| शब्द का अर्थ | 
					
				| यक					 : | वि० [सं० एक से फा०] एक। विशेष—‘यक’ के यौं के लिए ‘एक’ के यौ०। | 
			
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				| यकअंगी					 : | वि० =एकांगी। | 
			
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				| यककलम					 : | अव्य० [फा०] १. एक ही बार कलम चलाकर। एक ही बार लिखकर। २. पूरी तरह से। बिलकुल ३. अचानक। | 
			
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				| यक-जा					 : | अव्य० [फा०] [भाव० यक जाई] एक ही स्थान में एकत्र। इकट्ठा। | 
			
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				| यक-जाई					 : | वि० [फा०] १. एक में मिला हुआ। २. सदा एक ही पक्ष में या एक के साथ रहनेवाला। | 
			
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				| यकता					 : | वि० [फा०] [भाव० यकताई] अद्वितीय। अनुपम। | 
			
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				| यकताई					 : | स्त्री० [फा०] १. अद्वितीयता। २. अद्वैत। | 
			
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				| यक-बयक					 : | अव्य० [फा०]=एकाएक। | 
			
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				| यक-सर					 : | वि० =एक-सर। | 
			
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				| यकसाँ					 : | वि० [फा०] १. समान। २. समतल। ३. एक ही तरह का। एक-रस। | 
			
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				| यकायक					 : | अव्य०=एकाएक। | 
			
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				| यकार					 : | पुं० [सं० य+कार] ‘य’ नामक वर्ण। | 
			
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				| यकीन					 : | पुं० [अ० यकीन] प्रतीति। विश्वास। एतबार। | 
			
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				| यक़ीनन					 : | अव्य० [अ०] १. निश्चित रूप से। निःसंदेह। २. अवश्य=जरूर। | 
			
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				| यकीनी					 : | वि० [अ० यक़ीनी] असंदिग्ध। अव्य०=यकीनन। | 
			
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				| यकृत					 : | पुं० [सं०√यज्+ऋतिन्, कुत्व] १. पेट में दाहिनी ओर की एक थैली जिसमें पाचन रस रहता है और जिसकी क्रिया से भोजन पचता है। जिगर। तिल्ली। (लीवर) २. एक प्रकार का रोग जिसमें उक्त अंग दूषित होकर बढ़ जाता है। वर्मजिगर। ३. पक्वाशय। | 
			
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				| यकृल्लोम					 : | पुं० [सं०] आधुनिक कालपी, कौंच, जालौन आदि के आस-पास के प्रदेश का प्राचीन नाम। | 
			
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				| यक्ष					 : | पुं० [सं० यक्ष (पूजा)+घञ्] १. एक प्रकार की देवयोनि जो कुबेर के गणों में और उनकी निधियों की रक्षक कही गयी है २. कुबेर। | 
			
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				| यक्ष-कर्दम					 : | पुं० [सं० मध्य० स०] कपूर, अगर, कस्तूरी, कंकोल आदि के योग से बननेवाला एक प्राचीन अंगराग। | 
			
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				| यक्ष-ग्रह					 : | पुं० [सं० कर्म० स०] पुराणानुसार एक प्रकार का कल्पित ग्रह। २. प्रेत बाधा। | 
			
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				| यक्षण					 : | पुं० [सं० यक्ष+ल्युट-अन] १. पूजन करना। २. भक्षण करना। खाना। | 
			
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				| यक्ष-तरु					 : | पुं० [मध्य० स०] वट वृक्ष। बड़ का पेड़। | 
			
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				| यक्ष-धूप					 : | पुं० [मध्य० स०] १. एक प्रकार का धूप। २. देवदारु वृक्ष का गोंद। | 
			
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				| यक्ष-नायक					 : | पुं० [ष० त०] १. यक्षों के स्वामी, कुबेर। २. जैनों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के अर्हत् के चौथे अनुचर का नाम। | 
			
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				| यक्ष-पति					 : | पुं० [ष० त०] यक्षों के स्वामी कुबेर। | 
			
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				| यक्ष-पुर					 : | पुं० [ष० त०] कुबेर की राजधानी, अलकापुरी। | 
			
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				| यक्ष-राज					 : | पुं० [ष० त०] यक्षों के राजा, कुबेर। | 
			
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				| यक्ष-रात्रि					 : | स्त्री० [ष० त०] दीवाली (उत्सव)। | 
			
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				| यक्ष-लोक					 : | पुं० [ष० त०] वह लोक जिसमें यक्षों का निवास माना जाता है। | 
			
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				| यक्ष-वित्त					 : | वि० [ब० स०] जो धनवान् तो हो पर कुछ भी व्यय न करता हो। कंजूस। | 
			
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				| यक्ष-स्थल					 : | पुं० [ष० त०] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम। | 
			
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				| यक्षाधिप, यक्षाधिपति					 : | पुं० [यक्ष-अधिप, यक्ष-अधिपति]=यक्षपति। | 
			
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				| यक्षावास					 : | पुं० [सं० यक्ष-आवास] वट-वृक्ष। | 
			
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				| यक्षिणी					 : | स्त्री० [सं० यक्ष+इनि—ङीष्] १. यक्ष जाति की पत्नी। २. कुबेर की पत्नी। ३. दुर्गा की एक अनुचरी। | 
			
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				| यक्षी (क्षिन्)					 : | वि० [सं० यक्ष+इनि] यक्षों की आराधना करनेवाला। स्त्री०=यक्षिणी। | 
			
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				| यक्षु					 : | पुं० [सं०] १. वह जो यज्ञ करता हो। २. प्राचीन वक्षु (आधुनिक बदख्शां) का पुराना नाम। ३. उक्त जनपद का निवासी। | 
			
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				| यक्षेद्र					 : | पुं० [यक्ष-इंद्र, ष० त०] यक्षों के स्वामी, कुबेर। | 
			
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				| यक्षेश्वर					 : | पुं० [यक्ष-ईश्वर, ष० त०] यक्षों के स्वामी, कुबेर। | 
			
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				| यक्ष्मग्रह					 : | पुं० [सं० उपमित स०] यक्ष्मा (रोग)। | 
			
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				| यक्ष्मध्नी					 : | स्त्री० [सं० यक्ष्मन्√हन् (हिंसा)+टक्-ङीष्] अँगूर। दाख। | 
			
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				| यक्ष्मा (क्ष्मन्)					 : | स्त्री० [सं०√यक्ष+मनिन्] क्षयी नामक रोग। दे० ‘क्षयी’। | 
			
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				| यक्ष्मी (क्ष्मिन्)					 : | वि० [सं० यक्ष्मन्+इनि] यक्ष्मा से ग्रस्त। | 
			
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