| शब्द का अर्थ | 
					
				| पतत्					 : | वि० [सं०√पत्+शतृ] १. नीचे की ओर आता, उतरता या गिरता हुआ। २. उड़ता हुआ। पुं० चिड़िया। | 
			
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				| पतत्पतंग					 : | पुं० [सं० पतत्-पतंग,कर्म० स०] अस्त होता हुआ सूर्य। | 
			
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				| पतत्प्रकर्ष					 : | वि० [सं० पतत्-प्रकर्ष, ब० स०] जो प्रकर्ष से गिर चुका हो। पुं० साहित्यिक रचना का एक दोष जो उस समय माना जाता है जब कोई बात आरंभ में तो उत्कृष्ट रूप में कही जाती है परन्तु आगे चलकर वह उत्कृष्टता कुछ घट या नष्टप्राय हो जाती है। जैसे—पहले तो किसी को चन्द्रमा कहना और बाद में जुगनूँ कहना। (एन्टीक्लाइमैक्स) | 
			
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				| पतत्र					 : | पुं० [√पत्+अत्रन्] १. पक्ष। डैना। २. पंख। पर। ३. वाहन। सवारी। | 
			
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				| पतत्रि					 : | पुं० [सं०√पत्+अत्रिन्] पक्षी। चिड़िया। | 
			
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				| पतत्रि-केतन					 : | पुं० [ब० स०] विष्णु। | 
			
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				| पतत्रि-राज					 : | पुं० [ष० त०] गरुड़। | 
			
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				| पतत्रि-वर					 : | पुं० [स० त०] गरुड़। | 
			
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				| पतत्री (त्रिन्)					 : | पुं० [सं० पतत्र+इनि] १. पक्षी। २. वाण। ३. घोड़ा | 
			
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