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शब्द का अर्थ

लक  : पुं० [सं०√लक् (आस्वाद)+अच्] १. ललाट। २. जंगली। धान की बाल।
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लकड़  : पुं० [हि० लकड़ी] १. हिं० लकड़ी का व संक्षिप्त रूप जो उसे यौ० शब्दों के आरम्भ में लगाने पर प्राप्त होता है। जैसे—लकड़हारा। २. पूर्वजों के कुछ संबंध सूचक नामों के साथ लगनेवाला एक शब्द जो ‘पर’ से भी ऊपर की स्थिति का वाचक होता है। जैसे—लकड़-दादा, लकड़-नाना।
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लकड़-दादा  : पुं० [हिं० लकड़+दादा] [स्त्री० लकड़-दादी] पर-दारा से बडा दादा।
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लकड़बग्घा  : पुं० [हिं० लकड़+बाघ] भेड़िये की जाति का एक पशु।
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लकड़हारा  : पुं० [हिं० लकड़+हारा (प्रत्यय)] वह व्यक्ति जो जंगल से लकड़ियाँ काटकर अपनी जीविका चलाता हो।
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लकड़ा  : पुं० [हिं० लकड़ी] १. सूखकर लकड़ी की तरह सख्त हो जाना। २. लकड़ी की तरह बिलकुल दुबला हो जाना। ३. (अंग, रोगी आदि) ऐंठकर लकड़ी की तरह कड़ा होना।
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लकड़ी  : स्त्री० [सं० लगुड़] १. वृक्षों, झाड़ियों आदि के तनों और डालियों का वह कड़ा और ठोस अंश जो छाल के नीचे रहता है, और काट लिये जाने पर प्रायः जलाने तथा इमारतें बनाने के काम आता है। काठ। काष्ठ २. उक्त का वह काटा और सुखाया हुआ रूप जो प्रायः चूल्हे आदि में जलाने के काम आता है। ईधन। ३. कुछ विशिष्ट प्रकार के वृक्षों आदि की वह पतबी और लंबी शाखा जो काटकर छड़ी डंडे आदि के रूप में लाई जाती है, और जिससे चलने में सहारा लिया जाता तथा आवश्यकता होने पर किसी पर आघात या प्रहार भी किया जाता है। वि० सूखा हुआ। पद—लकड़ी सा=बहुत दुबला पतला। मुहावरा—(किसी को) लकड़ी देना=किसी मृत शरीर या शव को चिता पर रखकर जलाना। (पदार्थ का) सूखकर लकड़ी होना=अपेक्षित कोमलता से रहित होकर कठोर या कड़ा होना। जैसे—सबेरे की रखी हुई रोटी सूखकर लकड़ी हो गई है। (व्यक्ति का) सूख कर लकड़ी होना=चिंता, धनाभाव, रोग आदि के कारण शरीर का बहुत ही क्षीण या दुर्बल होना। लकड़ी चलाना=लाठी से मार पीट करना।
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लक-दक  : पुं० [फा०] ऐसा मैदान जहाँ पेड़, पौधे और घास न हों। चटियल मैदान। बंजर। वि० बहुत अधिक अलंकरणों से लदा हुआ।
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लकब  : पुं० [अ० लकब] १. उपाधि। खिताब। पदवी। २. उपनाम।
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लकरी  : स्त्री० =लकड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लक़लक़  : पुं० [अ०] लंबी गर्दनवाला एक पक्षी। ढेंक। वि० बहुत दुबला-पतला।
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लकलका  : पुं० [अ० लक़लक़ा] १. साँप की बोली। २. साँपों, आदि के बार बार जीभ हिलाने की क्रिया। ३. चच्चाकांक्षा। ४. दबदबा। रोब।
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लकवा  : पुं० [अ० लकवा] १. एक प्रकार का प्रसिद्ध वात रोग जिसमें रोगी का मुँह टेढ़ा हो जाता है। २. पक्षाघात। क्रि० प्र०—मारना।
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लकसी  : स्त्री० [हिं० लकड़ी+अँकुसी] फल आदि तोड़ने की ऐसी लग्गी जिसके सिरे पर अंकुसी लगी रहती हैं।
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लका  : पुं० [अ० लक़ा] १. चेहरा। आकृति। २. लक्का कबूतर।
