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सवौंपरि सत्ता  : स्त्री० [सं०] सबसे बड़ा या प्रधान सत्ता। (पैरामाउन्ट पावर)।
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सवौंध  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. सर्वोपूर्ण सेना। २. एक प्रकार का शहद।
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सवौंषधि  : वि० [सं० ब० स० कर्म० स० वा] जिसमें सब तरह की औषधियाँ हों।
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सवौंषध  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] आयुर्वेद में औषधियों का एक वर्ग जिसके अन्तर्गत दस जड़ी-बूटियाँ है और जिनका उपयोग कर्मकांडी पूजनों आदि में भी होता है।
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सव  : पुं० [सं०√स् (उत्पन्न होना)+अव] १. जल। पानी। २. फूलों का रस। ३. यज्ञ। ४. सूर्य। ५. चन्द्रमा। ६. औलाद। संतान। वि० अज्ञ। ना-समझ। पुं०=शव (लाश)। मुहावरा—सबसाजना=चिता के ऊपर शव रखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सवत (ति)  : स्त्री०=सौत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सवतिया  : वि०=सौतिया।
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सवन  : पुं० [सं०] १. बच्चा जनना। प्रसव। २. यज्ञ। ३. यज्ञ के स्नान समय का सोम-पान। ४. यज्ञ के उपरांत होनेवाला स्नान। अवभृत स्नान। ५. चन्द्रमा। ६. अग्नि। ७. स्वायंभुव मनु के एक पुत्र। ८. रोहित मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ऋषि का नाम। पुं० [?] बतख की जाति का एक प्रकार का जल-पक्षी। कलहंस। काज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सवनिक  : वि० [सं०] सवन-संबंधी। सवन का।
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सवय  : वि० [सं०] [स्त्री० सवया] १. जिसका वय किसी के वय के समान हो। २. समान वय वाले। समवयस्क। पुं० सखा।
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सवयस्क  : वि० पुं०=सवय।
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सवर  : पुं० [सं० सव√रा (लेना)+क] १. जल। पानी। २. शिव का एक नाम।
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सवर्ण  : वि० [सं० ब० स०] १. (वे) जो वर्ण या रूप-रंग के विचार से एक ही प्रकार के हों। सदृश। समान। २. (वे) जो एक ही जाति या वर्ग के हों। ३. (शब्द जिनका उच्चारण तो भिन्न हो परन्तु) वर्ण या अक्षर एक से हों। जैसा—फा० कौल और सं० कौल सवर्ण शब्द हैं।
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सवर्ण-विवाह  : पुं० [सं०] १. हिंन्दुओं में वह विवाह जिसमें कन्या और वर दोनों एक ही वर्ण या जाति के हों। २. साधारणतः अपनी जाति, धर्म, वर्ग या समाज में किया जानेवाला विवाह। अंतर्जातीय विवाह से भिन्न। (एन्डोगैमी)।
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सवर्णा  : स्त्री० [सं०] सूर्य की पत्नी छाया का नाम।
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सवाँग  : पुं० [हि० स्वाँग] १. कृत्रिम वेष। भेस। स्वाँग। (देखें) २. व्यक्तियों के लिए संख्या सूचक शब्द। (पूरब) जैसा—चार सवांग तो घर के ही हो जायँगे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सवाँगना  : अ० [हि० स्वाँग] १. नकली भेष बनाना। २. किसी का रूप धारण करना। रूप भरना।
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सवा  : वि० [सं० स+पाद] पूरा और एक चौथाई। संपूर्ण और एक अंग का चतुर्थाश जो अंकों में इस प्रकार लिखा जाता है।—४-१/४।
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सवाई  : स्त्री० [हि० सवा+ई (प्रत्यय)] ऋण का वह प्रकार जिसमें मूलधन का चतुर्थाश ब्याज के रूप में देना पड़ता है। वि०=सवाया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] मध्ययुग में जयपुर (राजस्थान) के महाराजाओं की उपाधि। जैसा—सवाई मानसिह। स्त्री० [?] मूत्रेद्रिय का एक प्रकार का रोग।
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सवाद  : पुं०=स्वाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सवादिक  : वि०=स्वादिष्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सवाब  : पुं० [अ०] १. शुभ कृत्य का फल जो स्वर्ग में पहुँचने पर मिलता है। पुण्य। २. नेकी। भलाई। ३. सत्कर्मों का पर-लोक में मिलनेवाला शुभ फल।
