दीबाचा  : पुं० [फा० दीवाचः] ग्रंथ की भूमिका। प्रस्तावना।
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दीबो  : पुं० [हिं० देना] देने की क्रिया या भाव। उदाहरण—दीनदयाल दीबो ई भावैं जाचक सदा सोहाहीं।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीमक  : स्त्री० [फा०] च्यूँटी की जाति का सफेद रंग का एक प्रसिद्ध छोटा कीड़ा जो समूहों मे रहता है और लकड़ी कागज पौधों आदि को खा जाता है।
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दीयट  : स्त्री० [सं० दीवस्थ, प्रा० दीवट्ठ] पुरानी चाल का धातु, लकड़ी आदि का बना हुआ वह छोटा स्तम्भ या आधार जिस पर दीया रखकर जलाया जाता है।
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दीयमान  : वि० [सं० दा (देना)+शानच् (यक्)] जो दिया जाने को हो या दिया जाने के लिए हो।
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दीया  : पुं० [सं० दीपक, प्रा० दीअ] १. बत्ती तथा तेल अथवा घी से युक्त छोटा पात्र। क्रि० प्र०—जलना।—जलाना।—बलना।—बालना।—बुझना।—बुझाना। मुहावरा—दीया जलाना=दीवाली निकालना (पहले जो लोग दीवाला निकालते थे वे अपनी कोठी या दूकान का टाट-उलटकर उस पर एक चौमुखा दीया जलाकर रख देते थे और काम-धंधा बंद कर देते थे। दीया ठंढा करना=दीया बुझाना। (किसी के घर का) दीया ठंढा होना=किसी के मरने के फल-स्वरूप उसके परिवार मे अँधेरा छा जाना। दीया दिखाना=मार्ग में प्रकाश करने के लिए दीया सामने करना। दीया बढ़ाना=दीया बुझाना। दीया बत्ती करना=संध्या होने पर दीया जलाना। दीया संजोना=दीया जलाकर प्रकाश करना। दीयें का हँसना=दीये की बत्ती से फूल या गुल झड़ना। दीये से फूल झड़ना=दीये की जलती हुए बत्ती से चमकते हुए गोल पुचड़े या रवे निकलना। गुल झड़ना। पद—दीये बत्ती का समय=संध्या का समय जब दीया जलाया जाता है। २. [स्त्री० अल्पा० दियली] बत्ती जलाने का छोटी कटोरी के आकार का बरतन। वह बरतन जिसमें तेल भरकर जलाने के लिए बत्ती डाली जाती है। ३. उक्त प्रकार की कटोरी के आकार का मिट्टी का छोटा पात्र। मुहावरा—दीये में बत्ती पड़ना=संध्या का समय होने पर दीया जलाया जाना।
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दीया-सलाई  : स्त्री० [हिं० दीया+सलाई] लकड़ी की वह छोटी सलाई या सींक जिसके एक सिरे पर लगा हुआ मसाला रगड़ने से जल उठता है। आग जलाने की सींक या सलाई।
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दीरघ  : वि०=दीर्घ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीर्घ  : वि० [सं०+जृ (विदारण)+घञ्] १. काल-मान, दूरी आदि के विचार से अधिक विस्तार वाला। अधिक अवकाश या समय में व्याप्त। जैसे—दीर्घकाम, दीर्घ क्षेत्र। २. लंबी अवधि या भोगकालवाला। जैसे—दीर्घ आयु, दीर्घ निद्रा, दीर्घ श्वास। ३. (अक्षर या वर्ण) जो दो मात्राओं का अर्थात् गुरु हो। जिसका उच्चारण अपेक्षया अधिक खींचकर किया जाता हो। ‘ह्वस्व’ का विपर्याय। जैसे—‘इ’ का दीर्घ ‘ई’ और ‘उ’ का दीर्घ ‘ऊ’ है। पुं० १. ऊँट। २. ताड़ का पेड़। ३. लता शाल नामक वृक्ष। ४. रामशर। नरकट। ५. ज्योतिष में पाँचवी, छठी, सातवीं और आठवीं अर्थात् सिंह, कन्या, तुला और वृश्चिक राशियों की संज्ञा।
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दीर्घ-कंटक  : पुं० [ब० स०] बबूल का पेड़।
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दीर्घ-कंठ  : वि० [ब० स०] [स्त्री० दीर्घ, कंठी, दीर्घकंठ+ङीष्] जिसकी गरदन लंबी हो। पुं० १. बगला पक्षी। २. एक राक्षस का नाम।
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दीर्घ-कंद  : पुं० [ब० स०] मूली।
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दीर्घ-कंदिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्-टाप् (इत्व)] मुसली। ताल-मूली।