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लकाटी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की नर बिल्ली जिसके अंडकोशों में से एक प्रकार का मुश्क निकलता है।
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लकीर  : स्त्री० [सं० रेखा] १. वह चिन्ह जो लंबाई के बल में कुछ दूर तक बना या बनाया गया हो। जैसे—कलम से कागज पर या वाण से जमीन पर लकीर खींचना। क्रि० प्र०—खींचना।—बनाना। २. कोई ऐसा चिन्ह जो दूर तक रेखा के समान बना हो। ३. अक्षरों आदि की पंक्ति। सतर। ४. बहुत दिनों से रेखा आदि के रूप में चली आई हुई प्रणाली, प्रथा या रीति। पद—लकीर का फकीर=वह जो बिना समझे-बूझे किसी प्राचीन प्रथा पर चलता हो। आँखे बन्द करके पुराने ढंग पर चलनेवाला। मुहावरा—लकीर पीटना=बिना समझे-बूझे पुरानी प्रथा पर चलना।
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लकुच  : पुं० [सं०√लक् (आस्वाद)+उचन्]=लकुट।
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लकुट  : पुं० [सं०√लक्+उटन्] लाठी। छड़ी। पुं० [सं० लकुच] १. मध्यम आकार का एक प्रकार का वृक्ष जिसका फल गुलाब-जामुन के समान होता है। २. उक्त वृक्ष का फल जो खाया जाता है। लुकाठ। लखोट।
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लकुटिया  : स्त्री० =लकुटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लकुटी  : स्त्री० [सं० लकुट+ङीष्] छोटी लाठी। छड़ी।
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लकुरी  : स्त्री० =लकुटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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लकोटा  : पुं० [देश] एक प्रकार का पहाड़ी बकरा जिसके बालों से शाल, दुशाले आदि बनाये जाते हैं।
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लक्कड़  : पुं० [हिं० लकड़ी] बड़ी और मोटी लकड़ी। काठ का बड़ा कुंदा।
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लक्का  : पुं० [फा० लका] एक प्रकार का कबूतर जो छाती उभार कर चलता है, और जिसकी पूँछे पंखे सी होती हैं।
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लक्खना  : वि० [सं० लक्षण] [स्त्री० लक्खनी] लक्षणोंवाला। उदाहरण—कुआँरि बतीसौं लक्खनी अस सब माँह अनूप।—जायसी।
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लक्खा  : वि० [हि० लाख] [वि० स्त्री० लक्खी] १. जिसमें एक ही तरह के लाखों चीजें हों। जैसे—आमों का लक्खा बगीचा। २. जो लाखों में से एक हो। बहुत बढ़ा-चढ़ा। जैसे—लक्खा योद्धा, लक्खी बेसवा (बहुत ही चतुर और धूर्त दुश्चरित्र स्त्री या वेश्या)। ३. दे० ‘लक्खी’।
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लक्खी  : वि० [हिं० लाख (संख्या)] १. लाख (संख्या) से सम्बन्ध रखनेवाला। लाख या लाखों का। २. जिसके पास लाख या लाखों रुपये हों। लखपती। वि० [हिं० लाख=लाक्षा] लाख के रंग का। लाखी। पुं० उक्त प्रकार के रंग का घोड़ा।
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लक्त  : वि० [सं०√रक्त] लाल। सुर्ख।
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लक्तक  : पुं० [सं० लक्त+कन्] १. अलता, जो स्त्रियाँ पैरों में लगाती हैं। अलक्तक। २. कपड़े का बहुत फटा हुआ छोटा टुकड़ा। चिथड़ा। लत्ता।
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लक्ष  : वि० [सं०√लक्ष (दर्शन)+अच्] सौ हजार। एक लाख। पुं० १. वह जिस पर दृष्टि रखकर काम किया जाय। २. पैर। ३. चिन्ह । निशान। ४. अस्त्रों का एक प्रकार का संहार।
