शब्द का अर्थ
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शंक :
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पुं० [सं०√शंक्+घञ्] १. शंका। २. भय। |
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शंकना :
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अ० [सं० शंका] १. संदेह करना। २. डरना। |
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शंकनीय :
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वि० [सं०√शंक्+अनीयर्] १. जिसके विषय में कोई शंका हो सकती हो या उठाई जा सकती हो। शंक्य। २. जिसके ठीक होने के संबंध में किसी को दृढ़ निश्चय न हो; और इसलिए जिसके संबंध में कुछ प्रश्न किया जा सकता हो। (क्वेश्चनेबुल) |
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शंकर :
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पुं० [सं० शं√कृ+अच्] १. शिव। २. शंकराचार्य। ३. भीमसेनी कपूर। ४. एक प्रकार का छन्द। ५. संगीत में एक प्रकार का राग। वि० [स्त्री० शंकरा] कल्याण कारी। शुभंकर। वि० पुं०=संकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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शंकर-शैल :
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पुं० [सं० ष० त०] कैलास पर्वत। |
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शंकरा :
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स्त्री० [सं० शंकर+टाप्] १. पार्वती। २. मंजीठ। ३. शमी। पुं० शंकर नामक राग। वि० स्त्री कल्याण करनेवाली। |
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शंकराचार्य :
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पुं० [सं० मध्य० स०] १. दक्षिण भारत के केरल प्रदेश के एक प्रसिद्ध शैव आचार्य जो अद्वैत मत के प्रतिपादक तथा प्रवर्त्तक थे (सन् ७८८-८२॰ ई०)। विशेष-इन्होंने बदरिकाश्रम, करवीर द्वारका और शारदा नाम के चार पीठ स्थापित किए थे, जिनके अधिष्ठाता अभी तक शंकराचार्य कहे जाते हैं। |
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शंका :
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स्त्री० [सं०√शंक्+अ+टाप्] १. किसी प्रकार के भावी अनिष्ट, आघात या हानि का अनुमान होने पर मन में होनेवाला कष्ट मिश्रित भय। आशंका। २. मन की वह स्थिति जिसमें किसी मान्य या निर्णीत तथा निश्चित की हुई बात के सामने आने पर उसके संबंध में कोई आपत्ति, जिज्ञासा या प्रश्न उत्पन्न होता है। कोई बात ठीक न जान पड़ने पर उसके संबंध में मन में तर्क उठने की अवस्था या भाव। जैसे— (क) आपने इस चौपाई (या श्लोक) का जो अर्थ किया है,उसके संबंध में मुझे एक शंका है अर्थात् मैं समझता हूँ कि वह अर्थ ठीक नहीं हैं, और उसका ठीक रूप कुछ दूसरा ही होना चाहिए। (ख) पंडित लोग शास्त्रार्थ करते समय एक-दूसरे के मत पर तरह-तरह की शंकाएँ करते हैं। विशेष-मनोविज्ञान की दृष्टि से यह कोई मनोवेग नहीं है बल्कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में होनेवाला बौद्धिक या मानसिक व्यापार मात्र है। ३. उक्त के आधार पर साहित्य में तैतीस संचारी भावों में से एक। मन का वह भाव जो किसी प्रकार की आशंका भय आदि के कारण होता है और जिसमें शरीर में कंप होता रंग फीका पड़ जाता और स्वर विकृत हो जाता है। उदाहरण—चौंकि चौकि चकत्ता कहत चहूँघाते यारो, लेत रहौ खबरि कहाँ लौ सिवराज है।—भूषण। ४. दे० ‘आशंका‘ ‘संदेह’ और ‘संशय’। |
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शंकाकुल :
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वि० [सं० तृ० त०] शंका से आकुल या विचलित। |
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शंकावगाह :
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पुं० [सं० शंका+अवगाह] किसी बात की शंका होने पर उसके संबंध में पता लगाने के लिए की जानेवाली बातचीत। |
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शंका-समाधान :
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पुं० [सं०] किसी की उठाई हुई शंका का इस प्रकार निराकरण करना जिससे जिज्ञासु का पूरा समाधान या संतोष हो जाय। |
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शंकित :
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भू० कृ० [सं० शंका+इतच्] जिसके मन में शंका हुई हो। |
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शंकु :
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पुं० [सं०√शंक+उण्] १. कोई ऐसा धन पदार्थ जिसका नीचेवाला भाग तो गोलाकार हो, मध्य भाग क्रमशः पतला होता गया हो और ऊपरी सिरा बिलकुल नुकीला हो (कोन)। २. कील। मेख। ३. खूंटा या खूँटी। ४. बरछा। भाला। ५. तीर की गाँसी या फल। ६. शंख नाम की बहुत बड़ी संख्या। ७. शिव ८. कामदेव। ९. जहर। विष। १॰. पाप। ११. राक्षस। १२. हंस। १३. एक प्रकार की मछली। १४. दीमकों में बाँबी। वल्मीक। १५. पुरानी चाल का एक प्रकार का बाजा। १६. बारह अंगुल की नाप। १७. उक्त नाप की वह खूंटी जिसकी सहायता से प्राचीन काल में दीपक सूर्य आदि की छाया नापी जाती थी। १८.व नस्पतियों की वह शक्ति जिससे वे जमीन के अन्दर का रस खींचती हैं। १९. पत्तें या पत्ती की नस। २॰. वास्तु शास्त्र में ऐसा खंभा जिसका बीच का भाग मोटा और ऊपर का भाग पतला होता है। २१. जूए का दाँव। बाजी। २२. लिंग। २३. नखी नामक गंध द्रव्य। |
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शंकु गणित :
