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संदंश  : पुं० [सं० सं√ दंश् (पकड़ना)+अच्] १. संडसी नाम का एक औजार। २. सुश्रूत को अनुसार संडसी के आकार का प्राचीन काल का एक प्रकार का औजार जिसकी सहायता से शरीर में गड़ा हुआ काँटा आदि निकालते थे। कंकमुख। ३. न्याय या तर्क शास्त्र में अपने प्रति पक्षी को दोनो ओर से उसी प्रकार जकड़ या बाँध देना जिसप्रकार संडसी से कोई बरतन पकड़ते हैं।
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संदंशक  : पुं० [सं० संदंश+कन्] [स्त्री० अल्पा० संदंशिका] १. चिमटा। २. सँड़सी।
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संदंशिका  : स्त्री० [सं० सं√ दंश् (पकड़ना)+ण्वुल्—अक—टाप्—इत्व] १. सँड़सी। २. चिमटी। ३. कैंची।
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संद  : स्त्री० [सं० संधि] १. दरार। छेद। बिल। २. दबाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चंद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदन  : पुं०=स्यंदन (रथ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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संदर्प  : पुं० [सं० सं√दर्प् दप् (गर्व करना)+घञ] अहंकार। घमंड।
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संदर्भ  : पुं० [सं०] १. भिन्न-भिन्न तत्वों या वस्तुओं को मिलाकर कोई नया और उपयोगी रूप देना। जैसे—पिरोना, बुनना, सीना आदि। २. बनावट। रचना। ३. पुस्तक लेख आदि में वर्णित प्रसंग, विषय जिसका विचार या उल्लेख हो (कान्टेक्स्ट)। जैसे—यह पद्य ‘रामवनगमन’ संदर्भ का है। ४. किसी गूढ विषय पर लिखा हुआ कोई विवेचनात्मक ग्रन्थ। ५. किसी ग्रन्थ में लिखा हुआ वह पाठ जिसके आधार पर पूर्वापर के विचार से संगति बैठकर उसका अर्थ लगाया जाता है (कान्टेक्स्ट)। जैसे—संदर्भ से तो इसका यही ठीक अर्थ जान पड़ता है। ६. एक ग्रंथ में आयी हुई ऐसी बातें जिसका उपयोग लोग अपनी जानकारी बढ़ाने के लिये या संदेह दूर करने के लिए करते हैं। वि० दे० ‘संदर्भ ग्रन्थ’।
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संदर्भ ग्रंथ  : पुं० [सं०] ऐसा ग्रंथ जिसमें जानकारी या विमर्श के लिए कुछ विशिष्ट प्रसंगों की बातें देखी जाती हों। विशेष—ऐसा ग्रंथ आद्योपान्त पढ़ा नहीं जाता बल्कि किसी जिज्ञासा की पूर्ति या संदेह के निवारण के उद्देश्य से देखा जाता है। जैसे—कोश, विश्वकोश, साहित्य कोश आदि संदर्भ के ग्रंथ हैं।
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संदर्भ साहित्य  : पुं० [सं०] साहित्य का वह अंश या वर्ग जिसमें ऐसे बड़े और महत्वपूर्ण ग्रंथ आते हैं जिनमें एक अथवा अनेक विषयों की गूढ़ बातों की पूरी छानबीन और विवेचन होता है। विशेष—ऐसे साहित्य का उपयोग साधारण रूप से पढ़ी जाने वाली पुस्तकों की तरह नहीं बल्कि विशिष्ट अवसरों पर विशेष प्रकार की गंभीर जानकारी प्राप्त करने के लिए ही किया जाता है। जैसे—विश्व कोष, शब्द कोष, विभिन्न जातियों, देशों और साहित्यों के इतिहास आदि (रेफरेन्स बुक्स)।
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संदर्भिका  : स्त्री० [सं० संदर्भ] किसी विशिष्ट विषय से संबंध रखने वाले संदर्भ ग्रंथों की नामावली या सूची (बिब्लियोग्राफ़ी)।
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संदर्श  : पुं० [सं० सं√दृश (देखना)+अच्] दे० ‘परिदृष्टि’।
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संदर्शन  : पुं० [सं०] १. अच्छी तरह देखना या दिखाना। अवलोकन करना या कराना। २. जाँच। परीक्षा। ३. ज्ञान। ४. आकृति। शक्ल। सूरत। ५. दर्शन।
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संदल  : पुं० [सं० चन्दन से फा०] चन्दन।
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संदली  : वि० [फा० संदल] १. संदल अर्थात चन्दन के रंग का। हलका पीला (रंग)। २. चन्दन की लकड़ी का बना हुआ। ३. (खाद्य पदार्थ) जिसमें संदल का सत्त छोड़ा गया हो। फलताः जिसमें संदल की महक हो। पुं० १. हलका पीला रंग। २. वह हाथी जिसके बाहरी दाँत नहीं होते।
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संदष्ट  : भू० कृ० [सं०] जिसे अच्छी तरह डंक या दंश लगा हो या लगाया गया हो। २. कुचला या रौंदा हुआ हो। पुं० वीणा, सितार आदि की तुंबीकी घोड़ियों में तारों के बैठने के लिए बनाए हुए खाँचे या निशान।