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लक्षक  : वि० [सं०√लक्ष+ण्वुल-अक] लक्षित करनेवाला। पुं० [सं०√लक्ष् (दर्शन)+ण्वुल] वह शब्द जो संबंध या प्रयोजन से अपना अर्थ सूचित करे।
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लक्षण  : पुं० [सं०√लक्ष्+ल्युट—अन] १. किसी पदार्थ की आकृति आदि से दिखाई देनेवाली वह विशेषता जिसके द्वारा वह पहचाना जाय। चिन्ह निशान। असार। जैसे—आकृति से बुद्धिमता के या आकाश में वर्षा के लक्षण दिखाई देना। विशेष—चिन्ह और लक्षण में मुख्य अंतर यह है कि चिन्ह तो सदा मूर्त और स्पष्ट होता है, पर लक्षण प्रायः अमूर्त और अस्पष्ट होता है। इसके सिवा चिन्ह का प्रयोग तो भूत, प्रस्तुत या वर्तमान के संबंध में होती है परन्तु लक्षण का प्रयोग भावी घटनाओं आदि के प्रसंग में ही होता है। २. किसी वस्तु या व्यक्ति में होनेवाला कोई ऐसा गुण या विशेषता जो सहसा औरों में दिखाई देती हो। (ट्रेट) जैसे—यही सब तो प्रतिभा के लक्षण हैं। ३. शब्दों में पदों, वाक्यों आदि की ऐसी परिभाषा या व्याख्या, जिससे उसकी ठीक ठीक स्थिति या स्वरूप प्रकट होता हो। जैसे—साहित्य में किसी अलंकार के लक्षण बतलाना। ४. शरीर में दिखाई पड़नेवाले वे चिन्ह आदि जो किसी रोग के सूचक हों। जैसे—इस रोगी में क्षय के सभी लक्षण दिखाई देते हैं। ५. सामुद्रिक के अनुसार शरीर के वे चिन्ह जो शुभाशुभ फलों के सूचक माने जाते हैं। जैसे—यदि हाथ में अमुक लक्षण हो तो आदमी बहुत धनी होता है। ६. शरीर में होनेवाला एक विशेष प्रकार का काला दाग जो बालक के गर्भ में रहने के समय सूर्य या चन्द्रग्रहण लगने के कारण बन जाता है। लच्छन। ७. आचार व्यवहार आदि के ऐसे ढंग या प्रकार जो भले या बुरे होने के सूचक हों। जैसे—इस लड़के के लक्षण अच्छे नहीं दिखाई देते। ८. नाम। संज्ञा। ९. दर्शन। १॰. सारस पक्षी। पुं० लक्ष्मण।
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लक्षणक  : पुं० [सं० लक्षण+कन्] चिन्ह। निशान।
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लक्षण-कार्य  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी चीज या बात की पहचान बतलाने के लिए उसके गुणों, विशेषताओं आदि का वर्णन करना। २. परिभाषा।
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लक्षणा  : स्त्री० [सं०√लक्ष्+न, अडागम,+अच्+टाप्] शब्द की तीन शक्तियों में से दूसरी शक्ति जो अभिधेय से भिन्न परन्तु उसी से संबंधित दूसरा अर्थ प्रकट करती है। जैसे—मोहन गधा है। यहां गधा अपने अमिधेय अर्थ में विशिष्ट पशु का वाचक नहीं बल्कि उसी विशिष्ट पशु की ज्ञान-हीनता का सूचक है।
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लक्षणी (णिन्)  : वि० [सं० लक्षण+इनि] १. जिसमें कोई लक्षण या चिन्ह हो। लक्षणोंवाला। २. लक्षण जाननेवाला।
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लक्षण्य  : वि० [सं० लक्षण+यत्] १. लक्षण या चिन्ह बतलानेवाला। २. लक्षण या चिन्ह का काम देनेवाला।
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लक्षना  : स्त्री० =लक्षणा। स०=लखना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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लक्षा  : स्त्री० [सं० लक्ष+टाप्] एक लाख की सूचक संख्या।
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लक्षि  : स्त्री० =लक्ष्मी। पुं० =लक्ष्य।