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दीर्घ-कंधर  : वि० [ब० स०] [स्त्री० दीर्घकंधरी] लंबी गरदनवाला। पुं० बगला पक्षी।
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दीर्घ-कणा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] सफेद जीरा।
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दीर्घ-कर्ण  : वि० [ब० स०] बड़े-बड़े कानोंवाला। पुं० एक प्राचीन जाति का नाम।
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दीर्घ-कांड  : पुं० [ब० स०] १. गुंडतृण। गोदला। २. पाताल गारुड़ी लता। ३. तिक्तांगा।
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दीर्घ-कांडा  : स्त्री० [सं० दीर्घकांड+टाप्] दीर्घकांड। (दे०)
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दीर्घ-काय  : वि० [ब० स०] जिसकी काया अर्थात् शरीर दीर्घ या बहुत बड़ा हो। शारीरिक दृष्टि से बड़े डील-डौलवाला।
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दीर्घ-काल  : पुं० [ब० स०] दीर्घकीलक। (दे०)
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दीर्घ-कीलक  : पुं० [सं० दीर्घकील+कन्] अंकोल का पेड़।
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दीर्घ-कुल्या  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] गजपिप्पली।
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दीर्घ-कूरक  : पुं० [कर्म० स०] आंध्र प्रदेश में होनेवाला एक तरह का धान। रजान्न।
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दीर्घ-केश  : वि० [ब० स०] [स्त्री० दीर्घकेशी, दीर्घकेश+ङीष्] जिसके केश दीर्घ अर्थात् बड़े या लंबे हों। पुं० १. भालू। रीछ। २. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश जो कूर्म विभाग के पश्चिमोत्तर में हो।
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दीर्घ-कोशिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्-टाप् (इत्व)] शुक्ति नामन जल-जंतु। सुतुही।
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दीर्घ-गति  : पुं० [ब० स०] ऊँट। वि० तेज या बहुत चलनेवाला।
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दीर्घ-ग्रंथिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्-टाप्] गजपिप्पली।
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दीर्घ-ग्रीव  : वि० [ब० स०] [स्त्री० दीर्घग्रीवी] जिसकी गरदन लंबी हो। पुं० १. सारस पक्षी। २. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश जो कूर्म विभाग के दक्षिण-पश्चिम में है।
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दीर्घ-घाटिक  : वि० [सं० दीर्घा-घाटा, कर्म० स०,+ठन्—इक] लंबी गरदनवाला। पुं० ऊँट।
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दीर्घच्छद  : वि० [ब० स०] जिसके लंबे-लंबे पत्ते हों। पुं० ईख। ऊख। गन्ना।
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दीर्घ-जंगल  : पुं० [कर्म० स०] एक तरह की मछली। बड़ा झींगा।
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दीर्घ-जंघ  : वि० [ब० स०] जिसकी टाँगे लंबी हों। पुं० १. बगला पक्षी। २. ऊँट।
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दीर्घ-जिह्वा  : वि० [ब० स०] जिसकी जीभ लंबी हो। पुं० १. साँप। २. एक राक्षस का नाम।
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दीर्घजिह्वा  : स्त्री० [ सं० दीर्घ जिह्वा+टाप्] १. विरोचन की पुत्री एक राक्षसी जिसे इंद्र ने मारा था। २. कार्तिकेय की एक अनुचरी या मातृका।
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दीर्घजीवी (विन्)  : वि० [सं० दीर्घ√जीव् (जीना)+णिनि] बहुत दिनों तक जीने वाला। दीर्घ जीवनवाला।