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संदान  : पुं० [फा०] १. एक प्रकार की निहाई जिसका एक कीला नुकीला और दूसरा चौड़ा होता है। २. बाँधने की रस्सी या सिकड़ी। ३. बाँधने की क्रिया या भाव। ४. हाथी का गंडस्थल जहाँ से उसका मद बहता है।
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संदानिनी  : स्त्री० [सं० संदान+इनि—ङीप्] गौओं के रहने का स्थान। गोशाला।
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संदाह  : पुं० [सं० सं√ दह् (जलना)+घञ] वैद्यक के अनुसार मुख तालू और होठों में होने वाली जलन।
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संदि  : स्त्री०=संधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदिग्ध  : वि० [सं०] १. (कथन या वाक्य) जिसके संबंध में निर्विवाद रूप से कुछ भी कहा न जा सकता हो। २. (अर्थ, निर्वचन या व्याख्या) जिसके संबंध में किसी प्रकार का अनिश्चय हो। ३. (व्यक्ति) जिसके संबंध में अनुमान हो सके कि वह अपराधी या दोषी है (सस्पेक्टेड)। पुं० अस्पष्ट कथन। २. अनिश्चय। ३. एक प्रकार का व्यंग्य। ४. वह व्यक्ति जिसके अपराधी होने पर संदेह हो। ५. तर्क में एक प्रकार का मिथ्या उत्तर।
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संदिग्धत्व  : पुं० [सं० संदिग्ध+त्व] १. संदिग्ध होने की अवस्था, धर्म या भाव। संदिग्धता। २. साहित्य में एक प्रकार का दोष जो उस समय माना जाता है जब किसी अलंकारिक उक्ति का ठीक-ठीक अर्थ प्रकट नहीं होता या अर्थ के संबंध में कुछ संदेह बना रहता है।
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संदिग्धार्थ  : वि० [सं० संदिग्ध+त्व] १. संदिग्ध होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. साहित्य में एक प्रकार का दोष जो उस समय माना जाता है जब किसी अलंकारिक उक्ति का ठीक-ठीक अर्थ प्रकट नहीं होता या अर्थ के संबंध में कुछ संदेह बना रहता है।
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संदिग्धार्थ  : वि० [सं० कर्म० स०] जिसका अर्थ संदिग्ध या अस्पष्ट हो। पुं० विवादग्रस्त विषय।
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संदिष्ट  : वि० [सं० सं√ दिश् (कहना)+क्त] १. कहा हुआ। उक्त। कथित। २. संदेह के रूप में कहा या कहलाया हुआ। पुं० १. वार्ता। २. समाचार। ३. संदेशवाहक।
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संदी  : स्त्री० [सं० सं√दो (बँधना)+ड-ङीप्] शय्या। पलंग। खाट।
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संदीपक  : वि० [सं० सं√ दीप् (प्रदीप्त)+ण्वुल्-अक] संदीपन करने वाला। उद्दीपक।
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संदीपन  : पुं० [सं० सं√दीप् (प्रदीप्त करना)+ल्युट्-अन] १. उदीप्त अर्थात तीव्र या प्रबल करने की इच्छा या भाव। उद्दीपन। २. श्रीकृष्ण के गुरु का नाम। ३. कामदेव के पाँच बाणों में से एक। वि० उदीप्त करने वाला।
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संदीपनी  : स्त्री० [सं० संदीपन—ङीप्] संगीत में पंचम स्वर की चार श्रतियों में से तीसरी श्रुति। वि० संदीपन या उद्दीपन करनेवाली।
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संदीपित  : भू० कृ०=संदीप्त।
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संदीप्त  : भू० कृ० [सं०] [भाव० संदीप्त] १. जिसका भली-भाँति संदीपन या उद्दीपन हुआ हो। २. जलता हुआ। प्रज्वलित। ३. खूब चमकता हुआ प्रकाशमान्।
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संदीप्य  : पुं० [सं० सं√दीप् (प्रदीप्त करना)+श—यक्] मयूर शिखा नामक वृक्ष। वि० जिसका संदीपन हो सके या होने को हो। संदीपनीय।
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संदुष्ट  : भू० कृ० [सं० सं√दुष् (खराब करना)+क्त] १. दूषित या कलुषित किया हुआ। खराब किया हुआ। २. दुष्ट। ३. कमीना।
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संदूक  : पुं० [अ० संदूक] [अल्पा संदूकचा] लकड़ी, लोहे, चमड़े आदि का बना हुआ एक प्रकार का चौकोर आधान या पिटारा जिसमें प्रायः कपड़े गहने आदि चीजें रखते हैं। पेटी। बकस।
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संदूकचा  : पुं० [अ० संदूक+चः (प्रत्य०] [स्त्री० अल्पा० संदूकची] छोटा संदूक। छोटा बकस। छोटी पेटी।
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संदूकची  : स्त्री०=संदूकंचा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदूकड़ी  : स्त्री० [अ० संदूक+हिं० ड़ी (प्रत्य)] छोटा संदूक। छोटा बकस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदूकी  : वि० [अ०] १. संदूक की शक्ल का। २. जो चारों ओर से संदूक की तरह बंद हो।