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लक्षित  : भू० कृ० [सं०√लक्ष्+क्त] १. लक्ष्य या ध्यान में आया या लाया हुआ। जिसकी ओर लक्ष गया हो। २. जिसकी ओर दूसरों का ध्यान लगाया गया हो। निर्दिष्ट। ३. अनुभव से जाना या समझा हुआ। ४. किसी प्रकार के लक्षण या चिन्ह से युक्त। ५. जिस पर चिन्ह लगाया गया हो। पुं० वह अर्थ जो शब्द की लक्षणा शक्ति द्वारा ज्ञात होता है।
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लक्षित-लक्षणा  : स्त्री० [सं० स० त०] शब्द की वह शक्ति जो मुख्यार्थ को छोड़कर लक्ष्यार्थ का ग्रहण कराती है।
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लक्षितव्य  : वि० [सं०√लक्ष्+तव्य] १. जिसकी ओर लक्ष्य होना उचित हो। २. जिस पर चिन्ह किया जाने को हो। ३. जिसकी परिभाषा की जाने को हो।
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लक्षिता  : स्त्री० [सं० लक्षित+टाप्] साहित्य में वह नायिका जिसके लक्षणों से उसका पर-पुरुष प्रेम जानकर किसी सखी ने उस पर प्रकट किया हो।
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लक्षितार्थ  : पुं० [सं० लक्षित-अर्थ, कर्म० स०] शब्द की लक्षणा-शक्ति से निकलनेवाला अर्थ।
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लक्षी  : स्त्री० [सं० लक्ष+ङीष्] गंगोदक नामक सवैया का दूसरा नाम। वि० अच्छे चिन्हों या लक्षणोंवाला।
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लक्ष्म (क्ष्मन्)  : पुं० [सं०√लक्ष्+मनिन्] १. चिन्ह । २. दाग। ३. विशेषता। ४. परिभाषा। ५. सारस पक्षी। ६. लक्ष्मण। वि० प्रधान। मुख्य।
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लक्ष्मण  : पुं० [सं० लक्ष्मन+अच्] १. लक्ष्मन। चिन्ह । २. सुमित्रा के गर्भ से उत्पन्न राजा दशरथ के एक पुत्र जो शेषनाग के अवतार माने जाते हैं। ३. दुर्योधन का एक पुत्र। ४. सारस। ५. नाग। वि० १. लक्षण या चिन्ह से युक्त। २. भाग्यवान्। ३. उन्नतिशील।
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लक्ष्मण-रेखा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] ऐसी रेखाकार सीमा जो किसी प्रकार लाँघकर पार न की जा सकती हो। (लक्ष्मण जी की खींची हुई उस रेखा के आधार पर जो उन्होंने सोने के हिरन का पीछा करने से पहले सीता के चारों ओर खींची थी)।
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लक्ष्मण-लीक  : स्त्री० =लक्ष्मण रेखा।
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लक्ष्मणा  : स्त्री० [सं० लक्ष्मण+टाप्] १. श्री कृष्ण की एक पत्नी जो भद्रदेश के राजा बृहत्सेन की पुत्री थी। २. दुर्योधन की एक कन्या। ३. श्रीकृष्ण के पुत्र सांब की पत्नी। ४. एक प्रकार की जड़ी जो पुत्रदा मानी जाती है। यह जड़ी चौड़े पत्ते तथा श्वेत कंदवाली होती है तथा पर्वतों पर पायी जाती है। इसका कंद औषध के लिए प्रयोग में आता है। नागपत्री। पुत्रदा।
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लक्ष्मी  : स्त्री० [सं०√लक्ष्+ई, मुट्-आगम] १. भगवान् विष्णु की पत्नी जो धन की अधिष्ठाती देवी मानी गई हैं। कमला। पद्या। २. धन-संपत्ति। दौलत। ३. शोभा। श्री। ४. दुर्गा। ५. सीता का नाम। ६. धन-धान्य बढ़ाने वाली भाग्यवती स्त्री। ७. घर की मालकिन या स्वामिनी के लिए आदरसूचक संबोधन या संज्ञा। ८. कमल। पद्य। ९. हलदी। १॰. शमी वृक्ष। ११. मोती। १२. सफेद तुलसी। १३. मेढ़ासिंगी। १४. ऋद्धि नामक ओषधि। १५. वृद्धि नामक ओषधि। १६. मोक्ष की प्राप्ति। १७. फलने-फूलनेवाला अथवा फला-फूला हुआ वृक्ष। फूलदार वृक्ष। १८. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो रगण एक गुरु और एक लघु अक्षर होता है। १९. आर्याछंद के २६ भेदों में से पहला भेद जिसके प्रत्येक चरण में २७ गुरु और तीन (३) लघु वर्ण होते हैं।