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दीर्घतपा (पस्)  : वि० [ब० स०] जिसने बहुत दिनों तक तपस्या की हो। पुं० उतथ्य ऋषि के एक पुत्र का नाम।
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दीर्घतरु  : पुं० [कर्म० स०] ताड़ का पेड़।
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दीर्घता  : स्त्री० [सं० दीर्घ+तल्—टाप्] दीर्घ होने की अवस्था, गुण या भाव। लंबाई और चौड़ाई।
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दीर्घ-तिमिषा  : स्त्री० [तिमिषा, √ तिम् (गीला होना)+किषन् (बा०) टाप् दीर्घ तिमिषा कर्म० स०] ककड़ी कर्कटी।
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दीर्घ-तुंडा  : वि० स्त्री० [ब० स०, टाप्] जिसका मुँह लंबा हो। स्त्री० छछूँदर।
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दीर्घ-तृण  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार की घास जिसके खाने से पशु निर्बल हो जाते हैं। पल्लिवाह तृण। ताम्रपर्णी।
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दीर्घ-दंड  : पुं० [कर्म० स०] दीर्घदंडक। (दे०)
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दीर्घदंडक  : पुं० [सं० दीर्घदण्क+क (स्वार्थे)] १. अंडी का पेड़। रेंड़। २. ताड़।
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दीर्घ-दंडी  : स्त्री० [सं० दीर्घदण्ड+ङीष्] गोरख इमली।
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दीर्घदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० दीर्घ√ दृश (देखना)+णिनि] [भाव० दीर्घदर्शिता] बहुत दूर तक की बातें सोचने-समझनेवाला। दूरदर्शीं। पुं० १. भालू। २. गीध।
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दीर्घ-द्रु  : पुं० [कर्म० स०] ताड़ का पेड़।
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दीर्घ-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] सेमल का पेड़। शाल्मली।
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दीर्घ-दृष्टि  : वि० [ब० स०] १. जिसकी दृष्टि दूर तक जाय। २. दूर-दर्शी। स्त्री० दूरदर्शिता। पुं० गिद्ध पक्षी।
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दीर्घ-द्धार  : पुं० [ब० स०] विशाल देश के अंतर्गत एक प्राचीन जनपद जो गंडकी नदी के किनारे कहा गया है।
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दीर्घ-नाद  : वि० [ब० स०] जिससे जोर का या भारी शब्द निकलता हो। पुं० शंख।
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दीर्घ-नाल  : पुं० [ब० स०] १. रोहिस घास। २. गुंड तृण। गोंदला। ३. यवनाल। ज्वार।
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दीर्घ-निद्रा  : स्त्री० [कर्म० स०] मृत्यु। मौत। मरण।
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दीर्घ-निःश्वास  : पुं० [कर्म० स०] चिंता, दुःख, भय आदि के कारण लिया जानेवाला गहरा या लंबा साँस।
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दीर्घ-पक्ष  : वि० [ब० स०] बड़े-बड़े परोंवाला। पुं० कलिंग (पक्षी)।
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दीर्घ-पत्र  : वि० [ब० स०] जिसके पत्ते बहुत लंबे होते हों। पुं० १. हरिदर्भ जो कुश का एक भेद है। २. विष्णुकंद। ३. लाल प्याज। ४. कुचला। ५. एक प्रकार की ईख या ऊख।
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दीर्घ-पत्रक  : पुं० [सं० दीर्घपत्र+कन्] १. लाल लहसुन। २. एरंड। रेंड़। ३. बेंत। ४. समुद्र-फल। हिंजल। ५. करील। टेंटी। ६. जलमहुआ।
