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संकर  : वि० [सं० सम्√ कृ (फेंकना)+अप्] १. दो या अधिक भिन्न भिन्न तत्त्वों या पदार्थों के मेल से बना हुआ। जैसा—संकर राग। २. दो अलग अलग जातियों, वर्णों के जीवों या प्राणियों के संसर्ग से उत्पन्न। दोगला। पुं० १. अलग अलग की दो चीजों का आपस में मिलकर एक होना। २. वह जिसकी उत्पत्ति भिन्न-भिन्न वर्गों या जातियों के पिता और माता से हुए हो। दोगला। ३. साहित्य में ध्वनि का वह प्रकार या भेद जिसमें एक ही आश्रय से कई अभिप्राय या ध्वनियाँ निकलती हों। जैसा—प्रिय के आने पर तीन स्तनों और चंचल तथा विशाल नेत्रोंवाली नायिका द्वार पर मंगल कलश और कमलों से वंदनवार का काम बिना आयाम के ही संपादित कर रही थी। यहाँ स्तनों से कलशों और नेत्रों से कमलों के वंदनवार का भी भाव निकलता है। ४. साहित्य में दो या अधिक अलंकारों के इस प्रकार एक साथ और मिले-जुले रहने की अवस्था जिसमें या तो वे एक दूसरे से अलग न किए जा सकें या जिनका उस प्रसंग में स्वतंत्र रूप सिद्ध न हो सके। (काम्मिक्सचर) उदाहरणार्थ—यदि किसी वर्णन में दो या अधिक अंलकार समान रूप से घटित होते हों तो उन्हें संकर कहा जायगा। इसकी गणना स्वतंत्र अलंकार के रूप में होती है। ५. न्याय के अनुसार किसी एक ही स्थान या पदार्थ में अत्यंताभाव और समानाधिकरण का एक ही में होना। जैसा—मन में मूर्तत्व तो हैं, पर भूतत्व नहीं है और आकाश में भूतत्त्व हैं, पर मूर्तत्व नहीं है। परन्तु पृथ्वी में भूतत्व भी है और मूर्तत्व भी है। ६. झाडू देने पर उड़नेवाली धूल। ७. आग के जलने का शब्द। पुं०=शंकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरक  : वि० [सं० संकर+कन्] १. मिलाने या मिश्रण करनेवाला। २. संकर रूप में लानेवाला।
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संकरखण  : पुं०=संघर्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकर घरनी  : स्त्री० [सं० संकर+गृहणी] शंकर की पत्नी, पार्वती।
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संकरण  : पुं० [सं०] १. संकर या मिश्रित करने की क्रिया या भाव। २. दो भिन्न भिन्न जातियों या वर्गों के प्राणियों, वनस्पतियों आदि का संयोग करा के किसी अच्छी या नई जाति का प्राणी या वनस्पति उत्पन्न करने की क्रिया, प्रणाली या भाव। (क्रास ब्रीडिंग)
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संकरता  : स्त्री० [सं० संकर+तल्+टाप्] १. संकर होने की अवस्था, धर्म या भाव। सांकर्य। २. दोगलापन।
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संकर-पद  : पुं० [सं०] भाषा में ऐसा समस्त पद जो विभिन्न स्रोतों या भाषाओं के शब्दों के योग से बना हो।
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संकर समास  : पुं० [सं०] व्याकरण में दो ऐसे सब्दों का समास जिनमें से एक शब्द किसी एक भाषा का और दूसरा किसी दूसरी भाषा का हो।
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सँकरा  : वि० [सं० संकीर्ण] [स्त्री० सँकरी] १. (रास्ता) जिसकी चौड़ाई कम हो। २. (वस्त्र) जो पहनने पर कस जाता हो या जो बहुत मुश्किल से पहना जाता हो। तंग। पुं० कठिनता, विपत्ति आदि की स्थिति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० श्रृंखला] सिक्कड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरा  : पुं०=शंकराभरण (राग)।
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सँकराना  : स० [हि० सँकरा+आना (प्रत्यय)] संकुचित करना। तंग करना। स० [हिं० साँकल] अन्दर बन्द करके बाहर से साँकल लगाना। अ० सँकरा या तंग होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरित  : भू० कृ० [सं० संकर+इतच्] किसी के साथ मिला या मिलाया हुआ।
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संकरिया  : पुं० [सं० संकर] एक प्रकार का हाथी।
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संकरी (रिन्)  : पुं० [सं० संकर+इनि] वह जो भिन्न वर्ण या जाति के पिता और माता से उत्पन्न हो। संकर। दोगला। स्त्री०=शंकरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संकरीकरण  : पुं० [सं० संकर+च्वि√ कृ (करना)+ल्युट-अन] १. दो या अधिक अलग अलग जातियों, जीवों पदार्थों आदि के योग से नया जीव या पदार्थ उत्पन्न करने की क्रिया। २. धर्म-शास्त्र में नौ प्रकार के पापों में से एक जो जातियों या प्राणियों में वर्ण-संकरता उत्पन्न करने से लगता है।
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संकर्षण  : पुं० [सं०] १. अपनी ओर खींचने की क्रिया या भाव। २. खेत में हल जोतना। ३. ग्यारह रुद्रों में से एक रुद्र। ४. श्रीकृष्ण के भाई बलदेव का एक नाम। ५. वैष्णवों का एक संप्रदाय जिसके प्रवर्तक निम्बार्क जी थे। ६. कानून में अधिकार, उत्तरदायित्व आदि के विचार से किसी वस्तु या व्यक्ति के स्थान पर दूसरी वस्तु या व्यक्ति का रखा या नाम चढ़ाया जाना (सबरोगेशन)।
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संकर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं०√ कृष् (खींचना)+णिनि अथवा संकर्ष+इनि] १.खींचने या खींचकर मिलानेवाला। २. छोटा करनेवाला।
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