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लक्ष्मीक  : वि० [सं० लक्ष्मी√कै (शोभित होना)+क] १. धनवान्। अमीर। २. भाग्यवान्।
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लक्ष्मी-कांत  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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लक्ष्मी-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] लाल कमल जिसमें लक्ष्मी का निवास माना जाता है।
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लक्ष्मी-जनार्दन  : पुं० [सं० मध्य० स०] काले रंग के एक प्रकार के शालग्राम जिन पर चार चक्र बने होते हैं।
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लक्ष्मी-टोड़ी  : स्त्री० [सं० लक्ष्मी+हिं० टोड़ी] एक प्रकार की संकर रागिनी जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं।
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लक्ष्मी-ताल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. संगीत में १८ मात्राओं का एक ताल जिसमें १५ आघात और तीन खाली होते हैं। २. श्रीताल नामक वृक्ष।
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लक्ष्मी-धर  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु। २. स्रग्विणी छंद का दूसरा नाम।
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लक्ष्मी-नारायण  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. लक्ष्मी और नारायण की युगल-मूक्ति २. लक्ष्मी जनार्दन नामक चक्र-चिन्ह युक्त तथा कृष्ण वर्ण शालग्राम।
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लक्ष्मी-नृसिंह  : पुं० [मध्य० स०] दो चक्र और वनमाला धारण किए हुए विष्णु की एक मूर्ति।
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लक्ष्मी-पति  : पुं० [ष० त०] १. विष्णु। नारायण। २. श्रीकृष्ण। ३. राजा। ४. लौंग का पेड़। ५. सुपाडी का पेड़।
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लक्ष्मी-पुत्र  : पुं० [ष० त०] धनवान् व्यक्ति। अमीर। २. सीता के पुत्र लव और कुश। ३. कामदेव। ४. माणिक्य या लाल नामक रत्न ५. घोड़ा।
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लक्ष्मी-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. पद्य। कमल। २. लौंग। ३. माणिक। लाल।
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लक्ष्मी-पूजा  : स्त्री० [ष० त०] दीपावली के रोज रात में लक्ष्मी की की जानेवाली पूजा।
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लक्ष्मी-फल  : पुं० [ब० स०] बेल। श्रीफल।
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लक्ष्मी-रमण  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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लक्ष्मीवत्  : पुं० [सं० लक्ष्मी+मतुप्, म-व०] १. नारायण। विष्णु। २. धनवान् व्यक्ति। ३. कटहल का पेड़। ४. अश्वत्थ। पीपल।
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लक्ष्मी-वल्लभ  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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लक्ष्मीवान् (वत्)  : वि० [सं० लक्ष्मी+मतुप्०] १. धनवान्। २. सुन्दर। पुं० १. विष्णु। २. कटहल। ३. रोहित वृक्ष।
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लक्ष्मी-वार  : पुं० [ष० त०] गुरुवार।
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लक्ष्मी-वीज  : पुं० [ष० त०] वीज (मंत्र)।