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संदूर  : पुं०=सिंदूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदूषण  : पुं० [सं० सं√दूष् (दूषण करना)+ल्यूट्-अन्] [भू० कृ० संदूषित, संदुष्ट] १. कलुषित करना। २. गंदा या खराब करना।
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संदेश  : पुं० [सं०] १. खबर। समाचार। २. वह कथन या बात जो लिखित या मौखिक रूप से एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति भेजी गई हो। संदेशा। ३. अलौकिक, ईश्वरी या दैवी प्ररणा दायक विचार। ४. आजकल किसी बहुत बड़े आदमी वह कथन जिसमें उसके मतों या विचारों का मुख्य सारांश होता है और प्रायः जिसमें किसी विशिष्ट प्रकार का आचार व्यवहार करने का उल्लेख होता है (मेसेज, अंतिम दोनों अर्थों के लिए)। ५. आज्ञा। आदेश।
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संदेश-काव्य  : पुं० [सं०] ऐसा काव्य जिसमें बिरही की विरह-वेदना किसी के द्वारा संदेश के रूप में अपने प्रिय के पास भेजने का वर्णन होता है। विशेष—ऐसे काव्यों की परम्परा कालीदास के सुप्रसिद्ध काव्य मेघदूत से चली थी। उसके अनुकरण पर पवन-दूत, हंस-दूत आदि अनेक काव्यों की रचना हुई थी।
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संदेश-हर  : पुं० [सं०] संदेश या समाचार ले जाने वाला दूत। वार्तावह।
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संदेशा  : पुं०=संदेश।
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संदेशी  : पुं० [सं० सं√दिश (कहना)+णिनि, संदेशिन] संदेश लाने या ले जाने वाला। संदेशवाहक।
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संदेस  : पुं०=संदेश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदेसी  : पुं० [हिं० संदेसा+ई (प्रत्य०)] वह जो संदेश ले जाता हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संदेह  : पुं० [सं०] १. किसी चीज या बात के संबंध में उत्पन्न होने वाला यह भाव या विचार कि कहीं यह अनुचित, त्याज्य या दूषित तो नहीं हैं अथवा क्या इसकी वास्तविकता या सत्यता मानने योग्य है। शक (सस्पिशन)। विशेष—मन में इस प्रकार का भाव प्रायः यथेष्ट प्रमाण के आभाव में ही उत्पन्न होता है, और ऊपर से दिखाई देने वाले तत्व या रूप पर सहसा विश्वास नहीं होता। दे० ‘शंका’ और ‘संशय’। क्रि० प्र०—करना।—डालना।—मिटना।—मिटाना।—होना। २. उक्त के आधार पर साहित्य में, एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी चीज या बात को देखकर उसकी यथार्थता या वास्तविकता के संबंध में मन में संदेह बने रहने का उल्लेख होता। इस प्रकार का कथन कि जो कुछ सामने है, वह अमूक है अथवा कुछ और ही है। यथा (क) कैंधौं फूली दुपहरी, कैधौं फूली साँझ।—मतिराम। (ख) निद्रा के उस अलसित में वह क्या भावों की छाया। दृग पलकों में विचर रही या वन्य देवियों की माया।—पंत।
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संदेहवाद  : पुं० [सं०] दार्शनिक क्षेत्र में यह मत या सिद्धान्त की वास्तविक या सत्य का कभी ठीक और पूरा ज्ञान नहीं होने पाता, इसीलिए हर बात के संबंध में मन में संदेह का भाव बना ही रहना चाहिए। विशेष—जिसमें जिज्ञासा की तृ्ति के लिए संदेह का स्थायी रूप में बना रहना आवश्यक माना जाता है।
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संदेहवादी  : वि० [सं०] संदेह वाद संबंधी। पुं० वह जो संदेहवाद का अनुयायी और समर्थक हो।
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संदेहात्मक  : वि० [सं०] संदिग्ध (दे०)।
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संदेहास्पद  : वि० [सं०] संदिग्ध (दे०)।
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संदोल  : पुं० [सं० सं√दुल् (झूलना)+घञ] कान में पहनने का कर्ण फूल नाम का गहना।
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संदोह  : पुं० [सं० सं√दूह् (पूरा करना)+घञ्] १. दूध दोहना। २. किसी वस्तु का समूचा मान या रूप। ३. ढेर। राशि। ४. समूह। झुंड।
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संद्रव  : पुं० [सं० सं√द्रु (गूंथना)+अच्] गूँथने की क्रिया। गुंथन।
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संद्राव  : पुं० [सं० सं√द्रु (भागना)+घञ्] युद्ध क्षेत्र में पराजित होने पर अथवा पराजय के भय से भागना। पलायन।
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