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पुं० [सं०] ज्यामिति के अंतर्गत गणित की वह क्रिया जिससे शंकु के भिन्न-भिन्न भागों का मान स्थिर किया जाता है। (कोनिक्स) |
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शंकुच्छाया :
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स्त्री० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में १२ अंगुल की एक नाप जिससे दीपक, सूर्य आदि की छाया नापी जाती थी। |
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शंकुमती :
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स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वैदिक छन्द जिसके पहले चरण में पाँच और बाकी चरणों छः छः या कुछ कम या अधिक वर्ण होते हैं। |
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शंख :
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पुं० [सं०√शम्+ख] १. एक प्रकार का बड़ा समुद्री घोंघा (जल-जंतु) जिसका ऊपरी आवरण या खोल फूँककर बजाने के काम आता है। २. उक्त जल-जंतु का खोल जिसके ऊपरी छेद में मुँह से जोर से हवा भरने पर एक विशेष प्रकार का जोर का शब्द होता है। यह दो प्रकार का होता है—दक्षिणावर्त्त और वामावर्त्त। पद-शंख का मोती=एक प्रकार का कल्पित मोती जिसकी उत्पत्ति शंख के गर्भ से मानी जाती है। मुहावरा—शंख बजना=विजय या आनंदोत्सव होना। शंख बजाना= (क) आनंद मनाना। (ख) वंचित रहना। (व्यंग्य)। ३. एक लाख करोड़ या दस खर्व की संख्या। ४. हाथी का गंडस्थल। ५. कनपटी। ६. पुराणानुसार एक निधि का नाम। ७. कुबेर की निधि के देवता। ८. चरम चिन्ह। ९. नखी नामक गंध द्रव्य। १॰. छप्पय छंद का एक भेद जिसमें १५२ मात्राएँ या १4९ वर्ण होते हैं जिनमें से ३ गुरु और शेष लघु होते हैं। ११. दंदक वृत्त का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में दो तगण और चौदह रगण होते हैं। 1२. कपाल। मस्तक। १३. हवा चलने से होनेवाला शब्द। १४. दे० ‘शंखासुर’। |
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शंखक :
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पुं० [सं०√शंख+वुन्-अक] १. शंख की बनी हुई चूड़ी। सांख। २. वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का विकट रोग जिसमें कनपटी के पास लाल गिलटी निकलती है और शरीर में बहुत जलन होती है। ३. शंख नामक निधि। ४. हीरा कसीस। ५. मस्तक। माथा। |
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शंखकार :
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पुं० [सं० शंख√कृ+अण्] १. वह जो शंख से तरह-तरह की चीजें बनाता हो। २. पुराणानुसार एक संकर जाति जो उक्त प्रकार का काम करती थी। |
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शंख-चूड़ :
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पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार का बहुत जहरीला नाग या साँप जिसके शरीर पर काली बिदियाँ होती हैं। २. एक प्राचीन तीर्थ। ३. पुराणानुसार एक राक्षस जिसे कंस ने कृष्ण को मारने के लिए भेजा था, पर जो कृष्ण के हाथों स्वयं मारा गया था। |
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शंखज :
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वि० [सं० शंख√जन्+ड] शंख से निकला या बना हुआ। पुं० एक प्रकार का कल्पित मोती जिसकी उत्पत्ति शंख के गर्भ से मानी गई है। |
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शंख-द्राव :
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पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का बहुत तीक्ष्ण अरक जो उदर रोगों के लिए उपकारी माना गया है। कहते हैं कि यह धातुओं, शंखों आदि तक को गला देता है, इसीलिए यह काँच या चीनी के बरतन में रखा जाता है। |
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शंख-धर :
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[सं० ष० त०] विष्णु। |
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शंख-नारी :
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स्त्री० [सं०] सोमराजी नामक वृक्ष का एक नाम। |
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शंख-पलीता :
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पुं० [हिं०] ज्वालामुखी पर्वतों में से निकलनेवाला एक प्रकार का रेशेदार खनिज पदार्थ जिसका उपयोग गैस के भट्ठे बनाने में होता है। इस पर ताप तथा विद्युत का प्रभाव बहुत कम और देर में होता है। |
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शंखपाणि :
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पुं० [सं० ब० स०] विष्णु। |
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शंख-पुष्पी :
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स्त्री० [ब० स० ङीष्] १. सफेद अपराजिता। २. जूही। ३. शंखाहुली। |
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शंख-लिखित :
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वि० [द्व० स०] दोष रहित। बे-ऐब। पुं० १. शंख और लिखित नाम के दो ऋषि जिन्होंने एक स्मृति बनाई थी। २. उक्त ऋषियों की बनाई हुई स्मृति। ३. न्यायशील और पुण्यात्मा राजा। |
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शंखवटी :
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स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार की बटी या गोली जो पेट के रोगों के लिए गुणकारी कही गई है। |
