| शब्द का अर्थ | 
					
				| प्रचार					 : | पुं० [सं० प्र√चर्+घञ्] १. किसी वस्तु या बात का बराबर व्यवहार में आना या चलता रहना। २. वह प्रयास जो किसी बात, सिद्धांत आदि को जानता या लोक में फैलाने के लिए विशेष रूप से किया जाता है और जिसका प्रमुख उद्देश्य किसी चीज को लोकप्रिय बनाना अथवा किसी लोक-प्रिय वस्तु को हेय सिद्ध करना होता है। ३. उक्त के आधार पर प्रचारित की हुई कोई बात। ४. प्रसिद्धि। ५. आकाश। गोचर-भूमि। ७. घोड़ों की आँख का एक रोग जिसमें आँखों के आस-पास का माँस बढ़कर दृष्टि रोक लेता है। | 
			
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				| प्रचारक					 : | वि० [सं० प्र√चर्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रचारिणी] किसी बात, विषय, सिद्धांत आदि का प्रचार करनेवाला। जैस—हिन्दी प्रचारक। | 
			
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				| प्रचारण					 : | पुं० [सं० प्र√चर्+णिच्+ल्युट्—अन] प्रचार करने की क्रिया या भाव। | 
			
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				| प्रचारना					 : | स० [सं० प्रचारण] १. प्रचारित करना। फैलाना। २. ललकारना। | 
			
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				| प्रचारित					 : | भू० कृ० [सं० प्र+चर्+णिच्√क्त] १. (बात, वस्तु या सिद्धांत) जिसका प्रचार हुआ या किया गया हो। २. (नियम, विधान आदि) जिसे काम में लाने या जिसके अनुसार काम करने की आज्ञा दी जा चुकी हो। (प्रोमल्गेटेड)। ३. जिसे लड़ाई आदि के लिए ललकारा गया हो। जिसके प्रति प्रचारणा की गई हो। | 
			
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				| प्रचारी (रिन)					 : | वि० [सं० प्र√चर्+णिनि] १. घूमने-फिरनेवाला। २. प्रकट होनेवाला। ३. प्रचार करनेवाला। दे० ‘प्रचारक’। | 
			
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