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दीर्घपत्रा  : स्त्री० [सं० दीर्घपत्र+टाप्] १. केतकी २. चित्रपर्णी। ३. जंगली जामुन। ४. शालपर्णी।
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दीर्घपत्रिका  : स्त्री० [सं० दीर्घपत्र+कन्—टाप् (इत्व)] १. सफेद बच। २. घीकुआँर। ३. शालपर्णी। सरिवन। ४. सफेद गदहपूरना। श्वेत पुनर्नवा।
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दीर्घपत्री  : स्त्री० [सं० दीर्घपत्र+ङीष्] १. पलाशी लता। बौंरिया पलाश। वह पलाश जो लता के रूप में फैलता है। २. बड़ा चेंच या चेना। (साग)
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दीर्घ-पर्ण  : वि० [ब० स०] लंबे-लंबी पत्तोंवाला।
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दीर्घपर्णी  : स्त्री० [सं० दीर्घपर्ण+ङीष्] पिठवन। पृश्निपर्णी।
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दीर्घ-पल्लव  : वि० [ब० स०] बड़े-बड़े फूलोंवाला। पुं० सन का पौधा।
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दीर्घ-पाद  : वि० [ब० स०] लंबी टांगोंवाला। पुं० कंक पक्षी। सफेद चील। २. सारस।
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दीर्घ-पादप  : पुं० [कर्म० स०] १. ताड़ का पेड़। २. सुपारी का पेड़।
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दीर्घ-पृष्ठ  : पुं० [ब० स०] सर्प। साँप।
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दीर्घ-प्रज्ञ  : वि० [ब० स०] दूरदर्शी। पुं० पुराणानुसार द्वापर के एक राजा जो असुर के अवतार कहे गये हैं।
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दीर्घ-फल  : पुं० [ब० स०] अमलतास।
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दीर्घ-फलक  : पुं० [सं० दीर्घफल+कन्] अगस्त का पेड़।
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दीर्घफला  : स्त्री० [सं० दीर्घफल+टाप्] १. जतुका लता। पहाड़ी नाम की लता। २. लंबे दाने का अंगूर।
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दीर्घ-फलिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्-टाप् (इत्व)] १. कपिल द्राक्षा। लंबा अंगूर। २. जतुका लता।
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दीर्घ-बाली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] चमरी। सुरागाय।
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दीर्घ-बाहु  : वि० [ब० स०] जिसकी भुजा लंबी हो। पुं० १. शिव का एक अनुचर। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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दीर्घ-मारुत्  : पुं० [ब० स०] हाथी।
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दीर्घ-मुख  : वि० [ब० स०] बड़े मुँहवाला। पुं० १. हाथी। २. शिव के एक अनुचर का नाम।
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दीर्घ-मूल  : पुं० [ब० स०] १. मोरट नाम की एक लता। २. लामज्जक तृण। ३. बिल्वांतर नामक वृक्ष।
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दीर्घ मूलक  : पुं० [ब० स०, कप्] मूलक। मूली।
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दीर्घ-मूला  : स्त्री० [सं० दीर्घमूल+टाप्] १. शालिपर्णी। सरिवन। २. श्यामा लता। कालीसर।
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दीर्घ-मूली  : स्त्री० [दीर्घमूल+ङीप्] धमासा।
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दीर्घयज्ञ  : वि० [ब० स०] जिसने बहुत दिनों तक यज्ञ किया हो। पुं० अयोध्या के एक राजा जो पुराणानुसार द्वापर युग में हुए थे।
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दीर्घ-रत  : वि० [ब० स०] अधिक समय तक मैथुन में रत रहनेवाला। पुं० कुत्ता।