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शंख-वात :
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पुं० [ष० त०] वायु के प्रकोप से सिर में होनेवाली पीड़ा। |
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शंख-विष :
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पुं० [मध्य० स०] संखिया। |
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शंखावर्त्त :
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पुं० [सं० शंख-आवर्त, ब० स०] भगंदर रोग का एक शंबुकावर्त नामक भेद। |
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शंखासुर :
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पुं० [सं० शंख-असुर, कर्म० स०] एक प्रसिद्ध राक्षस जिसका वध विष्णु ने मस्त्यावतार में किया था। कहते है कि यह ब्रह्मा के यहाँ से वेद चुराकर समुद्र में जा छिपा था। |
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शंखिनी :
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स्त्री० [सं० शंख+इनि+ङीष्] १. एक प्रकार की वनौषधि। २. कामशास्त्र में वह नायिका जो न अधिक मोटी हो न पतली, जिसका सिर तथा स्तन छोटे पैर बड़े और बाहें लंबी होती हैं। यह काम से अधिक पीड़ित परपुरुष से रमण की इच्छुक कर्कश तथा चुगलखोर स्वभाववाली होती है। |
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शंड :
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पुं०=षंड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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शंपा :
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स्त्री० [सं०] विद्युत। बिजली। |
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शंपाक :
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पुं० [सं० ब० स०] अमलतास। |
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शंब :
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पुं० [सं०√शम्ब् (गति)+अच्] 1,०इंद्र का वज्र। २. दोबारा की गई जोताई। वि० १. भाग्यशाली। २. सुखी। ३. अभागा। |
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शंबर :
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पुं० [सं०√शंब्+अरन्] १. जल। २. मेघ। ३. पर्वत। ४.एक प्रकार का हिरन। ५.युद्ध। ६. इंद्रजाल। जादू। ७. अर्जुन वृक्ष। ८. एक राक्षस। |
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शंबरारि :
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पुं० [सं० ष० त०] कामदेव। |
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शंबा :
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पुं० [फा० शंबः] शनिवार । |
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शंबु :
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पुं० [सं०शंब+उन्] घोंघा। |
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शंबूक :
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पुं० [सं०√शम्बू+कू, शंबू+कन्] १. घोंघा २. शंख। २. हाथी के कुंभ का अंतिम भाग। ४. हाथी का सूँड़ की नोक। ५. त्रेतायुग में रामराज्य का एक शूद्र तपस्वी जिसकी तपस्या से एक ब्राह्मण पुत्र अकाल ही मर गया था। कहते है कि इस पर राम ने इसका वध किया और ब्राह्मण का मृत पुत्र जी उठा था। |
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शंबूका :
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स्त्री० [सं० शंबूक+टाप्] सीपी। |
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शंभु :
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वि० [सं० शम्√भू+डु] कल्याण करने और सुख देनेवाला। पुं० १. शिव। २. विष्णु। ३. एक प्रकार के सिद्ध पुरुष। ४. ब्राह्मण। |
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शंभु-क्रिय :
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पुं० [सं० ब० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग। |
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शंसन :
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पुं० [सं०√शंस्+ल्युट-अन] १. प्रशंसा करना। २. मंगल कामना करना। ३. कहना। |
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शंसनीय :
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वि० [सं०√शंस्+अनीयर्] १. प्रशंसनीय। २. मंगल करने वाला। ३. कथनीय। |
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शंसा :
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स्त्री० [सं०√शंस्+अ+टाप्] १. प्रशंसा। २. मंगल-कामना। ३. कथन। |
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शंस्य :
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वि० [सं०√शंस्+ण्यत्] १. शंसा के योग्य। २. जिसकी शंसा की जाय। ३. प्रशंसनीय। ४. कथित। |
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शः :
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प्रत्यय० [सं०] एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लगकर (क) उसके अनेक गुने होने का भाव सूचित करता है। जैसे—बहुशः शतशः आदि। (ख) उसके सिलसिलेवार होने का सूचक होता है। जैसे—क्रमशः। (ग) जैसे—प्रकृतिशः। |
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