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लक्ष्मीश  : पुं० [लक्ष्मी-ईश, ष० त०] १. विष्णु। २. धनवान्। अमीर। ३. आम का पेड़।
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लक्ष्मी-सहज  : पुं० [ष० त०] १. चन्द्रमा। २. कपूर। ३. इंद्र का घोड़ा। ४. शंख।
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लक्ष्मी-सहोदर  : पुं० [ष० त०]=लक्ष्मी-सहज।
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लक्ष्य  : पुं० [सं०√लक्ष् (दर्शन)+ण्यत्] १. वह वस्तु जिस पर किसी उद्देश्य की सिद्धि के विचार से दृष्टि रखी जाय। निशान। जैसे—(क) चिड़िया को लक्ष्य करके उस पर ढेला फेंकना या तीर चलाना। (ख) किसी को लक्ष्य करके उपहास या व्यंग की बात करना। २. वह काम या बात जिसकी सिद्धि अभीष्ट हो और इसीलिए जिस पर दृष्टि या ध्यान रखा जाय। उद्देश्य। जैसे—जीवन भर धन संग्रह ही एक मात्र लक्ष्य रहा। ३. प्राचीन भारत में अस्त्रों आदि का एक प्रकार का संहार। ४. वह जिसका अनुमान किया गया हो या किया जाय। अनुमेय। ५. शब्द की लक्षणा शक्ति से निकलनेवाला अर्थ। ६. बहाना। हीला। वि० १. देखने योग्य। दर्शनीय। २. लाख।
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लक्ष्यज्ञ  : पुं० [सं० लक्ष्य√ज्ञा (जानना)+क] १. वह जो किसी लक्ष्य की पूर्ति या सिद्धि के लिए अग्रसर तथा प्रयत्नशील हो। २. वह जो यह जानता हो कि मेरा लक्ष्य क्या है।
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लक्ष्यज्ञत्व  : पुं० [सं० लक्ष्यज्ञ+त्व] १. वह ज्ञान जो चिह्रों को देखने से उत्पन्न हो। २. वह ज्ञान जो दृष्टांत के आधार पर प्राप्त हो।
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लक्ष्यता  : स्त्री० [सं० लक्ष्य+तल्+टाप्] लक्ष्य होने की अवस्था धर्म या भाव। लक्ष्यत्व।
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लक्ष्यत्व  : पुं० [सं० लक्ष्य+त्व]=लक्ष्यता।
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लक्ष्य-भेद  : पुं० [ष० त०]=लक्ष्य-वेध।
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लक्ष्य-वीथी  : स्त्री० [ष० त०] १. वह उपाय या कर्म जिससे जीवन का उद्देश्य सिद्ध होता हो। २. ब्रह्मलोक जाने का मार्ग। ३. देव-ध्यान।
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लक्ष्य-वेध  : पुं० [ष० त०] चलते या उड़ते हुए जीव या पदार्थ पर निशाना लगाना।
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लक्ष्य-वेधी (धिन्)  : पुं० [सं० लक्ष्य√विध् (बेधना)+णिनि] जो लक्ष्य-वेध करता हो उड़ते या चलते हुए पदार्थ या जीवों पर निशाना लगानेवाला।
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लक्ष्य-साधन  : पुं० [ष० त०] १. कोई काम करने से पहले उसके सब अंग या ऊँच-नीच अच्छी तरह देखना। २. अस्त्र चलाने से पहले अच्छी तरह देख लेना जिससे वह निशाने या लक्ष्य पर ठीक जाकर लगे। (साइटिंग)
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लक्ष्यार्थ  : पुं० [सं० लक्ष्य-अर्थ, मध्य० स०] शब्द की लक्षणा शक्ति से निकलनेवाला अर्थ। किसी शब्द का वाच्य अर्थ से भिन्न किन्तु उससे संबद्ध अर्थ।
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लक्ष्योपमा  : स्त्री० [सं० लक्ष्य-उपमा, मध्य० स०] साहित्य में उपमा अलंकार का एक भेद जिसमें सम, समान आदि शब्दों या इनके वाचक अन्य शब्दों का प्रयोग न करके यह कहा जाता है कि यह वस्तु अमुक कोटि या वर्ग की है, उसे लज्जित करती है, उससे होड़ करती है अथवा इसने उससे अमुक गुण या बात चुरा या छीन ली हो।
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