| शब्द का अर्थ | 
					
				| पैंत					 : | स्त्री० [सं० पणकृत; प्रा० पणइत] १. दाँव। बाजी। २. जूआ। खेलने का पाँसा। मुहा०—पैंत पूरना=चौसर के खेल में पाँसा फेंकना। उदा०—प्रमुदित पुलकि पैंत पूरे जनु...।—तुलसी। पुं० [सं० पद+अंत, प्रा० पईत] १. अंतिम पद या स्थान। २. पायँता। उदा०—सिर सौं खेलि पैंत जिनु लावौं।—जायसी। वि० [?] जो गिनती या संख्या में सात हो। पुं० सात की सूचक संख्या। (दलाल) | 
			
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				| पैंतरा					 : | पुं० [सं० पदांतर; प्रा० पयांतर] १. पटा, तलवार आदि चलाने या कुश्ती लड़ने में घूम-फिरकर ठीक ऐसी जगह पैर रखने की मुद्रा जहाँ से अच्छी तरह वार किया या रोका जा सके। मुहा०—पैंतरा बदलना=पटा, तलवार आदि चलाने या कुश्ती लड़ने में पहलेवाली मुद्रा छोड़कर दूसरी ओर अधिक उपयुक्त मुद्रा में आना। पैंतरा भाँजना=बार बार इधर-उधर घूमते या हटते हुए पैर जमाकर रखना और वार करने तथा बचाने के लिए हाथ घुमाना या चलाना। २. चालाकी से भरी हुई कोई चाल। ३. धूल पर पड़ा हुआ पैर का निशान। | 
			
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				| पैंतरी					 : | स्त्री० १.=पग-तरी (जूती)। २. दे० ‘पैतरी’। | 
			
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				| पैंतरेबाज					 : | पुं० [हिं० पैंतरा+फा० बाज] [भाव० पैंतरेबाजी] १.वह जो कुश्ती लड़ने, हथियार आदि चलाने के पैंतरे या ठीक ढंग जानता हो। २. वह जो समय समय पर अवसर देखता हुआ उसी के अनुसार अपने रंग-ढंग या आचरण-व्यवहार बदलना जानता हो। | 
			
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				| पैंतरेबाजी					 : | स्त्री० [हिं० पैंतरेबाजी] पैंतरेबाज होने की अवस्था, कला या भाव। | 
			
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				| पैंतलाय					 : | वि० [?] सत्रह। (दलाल) | 
			
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				| पैंतालीस					 : | वि० [सं० पंचचत्वारिशत्, प्रा० पंचक्ताली-सति, अप० पंचतीसा] जो गिनती या संख्या में चालीस से पाँच अधिक हो। चालीस और पाँच। पुं० चालीस और पाँच के योग की संख्या जो इस प्रकार लिखा जाती है—४५। | 
			
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				| पैंती					 : | स्त्री० [सं० पवित्त; प्रा० पवित्र, पइत्त] १. कुश को लपेटकर बनाया हुआ छल्ला जो श्राद्धादि कर्म करते समय उँगली में पहनते हैं। पवित्री। २. ताँबे या त्रिलौह का बना हुआ उक्त प्रकार का छल्ला। | 
			
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				| पैंतीस					 : | वि० [सं०] पंचत्रिंशत; प्रा० पंचत्तिंसतिं; अप० पंचतीसो] जो गिनती या संख्या में तीस से पाँच अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—३५। | 
			
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