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दीर्घ-रद  : वि० [ब० स०] जिसके दांत लंबे और बाहर निकले हुए हों। पुं० सूअर। शूकर।
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दीर्घ-रसन  : पुं० [ब० स०] सर्प। साँप।
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दीर्घ-रागा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] हरिद्रा। हल्दी।
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दीर्घ-रोमा (मन्)  : पुं० [ब० स०] १. भालू। २. शिव का एक अनुचर।
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दीर्घ-रोहिषक  : पुं० [कर्म० स०+कन्] एक तरह का सुंगधित तृण।
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दीर्घ-लोचन  : वि० [ब० स०] बड़ी आँखोंवाला। पुं० १. शिव का एक अनुचर। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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दीर्घ-वंश  : पुं० [कर्म० स०] नरसल। नरकट।
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दीर्घ-वक्त्र  : वि० [ब० स०] स्त्री० दीर्घवक्ता, दीर्घवक्त्र-टाप्] लंबे मुँहवाला। पुं० हाथी।
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दीर्घवच्छिका  : स्त्री० [सं० दीर्घवत्√शीक् (सींचना)+क—टाप्, पृषो० सिद्धि] कुंभीर। घड़ियाल।
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दीर्घ-बल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] १. बड़ा इंद्रायन। महेंद्रवारुणी। २. पाताल-गारुड़ी लता। छिरेटा। ३. पलाशी लता। बौरिया पलास।
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दीर्घ-वृंत  : पुं० [ब० स०] १. श्योनाक वृक्ष। सोनापाठा। २. लताशाल।
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दीर्घवृंता  : स्त्री० [सं० दीर्घवृंत+टाप्] इंद्रचिर्मिटि लता।
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दीर्घवृंतिका  : स्त्री० [सं० जीर्घ-वृंत+कन्—टाप् (इत्व)] एलापर्णी।
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दीर्घ-शर  : पुं० [कर्म० स०] ज्वार।
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दीर्घ-शाख  : पुं० [ब० स०] १. सन। २. शाल (वृक्ष)। साखू।
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दीर्घ-शिंबिक  : पुं० [ब० स०, कप् (हृस्वत्व)] एक तरह की राई। क्षव।
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दीर्घ-शूक  : पुं० [ब० स०] एक तरह का धान।
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दीर्घश्रवा (वस्)  : पुं० [ब० स०] एक ऋषिपुत्र जिन्होंने अनावृष्टि होने पर वाणिज्य वृत्ति स्वीकार की थी। (ऋग्वेद)
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दीर्घ-सत्र  : वि० [ब० स०] जिसने बहुत दिनों तक यज्ञ किया हो। पुं० [कर्म० स०] १. जीवन भर किया जानेवाला अग्निहोत्र। २. एक प्रकार का यज्ञ। ३. एक प्राचीन तीर्थ।
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दीर्घ-सुरत  : वि० [ब० स०] बहुत देर रति करने वाला। पु० कुत्ता।
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दीर्घ-सूक्ष्म  : पुं० [कर्म० स०] प्राणायाम का एक भेद।
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दीर्घ-सूत्र  : वि० [ब० स०] दीर्घसूत्री। (दे०)
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दीर्घ-सूत्रता  : स्त्री० [सं० दीर्घसूत्र+तल्—टाप्] दीर्घसूत्र या दीर्घसत्री होने की अवस्था, भाव या स्थिति।
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दीर्घ-सूत्री (त्रिन्)  : वि० [सं० दीर्घ-सूत्र कर्म० स०,+इनि] [भाव० दीर्घ सूत्रिता] (व्यक्ति) जो हर काम में आवश्यकता से बहुत अधिक देर लगाता हो। बहुत धीरे-धीरे और देर में काम करनेवाला।
