| शब्द का अर्थ | 
					
				| बद्ध					 : | वि० [सं०√बंध्+क्त] १. जो बाँधा हो या बाँधा गया हो। जकड़ा या बंधन मे पड़ा हुआ। २. जो किसी प्रकार के घेरे में हो। जैसे—सीमा युद्ध। ३. जिस पर कोई प्रतिबंध या रुकावट लगी हो। जैसे—नियमबद्ध, प्रतिज्ञा बद्ध। ४. जो किसी प्रकार निर्धारित या निश्चित किया गया हो। जैसे—आज्ञा-बद्ध। ५. अच्छी तरह जमाया या बैठा हुआ। स्थित। जैसे—पंक्ति बद्ध। ७. किसी के साथ जुड़ा लगा या सटा हुआ। जैसे—कर-बद्ध। ८. कुछ वशिष्ट नियमों के अनुसार किसी निश्चित और विशिष्ट रूप में लाया या रचा हुआ। जैसे—छंदोबद्ध, भाषा-बद्ध। ९. उलझा या फँसा हुआ। जैसे—प्रेम-बद्ध, मोह-बद्ध। १॰. जिसकी गति, मार्ग या प्रवाह रुका हुआ हो। जसे-कोष्ठ-बद्ध। ११. धार्मिक क्षेत्र में जो सासारिक बंधन या मोह-माया में पड़ा हो। मुक्त का विपर्याय। | 
			
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				| बद्धक					 : | वि० [सं० बद्ध+कन्] जो बाँध या पकड़कर मँगाया गया हो। पुं० बँधुआ कैदी। | 
			
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				| बद्ध-कक्ष					 : | वि० [सं० ब० स०] बद्ध परिकर। तैयार। प्रस्तुत। | 
			
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				| बद्धकोष्ठ					 : | पुं० [सं० ब० स०] पाखाना कम या न होने का रोग। कब्ज। कब्जियत। वि० जिसे उक्त रोग हो। कब्ज से पीड़ित। | 
			
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				| बद्ध-कोष्ठता					 : | स्त्री० [सं० बद्ध-कोष्ठ+तल्० टाप्] वह स्थिति जिसमें पाखाना कम या न होता हो। कब्जियत। | 
			
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				| बद्ध-गुद					 : | पुं० [सं० ब० स०] आँतों में मल अवरुद्ध होने का रोग। | 
			
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				| बद्ध-गुदोदर					 : | पुं० [सं० ब० स०] पेट का एक रोग जिसमें हृदय और नाभि के बीच में पेट कुछ बढ़ जाता है और जिसके फलस्वरूप मल रुक-रुककर और थोड़ा-थोड़ा निकलता है। | 
			
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				| बद्ध-ग्रह					 : | वि० [सं० ब० स०] हठी। | 
			
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				| बद्ध-चित्त					 : | वि० [सं० ब० स०] जिसका मन किसी वस्तु या विशय पर जमा हो। एकाग्र। | 
			
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				| बद्ध-जिह्व					 : | वि० [सं० ब० स०] जो चुप्पी साधे हो। मौन। | 
			
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				| बद्ध-दृष्टि					 : | वि० [सं० ब० स०] जिसकी दृष्टि किसी पर जमी या लगी हो। | 
			
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				| बद्ध-परिकर					 : | वि० [सं० ब० स०] जो कमर बाँधे हुए कोई काम करने के लिए तैयार हो। उद्यत तत्पर। | 
			
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				| बद्ध-प्रतिज्ञ					 : | वि० [सं० ब० स०] प्रतिज्ञा से बँधा हुआ। वचन-बद्ध। | 
			
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				| बद्ध-फल					 : | पुं० [सं० ब० स०] करंज। | 
			
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				| बद्ध-भूमि					 : | स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. मकान बनाने के लिए ठीक की हुई भूमि। २. मकान का पक्का फर्श। | 
			
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				| बद्ध-मुष्टि					 : | वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी मुट्ठी बँधी रहती हो; अर्थात् जो निर्धनों को भिक्षा ब्राह्मणों को दान आदि न देता हो। २. बहुत कम खर्च करनेवाला। कंजूस। | 
			
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				| बद्ध-मूल					 : | वि० [सं० ब० स०] १. जिसने जड़ पकड़ ली हो। २. जो मलूतः दृढ़ और अटल हो गया हो। | 
			
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				| बद्ध-मौन					 : | वि० [सं० ब० स०] चुप्प। मौन। | 
			
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				| बद्ध-रसाल					 : | पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का बढ़िया आम। | 
			
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				| बद्ध-राग					 : | वि० [सं० ब० स०] किसी प्रकार के राग या प्रेम में बँधा हुआ। अनुरक्त। | 
			
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				| बद्ध-वर्चस					 : | वि० [सं० ब० स०] मल-रोदक। कब्जियत कनरेवाला। | 
			
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				| बद्ध-वाक्					 : | वि० [सं० ब० स०] वचन-बद्ध। | 
			
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				| बद्ध-वैर					 : | वि० [सं० ब० स०] जिसके मन में किसी के प्रति पक्का वैर हो। | 
			
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				| बद्ध-शिख					 : | वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी शिखा या चोटी बँधी हुई हो। २. अल्पवयस्क। पुं० छोटा बच्चा। शिशु। | 
			
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				| बद्ध-शिखा					 : | स्त्री० [सं० बद्ध-शिख+टाप्] भूम्यामलकी। | 
			
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				| बद्ध-सूतक					 : | पुं० [सं० कर्म० स०] रसेश्वर दर्शन के अनुसार पारा जो अक्षत, लघुद्रावी तेजोविशिष्ट निर्मल और गुरु कहा गया है। | 
			
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				| बद्ध-स्नेह					 : | वि० [सं० ब० स०] किसी के स्नेह में बँधा हुआ। अनुरक्त। आसक्त। | 
			
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				| बद्धांजलि					 : | वि० [सं० बद्-आजलि, ब० स०] सम्मान प्रदर्शन के लिए जिसने हाथ जोड़े हों। कर-बद्ध। | 
			
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				| बद्धानुराग					 : | वि० [सं० बद्ध-अनुराग, ब० स०] आसक्त। | 
			
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				| बद्धी					 : | स्त्री० [सं० बद्ध+हिं० ई (प्रत्यय)] १. वह जिससे कुछ कसा या बाँधा जाय। जैसे—डोरी, तस्मा, फीता आदि। २. माला या सिकड़ी के आकार का चार लड़ों का एक गहना जिसकी दो लड़ तो गले में होती है और दो लड़ दोनों कंधों पर जनेऊ की तरह बाँहों के नीचे होती हुई छाती और पीठ तक लटकी रहती है। ३. किसी लम्बी चीज की चोट से शरीर पर पड़नेवाला लम्बा चिन्ह या निशान। साँट जैसे—बेंत की मार से शरीर पर बद्धियाँ पड़ना। क्रि० प्र०—पड़ना। | 
			
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