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सवाया  : वि० [हि० सवा] [स्त्री० सवाई] १. पूरे से एक चौथाई से अधिक। सवा गुना। २. किसी की तुलना में कुछ अधिक या बढ़ा हुआ। उदाहरण—निज से भी पर-दुःख देखकर स्वंय सवाया।—मैथिलीशरण। ३. पहले जितना रहा हो, उससे भी कुछ और अधिक। उदाहरण—राणा राख छत्र कौं प्यापै करि करि प्रीति सवाई।—कबीर।
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सवार  : पुं० [फा] १. वह जो किसी सवारी या यान पर आरूढ़ हो। जैसा—पांचवाँ सवार। २. वह जो सवारी करने में कुशल हो। जैसा—घुड़सवार। ३. वह जो किसी दूसरे के ऊपर चढ़ा या बैठा हो और उसे किसी रूप में दबाये हुए हो। मुहावरा—(किसी पर या किसी के सिर पर) सवार होना=किसी को पूर्ण रूप से अभिभूत करके। (ख) उसे अपने वश में रखना अथवा (ख) उसे अपने विचारों के अनुसार चलाना।
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सवारी  : स्त्री० [फा०] १. सवार होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. कोई ऐसा साधन जिस पर सवार होकर लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हों। यान। जैसा—गाड़ी, घोड़ा, नाव, मोटर, रेल, हवाई, जहाज आदि। ३. वह जो उक्त पर चढ़कर कही जाता हो। उक्त पर सवार होनेवाला व्यक्ति। ४. कोई ऐसा जुलूस जिसमें कोई बहुत बड़ा व्यक्ति कोई धर्मग्रन्थ या देवता की मूर्ति किसी यान पर कहीं ले जाई जाती हो। जैसा—राष्ट्रपति की सवारी, रामजी या वेद भगवान् की सवारी। क्रि० प्र०—निकलना।—निकालना। ५. कुश्ती में एक प्रकार का पेंच जिसमें विपक्षी को जमीन पर गिराकर उसकी पीठ पर बैठकर उसे चित करने का प्रयत्न करते हैं। क्रि० प्र०—कसना। ६. संभोग या प्रसंग के लिए स्त्री पर चढ़ने की क्रिया (बाजारू)। क्रि० प्र०—कसना।—गाँठना।
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सवारे  : अव्य० [सं० स+बेला] १. प्रातःकाल। सबेरे। २. समय से कुछ पहले। जल्दी। ३. आनेवाले दूसरे दिन। कल के दिन।
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सवारै  : अव्य०=सवारे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सवाल  : पुं० [अ] [बहु० सवालात] १. पूछने की क्रिया या भाव। २. वह बात जो पूछी जाय। प्रश्न। पद—सवाल-जवाब। ३. गणित में कोई ऐसी समस्या जिसका उत्तर निकालना या निराकरण करना हो। प्रश्न (क्वेश्चन उक्त सभी अर्थो में) ४. कुच पाने या माँगने के लिए की जानेवाली प्रार्थना। जैसा—भिखारिन ने रूखे सिख के सामने दाँत निकालकर सवाल किया।—उग्र। ५. वह प्रार्थना पत्र जो न्यायालय में किसी पर कोई अभियोग चलाने के लिए न्यायाधीश के सामने उपस्थित किया जाता है। मुहावरा—(किसी पर) सवाल देना= (क) नालिश करना। (ख) फरियाद करना। ६. प्रार्थना। विनती।
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सवाल-जवाब  : पुं० [अ०] १. प्रश्न और उसका उत्तर। २. तर्क-वितर्क। वाद-विवाद। बहस। जैसा—बड़ों से सवाल-जबाव करना ठीक नहीं। ३. झगड़ा। तकरार। हुज्जत।
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सवालिया  : वि० [अ० सवालियः] १. सवाल के रूप में होनेवाला। २. व्याकरण में वाक्य जो पाठक या श्रोता से उत्तर की अपेक्षा रखता हो। प्रश्नात्मक।
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सवाली  : वि० [हि० सवाल]=सवालिया। पुं० वह जिसने कोई सवाल अर्थात् प्रार्थना या याचना की हो।
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सविकल्प  : वि० [सं०] जिसमें किसी प्रकार का विकल्प हो। २. जिसके विषय में कोई सन्देह हो। संदिग्ध। ३. जो स्वयं कुछ निश्चय न कर सकने के कारम किसी प्रश्न के दोनों पक्षों को थोड़ा बहुत ठीक समझता हो। ४. समाधि का एक प्रकार। ५. वेदांत में ज्ञाता और ज्ञेय के भेद का ज्ञान। स-विचार
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सवितर्क  : पुं० [सं० ब० स०] चार प्रकार की सविकल्प समाधियों में से एक प्रकार की समाधि। क्रि० वि० तर्क-वितर्कपूर्वक।
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सविता  : पुं० [सं०√सृ (प्राण प्रदान करना)+तृच्] १. सूर्य। दिवाकर। २. बारह आदित्यों के आधार पर १२ की संख्या का वाचक शब्द। ३. आक। मदार। ४. कुछ लाली लिए हुए सफेद रंग की एकवायु जो प्रायः निकल और लोहे के साथ पाई जाती है। (कोबाल्ट)।