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दीर्घ-स्कंध  : पुं० [ब० स०] ताड़ का पेड़।
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दीर्घ-स्वर  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा स्वर जो साधारण से कुछ अधिक खींच-कर उच्चारित होता हो। दो मात्राओंवाला स्वर।
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दीर्घा  : स्त्री० [सं० दीर्घ+टाप्] १. पिठवन। पृश्निपर्णी। २. पुरानी चाल की वह नाव जो ८८ हाथ लंबी, ४४ हाथ चौड़ी और ४४ हाथ ऊँची होती थी। ३. आने-जाने के लिए कोई लंबा और ऊपर से छाया हुआ मार्ग। ४. आज-कल किसी भवन के अंदर कुछ ऊँचाई पर दर्शकों आदि के बैठने के लिए बना हुआ स्थान। (गैलरी)
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दीर्घाकार  : वि० [दीर्घ-आकार, ब० स०] दीर्घ आकारवाला। लंबा-चौड़ा।
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दीर्घाध्वग  : पुं० [दीर्घ-अध्वग कर्म० स०] १. दूत। २. हरकारा।
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दीर्घायु (स्)  : वि० [दीर्घ-आयुस् ब० स०] दीर्घजीवी। चिरजीवी। पुं० १. मार्कडेय ऋषि। २. जीवकवृक्ष। ३. सेमल का पेड़। ४. कौआ।
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दीर्घायुध  : पुं० [दीर्घ-आयुध कर्म० स०] १. कुंभास्त्र। २. [ब० स०] सूअर। शूकर।
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दीर्घायुष्य  : वि०, पुं० [दीर्घ-आयुष्य ब० स०]=दीर्घायु।
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दीर्घालर्क  : पुं० [दीर्घ-अलक कर्म० स०] सफेद मदार।
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दीर्घाष्य  : वि० [दीर्घ-आस्य] बड़े मुँहवाला। पुं० १. शिव का एक अनुचर। २. पुराणानुसार पश्चिमोत्तर दिशा का एक देश। ३. हाथी।
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दीर्घाह (न्)  : वि० [दीर्घ-अहन्] बड़े दिनवाला। पुं० १. बड़ा दिन। २. ग्रीष्मकाल।
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दीर्घिका  : स्त्री० [सं० दीर्घ+कन्—टाप, इत्व] १. छोटा जलाशय या तालाब। बावली। २. हिंगुपत्री। ३. एक प्रकार की पुरानी नाव जो ३२ हाथ लंबी, ४ हाथ चौड़ी और ३ १/५ हाथ ऊँची होती थी।
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दीर्घीकरण  : पुं० [सं० दीर्घ+च्वि√कृ+ल्युट्—अन] किसी वस्तु को पहले से अधिक दीर्घ करना। विस्तार बढ़ाना। (एलागेशन)
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दीर्घेर्वारु  : पुं० [दीर्घा-इर्वारु कर्म० स०] लंबी ककड़ी। डँगरी।
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दीर्ण  : वि० [सं०√(विदारण)+क्त] फटा हुआ। विदारित। दरका हुआ।
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दीली  : स्त्री० १.=दिल्ली। २.= दिली।
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दीवँक  : स्त्री०=दीमक।
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दीवट  : स्त्री०= दीयट।
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दीवला  : पुं० [हिं० दिवाला (प्रत्य०)] [स्त्री० दिवली, दिल्ली] दीया।
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दीवा  : पुं०=दीया। पुं०=धव (वृक्ष)।
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दीवान  : पुं० [अ०] १. राजसभा। न्यायालय। कचहरी। २. मंत्री। वजीर। ३. अर्थ-मंत्री। ४. उर्दू में किसी कवि या शायर की रचनाओं का संग्रह। जैसे—गालिब का दीवान।
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दीवान-आम  : पुं० [अ०] १. ऐसा दरबार जिसमें राजा या बादशाह से सब लोग मिल सकते थे। आम दरबार। २. वह स्थान जहाँ उक्त प्रकार का दरबार लगता हो।
