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संचारी  : वि० [सं० सम्√ चर् (चलना)+णिनि-दीर्घ-नलोप][स्त्री० संचारिणी] १. संचरण या संचार करने वाला। २. आया हुआ। आगंतुक। पुं० १. साहित्य में वे तत्त्व, पदार्थ या भाव जो रस में संचार करते हुए उसके परिपाक में उपयोगी तथा सहायक होते हैं। इन्हीं को ‘व्यभिचारी भाव’ भी कहते हैं। (स्थायी भाव से भिन्न)। विशेष—यह माना गया है कि स्थायी भाव तो रस के परिपाक तक स्थिर रहते हैं परन्तु संचारी भाव अस्थिर होते और आवश्यकता तथा सुभीते के अनुसार सभी रसों में संचार करते रहते हैं। इसकी संख्या ३३ कही गई है,यथा-निर्वेद ग्लानि, शंका, असूया, श्रम, मद धृति, आलस्य, विषाद, मति, चिंता, मोह, स्वप्न, बिबोध, स्मृति, आमर्ष, गर्व, उत्सुकता, अवहित्थ, दीनता, हर्ष, व्रीड़ा, उग्रता, निद्रा, व्याधि, मरण, अपस्मार, आवेग, मस, उन्माद, जड़ता, चपलता और विर्तक। २. संगीत में किसी गीत के चार चरणों में से तीसरा। ३. वायु। हवा। ४. धूप नामक गंध द्रव्य।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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