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सविता-तनव  : पुं० [सं० सवित्+तनय, ष० त०] सूर्य के पुत्र हिरण्यपाणि।
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सविता-दैवत  : पुं० [सं० सवित् दैवत, ब० स०] हस्त नक्षत्र जिसके अधिष्ठाता देवता सूर्य्य माने जाते हैं।
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सविता-पुत्र  : पुं० [सं० सवितृपुत्र, ष० त०] सूर्य्य के पुत्र हिरण्यपाणि।
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सवितासुत  : पुं० [सं० सवितृपुत्र, ष० त०] सूर्य के पुत्र, शनैश्चर।
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सवित्र  : पुं० [सं० सू (प्रसव करना)+इत्र] प्रसव करना। लड़का जनना।
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सवित्रिय  : वि० [सं० सवित्+घ-ईय] सविता संबंधी। सविता या सूर्य का।
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सवित्री  : स्त्री० [सं० सवित्र-ङीष्] १. प्रसव करानेवाली धाई। धात्री। दाई। २. माता। माँ। ३. गाय। गौ।
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सविद्य  : वि० [सं० अव्य० स०] विद्वान। पंडित।
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सविनय  : वि० [सं०] १. विनय से पूर्ण। २. विनम्र। ३. शिष्टता। पूर्ण या शिष्ट। अव्य० विनय या नम्रतापूर्वक।
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सविनय अवज्ञा  : स्त्री० [सं०] नम्रता या भद्रतापूर्वक राज्य या प्रधान अधिकारी की किसी ऐसी व्यवस्था या आज्ञा को न मानना जो अन्याय-मूलक प्रतीत हो और ऐसी अवस्था में राज्य या अधिकारी की ओर से होने वाले पीड़न तथा कारादंड आदि को धीरतापूर्वक सहन करना। (सिविल डिस्ओबीडिएंस)।
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सविभास  : पुं० [सं० त० स०] सूर्य का एक नाम।
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सविभ्रम  : वि० [सं० अव्य० स०] विभ्रम अर्थात् क्रीड़ा, प्रणय, चेष्टा विलास आदि से युक्त। क्रि० वि० विभ्रमपूर्वक।
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सविभ्रमा  : स्त्री०=विचित्र (नायिका)।
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सविशेष  : वि० [सं० तृ० त०] किसी विशेष गुण, बात या विशिष्टता से युक्त। निविशेष का विपर्याय। जैसा—ब्रह्मा का सविशेष रूप।
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सविस्तार  : अव्य० [सं०] विस्तारपूर्वक।
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सवेरा  : पुं० [हि० स०+सं० वेला] १. प्रातःकाल। सुबह। २. निश्चित समय के पूर्व का समय। (क्व०)।
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सवेरे  : अव्य० [हि० सवेरा] १. प्रातःकाल के समय। २. नियत या साधारण समय से कुछ पहले। जैसा—न सोना सवेरे न उठना सवेरे।—गालिब।
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सवैया  : पुं० [हि० सवा+ऐया (प्रत्य०)] १. तौलने का वह बाट जो सवा सेर का हो। २. वह पहाड़ा जिसमें एक दो तीन आदि संख्याओं का सवाया मान बतलाया जाता है। ३. हिन्दी छन्द शास्त्र में वर्णिक वृत्तों के चरणवाले प्रायः सभी जाति-छंद आ जाते है। इन छन्दों में लय की प्रधानता होती है, अतः इन्हें पढ़ते समय कुछ स्थलों पर गुरु मात्राओं का ह्रस्व मात्राओं के समान उच्चारण करना पड़ता है। इसके १ ४ भेद कहे गये हैं, दुर्मिल, मदिरा मानिनी सुन्दरी आदि।
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सव्य  : वि० [सं०] १. वाम। बायाँ। २. दक्षिण। दाहिना। ३. प्रतिकूल। विपरीत। पुं० १. यज्ञोपवीत। जनेऊ। २. विष्णु। ३. अंगिरा के पुत्र एक ऋषि जो ऋग्वेद के कई मंत्रों के द्रष्टा थे। ४. चन्द्र या सूर्य ग्रहण के दस प्रकार के ग्रासों में से एक प्रकार का ग्रास।
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सव्यचारी (रिन्)  : पुं० [सं०] १. अर्जुन का एक नाम। २. अर्जुन वृक्ष। ३. दे० ‘सव्यचारी’।
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सव्यभिचार  : पुं० [सं०] भारतीय न्यायशास्त्र में ५ प्रकार के हेत्वाभासों में से एक।
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सव्यसाची (चिन्)  : पुं० [सं०] अर्जुन (पांडव)। वि०जो दाहिने और बायें दोनों हाथों से सब काम समान रूप से कर सकता हो।
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