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दीवान-खाना  : पुं० [फा० दीवनखानः] १. बैठक। कमरा। २. बड़े-बड़े लोगों के बैठने का स्थान।
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दीवान-खास  : पुं० [फा०+अ०] ऐसी सभा जिसमें राजा या बादशाह, मंत्रियों तथा चुने हुए प्रधान लोगों के साथ बैठता है। खास दरबार। २. वह स्थान जिसमें उक्त दरबार लगता हो।
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दीवाना  : वि० [फा० दीवानः] [स्त्री० दीवानी] [भाव० दीवानापन] १. पागल। विक्षिप्त। २. जो किसी के प्रेम में पागल रहता हो। ३. किसी काम में तन्मय।
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दीवानापन  : पुं० [फा० दीवाना+पन (प्रत्य०)] दीवाने होने की अवस्था या भाव।
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दीवानी  : स्त्री० [फा०] १. दीवान का पद। दीवान का ओहदा। वि० [फा०] १. दीवान-संबंधी। दीवान का। २. आर्थिक। स्त्री० १. दीवान का कार्य और पद। २. न्याय का वह विभाग जिसमें केवल आर्थिक विवादों पर विचार होता है। ३. वह अदालत या कचहरी जिसमें उक्त प्रकार के विवादों का विचार होता है। वि० हिं० दीवान का स्त्री० रूप।
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दीवार  : स्त्री० [फा०] १. मिट्टी, ईटों, पत्थरों आदि की प्रायः लंबी सीधी और ऊँची रचना जो कोई स्थान घेरने के लिए खड़ी की जाती है। भीत। क्रि० प्र०—उठाना।—खड़ी करना। २. उक्त रचना का कोई पक्ष या पहलू। जैसे—दीवार पर चूना करना। ३. कोई ऐसी रचना, जो सुरक्षा के लिए बनी या बनाई गई हो। जैसे—लोहे की दीवार। ४. किसी वस्तु का घेरा जो ऊपर उठा हो। जैसे—जूते, टोपी या थाली की दीवार।
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दीवारगीर  : स्त्री० [फा०] १. दीया, मोमबत्ती, लम्प आदि रखने का आधार जो दीवार में जड़ा जाता है। २. उक्त प्रकार से जलनेवाला दीया, लम्प आदि। ३. दीवार पर टाँगा जानेवाला रंगीन विशेषतः छपा हुआ परदा।
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दीवार-दंड  : पुं० [फा० दीवर+हिं० दंड] एक प्रकार की दंड नाम की कसरत जो दीवार पर हाथ रखकर की जाती है।
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दीवाल  : स्त्री०=दीवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीवाला  : पुं०=दिवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीवाली  : स्त्री० [सं० दीपावली] १. कार्तिक की अमावास्या को होने-वाला वैश्यों का एक प्रसिद्ध त्योहार जिसमें संध्या के समय घर में सब जगह बहुत से दीपक जलाये जाते और लक्ष्मी की पूजा की जाती है। विशेष—(क) भगवान राम १४ वर्षों के बनवास के उपरांत कार्तिकी अमावस्या को अयोध्या लौटे थे, उन्हीं के आगमन के उपलक्ष्य में यह उत्सव आरंभ हुआ था। (ख) पुराणानुसार दीवाली वस्तुतः वैश्यों का त्योहार है, परन्तु अब इसे सभी वर्णों के लोग मनाते हैं। २. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसा शुभ अवसर या घड़ी जिसमें लोग खुशियाँ मनायें।
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दीवि  : पुं० [सं० दे० दिवि] नीलकंठ (पक्षी)।
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दीवी  : स्त्री० [हिं० दीवा] दीयट। चिरागदान।
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दीसना  : अ० [सं० दृश=देखना] दिखाई देना या पड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीह  : पुं० [सं० दिवस] दिन। दिवस। उदा०—त्रिणि दीह लगन वेला घाड़ा तै।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=दीर्घ।
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